चतुर्थ गुणस्थान में भी कथंचित् संयम होता है

"चतुर्थ गुणस्थान में भी कथंचित् संयम होता है…
-आचार्य विद्यानन्दि स्वामी

प्रेषक- आ. डॉ. राकेश जी शास्त्री, नागपुर

…… राग-द्वेष मूलक ईर्ष्या, असूया, मद, मान आदि दोष संसार के हेतु हैं, सकल विक्षेपकारी हैं, स्वर्ग-अपवर्ग प्राप्ति में बाधक हैं; उनके होने पर मन का समत्व नष्ट हो जाता है, उसके नष्ट होने से समाधि भी बाधित हो जाती है, जिससे समाधिमूलक निर्वाण की प्राप्ति किसी को भी नहीं होती; इसलिए मोक्ष के कारण मन के समत्व लक्षणवाली समाधि को चाहते हुए भी जीवादि वस्तु के अनेकांतात्मकत्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
परन्तु यह भी समीचीन नहीं है, उसे कहते हैं - "एकांतधर्माभिनिवेशमूला,
रागादयोSहंकृतिजा जनानाम्।
एकांतहानाच्च स यत्तदेव,
स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते।।52।।

टीका - ………एकांतधर्म में दृढ़ आग्रह एकांतधर्माभिनिवेश कहलाता है। वस्तु सर्वथा नित्य है, कथंचित् अनित्य नहीं - ऐसा मिथ्यात्वयुक्त श्रद्धान ‘मिथ्यादर्शन’ कहलाता है।
-ऐसे एकांतधर्माभिनिवेश मूलक रागादि से राग-द्वेष-माया-मान अर्थात् क्रोध-मान-माया-लोभरूप अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन कषायों तथा नोकषायों का ग्रहण होता है।

शंका - रागादि अर्थात् लोभादि दोष मिथ्यादर्शनमूलक कैसे हो सकते हैं, क्योंकि वे तो असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक मिथ्यादर्शन के अभाव में भी होते हैं?
समाधान - ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि अनन्त संसार के कारणरूप रागादि मिथ्यादर्शन के अभाव में सम्भव नहीं हैं; मिथ्यादृष्टियों को मिथ्यादर्शन के सद्भाव में ऐसे रागादि होते हैं; अतः उनकी मिथ्यादर्शनमूलकता सिद्ध है। यद्यपि अन्यत्र असंयत सम्यग्दृष्टि आदि में क्रमशः असंयम, प्रमाद, कषाय परिणाममूलक लोभ भी होते हैं, तथापि मिथ्यादृष्टि में वे लोभादि मिथ्यादर्शन के सद्भाव में ही होते हैं; इससे ही उनकी मिथ्यादर्शनमूलकता सिद्ध होती है।

शंका - यदि ऐसा है तो उदासीन अवस्था में भी मिथ्यादृष्टि एकांतवादियों को भी रागादि उत्पन्न होंगे?
समाधान - ऐसी शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि उन्हें अहंकृतिजा अर्थात् वे अहंकार से उत्पन्न होते हैं - ऐसा वचन है। अहंकृति अर्थात् अहंकार। वह ‘मैं इसका स्वामी हूँ’ - ऐसे जीवपरिणाम की सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। ‘ये मेरे भोग्य हैं’ - ऐसा आत्मपरिणाम ‘ममकार’ कहा गया है। ‘जो अहंकृति से उत्पन्न होते हैं’ अर्थात् ‘जो ममकार-अहंकार से उत्पन्न होते हैं’ - ऐसा तात्पर्य है। इसलिए मिथ्यादर्शनरूप परिणाम ही जब ममकार-अहंकार के साथ होता है, तब ही वह रागादि को उत्पन्न करता है, उदासीन दशा में नहीं; इस प्रकार एकांत अभिनिवेशरूप महा मोहराजा से उत्पन्न ही रागादि होते हैं। वही कहा है -
"ममकार और अहंकार - ये दो मोहनीयराजा के सचिव हैं, जो सदा सकल रागादि परिवार के परिपोषण करने में तत्पर रहते हैं।"
शंका - भले ही मोहीजनों के रागादि अहंकार से उत्पन्न होते हैं, परन्तु वीतमोहीजनों को तो अहंकार के होने पर भी रागादि के अभाव में वे उसे कैसे उत्पन्न करते हैं?
समाधान - ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। मिथ्यादर्शनादि से सहित होने पर ही अहंकार की रागादि उत्पन्न करने की सामर्थ्य होती है, उससे रहित होने पर सामर्थ्य नहीं होती है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी कारण कार्य को उत्पन्न करें; जैसे, किंचित् तुष से बनाए गए कोयले की अग्नि में किसी को जलाने की सामर्थ्य नहीं होती है।

