ज्ञानानंद श्रावकाचार

ज्ञानानंद श्रावकाचार

लेखक - ब्र. रायमल्ल जी

Contents:

प्रस्तावना

डॉ. देवेंद्र कुमार शास्त्री

हिन्दी साहित्य में "रायमल्ल"नाम के तीन साहित्यकारों का उल्लेख मिलता है। प्रथम ब्रह्म रायमल्ल हुए जो सत्रहवीं शताब्दी के विद्वान थे। वे हुंवड वंशीय विद्वान थे। उनकी रची हुई अधिकतर रचनाएँ रासो संज्ञक तथा पद्यबद्ध कथाएँ हैं। दूसरे विद्वान कविवर राजमल्ल जी ‘पाण्डे’ नाम से सत्रहवीं शताब्दी में प्रख्यात हो चुके थे। उनकी रचनाएँ अधिकतर टीका ग्रन्थ हैं जो इस प्रकार हैं - समयसार कलश बालबोध टीका, तत्वार्थसूत्र टीका, जम्बूस्वामीचरित एवं अध्यातमकमल मार्तण्ड इत्यादि। तीसरे साहित्यकार प्रस्तुत श्रावकाचार के लेखक ब्रह्मचारी रायमल्लजी हैं। इन्द्रध्वज विधान - महोत्सव पत्रिका के साथ ही प्रकाशित अपनी जीवन - पत्रिका में उन्होंने आप नाम “रायमल्ल” दिया है। पण्डित प्रवर टोडरमलजी, पं. दौलतरामजी कासलीवाल और पं. जयचन्दजी आदि विद्वानों ने अत्यन्त सम्मान के साथ उनके “रायमल्ल” नाम का उल्लेख अपनी रचनाओं की प्रशस्तियों में किया है।
पण्डित दौलतरामजी कासलीवाल के उल्लेख से स्पष्ट है कि वे जयपुर निवासी थे। दौलतरामजी ने अपने आपको उनका मित्र लिखा है। उनके ही शब्दों में -
रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घट में स्व-पर-विवेक।।
दयावन्त गुणवन्त सुजान, पर-उपकारी परम निधान।
दौलतराम सु ताको मित्र, तासों भाष्यो वचन पवित्र ।।5।।
इस उद्धरण से स्प्ष्ट है कि मित्र की साक्ष्य के अनुसार रायमल्ल विवेकी पुरुष थे। दया, परोपकार, निरभिमानी आदि अनेक गुणों से विभूषित थे। उन्हें एक दार्शनिक का मष्तिष्क, श्रदालु का ह्रदय, साधुता से व्याप्त सम्यक्त्व की सैनिक दृढ़ता और उदारता पूर्ण दयालु के कर-कमल सहज ही प्राप्त थे। वे गृहस्थ होकर भी गृहस्थपने से विरक्त थे, एकदेश व्रतों को धारण करने वाले उदासीन श्रावक थे। वे जीवन भर अविवाहित रहे। तेईस वर्ष की अवस्था में उन्हें तत्वज्ञान की प्राप्ति हो गई थी।

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राजस्थान में शताब्दियों से शाहपुरा धर्म का एक केन्द्र रहा है। लगभग तीन शताब्दियों से यह जैनधर्म, रामसनेही तथा अन्य धर्मावलम्बियों का मुख्य धार्मिक स्थान है। भीलवाड़ा से लगभग बारह कोस दूरी पर स्थित शाहपुरा सरावगियों का प्रमुख गढ़ रहा है, जहाँ धार्मिक प्रवर्तियाँ सदा गतिशील रही हैं। स्वाध्याय की रुचि सदा से इस नगर में बनी रही है। जैन शास्त्रों का जितना बड़ा शास्त्र-भण्डार यहाँ है, उतना बड़ा सौ-दो सौ मील के क्षेत्र में भी नहीं है। रायमल्लजी का धार्मिक जीवन इसी नगर से प्रवर्त्तमान हुआ। वे यहाँ सात वर्ष रहे। यहीं पर उनको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई थी। उनके ही शब्दों में -
“थोरे ही दिनों में स्व-पर का भेद-विज्ञान भया। जैसे सूता आदमी जागि उठे है, तैसे हम अनादि काल के मोह निद्रा करि सोय रहे थे, सो जिनवाणी के प्रसाद तै वा नीलापति आदि साधर्मी के निमित्त तै सम्यग्ज्ञान दिवस विषें जागि उठै। साक्षात् ज्ञानानन्द स्वरुप, सिद्ध सादृश्य आपणा जाण्या और सब चरित्र पुद्गल द्रव्य का जाण्या। रागादिक भावाँ की निज स्वरुप सूं भिन्नता वा अभिन्नता नीकी जाणी। सो हम विशेष तत्वज्ञान का जानपणा सहित आत्मा हुवा प्रवर्ते। विराग परिणामाँ के बल करि तीन प्रकार के सौगंद-सर्व हरितकाय, रात्रि का पाणी व विवाह करने का आयु पर्यंत त्याग किया। ऐसे होते संते सात वर्ष पर्यंत उहाँ ही रहे।”
