अचौर्य महाव्रत | मुनिराज

अचौर्य महाव्रत में बताया है कि महाव्रती जल और मिट्टी भी बिना दिये ग्रहण नहीं करते |
क्या महाव्रती मुनिराजों को शौच के लिये श्रावकों की राह देखनी पड़ती होगी? क्योंकि शुद्धि के लिये जल और मिट्टी तो वह स्वयं ले नहीं सकते |

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जितना मुझे ज्ञात है, मुनिराज के कमंडलु में श्रावक जन स्वयं आकर जल भर देते हैं व शौच आदि के क्रिया के लिए भी श्रावक जन साथ जाते हैं और उन्हें वहाँ मिट्टी देते हैं।

ये बात तो हुई जब भी श्रावक साथ ही होते हैं मुनिराजों के, पहले जब मुनिराज वन में रहते थे, तब की प्रक्रिया किसी को ज्ञात हो तो बताये अथवा इसी तरह होती हैं तो बताएं।

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छठवीं ढाल 1 ला छंद
शुद्धि के लिए मुनिराज बिना मालिक की मिट्टी और जरने का पानी, बहती हुई नदी , तालाब जिसके ऊपर उस समय कड़ी धूप पड़ी हो उसका इस्तेमाल मात्र शुद्धि के लिए कर सकते है।
एक उल्लेख इस भी आता है समाधि के लिए मुनिराज चावल की घास जो कि सुखी होती है और वे किसी के काम मे नही आती उसका इस्तेमाल समाधि कराने के लीये करते है।

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  • Jain Shraman - swaroop and samiksha page 152

But then cloth is required for जल छानना । Also gas is required for making sacchit water as acchit. Parigrah, अयाचक वृत्ति and ahimsa tradeoff will be there. Drinking can be stopped but not शौच.
Great difference in theory and practice.

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भूल हो तो क्षमा कीजियेगा।
लेकिन ऐसा हमने पंडित श्री बैनाड़ा जी से कई बार सुना है कि बहता हुआ पानी स्वयमेव प्रासुक होता है, तो छानना तथा अचित्त करने की आवश्यकता प्रतीत नही होती।

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मुनिराज को कोई भी अवस्था मे मरने की अवस्था मे भी किंचित भी परिग्रह ग्रहण करने योग्य नही है।

आगम में कहा है कोई भी नियम व्रत लेने से पहले हर प्रकार से आने वाली विपत्तियां विचार कर नियम लेना चाहिए।एकबार लेने के बाद उसमे शिथिलता होना व्रत भंग का पाप लगता है
जैसे किसीने कुए के पानी का नियम ले लिया अभी वह अन्य कही भी जाना बहुत कठिन है अभी जहाँ कुआँ नही हो और बोर का पानी इस्तेमाल करे तो नियम भंग का दोष आवेगा इसीलिए नियम लेने से पहले हर अवस्थाओं का विचार करना उचित है।

अगर वर्तमान काल मे ऐसे झरने तालाब आदि नही मिल रहे है और इस एक ही नही ऐसे तो के अन्य कारण भी है जो वर्तमान में 28 मूलगुण का पालन करना संभव नही है तो मुलगुण को भंगकर भी अपने को महाव्रती कहलाना उचित नही है
उससे अच्छा कि आयु पूर्ण होने को हो तो समाधि लेवे अगर नही हो तो दीक्षा छेड़कर 7 वी प्रतिमा धारण करना उचित है।

परंतु ऊँची भूमिका में हल्का काम सम्भव ही नही है
और gas बनने में भी असंख्यात त्रस जीवो की हत्या हो रही है उसका इसतेमाल करना आगम सम्मत नही है

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दोष के भय से मुनि न बनना गलत है क्योंकि सभी ऐसा सोचे तो पंचम काल में कोई भी मुनि न हो और यदि कोई दोष लगता है तो उसके लिए प्रश्चित की व्यवस्था है और मुनि एक भाव प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाता है

जीवन मे एकाद बार मजबूरी वशात दोष हो जाये तो उसे अतिचार कहते हैपरन्तु बार बार रोज का काम हो जाये तो अनाचार और व्रत भंग ही होजाता है

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सब रोज नही करते और प्रयास किए जाए तो दोषों से मुक्त भी हो सकते है

क्या रोज नही करते?

अतिचार

ऐसा नहीं है कि पंचमकाल में निर्दोष चर्या वाले मुनिराज होंगे ही नहीं, अवश्य होंगे, जिनागम में ऐसा विधान है की पंचमकाल के अंत तक निर्दोष चर्या वाले मुनिराज होंगे, भावलिंगी संत होंगे। किन्तु यदि हमें लगता है कि इन नियमों का पालन हम वर्तमान परिस्थिति में नहीं कर सकते तो हमें पुर्वापर विचार करके उतने ही नियम लेना चाहिए जितने नियम पालन का हमें विश्वास हो की हम उनका पालन कर सकते है।।

किन्तु अपनी सामर्थ्य से अधिक नियम लेना और फिर नियम भंग करना ये अनुचित है पाप का कारण है।

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दुर्घटना के डर से चलना नही छोड़ा जाता

टोडरमल जी के दो वाक्य इस संदर्भ में मननीय हैं/-

  1. जिन-आज्ञा भंग करने का भय। (ये सभी पर लागू होता है)
  2. ऊँची प्रतिज्ञा करके नीचा कार्य करना योग्य नही।
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यदि तैरना नहीं आता तो उसे छोटी जगह पर किसी से सीखना ही योग्य है, सामर्थ्य के अनुसार सीखना योग्य है, किन्तु यदि तैरना नहीं आता और सीधा बड़ी नदी में कूद जाए तो डूबना निश्चित है, ऐसे ही प्रथम शास्त्रों का सही समझ पूर्वक बारंबार अध्ययन करो, सही निर्णय करो, फिर सामर्थ्य के अनुसार नियम लो, यदि योग्यता थोड़ी है , सामर्थ्य थोड़ा है, परिणामों में भूमिका के योग्य निर्मलता नहीं है और बड़े बड़े नियम ले लिए, तो भव समुद्र में डूबना निश्चित है।।

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तो अणु व्रत ले कर शुरू तो करें