सम्यक्त्व के तीनों भेदों की उत्पत्ति किन-किन गुणस्थानों में होती है?
प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पति-
4 से 7गुणस्थान में
द्वितीयउपशम - 4 थे से 7 वे में (सर्वार्थ सिद्धि की अपेक्षा से)
7 वे में उत्पति ( अन्य आचार्य की अपेक्षा से)
उपशम समत्व की उत्पत्ति चार से 7 गुणस्थान में
क्षयोप्शमिक की उतपती - 4 से 7
क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति - 4 से 7
Credit = pt.sachinji manglayatan
Thank you.
सम्यक्त्व उत्पत्ति में प्रस्थापक और निष्ठापक के भेद से गुणस्थानों में भी अन्तर आएगा क्या?
क्या 6वे गुणस्थान में सम्यक्त्व या क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है?
यदि हाँ, तो 6वे गुणस्थान के शुभोपयोग दशा में 3 करण पूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व कैसे हो सकता है?
और विशेष अध्ययन हेतु आगम भी बताएँ।
6 वे गुणस्थान में क्षायिक सम्यकदर्शन हो सकता है।
तीन करण के परिणाम शुभोपयोग में हो सकते है।
सम्यक्त्व के पूर्व करणलब्धि भी शुभ ही उपयोग है।
-pt.sachinji manglayatan
प्रवचनसार 80 गाथा की टीका में करण-लब्धि को सविकल्प स्वसंवेदन कहा है - सविकल्प की दृष्टि से शुभोपयोग कह सकते हैं, किन्तु स्वसंवेदन की दृष्टि से तो शुद्धोपयोग मानना उचित रहेगा!
साथ ही यदि हम 1 गुणस्थान में होने वाले करण परिणामों को शुभोपयोग कह रहे हैं, तो वहाँ अशुभोपयोग भी तो है, उस पर भी आरोपण किया जा सकेगा।
करण परिणामों को शुद्ध-आत्म-स्वरूप का साधकपना होने से, शुद्ध-ध्येयपना होने से और शुद्ध-अवलम्बन होने से कथंचित् शुद्धोपयोग भी घटित होता है।
कृपया बताएँ कि वृहद द्रव्यसंग्रह 34 गाथा की टीका में अशुद्ध-निश्चय से मिथ्यादृष्टि आदि में शुद्धोपयोग को घटित कैसे करेंगे?
ये बात अत्यन्त संगीन है, कृपया बिना स्पष्ट आगमोल्लेख के ऐसी धारणाएँ न बनाएँ।
@sayyam ji aapki saari shanka ka samdhan ho jaye ga .
Aap ye article padhiye.
https://drive.google.com/file/d/1APZe6xUBOZtdEr9gFzdr4hSY5ApVmLNI/view?usp=drivesdk
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धन्यवाद!
ये लेख पहले ही पढ़ चुके हैं और उसको भी ध्यान में रख कर उपर्युक्त प्रश्न हैं, जो अनुत्तरित ही हैं।
और इस लेख के सम्बन्ध में श्री प्रकाशजी छाबड़ा से चर्चा भी कर चुके हैं।
तीन करण के परिणाम शुद्धोपयोग एवं शुद्धोपयोग-भावना में ही होते हैं। (ऐसा कहना अधिक उचित है।)
और यहाँ भी शुद्धोपयोग-भावना कहना उचित है। (अन्यथा संसार और मोक्षमार्ग का भेद नष्ट हो जाएगा)
उपयोग कोई द्रव्य तो है नहीं, वह तो द्रव्य की वर्तमान अवस्था का द्योतक है। अतः शुद्धोपयोग स्वयं में तो समर्थ है नहीं किन्तु उसका लक्ष्य शुद्ध होने से उसे शुद्धोपयोग कहा है। अतः उसकी भावना में भी वही बल है। और विचारिएगा!