स्थितिकाल :- जयपुर निवासी पं. रायमल्लजी उस युग के प्रसिद्ध विद्वान् पं. टोडरमलजी, पं. दौलतरामजी कासलीवाल और कवि द्यानतरायजी के समकालीन थे। अपनी पत्रिका में उन्होंने पं. दौलतराम का और भूधरदास का उल्लेख किया है। पं. जयचन्द छाबड़ा, पं. सेवाराम, पं. सदासुख आदि उनके पश्चात्वर्ती विद्वान हैं। पं. जयचन्द छाबड़ा ने यह उल्लेख किया है कि ग्यारह वर्ष के पश्चात् मैंने जिनमार्ग की सुध ली। वि.सं. 1821 में जयपुर में इन्द्रध्वज-विधान का महोत्सव हुआ था। उसमें सम्मिलित होकर आचार्यकल्प पं.टोडरमलजी के आध्यात्मिक प्रवचनों से प्रभावित होकर उनका झुकाव जैनधर्म की ओर हुआ था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि पं. रायमल्लजी की लिखी हुई पत्रिका उस युग का सबसे बड़ा दस्तावेज है जो जयपुर में तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में जैनधर्म की वास्तविक स्थिति पर सम्यक् प्रकाश डालने वाला है। उनके साहित्यिक कर्त्तृत्व का उल्लेख करते हुए पं. सेवाराम जी कहते हैं -
वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल क्रिपाल।
ता प्रसंग को पाय कै, गहयौ सुपंथ विसाल।।
गोम्मटसारादिक तनै, सिद्धान्तन में सार।
प्रवर बोध जिनके उदै, महाकवि निरधार।।
फुनि ताके तट दूसरो, रायमल्ल बुधराज।
जुगल मल्ल जब ये जुरे,और मल्ल किह काज।।
(शान्तिनाथपुराणवचनिका - प्रशस्ति )
पं. रायमल्लजी ने पत्रिका में अपने जीवन के विषय में जो उल्लेख किया है, उससे यह निश्चित हो जाता है कि 22 वर्ष तक उनको धार्मिक ज्ञान नहीं था। शाहपुरा में उनको यथार्थ धर्म-बोध प्राप्त हुआ। वहाँ वे 7 वर्ष रहे। 29 वर्ष की अवस्था में वे उदयपुर गये और वहाँ पर पं. दौलतरामजी कासलीवाल से मिले। पं. दौलतरामजी कासलीवाल से मिले। पं. दौलतरामजी जयपुर के राजा जयसिंह के वकील थे।
ब्र. रायमल कुछ दिनों तक शाहपुरा में रहे। फिर पं. टोडरमलजी से मिलने के लिए पहले जयपुर, आगरा, फिर सिंघाणा गये। कहा जाता है की गोम्मटसार की टीका प्रारंभ होने के (क्योंकि ब्र. रायमल्ल के अनुसार उक्त टीकाओं के बनाने में तीन वर्ष का समय लगा और उनकी प्रेरणा से ही टीका लिखी गई तथा वे तीन वर्ष तक वहाँ रहे ) 3-4 वर्ष पूर्व अर्थात् वि.सं. 1808 - 9 में वे पं टोडरमलजी से मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक व प्रयत्नशील थे। इन्द्रध्वज-विधान-महोत्सव-पत्रिका से यह स्पष्ट है कि माह शुक्ल 10 वि.सं. 1821 में इन्द्रध्वज पूजा की स्थापना हुई थी। उसके लगभग तीन वर्ष पूर्व निश्चित रुप से वि.सं. 1818 में टीकाओं की रचना हो चुकी थी। टीकाओं की रचना में लगभग तीन वर्ष का समय लगा था। अतः यदि तीन वर्ष पूर्व पंड़ित प्रवर टोडरमलजी ने ब्र. पं.रायमल्लजी की प्रेरणा से टीका-रचना का प्रारम्भ किया हो,तो वि.सं. 1815 के लगभग समय ठहरता है। इससे यह भी निश्चित है कि ब्र. पं. रायमल्लजी यदि दो-तीन वर्ष उदयपुर-जयपुर-आगरा-जयपुर घूम-फिर कर बत्तीस वर्ष की अवस्था में शेखावाटी के सिंघाणा नगर में पं. टोडरमलजी से मिले हों, तो वह वि.सं. 1812 का वर्ष था और इस प्रकार उनका जन्म वि.सं. 1780 सम्भावित है।

