मोक्षमार्ग में यद्यपि अन्तरंग परिणाम प्रधान है, परन्तु उनका निमित्त होने के कारण भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है । मद्य, मांस, मधु व नवनीत तो हिंसा, मद व प्रमाद उत्पादक होने के कारण महाविकृतियाँ हैं ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल, कन्दमूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जीवों की हिंसा के स्थान अथवा अनन्तकायिक होने के कारण अभक्ष्य हैं । इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, संदिग्ध व अशोधित सभी प्रकार की खाद्य वस्तुएँ अभक्ष्य हैं । दालों के साथ दूध व दही का संयोग होने पर विदल संज्ञावाला अभक्ष्य हो जाता है । विवेकी जनों को इन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदि का ही ग्रहण करना योग्य है ।
अभक्ष्य पदार्थ विचार
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बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
व्रत विधान सं./वृ. १९
ओला, घोखड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान।
बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जो होय अजान।
कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान।
फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस, जिनमत ये बाईस अखान। -
मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य हैं
भ.आ./वि./१२०६/१२०४/१९
मांसं मधु नवनीतं… च वर्जयेत् तत्स्पृष्टानि सिद्धान्यपि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च। =
मांस, मधु व मक्खन का त्याग करना चाहिए। इन पदार्थों का स्पर्श जिसको हुआ है, वह अन्न भी न खाना चाहिए और न छूना चाहिए।
पु.सि.उ/७१
मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः।
वल्भ्यन्ते न व्रतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र।७१।
शहद, मदिरा, मक्खन और मांस तथा महाविकारों को धारण किये पदार्थ व्रती पुरुष को भक्षण करने योग्य नहीं है क्योंकि उन वस्तुओं में उसी वर्ण व जाति के जीव होते हैं।७१।
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चलित रस पदार्थ अभक्ष्य है
भ.आ./वि./१२०६/१२०४/२०
विपन्नरूपीरसगन्धानि, कुथितानि पुष्पितानि, पुराणानि जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत् न स्पृशेच्च।
जिनका रूप, रस व गन्ध तथा स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात् फूई लगा हुआ है, जिसको जन्तुओं ने स्पर्श किया है ऐसा अन्न न देना चाहिए, न खाना चाहिए और न स्पर्श करना चाहिए।
अ.ग.श्रा./६/८५
आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः।
योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्त्तव्यो दयालीढैः।८५।
जो समस्त आहार अपने स्वभावतैं अन्यभाव को प्राप्त भया, चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो वह दया सहित पुरुषों के द्वारा त्याज्य है।
चा.पा./टी./२१/४३/१६
सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्नं त्यजेत्।
अंकुरित हुआ अर्थात् जड़ा हुआ, फुई लगा हुआ या स्वाद चलित अन्न अभक्ष्य है।
ला.सं./२/५६
रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलितं नैव भक्षयेत्।
अवश्यं त्रसजीवानां निकोतानां समाश्रयात्।५६।
जो पदार्थ रूप गन्ध रस और स्पर्श से चलायमान हो गये हैं, जिनका रूपादि बिगड़ गया है, ऐसे पदार्थों को भी कभी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पदार्थों में अनेक त्रस जीवों की, और निगोद राशि की उत्पत्ति अवश्य हो जाती है।
बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है
अ.ग.श्रा./६/८४ …
दिवसद्वितयोषिते च दधिमंथिते … त्याज्या।
दो दिनका बासी दही और छाछ … त्यागना योग्य है। (सा.ध./३/११); (ला.सं./२/५७)
चा.पा./टी./२१/४३/१३
लवणतैलघृतधृतफलसंधानकमुर्हूतद्वयोपरिनवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं। … षोडशप्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत्।
नमक, तेल व घी में रखा फल और आचार को दो मुहूर्त से ऊपर छोड़ देना चाहिए। तथा मक्खन व मांस जिस बर्तन में पका हो वह बर्तन भी छोड़ देना चाहिए। … सोलह पहर से ऊपर के दही का भी त्याग कर देवे।
ला.सं./२/३३
केवलेनाग्निना पक्वं मिश्रितेन घृतेन वा।
उषितान्नं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित्।३३।
जो पदार्थ रोटी भात आदि केवल अग्नि पर पकाये हुए हैं, अथवा पूड़ी कचौड़ी आदि गर्म घी में पकाये हुए हैं अथवा परामठे आदि घी व अग्नि दोनों के संयोग से पकाये हुए हैं। ऐसे प्रकार का उषित अन्न मांस भक्षण के दोषों के जानने वालों को नहीं खाना चाहिए। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार)।
. अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं
वसु. श्रा./५८ …
संघाण… णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।५८।
अचार आदि… नित्य त्रस जीवों से संसिक्त रहते हैं, अतः इनका त्याग कर देना चाहिए। (सा.ध./३/११)।
ला.सं./२/५५
यवोषितं न भक्ष्यं स्यादन्नादि पलदोषत:।
आसवारिष्ट संधानथानादीनां कथात्र का।५५।
जहाँ बासी भोजन के भक्षण का त्याग कराया, वहाँ पर आसव, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात् अँचार-मुरब्बे की तो बात ही क्या।
बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है
अ.ग.श्रा./६/८४
विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गद्रोणपुष्पिका त्याज्या।
बीधा और फूई लगा अन्न और कलींदा व राई ये त्यागने योग्य है। (चा.पा./टी./२४/४३/१६)।
ला.सं./२/श्लोक न.
विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तदभक्ष्यवत्।
शतशः शोधितं चापि सावद्यानैर्दृगादिभिः।१९।
संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः।
मनःशुद्धिप्रसिद्धार्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत्।२०।
शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद् ग्रहणं कृती।
कालस्यातिक्रमाद् भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत्।३२।
घुने हुए या बीधे हुए अन्न में भी अनेक त्रस जीव होते हैं। यदि सावधान होकर नेत्रों के द्वारा शोधा भी जाये तो भी उसमें से सब त्रस जीवों का निकल जाना असम्भव है। इसलिए सैकड़ों बार शोधा हुआ भी घुना व बीधा अन्न अभक्ष्य के समान त्याज्य है।१९।
जिस पदार्थ में त्रस जीवों के रहने का सन्देह हो। (इसमें त्रस जीव हैं या नहीं) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी श्रावक की मनः शुद्धि के अर्थ छोड़ देना चाहिए।२०।
जिस अन्नादि पदार्थ को शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। जिस पदार्थ को शोधने पर मर्यादा से अधिक काल हो गया है, उनको पुनः शोधकर काम में लेना चाहिए।३२।
गोरस विचार
दही के लिए शुद्ध जामन
व्रत विधान सं./३४
दही बाँधे कपडे माहीं, जब नीर न बूँद रहाहीं।
तिहिं की दे बड़ी सुखाई राखे अति जतन कराई।।
प्रासुक जल में धो लीजे, पयमाहीं जामन दोजे।
मरयादा भाषी जेह, यह जावन सों लख लीजै।।
अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई।
गोरस में दुग्धादिके त्याग का क्रम
क. पा. १/१, १३, १४/गा.११२/पृ. ११२/पृ.२५४
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसव्रतो नो चेत् तस्मात्तत्त्वं त्रायत्मकम्।११२।
जिसका केवल दूध पीने का नियम है वह दही नहीं खाता दूध ही पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खाने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसके गोरस नहीं खाने का व्रत है, वह दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। …।११२।
दूध अभक्ष्य नहीं है
सा.ध./२/१० पर उद्धृत फुटनोट-
मांसं जीवशरीरं, जीवशरीर भवेन्न वा मांसम्।
यद्वन्निम्बो वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः।९।
शुद्धं दुग्धं न गोर्मांसं, वस्तुवै चित्र्यमेदृशम्।
विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः।१०।
हेयं पलं पयः पेयं, समे सत्यपि कारणे।
विषद्रोरायुषे पत्रं, मूलं तु मृतये मतम्।११।
जो जीव का शरीर है वह माँस है ऐसी तर्कसिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो माँस है वह अवश्य जीव का शरीर है ऐसी व्याप्ति है। जैसे जो वृक्ष है वह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है।९।
गाय का दूध तो शुद्ध है, माँस शुद्ध नहीं। जैसे -सर्प का रत्न तो विष का नाशक है किन्तु विष प्राणों का घातक है। यद्यपि मांस और दूध दोनों की उत्पत्ति गाय से है तथापि ऊपर के दृष्टान्त के अनुसार दूध ग्राह्य है मांस त्याज्य है। एक यह भी दृष्टान्त है कि - विष वृक्ष का पत्ता जीवनदाता वा जड़ मृत्युदायक है।११।
कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष
सा.ध./५/१८
आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं प्रायशोऽनवम्।
वर्षास्वदलितं चात्र … नाहरेत्।१८।
कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदल को, बहुधा पुराने द्विदल को, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदल को … नहीं खाना चाहिए।१८। (चा.पा./२१/४३/१८)।
व्रत विधान सं./पृ. ३३ पर उद्धृत–
योऽपक्वतक्रं द्विदलान्नमिश्रं भुक्तं विधत्ते सुखवाष्पसंगे।
तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना: सन्मूर्च्छिका जीवगणा भवन्ति।
कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थों के मिलने से और मुख को लार का उनमें सम्बन्ध होने से असंख्य सम्मूर्च्छन त्रस जीव राशि पैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत: वह सर्वथा त्याज्य है। (ला.सं./२/१४५)।
पक्के दूध-दही के साथ द्विदल दोष
व्रत विधान सं./पृ. ३३
जब चार मुहूरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाहीं।
बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाम।
षोडशघटिका ह्वैं जबहीं, तेइन्द्रिय उपजें तबहीं।
जब बीस घड़ी गत जानी, उपजै चौइन्द्रिय प्राणी।
गमियां घटिका जब चौबीस, पंचेन्द्रिय जिय पूरित तीस।
ह्वै हैं नहीं संशय आनी, यों भाषै जिनवर वाणी।
बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष।
कोई ऐसा कहवाई, खैहैं एक याम ही माहीं।
मरयाद न सधि है मूल तजि हैं, जे व्रत अनुकूल।
खावें में पाय अपार छाड़ें शुभगति है सार।
द्विदल के भेद
व्रत विधान संग्रह/पृ.३४
- अन्नद्विदल –मूंग, मोठ, अरहर, मसूर, उर्द, चना, कुल्थी आदि।
- काष्ठ द्विदल –चारोली, बादाम, पिस्ता, जीरा, धनिया आदि।
- हरीद्विदल –तोरइ, भिण्डी, फदकुली, घीतोरई, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, परवल, सेम, लौकी, करेला, खीरा आदि घने बीज युक्त पदार्थ। नोट –(इन वस्तुओं में भिण्डी व परवल के बीज दो दाल वाले नहीं होते फिर भी अधिक बीजों की अपेक्षा उन्हें द्विदल में गिनाया गया है ऐसा प्रतीत होता है और खरबूजे व पेठे के बीज से ही द्विदल होता है, उसके गूदे से नहीं।)
- शिखरनी –दही और छाछ में कोई मीठा पदार्थ डालने पर उसकी मर्यादा कुल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहती है।
- कांजी –दही छाछ में राई व नमक आदि मिलाकर दाल पकौड़े आदि डालना। यह सर्वथा अभक्ष्य है।