भाईश्री! ये दर्शन किसी की बपौती तो है नहीं, इसलिए निर्णयों में जल्दबाज़ी का काम नहीं है। चिन्तनशील बने रहने का है।
शुभा शुभ उपयोग पर के निमित से होते है।शुधोपयोग स्वआश्रित होता है।
क्षयिकसम्यकदर्शन करने के लिए केवली श्रुतकेवली का पादमूल आवश्यक है।इस अपेक्षा हम उपयोग की तरफ से कथन करे तो शुभोपयोग पूर्वक शुद्धोपयोग कह सकते है?
4 थे में और 6 वे में करण के समय परिणाम समान होंगे?
जब जीव श्रेणी मांडता तब शुद्धोपयोग की शुरुआत होती है और पूर्णता 11,12 गुणस्थान में होती है।
उसके पहले शुद्धोपयोग का कथन अपेक्षा वाला है।क्योंकि कषाय का उदय 10 वे तक पाया जाता है।कषाय का उदय होते हुए शुद्धोपयोग कहना वह अपेक्षा वाला कथन है???
क्या ये सही है?
ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि करण लब्धि पूर्वक सम्यग्दर्शन होता है जिसमें कोई पराश्रित कार्य नहीं होते।
आपका कहना उचित है, किन्तु दर्शनमोह के उपशम-क्षय-क्षयोपशम हेतु हो रहे करण के परिणामों में समानता है, किन्तु चारित्र मोहनीय सम्बन्धी अवस्था के अन्तर से उपयोग में अन्तर भी है।
जैनदर्शन सदा अपेक्षा से ही अपनी बात रखता है। (स्यात्पदांके, स्यात्पदमुद्रित) तो यह कर्म सिद्धान्त का विषय इससे अछूता नहीं है।
एक बार विचार कीजिए कि शुद्धोपयोग को शुद्धोपयोग कहते ही क्यों हैं, जब उसके साथ चारित्र-मोहनीय का उदय रहता है?
उत्तर - उसका लक्ष्य शुद्ध होने से।
इसका अर्थ ये है कि जीव की बाह्य कार्मिक अवस्था कुछ भी हो वह अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होता। अन्यथा पृथक्त्व वितर्क वीचार का श्रेणी में क्या काम?
आपका अपेक्षा वाला कहने से मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप कहना चाह रहे हैं कि शुद्धोपयोग होता तो है नहीं बस कहा जाता है।
साथ ही हम मोक्षमार्ग दर्शन मोहनीय के उपशम-क्षय-क्षयोपशम से मानते हैं या चारित्र मोह के? यदि दर्शन मोह के, तो विचारना!
क्षयिकसम्यकदर्शन के लिए केवली श्रुतकेवली की आवश्यकता है यह किस अपेक्षा से कथन है?क्या इनके निमित से क्षयिकसम्यकदर्शन करने वाले जीव के परिणामो में कुछ फर्क पड़ेगा ?
यदि हम दर्शन मोह की अपेक्षा से कथन करे तो क्षायिक सम्यकदृष्टि युद्ध में,स्त्रिभोग करते समय सिद्ध भगवान के समान शुद्धोपयोग मे होगा।
बहुत फर्क पड़ेगा, लेकिन आखिर निमित्त तो निमित्त ही होता है ना।
सर्! यहाँ आत्मानुभव के काल की बात हो रही है।
वैसे, सभी सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं को सिद्ध समान शुद्ध अनुभव करते हैं द्रव्य दृष्टि से।
आप और विचारना!
निमित्त से शुभोपयोग होगा या शुद्धोपयोग?
निमित्त से कुछ भी नहीं होगा, होगा तो उसजीव के परिणामों से यदि सविकल्प है तो शुभोपयोग और निर्विकल्प तो शुद्धोपयोग।
यदि तीर्थंकर के पादमूल से कुछ होना हो तो सभी सम्यग्दृष्टि न हो जाएंगे, किन्तु होता तो ऐसा नहीं है।
इसी लिए तो निमित्त कहते है।
इस विषय के बारे में हमे आगम आधार ढूंढने की आवश्यकता है।