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पण्डितजी दौलतरामजी और पं. टोडरमलजी ब्र. रायमल्लजी सी अवस्था में बड़े थे। पण्डित टोडरमलजी को उन्होंने कई स्थानों पर भाईजी, टोडरमलजी लिखा है। उनकी ज्ञान-गरिमा और रचनात्मक शक्ति से वे अत्यन्त प्रभावित थे। उनके ही शब्दों में "सारां ही विषै भाईजी टोडरमलजी के ज्ञान का क्षयोपशम अलौकिक है। " पण्डित टोडरमलजी का जन्म वि.सं.1776-77 में कहा गया है। पं. दौलतरामजी कासलीवाल का समय निर्णीत है। उनका जन्म वि.सं.1745 में बसवा ग्राम में हुआ था। संक्षेप में, ब्र. पण्डित रायमल्लजी के जन्म की निम्नतम सीमा वि.सं.1775 और अधिकतर सीमा वि.सं.1782 कही जा सकती है। क्योकि यह सुनिश्चित है कि पं दौलतरामजी से वे अवस्था में छोटे थे। और तीस वर्ष की अवस्था के पश्चात् ही वे पंडित प्रवर टोडरमलजी से मिले थे। उन्होंने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है कि टीकाएँ सिंघाणा नगर में रची गई।
उन्होंने रचने का कार्य किया और हमने बाँचने का। उनके ही शब्दों में - “तब शुभ दिन मुहूर्त विषैं टीका करने का प्रारंभ सिंघाणा नग्न विषै भया। सो वे तो टीका बणावते गये, हम बांचते गए। बरस तीन में गोम्मटसार ग्रन्थ की अड़तीस हजार, लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की तेरह हजार, त्रिलोकसार ग्रन्थ की चौदह हजार, सब मिलि च्यारी ग्रन्थ की पैंसठ हजार टीका भई। पीछै सवाई जैपुर आए।” इसी के साथ उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि इस बीच वि.सं.1817 में एक उपद्रव हो गया।
यह सुनिश्चित है कि पण्डितप्रवर टोडरमलजी वि.सं.1811 में मुलतान वालों को रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिख चुके थे। उसमें कहीं भी किसी रुप में ब्र. रायमल्लजी के नाम का उल्लेख नहीं है। यह भी एक अद्भुत सादृश्य है कि पण्डित प्रवर के इस कृतित्व और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ब्र. रायमल्लजी ने उनसे ग्रन्थ रचना के लिए अनुरोध किया हो। अतः सभी प्रकार से विचार करने पर यही मत स्थिर होता है कि ब्र. रायमल्लजी का जन्म वि.सं. 1780 में हुआ था।
रचनाएँ :- अभी तक ब्र. पं रायमल्लजी की तीन रचनाएँ मिली हैं। रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं :- (1) इन्द्रध्वजविधान-महोत्सव-पत्रिका (वि.सं.1821 ) (2) ज्ञानानन्द श्रावकाचार (3) चर्चा-संग्रह।
इसमें कोइ सन्देह नहीं है कि पण्डित प्रवर टोडरमलजी के निमित्त से ही ब्रह्मचारी रायमल्लजी साहित्यिक रचना में प्रवृत हुए। उनके विचार और इनका जीवन अत्यन्त सन्तुलित था, यह झलक हमें इनकी रचनाओं में व्याप्त मिलती है। “चर्चा-संग्रह” के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्व-विचार तथा तत्व-चर्चा करना ही इनका मुख्य ध्येय था। डॉ. भारिल्ल के शब्दों में "पण्डित टोडरमल के अद्वितीय सहयोगी थे - साधर्मी भाई ब्र. रायमल्लजी, जिन्होंने अपना जीवन तत्त्वाभ्यास और तत्वप्रचार के लिए ही समर्पित कर दिया था।

