जैसे भव्य जीव को सम्यकत्व से पहले ही प्रतीत हो जाता है कि मैं निश्चित ही मुक्त होने वाला हूँ, वैसे अभव्य को कभी प्रतीति होती है कि कभी मेरा मोक्ष नही होने वाला ?
Most probably the idea of moksha does not even cross the mind of abhavya jeev.
फिर अभव्य जीव नौवें ग्रेवयक तक कैसे जाते है?
I believe it’s mostly due to the fruits of penance done with a good sahanan and Shukla leshya. They might know what is moksha per se but they don’t understand it’s vaastavik marm because if they did then they would become samyakdrishti. They also know about aatma but don’t actually realize it in themselves.
इस कहाँ पर लिखा है??
क्योंकि भव्य जीव एक इंद्रिय से चार इंद्रीय होगा तो कैसे पता चलेगा?
अगर पंचेन्द्रिय भी होगा और उसको पता ही नही होगा कि आत्मसनमुंख होकर उसका कल्याण हो सकता है तो कैसे प्रतीत होगा।इसमे हम चारो गति के जीव ले सकते है।
प्रश्न में सम्यकत्व से पहले लिखा है
इसका अर्थ है
जिसको समकित होने वाला है उसे समकित से पूर्व ऐसा प्रतीत होता ही है
इसमे चारो गति के जीव की बात नही है
सिर्फ वैसा भव्य जीव जो समकित प्राप्त करने वाला है
ऐसा कहाँ पर लिखा है ?
गुरुदेव श्री के प्रवचन में कई बार ये बात आई है
मैं ही परमात्मा हु, मैं मुक्त स्वरूप हुन, मैं निश्चित ही मोक्ष जाने वाला हूँ
ऐसी प्रतीति जीव को आती है
इस प्रतीति के जोर से निर्विकल्प स्वसंवेदन रूप परिणमन हो जाता है
(कही पढ़ा भी है, रेफेरेंस ढूँढनेका प्रयत्न करूँगा)
How will अभव्य determine their state of अभव्यता?
I think such statements are more lean towards motivation. अध्यात्म के जोर में ऐसे कथन किये जाते हैं। नववें ग्रेवयक जाने वाले जीव के परिणाम अति मंद तथा अध्यात्ममय हो सकते हैं। अभव्य चार लब्धि भी प्राप्त कर सकता हैं तथा ऐसा उपदेश भी दे सकता हैं की अन्य सम्यक्त्वी हो जाये।
This is the question, जैसे भव्य को भव्य होने का पता चलता है वैसे अभव्य को पता चलता है कि अभव्य है, कभी मुक्त नही होगा ?
मात्र केवली को भव्यता / अभव्यता तथा सम्यक्ती को भव्यता का ज्ञान हो सकता हैं। Its little tricky in अभव्य situation. Not sure what’s the right answer.
सम्यक्त्वी को समकित से पहले भवी हु ऐसा निर्णय होता है
मुक्त होने वाला हु इस के जोर से पुरुषार्थ होता है
अभव्य के लिए उसकी अभव्यता की बात केवलीगम्य तो है ही पर उसको ऐसा पता चल सकता है कि नही ये Tricky है, इसी लिए प्रश्न उतपन्न हुआ…
सम्यक्त्व के पूर्व चतुर्थ लब्धि होती हैं जो अभव्य भी प्राप्त कर सकता हैं। अतः पूर्व परिणामों की अपेक्षा भव्य तथा अभव्य के परिणाम समान हो सकते हैं। सत्यार्थ तत्वों का स्थूल निर्णय अभव्य को होने में बाधा नज़र नहीं आती परन्तु मिथ्यात्व का उदय निरंतर रहेगा।
Do correct me if anything doesn’t align with आगम.
भव्य जीव को ऐसी कोई प्रतीति पहले से ही हो जाती है, ऐसा आपको कैसे प्रतीत हुआ?
ये अर्थ प्रासंगिक नहीं है।
इस गाथा में तो मात्र इतना समझना चाहिए कि अभव्य सम्यग्दर्शन-ज्ञान एवं तज्जन्य सुख का अनुभवन करता है वह भव्य है और जो ऐसा श्रद्धान नहीं करता वह अभव्य है।
इसका अर्थ सुख का पूर्वाभास रूप प्रतीति कैसे हो सकता है?
अभव्य - सम्यक्श्रद्धान नहीं कर सकता एवं भव्य - सम्यक्श्रद्धान कर सकता है, यही सिद्ध होता है।
भव्य सम्बन्धी विचार - निगोदिया भव्य मिथ्यादृष्टि को अतीन्द्रिय सुख की प्रतीति नहीं सकती है। सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि को करण लब्धि आदि के माध्यम से ऐसा अनुमान तो माना जा सकता है; किन्तु अतीन्द्रिय आनन्द का पूर्वाभास नहीं।
अभव्य सम्बन्धी विचार - सम्यक् श्रद्धान, अनुभवन की योग्यता का अभाव। (4 करण सम्बन्धी भाव होने पर भी)
अतः भव्य का स्वरूप एवं तत्सम्बन्धी भावना का अन्तर समझने की आवश्यकता है।