अभक्ष्य की क्या परिभाषा है?

अभक्ष्य की क्या परिभाषा है ?
कौनसे पदार्थ अभक्ष्य है
किस प्रकार की मर्यादाओ का पालन करना चाहिए जिससे अभक्ष्य भक्षण से बच सके। प्रमाण देने का प्रयास करें।

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मोक्षमार्ग में यद्यपि अन्तरंग परिणाम प्रधान है, परन्तु उनका निमित्त होने के कारण भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है । मद्य, मांस, मधु व नवनीत तो हिंसा, मद व प्रमाद उत्पादक होने के कारण महाविकृतियाँ हैं ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल, कन्दमूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जीवों की हिंसा के स्थान अथवा अनन्तकायिक होने के कारण अभक्ष्य हैं । इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, संदिग्ध व अशोधित सभी प्रकार की खाद्य वस्तुएँ अभक्ष्य हैं । दालों के साथ दूध व दही का संयोग होने पर विदल संज्ञावाला अभक्ष्य हो जाता है । विवेकी जनों को इन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदि का ही ग्रहण करना योग्य है ।

अभक्ष्य पदार्थ विचार

  1. बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
    व्रत विधान सं./वृ. १९
    ओला, घोखड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान।
    बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जो होय अजान।
    कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान।
    फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस, जिनमत ये बाईस अखान।

  2. मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य हैं
    भ.आ./वि./१२०६/१२०४/१९
    मांसं मधु नवनीतं… च वर्जयेत्‌ तत्स्पृष्टानि सिद्धान्यपि च न दद्यान्न खादेत्‌, न स्पृशेच्च। =
    मांस, मधु व मक्खन का त्याग करना चाहिए। इन पदार्थों का स्पर्श जिसको हुआ है, वह अन्न भी न खाना चाहिए और न छूना चाहिए।

पु.सि.उ/७१
मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः।
वल्भ्यन्ते न व्रतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र।७१।

शहद, मदिरा, मक्खन और मांस तथा महाविकारों को धारण किये पदार्थ व्रती पुरुष को भक्षण करने योग्य नहीं है क्योंकि उन वस्तुओं में उसी वर्ण व जाति के जीव होते हैं।७१।

  1. चलित रस पदार्थ अभक्ष्य है
    भ.आ./वि./१२०६/१२०४/२०
    विपन्नरूपीरसगन्धानि, कुथितानि पुष्पितानि, पुराणानि जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत्‌ न स्पृशेच्च।
    जिनका रूप, रस व गन्ध तथा स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात्‌ फूई लगा हुआ है, जिसको जन्तुओं ने स्पर्श किया है ऐसा अन्न न देना चाहिए, न खाना चाहिए और न स्पर्श करना चाहिए।

अ.ग.श्रा./६/८५
आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः।
योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्त्तव्यो दयालीढैः।८५।

जो समस्त आहार अपने स्वभावतैं अन्यभाव को प्राप्त भया, चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो वह दया सहित पुरुषों के द्वारा त्याज्य है।

चा.पा./टी./२१/४३/१६
सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्नं त्यजेत्‌।
अंकुरित हुआ अर्थात्‌ जड़ा हुआ, फुई लगा हुआ या स्वाद चलित अन्न अभक्ष्य है।

ला.सं./२/५६
रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलितं नैव भक्षयेत्‌।
अवश्यं त्रसजीवानां निकोतानां समाश्रयात्‌।५६।

जो पदार्थ रूप गन्ध रस और स्पर्श से चलायमान हो गये हैं, जिनका रूपादि बिगड़ गया है, ऐसे पदार्थों को भी कभी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पदार्थों में अनेक त्रस जीवों की, और निगोद राशि की उत्पत्ति अवश्य हो जाती है।

बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है
अ.ग.श्रा./६/८४ …
दिवसद्वितयोषिते च दधिमंथिते … त्याज्या।
दो दिनका बासी दही और छाछ … त्यागना योग्य है। (सा.ध./३/११); (ला.सं./२/५७)
चा.पा./टी./२१/४३/१३
लवणतैलघृतधृतफलसंधानकमुर्हूतद्वयोपरिनवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं। … षोडशप्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत्‌।
नमक, तेल व घी में रखा फल और आचार को दो मुहूर्त से ऊपर छोड़ देना चाहिए। तथा मक्खन व मांस जिस बर्तन में पका हो वह बर्तन भी छोड़ देना चाहिए। … सोलह पहर से ऊपर के दही का भी त्याग कर देवे।

ला.सं./२/३३
केवलेनाग्निना पक्‍वं मिश्रितेन घृतेन वा।
उषितान्‍नं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित्‍‍।३३।

जो पदार्थ रोटी भात आदि केवल अग्नि पर पकाये हुए हैं, अथवा पूड़ी कचौड़ी आदि गर्म घी में पकाये हुए हैं अथवा परामठे आदि घी व अग्नि दोनों के संयोग से पकाये हुए हैं। ऐसे प्रकार का उषित अन्न मांस भक्षण के दोषों के जानने वालों को नहीं खाना चाहिए। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार)।

. अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं
वसु. श्रा./५८ …
संघाण… णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।५८।
अचार आदि… नित्य त्रस जीवों से संसिक्त रहते हैं, अतः इनका त्याग कर देना चाहिए। (सा.ध./३/११)।

ला.सं./२/५५
यवोषितं न भक्ष्यं स्यादन्नादि पलदोषत:।
आसवारिष्ट संधानथानादीनां कथात्र का।५५।

जहाँ बासी भोजन के भक्षण का त्याग कराया, वहाँ पर आसव, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात्‌ अँचार-मुरब्बे की तो बात ही क्या।

बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है

अ.ग.श्रा./६/८४
विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गद्रोणपुष्पिका त्याज्या।
बीधा और फूई लगा अन्न और कलींदा व राई ये त्यागने योग्य है। (चा.पा./टी./२४/४३/१६)।

ला.सं./२/श्लोक न.
विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तदभक्ष्यवत्‌।
शतशः शोधितं चापि सावद्यानैर्दृगादिभिः।१९।

संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः।
मनःशुद्धिप्रसिद्धार्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत्‌।२०।

शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद्‌ ग्रहणं कृती।
कालस्यातिक्रमाद्‌ भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत्‌।३२।

घुने हुए या बीधे हुए अन्न में भी अनेक त्रस जीव होते हैं। यदि सावधान होकर नेत्रों के द्वारा शोधा भी जाये तो भी उसमें से सब त्रस जीवों का निकल जाना असम्भव है। इसलिए सैकड़ों बार शोधा हुआ भी घुना व बीधा अन्न अभक्ष्य के समान त्याज्य है।१९।
जिस पदार्थ में त्रस जीवों के रहने का सन्देह हो। (इसमें त्रस जीव हैं या नहीं) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी श्रावक की मनः शुद्धि के अर्थ छोड़ देना चाहिए।२०।
जिस अन्नादि पदार्थ को शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। जिस पदार्थ को शोधने पर मर्यादा से अधिक काल हो गया है, उनको पुनः शोधकर काम में लेना चाहिए।३२।

गोरस विचार

दही के लिए शुद्ध जामन

व्रत विधान सं./३४
दही बाँधे कपडे माहीं, जब नीर न बूँद रहाहीं।
तिहिं की दे बड़ी सुखाई राखे अति जतन कराई।।
प्रासुक जल में धो लीजे, पयमाहीं जामन दोजे।
मरयादा भाषी जेह, यह जावन सों लख लीजै।।
अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई।

गोरस में दुग्धादिके त्याग का क्रम
क. पा. १/१, १३, १४/गा.११२/पृ. ११२/पृ.२५४
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसव्रतो नो चेत्‌ तस्मात्तत्त्वं त्रायत्मकम्‌।११२।
जिसका केवल दूध पीने का नियम है वह दही नहीं खाता दूध ही पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खाने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसके गोरस नहीं खाने का व्रत है, वह दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। …।११२।