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“इन्द्रध्वज-विधान-महोत्सव-पत्रिका” की रचना माघ शुक्ल 10, वि.सं. 1821 अठारा से इकबीस कै सालि इन्द्रध्वज पूजा का स्थापन हुआ। सो देश-देश के साधर्मी बुलवाने को चिठ्ठी लिखी, ताकि नकल यहाँ लिखिये है।"
“चर्चा-संग्रह” में विविध धार्मिक प्रश्नोत्तरों का सुन्दर संग्रह किया गया है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वैद्य गम्भीरचन्द जैन को अलीगंज (एटा) के शास्त्र-भण्डार में वर्षों पूर्व मिली थी। इस प्रति के लिपिकार श्री उजागरदास ने इसे वि.सं.1854 में लिपिबद्ध किया था। उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों में यह सबसे प्राचीन प्रति है। अतः इसकी रचना वि.सं.1850 के लगभग अनुमानित है।
इस ग्रन्थ की रचना ग्यारह हजार दो सौ श्लोक प्रणाम है। इसमें अत्यन्त उपयोगी चुने हुए प्रश्नों के युक्तियुक्त संक्षिप्त उत्तर है।
श्रावकाचार का रचनाकाल :- “ज्ञानानन्द श्रावकाचार” के अध्यनन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक को प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। चारों अनुयोगों पर उनका समान अधिकार प्रतीत होता है। छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि का ज्ञान हुए बिना वे इस शास्त्र की रचना नहीं कर सकते थे। ग्रन्थ के प्रारंभ में तथा अन्य स्थलों पर उन्होंने अपनी पद्य-रचना के निर्देशन प्रस्तुत किए है। यथार्थ में उनकी शैली सरल होने पर भी गरिमा युक्त हैन.। उदाहरण के लिए, हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत है -
“सो यह कार्य तो बड़ा है और हम योग्य नहीं, ऐसा हम भी जानते है, परन्तु “अर्थी दोषं न पश्यति”।अर्थी पुरुष है वह शुभाशुभ कार्य का विचार नहीं करता, अपना हित ही चाहता है। इसलिए मैं निज स्वरुप-अनुभवन का अत्यन्त लोभी हूँ। इस कारण मुझे और कुछ सूझता नहीं है। मुझे तो एक ज्ञान ही ज्ञान सूझता है। ज्ञान के भोग के बिना और से क्या है ?इसलिए मैं अन्य सभी कार्य छोड़कर ज्ञान ही की आराधना करता हूँ तथा ज्ञान ही का अर्चन करता हूँ और ज्ञान ही की शरण में रहना चाहता हूँ।”
ज्ञानानन्द का अभिप्राय :- इस ग्रन्थ का पूरा नाम "ज्ञानानन्द निर्भरनिजरस श्रावकाचार"है।स्वरस का ही दूसरा नाम ज्ञानानन्द है। स्व माने अपना और अपना माने आत्मा का। आत्मा का रस ज्ञानानन्द या शान्तिक है। उसमें किसी प्रकार की आकुलता नहीं है, वह निराकुल सुख है। उसकी प्राप्ति स्व-संवेदनगम्य ज्ञानानुभव से ही हो सकती है,अन्य कोई उपाय नहीं है। ज्ञान का अनुभव कहिये या निज स्वरुप की अनुभूति कहिय,एक ही बात है। निज स्वरुप का ध्यान करने से विशेष आनन्द होता है। ज्ञानानन्द से अभिप्राय अतीन्द्रिय आनन्द से है।
