दर्शन मोह कर्म और जीव

How?

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महोदय!

अकामनिर्जरा कोई कर्म नहीं, एक विशिष्ट अवस्था है; जिसमें कर्मों को स्वतः उदय में लाए बिना ही अन्य कर्म प्रकृतियों के रूप में उदय में लाकर निर्जीर्ण किया जाता है। इस अवस्था में कर्म स्व-स्वरूप में उदय में नहीं आते हैं, अतः अकामनिर्जरा यह संज्ञा दी गई है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कर्म का उदय होने पर जीव तद्रूप परिणमित नहीं होगा, किन्तु यह है कि उदय में आने से पूर्व ही वह अन्य रूप परिणमित होगा।

अतः जैसा कि आपने पहले ही कहा है कि कर्म के मन्द उदय में जीव पुरुषार्थ करे तो तत्कर्म के अभाव में अग्रसर हो सकता है। इसका भी आशय यही है कि मन्द उदय में भी तत्समय तो जीव उस परिणाम से परिणमित होगा ही, किन्तु उसही समय वह पुरुषार्थ करे तो आगामी कर्म के क्षय का कारण बन सकता है; इसलिए छःढाला में ऐसा लिखा है कि कर्मोदय होने पर भी जीव स्वयं पुरुषार्थ कर सकता है। (कृपया कर्मों में 10 करण की अवस्था सम्बन्धी विषय अवश्य पढ़ें)

विस्तृत उत्तर हेतु क्षमा!

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I guess, सम्यक प्रकृति के उदय में क्षयोपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता हैं & सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में तीसरा गुणस्थान।

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कर्म और जीव के परिणाम में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है ऐसा प्रमाण है। देखा जाए, तो कर्म का उदय जीव के तत्समय के परिणाम का सूचक है। तो अगर जीव के मिथ्यात्व सम्बन्धी परिणाम है, तो नियम से उस समय दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होगा ही. जितना तीव्र मिथ्यात्व, उतना तीव्र द.मो. कर्म का उदय।

ऐसा नहीं हो सकता (अगर केवल सम्यग्प्रक्रति को गौण कर दें तो). क्यूंकि यह कर्म का उदय तो वास्तव में जीव के परिणामों का ही सूचक है। अगर उस समय जीव के मिथ्यात्व परिणाम मंद है तो नियम से द.मो. कर्म का उदय भी तदानुसार तीव्र/मंद होगा।

अगर उपरोक्त कथन में कहीं त्रुटि हो तो कृपया समाधान करें।

आपका कथन एवं प्रस्तुतिकरण उदय की अपेक्षा से अत्यन्त सटीक है।

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