अंतराय कर्म के ५ भेदों की चर्चा को जीव के अनुजीवी गुणों का घात करने वाला देखते हुए कैसे समझा जाए?
(Generally इनको पर-द्रव्य के दान लाभ आदि से जोड़कर ही समझा जाता है)
जी,
टोडरमलजी ने भी बाहरी पक्ष प्रस्तुत किया, लेकिन वीर्य के सम्बंध में अंतरंग पक्ष को ही मुख्य किया।
निश्चयात्मक पक्ष को विद्वानों के मुख से सुना है ! वैसा ही प्रस्तुत करता हूँ।
यदि इन 5 भेदों को आत्मा पर घटित किया जाएगा तो कुछ इस प्रकार/-
१. दान - आत्मा को आत्मा में ही लगाना।
२. लाभ - आत्मा को पर्याय में भी स्व-स्वभाव की प्राप्ति।
३. भोग - पर्याय अपेक्षा शुद्ध पर्याय को भोगना।
४. उपभोग - शाश्वत स्वभाव को अनुभवना।
५. वीर्य - अपने स्वभाव की रचना को पर्याय में प्रकट करने रूप।
ये इनका निश्चयात्मक पक्ष है, अब इन्हें विपरीत रूप से घटाया जा सकता है, कि जो इनमें बाधा बने।
तथा इनके विशेष खुलासा राजमल जी पवैया द्वारा रचित नव लब्धि विधान में पढ़ने को मिलेगा।
- त्रुटियों से अवगत कराएं ।
सर्वार्थसिद्धि 2/3 की टीका भी देखें।
अघातिया कर्मों के उदय में वस्तुएँ/शरीर, आयु, वेदन, गोत्र आदि को प्राप्ति होती है। लेकिन घातिया कर्मों के उदय में वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती हैं।
ज्ञान-दर्शन-सुख तो जीव को directly समझ आते हैं, लेकिन जिनके कारण ऐसा होता है उसे वीर्य कहते हैं। अब, वीर्य की अभिव्यक्ति लाभ, भोग, उपभोग, दान, वीर्य के कारण से होती है।