शुद्धोपयोगी मुनि का उदाहरण देते हुए ब्र. पं. रायमल्ल कहते हैं- जैसे ग्रीष्मकाल में भुख-प्यास से पीड़ित कोई पुरुष कोई पुरुष, शीतल जल में गले हुए मिश्री के ढेले को अत्यन्त रुचि के साथ गटक-गटक कर पीता है और तृप्त होता है, वैसे ही शुद्धोपयोगी महामुनि स्वरुपाचरण होने से अत्यन्त तृप्त हैं और बार-बार उसी रस को चाहते हैं। यदि किसी समय में पूर्व वासना के निमित्त से, शुभ उपयोग में लग जाते हैं, तो ऐसा जानते हैं कि मेरे ऊपर आफत आई है, हलाहल जहर के समान यह आकुलता मुझसे कैसे भोगी जायेगी ? अभी हमारा आनन्द रस निकल गया है। फिर, हमें ज्ञानानन्द रस की प्राप्ति होगी या नहीं ? हाय! हाय! अब मैं क्या करुँ ? यह मेरा स्वभाव है।
मेरा स्वभाव तो एक निराकुल, बाधा रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम, स्वरस पीने का है सो मुझे प्राप्त होवे। कैसे प्राप्त हो ? जैसे समुद्र में मग्न हुआ मच्छ बाहर निकलना नहीं चाहता है और बाहर निकलने में असमर्थ होता है, वैसे ही मैं ज्ञान-समुद्र में डूबकर फिर निकलना नहीं चाहता हूँ। एक ज्ञान रस को ही पिया करुँ। आत्मिक रस के बिना, अन्य किसी में रस नहीं है। सारे जग की सामग्री चेतन रस के बिना उसी प्रकार फीकी है,जैसे नमक के बिना अलोनी रोटी फीकी होती है।
ग्रन्थ-निर्माण का प्रयोजन :- ग्रन्थकार के लिये रचना तो निमित्त मात्र है। यथार्थ में वे अपने से जुड़े हैं, अपने चित्त को एकाग्र कर अपने उपयोग को, अपने में लगाने का पुरुषार्थ किया है। परमात्मा का स्मरण करते हुए, वे अपनी पहचान करते हैं। परमात्मा देव कैसे हैं ? जिनके स्वभाव से ज्ञान अमृत झर रहा है और स्व-संवेदन से जिसमें, आनन्द रस की धारा उछल रही है। वह रस-धार उछल कर अपने स्वभाव में ऐसी गर्क हो जाती है, जैसे शक्कर की डली जल में गल जाती है। इसलिए रचनाकार ज्ञानानन्द की प्राप्ति के लिये ही इस श्रावकाचार की रचना करते हैं। उनके ही शब्दों में - “ज्ञानानन्द की प्राप्ति के अर्थ और प्रयोजन नाहीं।”
आगै करता (कर्ता) आपणा स्वरुप कौ प्रगट करे है वा आपणा अभिप्राय जनावै है। सो कैसा हूँ मैं ? ज्ञान ज्योति करि प्रगट भया हूँ, तातै ज्ञान ही नै चाहूँ हूँ। ज्ञान छै, सो म्हारा निज स्वरुप छै। सोई ज्ञान-अनुभव-करि , मेरे ज्ञान ही की प्राप्ति होहु।मैं तो एक चैतन्य स्वरुप ता करि उत्पन्न भया, ऐसा जो शांतिक रस ताकै पीवा कूं उद्यम किया है, ग्रन्थ बनावा का अभिप्राय नाहीं। ग्रन्थ तौ बड़ा-बड़ा पण्डिता नै घना ही बनाया है , मेरी बुद्धि कांई ?पुनः उस विषैं बुद्धि की मंदता करि, अर्थ विशेष भासता नाहीं, अर कषाय गल्या बिना, आत्मिक रस उपजै नाहीं, आत्मिक रस उपज्या बिना, निरकुलित सुख ताकौ भोग कैसे होय ? “तातै ग्रन्थ का मिस, चित्त एकाग्र करिवा का उद्यम किया।”
इसप्रकार मुख्य प्रयोजन निज आत्मा का अनुभव करना ही है। यथार्थ में स्व-स्वरुप के सन्मुख व्यक्ति को ज्ञान के सिवाय कुछ नहीं सूझता है, अतः आत्म-विनय के साथ ही ब्रह्मचारी रायमलजी ने वास्तविकता को ही प्रकट किया है। जैसे भोगी को भोग के सिवाय खाना-पीना आदि कुछ अच्छा नहीं लगता, वैसे ही ज्ञान की ओर झुकने वाले को ज्ञान के, भोग के बिना सब फीका लगता है।
विशेषताएँ :- लगभग एक सौ से अधिक श्रावकाचार उपलब्ध होते हैं। किन्तु उन सभी श्रावकाचारों से इसमें कई बातें विशेष मिलती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैसे “ज्ञानानन्द श्रावकाचार” इसका नाम है, वैसे ही मधुर भावों से भरपूर है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित है -