शंका - एकांत-अभिनिवेश मिथ्यादर्शन है - यह कैसे निश्चित होता है?
समाधान - क्योंकि वस्तु का अनेकांतात्मकपना ही प्रमाण से निश्चित होता है, सम्यक् नय से भी प्रतिपक्ष की अपेक्षा सहित सम्यक् एकान्त की ही व्यवस्था होती है; अतः एकांत-अभिनिवेश का मिथ्यादर्शनपना सिद्ध है - यह पहले से ही निर्णीत-प्राय है।
इसलिए सम्यग्दृष्टि को एकांत का अभाव होने से और उसके विरोधी अनेकांत का निश्चय होने से - एकांत का अभाव होने से - तज्जनित जो कुछ भी एकांत-अभिनिवेश होता है, वह उसे नहीं होता।
एकांतरूप धर्म, जो एकांत-अभिनिवेश का विषयभूत है, उसके अभाव में जो वास्तविकरूप आत्मा का यथार्थ दर्शन है, वही एकांत-अभिनिवेश का अभाव और सम्यग्दर्शन का सद्भाव है, उससे ही उसका स्वाभाविकपना सिद्ध होता है। आत्मा का स्वाभाविकपना होने से समतास्वरूप मन की भी सिद्धि होती है; इस प्रकार हे अर्हत् प्रभु! आपके ‘युक्त्यनुशासन’ में सम्यग्दृष्टि का समतास्वरूप मन सिद्ध होता है - ऐसा वाक्यार्थ है।
संसारी जीवों को दर्शनमोहोदयमूलक चरित्रमोहोदय से उत्पन्न होने वाले रागादि अस्वाभाविक ही होते हैं, क्योंकि उनका औदयिकपना ही माना गया है; तथा दर्शनमोह की हानि होने पर ही चारित्रमोहोदय की हानिपूर्वक रागादि का अभाव होने पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणामों का स्वाभाविकपना होता है। उस सम्यग्दर्शन का औपशमिकत्व, क्षायोपशमिकत्व या क्षायिकत्व ही आत्मस्वरूप होने से स्वाभाविकत्व है। सम्यग्ज्ञान के भी क्षायोपशमिकत्व या क्षायिकत्व को जानना चाहिए। सम्यक्चारित्र में तो सम्यग्दर्शन के समान औपशमिकत्वादि तीनों का स्वाभाविकत्व होता है। यहाँ इनका पारिणामिकत्वरूप स्वाभाविकत्व नहीं समझना चाहिए क्योंकि उसका कर्मोपशमादि से निरपेक्षत्व होता है।

शंका - असंयत सम्यग्दृष्टि को सर्व मन से असंयमरूप राग-द्वेष का सद्भाव होता है, अतः वहाँ यह कैसे सम्भव है?
समाधान - किसी एकांत धर्म में राग के अभाव से और अन्यत्र किसी एकांत धर्म में द्वेष के अभाव से विवक्षित-अविवक्षित एकांतों में उदासीनता की सिद्धि होने पर अविवक्षित का भी निराकरण नहीं होने से उतने मात्र मन के समत्व का सद्भाव होने से वहाँ भी सम्भव है।

शंका - इस प्रकार तो असंयत सम्यग्दृष्टि को भी संयतपने का प्रसंग आता है, क्योंकि मन के समत्व को ही संयम का स्वरूप माना गया है?
समाधान - तो ऐसा कौन कहता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि को सर्वथा संयम का अभाव होता है? उसको भी अनन्तानुबन्धी कषायात्मक असंयम का अभाव होने से संयतपने की सिद्धि होती है।

शंका - फिर उसको असंयतत्व कैसे माना गया है?
समाधान - उसको (चतुर्थ गुणस्थान में) बारह प्रकार का मोह विद्यमान होने से असंयम का सद्भाव होता है।
इसी प्रकार आगे (पंचम गुणस्थान में) अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यान कषायात्मक असंयम का अभाव होने से और प्रत्याख्यान-संज्वलन कषायात्मक असंयम का सद्भाव होने से वह आगमानुसार संयतासंयत सम्यग्दृष्टि कहलाता है।

शंका - यदि ऐसा है तो प्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय पर्यंत संयतासंयत माना जाएगा; क्योंकि वहाँ भी संज्वलन कषायात्मक तथा नोकषायात्मक असंयम का सद्भाव होता है?
समाधान - नहीं, संज्वलनकषायादि की असंयमरूप से विवक्षा नहीं होने से, (वह कषाय) पानी की रेखा के समान होने से, बारह प्रकार के मोह के अभावरूप संयम का अविरोधी होने से तथा परम संयम की प्राप्ति के अनुकूल होने से (वहाँ असंयम नहीं है) - ऐसा कषायप्राभृत शास्त्र से जानना चाहिए।
इसलिए जैसे, असंयत सम्यग्दृष्टि को स्वानुरूप (अपनी अवस्था के अनुरूप) मन:साम्य की अपेक्षा समतारूप मन की सिद्धि होती है; उसी प्रकार संयतासंयत को भी नौ प्रकार से सिद्धि होती है, अतः वहाँ भी किंचित् असम्भाव्य नहीं है।
इस प्रकार अनेकांतरूप युक्ति का अनुशासन सिद्ध होता है - (जितना-जितना) रागादि का निमित्त नहीं होता है, (उतना-उतना) मन के समत्व का निमित्त होता है।

(- युक्त्यनुशासन, श्लोक 52 की आचार्य विद्यानन्दिकृत संस्कृत टीका का शब्दशः हिन्दी अनुवाद)

विषय के अधिक स्पष्टीकरण के लिए आ. डॉ. राकेश जी शास्त्री, नागपुर के इस व्याख्यान को सुनिए-

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