द्रव्यानुयोग का वर्तमान जीवन में महत्व

द्रव्यानुयोग का वर्तमान जीवन में क्या महत्व है?

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द्रव्यानुयोग के बिना वास्तु व्यवस्था को नही समझा जा सकता

Pr क्युकी इस काल में धर्म का लोप (शिथिलता) होने से अभी का युवा वर्ग द्रव्यानुयोग से विमुख हो रहा है उन्हें इसका महत्व समझाने के लिए क्या तर्क दें?

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इसका एक ही उपाय है शांति वो कैसे जैन दर्शन से मिल सकती है जैन आध्यत्म अपने में पूर्ण है उसे सही से पेश किया जाय तो समझ में आता हैं

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Dravyanuyog is all about 6 dravya and 7 tatava.

मैंने ऐसा भी पढ़ा है - कि 11 अंग पड़ने पर सम्यक्दर्शन नहीं हुआ, और 5वा पूर्व जिसमे मोक्ष के प्रयोजनभूत सम्यक्त्व का कथन है, उसे पढ़कर सम्यक्दर्शन होता है और आगम का यह हिस्सा आज भी available है |

विचार करे कि समोसरण में से लौटे कुन्दकुन्द आचार्य ने अन्य सब बातो को छोड़कर सबसे पहले प्रवचनसार लिखते हुए शुद्धोपयोग/ साम्य/ सुध आत्मा कि ही चर्चा क्यों करी? वे यह भी बता सकते थे कि विदेह छेत्र कैसा है, वहाँ पहुंचने में रास्ते में और क्या क्या देखा, वहाँ चक्रवर्ती कैसे थे, उनके मुकुट पर कैसी मड़ी थी, वहाँ कौन कौन से देवी देवता देखे, वहाँ के लोगो का कैसा वैभव है ? अगर यह सब लिखते तो पढ़ने वाले किती रूचि से शास्त्र पढ़ते । क्या सुध आत्मा इस सबसे important है ?

भगवन कि वाणी को गणधर महाराज ने ११ अंग और १४ पूर्व में विभाजित किया, जब वह सब उपलब्ध नहीं रहा तो आचार्यो ने शेष रहे कथन को चार अनुयोगो में विभाजित कर दिया | जो अनुयोगो में partiality करता है, वह ज्ञानावरण कर्म का बंध करता है ।

जो बहुत निकट भव्य होते है उन्हें ही अध्यात्म में रूचि आती है, वे अपनी आत्मा कि बात को बहुत उत्साह से और हर्ष मानकर सुनते है, जो ज्ञानी अपनी आत्मा कि चर्चा करते है उनकी कभी अविनय नहीं करना चाहिए, जो तत्त्व का उपदेश देता है उसकी अविनय से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है ।

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द्रव्यानुयोग का वर्णन मोक्षमारग प्रकाशक के अलावा और किस ग्रंथ में मिल सकता है?

This might help-

जैनकोश अनुयोग

रत्नकरण्ड श्रावकाचार

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वर्तमान में ही नहीं अपितु तीनों काल में द्रव्यानुयोग आत्म हित की अपेक्षा से सारभूत एवं प्रगट करने योग्य है।

इसके अतिरिक्त प्रथमानुयोग जो हो गया है उसकी बात बताता है उसमें हम कुछ फेरबदल कर नहीं सकते।करणानुयोग भी कर्म आदि की बात बताता है, कर्मा में भी फेरबदल ऑटोमेटिकली होता नहीं,जब दृष्टि अंतरमुख होती है तब कर्मो मे फेरबदल हुए बिना रहता नहीं । चरणानुयोग मैं आचरण की मुख्यता है पर जोर तो द्रव्यानियोग का ही है जब तक अंतरंग में परिणाम सुधरेंगे नहीं तब तक बाहर आचरण नहीं सुधरेगा।

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Excellent and perfectly put!!

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