(1 ) प्रायः सभी श्रावकाचार पद्य में रचे गये मिलते है, किन्तु यह गद्य में रची गई प्रथम रचना है। सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्य में है।
(2 ) पानी छानने,रसोई आदि बनाने से लेकर समाधिमरण पर्यन्त तक की सभी क्रियाओं का इसमें विधिवत् वर्णन है। श्रावकाचार की सभी मुख्य बातें इसमें पढ़ने को मिलती है।
(3 ) द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का इतना सुन्दर सामंजस्य इसमें है कि “मोक्षमार्ग प्रकाशक” के सिवाय अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता।
(4 ) पण्डित प्रवर टोडरमलजी, पं. दौलतरामजी कासलीवाल आदि ने जिस विषय का प्रतिपादन किया है, उसके समर्थन में स्थान-स्थान पर आचार्यों के उद्धरण दिए है। परन्तु ब्र.रायमल्लजी ने एक भी श्लोक या गाथा उद्धत नहीं की। केवल नाथूराम कृत “विनय पाठ” की दो पंक्तियाँ उद्धत की है।
(5 ) जलगालन-विधि के अन्तर्गत पानी छानकर जीवानी डालने की जैसी सुन्दर, स्पष्ट, विषद विधि इस श्रावकाचार में बताई गई है। वैसी अन्य शास्त्र में विस्तार से पढ़ने में नहीं आई।
(6 ) भाषा और भावों में बहुत ही सरलता है।
(7 ) निश्चय और व्यवहार दोनों का सुन्दर समन्वय इसमें है।
(8 ) जिन-मन्दिर के चौरासी आसादन दोषों का वर्णन इसमें विशेष रुप से है।
(9 ) जिसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने आगम को सामने रख कर सुप्रसिद्ध अध्यात्म ग्रन्थ “समयसार” की रचना थी, वैसी ही अध्यात्म को सामने रखकर ब्र. रायमल्लजी ने “श्रावकाचार” की रचना की। वास्तव में चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग का सुमेल है।
(10) किसी एक ग्रन्थ के आधार पर नहीं, किन्तु उपलब्ध सभी श्रावकाचारों का सार लेकर इस ग्रन्थ की रचना की गई।
(11) सामान्य जन भी समझ सकें, इस बात को ध्यान में रखकर, स्थान-स्थान पर दृष्टान्त दिए गए हैं।
(12) प्रतिदिन की सामान्य क्रियाओं की भी विधि और उनके गूढ़ अर्थ को स्पष्ट किया गया है।
(13) हेतु,न्याय, दृष्टान्त, आगम, प्रणाम आदि के उपयोग के साथ ही शास्त्रीयता की लीक से हटकर सरल, सुबोध शैली में इस श्रावकाचार की रचना की गई है।
(14) विषय को स्पष्ट करने के लिये अनेक स्थानों पर, प्रश्न प्रस्तुत कर उनका समाधान किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार की भाँति ही श्रावकाचार ग्रन्थों में अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ है। ग्रन्थ की रचना शैली सरल है। प्रसाद गुण से युक्त होने पर भी स्थान-स्थान पर काव्यात्मक छटा तथा अलंकारों का समुचित प्रयोग लक्षित होता है। कल्पना के यथोचित समावेश से नई-नई उपमाओं तथा दृष्टान्तों से रचना भरपूर है। ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें अपने समय की बोली जाने वाली ठेठ ढूंढारी भाषा का प्रयोग है। भाषा में प्रवाह तथा मधुरता है। लेखक ने संस्कृत की शब्दावली का कम स कम प्रयोग किया है, इसलिए इसकी भाषा ठेठ है। ठेठ भाषा में वह भी गद्य में लगभग तीन सौ पृष्ठों की एक बड़ी रचना करना एक सच्चे लेखक का ही कार्य हो सकता है।