दूध अभक्ष्य नहीं है
सा.ध./२/१० पर उद्‌धृत फुटनोट-
मांसं जीवशरीरं, जीवशरीर भवेन्न वा मांसम्‌।
यद्वन्निम्बो वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः।९।
शुद्धं दुग्धं न गोर्मांसं, वस्तुवै चित्र्यमेदृशम्‌।
विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः।१०।
हेयं पलं पयः पेयं, समे सत्यपि कारणे।
विषद्रोरायुषे पत्रं, मूलं तु मृतये मतम्‌।११।
जो जीव का शरीर है वह माँस है ऐसी तर्कसिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो माँस है वह अवश्य जीव का शरीर है ऐसी व्याप्ति है। जैसे जो वृक्ष है वह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है।९।
गाय का दूध तो शुद्ध है, माँस शुद्ध नहीं। जैसे -सर्प का रत्न तो विष का नाशक है किन्तु विष प्राणों का घातक है। यद्यपि मांस और दूध दोनों की उत्पत्ति गाय से है तथापि ऊपर के दृष्टान्त के अनुसार दूध ग्राह्य है मांस त्याज्य है। एक यह भी दृष्टान्त है कि - विष वृक्ष का पत्ता जीवनदाता वा जड़ मृत्युदायक है।११।

कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष
सा.ध./५/१८
आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं प्रायशोऽनवम्‌।
वर्षास्वदलितं चात्र … नाहरेत्‌।१८।
कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदल को, बहुधा पुराने द्विदल को, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदल को … नहीं खाना चाहिए।१८। (चा.पा./२१/४३/१८)।

व्रत विधान सं./पृ. ३३ पर उद्‍धृत–
योऽपक्वतक्रं द्विदलान्नमिश्रं भुक्‍तं विधत्ते सुखवाष्‍पसंगे।
तस्‍यास्‍यमध्‍ये मरणं प्रयत्‍ना: सन्‍मूर्च्छिका जीवगणा भवन्ति।
कच्‍चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थों के मिलने से और मुख को लार का उनमें सम्‍बन्‍ध होने से असंख्‍य सम्‍मूर्च्‍छन त्रस जीव राशि पैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत: वह सर्वथा त्‍याज्‍य है। (ला.सं./२/१४५)।

पक्‍के दूध-दही के साथ द्विदल दोष
व्रत विधान सं./पृ. ३३
जब चार मुहूरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाहीं।
बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाम।
षोडशघटिका ह्वैं जबहीं, तेइन्द्रिय उपजें तबहीं।
जब बीस घड़ी गत जानी, उपजै चौइन्द्रिय प्राणी।
गमियां घटिका जब चौबीस, पंचेन्द्रिय जिय पूरित तीस।
ह्वै हैं नहीं संशय आनी, यों भाषै जिनवर वाणी।
बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष।
कोई ऐसा कहवाई, खैहैं एक याम ही माहीं।
मरयाद न सधि है मूल तजि हैं, जे व्रत अनुकूल।
खावें में पाय अपार छाड़ें शुभगति है सार।

द्विदल के भेद
व्रत विधान संग्रह/पृ.३४

  1. अन्नद्विदल –मूंग, मोठ, अरहर, मसूर, उर्द, चना, कुल्थी आदि।
  2. काष्ठ द्विदल –चारोली, बादाम, पिस्ता, जीरा, धनिया आदि।
  3. हरीद्विदल –तोरइ, भिण्डी, फदकुली, घीतोरई, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, परवल, सेम, लौकी, करेला, खीरा आदि घने बीज युक्त पदार्थ। नोट –(इन वस्तुओं में भिण्डी व परवल के बीज दो दाल वाले नहीं होते फिर भी अधिक बीजों की अपेक्षा उन्हें द्विदल में गिनाया गया है ऐसा प्रतीत होता है और खरबूजे व पेठे के बीज से ही द्विदल होता है, उसके गूदे से नहीं।)
  4. शिखरनी –दही और छाछ में कोई मीठा पदार्थ डालने पर उसकी मर्यादा कुल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहती है।
  5. कांजी –दही छाछ में राई व नमक आदि मिलाकर दाल पकौड़े आदि डालना। यह सर्वथा अभक्ष्य है।

