नय सापेक्ष ही होते है?

आलाप पद्धति में आता है कि निरपेक्ष नय मिथ्या होते है। क्या यह सिद्धांत सभी नयों पर घटित होता है या मात्र आगम के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के संबंध में?
क्या निश्चय और व्यवहार नय में यह बात घटित होती है? यह बात तो पढ़ने में मिल ही जाती है कि निश्चय के बिना व्यवहार नहीं होता है परंतु क्या उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय भी घटित होता है?

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प्रमाण द्वारा वस्तु को पूर्णतयः जाना जाता है. प्रमाण को सम्यग ज्ञान भी कह सकते है. जब प्रमाण (ज्ञान) में भेद किया जाता है तो नय आ जाता है। ऐसा भी कह सकते है की ज्ञान के अंश को नय कहते है। अंश शब्द पर ध्यान दीजिये। तो जब नय ज्ञान का भेद है तो उसमे पक्ष आएगा ही। अगर पक्ष नहीं डालेंगे तो वह ज्ञान का अंश को पूर्ण ज्ञान ले लेंगे जिसमे दोष आएगा। इसलिए नय हमेशा सापेक्ष होता है।

निश्चय व्यवहार साथ साथ होता है। उसके इस नज़रिये से नहीं देखना चाहिए की निश्चय के बिना व्यवहार या व्यवहार के बिना निश्चय होता है या नहीं होता। निश्चय और व्यवहार साथ साथ चलता है. जीव के सम्यग्दर्शन के साथ ही निश्चय (अंतरंग अवस्था) और व्यवहार (बहिरंग अवस्था) शुरू हो जाती है। मिथ्यादृष्टि के ना निश्चय होता है न व्यवहार।

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सभी में।
क्योंकि कथन यह है/-
निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत्

जी, इसे ऐसे भी कह सकतें हैं कि जहाँ 28 मूलगुणों का सद्भाव नही होगा, वहाँ नियम से सच्चा मुनिपना/ शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म/ भावलिंग भी नही होगा।
बाकी विषय बहुत अच्छा है, विशेष जानकारी अवश्य दें।

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निरपेक्ष नय और सम्यगैकान्त में यदि अंतर समझे तो विषय और स्पष्ट हो सकता है।