स्रोत-
http://jainkosh.org/wiki/भक्ष्याभक्ष्य

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यहाँ "केवल अग्नि पर पकाय है " से क्या आशय है

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वनस्पति विचार

  1. पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण

पु.सि.उ./७२-७३
योनिरुदुम्बर युग्मं प्‍लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्‌भक्षणे हिंसा।७२।
यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि।
भजतस्‍तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात्‌।७३।
ऊमर, कठूमर, पिलखन, बड़ और पीपल के फल त्रस जीवों की योनि हैं इस कारण उनके भक्षण में उन त्रस जीवों की हिंसा होती है।७२।
और फिर भी जो पाँच उदुम्बर सूखे हुए काल पाकर त्रस जीवों से रहित हो जावें तो उनको भी भक्षण करने वाले के विशेष रागादि रूप हिंसा होती है।७३। (सा.ध./२/१३)।

वसु.श्रा./५८
उंवार-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरुपसूणाइं।
णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।५८।
ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, इन पाँचों उदुम्बर फल, तथा संधानक (अँचार) और वृक्षों के फूल ये सब नित्य त्रस जीवों से संसिक्त अर्थात्‌ भरे हुए रहते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।५८।

ला.सं./२/७८
उदम्बरफलान्येव नादेयानि दृगात्मभिः।
नित्यं साधारणान्येव त्रसाङ्‌गैराश्रितानि च।७८।
सम्यग्दृष्टियों को उदुम्बर फल नहीं खाने चाहिए क्योंकि वे नित्य साधारण (अनन्तकायिक) हैं। तथा अनेक त्रस जीवों से भरे हुए हैं।
पाँच उदुम्बर फल तथा उसी के अन्तर्गत खून्बी व साँप की छतरी भी त्याज्य है।

  1. अनजाने फलों का निषेध
    उदुम्बर त्यागी, जिन फलों का नाम मालूम नहीं है ऐसे सम्पूर्ण अजानफलों को नहीं खावे।

  2. कंदमूल का निषेध व कारण

भ.आ./मू./१५३३/१४१४
ण य खंति … पलंडुमादीयं।
कुलीन पुरुष … प्याज, लहसुन वगैरह कन्दों का भक्षण नहीं करते हैं।

मू.आ./८२५
फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किं चि।
णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।८२५।

अग्नि कर नहीं पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते। (भा.पा./मू./१०३)।
र.क.श्रा./८५
अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि ङ्गवेराणि। … अवहेयं।८५।
फल थोड़ा परन्तु त्रस हिंसा अधिक होने से सचित्त मूली, गाजर, आर्द्रक,… इत्यादि छोड़ने योग्य हैं।८५। (स.सि./७/२१/३६१/१०)।

भ.आ./वि. १२०६/१२०४/१९
फलं अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्‌कुरं कन्दं च वर्जयेत्‌।
नहीं विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अंकुर और कन्द का त्याग करना चाहिए। (यो.सा.अ./८/६३)।

सा.ध./५/१६-१७
नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत्‌।
आजन्म तद्‌भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्‌।१६।
अनन्तकाया: सर्वेऽपि, सदा हेया दयापरै:।
यदेकमति तं हन्तुं, प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान्‌।१७।
धार्मिक श्रावक नाली, सूरण, कलींदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदाथों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवें क्योंकि इनके खाने वाले को उन पदार्थों के खाने में फल थोड़ा है और घात बहुत जीवों का होता है।१६।
दयालु श्रावकों के द्वारा सर्वदा के लिए सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिए क्योंकि एक भी उस साधारण वनस्पति को मारने के लिए प्रवृत्त व्यक्ति अनन्त जीवोंको मारता है।१७।

चा.पा./टी./२१/४३/१०
मूलनालिकापद्मिनीकन्दलशुनकन्दतुम्बकफलकुसुम्भशाककलिंगफलसुरणकन्दत्यागश्च।

मूली, कमल की डण्डी, लहसुन, तुम्बक फल, कुसुभे का शाक, कलिंग फल, आलू आदि का त्याग भी कर देना चाहिए।

भा.पा./टी./१०१/२५४/३
कन्दं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रबृहन्तमुस्तांशालूकं उत्पमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरं आर्द्रहरिद्रेत्यर्थ: … किमपि ऐर्वापतिकं अशित्वा … भ्रतिस्त्वं हे जीव अनन्तसंसारे।
कन्द अर्थात्‌ सूरण, लहसुन, आलू छोटी या बड़ी शालूक, उत्पलमूल (भिस), शृंगवेर, अद्रक, गीली हल्दी आदि इन पदार्थों में से कुछ भी खाकर हे जीव ! तुझे अनन्त संसार में भ्रमण करना पड़ा है।

ला.सं./२/७९-८०
अत्रोदुम्बरशब्दस्तु नूनं स्यादुपलक्षणम्‌।
तेन साधारणास्त्याज्या ये वनस्पतिकायिकाः।७९।
मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्यार्द्रकादयः।
न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छ- लात्‌।८०।
यहाँ पर जो उद्रुम्बर फलों का त्याग कराया है वह उपलक्षण मात्र है। इसलिए जितने वनस्पति साधारण या अनन्तकायिक हैं उन सबका त्याग कर देना चाहिए।९७।
ऊपर जो अदरख आलू आदि मूलबीज, अग्रबीज, पोरबीजादि अनन्तकायात्मक साधारण बतलाये हैं, उन्हें कभी न खाना चाहिए। रोग हो जाने पर भी इनका भक्षण न करें।८०।

  1. पुष्प व पत्र जाति का निषेध
    भा.पा./मू. १०३
    कंदमूलं वीयं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं।
    असिऊण माणगव्वं भमिओसि अणंतसंसारे।१०३।
    = जमीकन्द, बीज अर्थात्‌ चनादिक अन्न, मूल अर्थात्‌ गाजर आदिक, पुष्प अर्थात्‌ फूल, पत्र अर्थात्‌ नागरवेल आदिक इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तुओं को गर्व से भक्षण कर, हे जीव! तू अनन्त संसार में भ्रमण करता रहा है।

र.क.श्रा./८५
निम्बकुसुमं कैतकमित्येबमवहेयं।८५।
नीम के फूल, केतकी के फूल इत्यादि वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं।

सं.सि./७/२१/३६१/१०
केतक्युर्जुनपुष्पादीनिशृङ्गवेरमूलकादीनिबहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाता- ल्पफलत्वात्‌।
जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है। (रा.वा./७/२१/२७/५५०/४)।

गुण. श्रा./१७८
मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम्‌।
अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतोगृही।१७८।
सचित्तविरत श्रावक सचित्त मूल, फल, शाक पुष्प, बीज, करीर व अप्रासुक जल का त्याग कर देता है (वसु.श्रा./२९५)।

वसु. श्रा./५८
तरुपसूणाइं। णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिबज्जिय- व्वाइं।५८।
= वृक्षों के फूल नित्य त्रसजीवों से संसिक्त रहते हैं। इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए। ५८।

सा.ध./५/१६
द्रोणपुष्पादि वर्जयेत्‌।
आजन्म तद्‌भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्‌।
द्रोणपुष्पादि सम्पूर्ण पदार्थों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवे। क्योंकि इनके खाने में फल थोड़ा और घात बहुत जीवों का होता है। (सा.ध./३/१३)।

ला.सं./२/३५-३७
शासकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन।
श्रावकै- र्मासदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नः।३५।
तत्रावश्यं त्रसाः सूक्ष्माः केचित्सयुर्द्दष्टिगोचराः।
न त्यजन्ति कदाचित्तं शाकपत्राश्रयं मनाक्‌।३६।
तस्माद्धर्मार्थिना नूनमात्मनो हितमिच्छता।
आताम्बूलं दलं त्याज्यं श्रावकैर्दर्शनान्वितैः।३७।
श्रावकों को यत्नपूर्वक मांस के दोषों का त्याग करने के लिए सब तरह की पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए।३५।
क्योंकि उस पत्तेवाले शाक में सूक्ष्म त्रस जीव अवश्य होते हैं उनमें से कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते हैं और कितनी ही दिखाई नहीं देते। किन्तु वे जीव उस पत्तेवाले शाक का आश्रय कभी नहीं छोड़ते।३६।
इसलिए अपने आत्मा का कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवों को पत्तेवाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए और दर्शन प्रतिमा को धारण करने वाले श्रावकों को विशेषकर इनका त्याग करना चाहिए।३७।

स्रोत-
http://jainkosh.org/wiki/भक्ष्याभक्ष्य

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मेरा भी प्रश्न इसी संबंध में था।
यदि किसी को इसकी विशेष जानकारी हो तो अवश्य बतायें।

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क्या यहां आशय एकेन्द्रिय जीवों से है?

जिनागम में अभक्ष्य के मुख्य रूप से चार प्रकार बताये है।

1)अंहिंसा मुलक - त्रस घात, बहु घात(इस के अंतरगत अन्छना पानी, बिना मर्यादा वाला आटा, मसाला,बाजार की बनी हुई सभी वस्तुए,homeopethic ,alopethic,anti biotic ,कुछ आर्युवेद की भी दवाइया,द्विदल (अन्न द्विदल ,काष्ट द्विदल,हरि द्विदल),रात्रि भोजन,
इसका सेवन करने से मांस सेवन का दोष आता है।

अष्ट मूलगुण का पालन आदि इसीमे गर्भित है।

  1. विवेक मूलक- नशाकारक अभक्ष्य
    इसमे हिंसा का महत्व नही है परंतु इसका सेवन करने से जीव विवेक आदि खो बैठता है।माँ और पत्नी में भी फर्क नही देखता ।,राजा और नौकर का फर्क नही देखता।इसका सेवन करने से आत्मानुभव तो बोहत दूर की बात है सामान्य व्यवहार भी खो बैठता है।
    इसके अंतर्गत
    चरस अफीन गांजा मद्य पान मसाला

इसमे आत्मसन्मुख में बाधक में विशेष रूप से
श्रीखंड, कॉफी,मक्खन, चाय आदि इसका सेवन व्यसन के बराबर है इसके सेवन में मादकता आती है।

  1. सभ्यता मूलक - अनुपसेव्य अभक्ष्य
    इसमे मुखय रूपसे जूठा भोजन करना(एक थाली में भोजन करना) ,मूत्र आदि का सेवन

समन्तभद्र स्वामी ने अनुपसेव्य अभक्ष्य में कपड़े को भी लिया है।
आकर्षक कपड़े (ब्रान्डेड कपड़े),शील का घात हो उस प्रकार के कपड़े, सदाचार पूर्वक रहना ही श्रावक का कर्तव्य है।

4)स्वास्थ्य मूलक - जिसके सेवन से स्वास्थ्य खराब हो ।
इसमे ऊपर के सभी के सकते है।,फ्रूट के दूध का सेवन, आदि…

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क्या इसका प्रमाण मिल सकता है?

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Page no = 147
चतुर्थ गुणव्रत अधिकार

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आपका बहुत बहुत आभार… :pray:

मेरा काम तो हो गया, बस एक बात, यह कथन आचार्य समंतभद्र का नहीं, पं. सदासुख दास जी का है।

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आभार :pray::pray::pray:

समन्तभद्र स्वामी ने जिसका सेवन योग्य नही हो वे सभी अनुपसेव्य है इतना ही कहा परंतु सदसुखदासजी अभी के विषय मे विस्तृत करके अच्छेसे समजाया।

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Misunderstandings starts from ignoring what you mentioned.

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kya alovera bhi tyag karne yogya hai

kya tarbooj bhi tyag karne yogya hai.

Please answer and metion granth name as well, i did lot of search but couldnot find answers