स्वरूपाचरण का स्वरूप

स्वरूपाचरण चारित्र के बारे में विस्तार से बताऐं एवं इसके बारे में कहां-कहां उल्लेख मिलता है वह भी बतावें।

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छह ढाला में छठवीं ढाल में स्वरूपाचरण का सुंदर वर्णन है

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चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र होता है।
इसमें आचार्यों के लिखे जितने भी प्रमाण हैं, जिसको भी पता है, वो यहां जरूर रखें।

जहाँ तक मुझे पता है वहाँ तक स्वरूपचारण चारित्र चारित्र का कोई भेद है ही नहीं।
इसका सर्वप्रथम प्रयोग पाण्डेय राजमल जी ने किया है, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी सदासुख दास जी ने 2 जगह इसका उल्लेख किया है। किंतु मूल में कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं है।
स्वरूपचारण तो चारित्र की परिभाषा है, भेद नहीं।
चौथे गुणस्थान में चारित्र का सद्भाव भी अपेक्षाकृत सिद्ध है, आगम में जिसे चारित्र संज्ञा दी गयी है उसके आधार से चारित्र सिद्ध नहीं होता।

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शोध पत्र
चौथे गुणस्थान में चारित्र
-अनुभव शास्त्री, खनियांधाना

प्रस्तावना : जैनदर्शन के अनेकों ऐसे सिद्धांत जिनकी समीक्षा अन्य मतावलम्बियों की , और अन्य मतों के अनेकों ऐसे सिद्धांत जिनकी समीक्षा जैनाचार्यों ने की। जिनमें से सर्वाधिक विषय न्याय संबंधित हैं। जैसे कि सर्वज्ञसिद्धि, अकर्तावाद, अनेकान्तवाद, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, क्षणिकवाद, सन्निकर्ष सिद्धांत इत्यादि। ये कुछ ऐसे विषय हैं जिसके संबंध में एक मत दूसरे मत से वाद-विवाद करता है, एवं स्वमत को सही प्रमाणित करने की भरपूर कोशिश करता है। लेकिन, एक ही मत में भी अनेकों ऐसी चर्चाएँ हैं जो आपस में ही विवाद का विषय बनी हुई हैं। जैसे कि जैन परम्परा में श्वेताम्बर और दिगम्बर विषय प्रतिपादन में असमानता, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्थानकवासी और मूर्ति पूजक संगठनों में विषय प्रतिपादन की असमानता, दिगम्बर सम्प्रदाय में 13 पंथ और 20 पंथ के विषय प्रतिपादन में असमानता, 13 पंथ के अंतर्गत ही निश्चय और व्यवहार शैली के प्रतिपादन में असमानता इत्यादि।

प्रस्तुत शोध में जिस विषय की चर्चा की जा रही है वह है चौथे गुणस्थान में चारित्र की सत्ता - असत्ता। आगम एवं अध्यात्म दोनों के परिपेक्ष्य में क्या चौथे गुणस्थान में चारित्र होता है, अथवा नहीं? यदि होता है तो कैसे? एवं यदि नही होता तो कैसे?

उपर्युक्त प्रश्न आज एक ही समाज के अंदरूनी विघटन का कारण बने हुए हैं जिन पर निष्पक्ष शोध अत्यंत आवश्यक है। न मात्र सामाजिक विरोध को मिटाने के लिए अपितु सच्चे वस्तुस्वरूप के निर्णय हेतु भी जो कि हमारे संसार परिभ्रमण को दूर करने में सहायक है इस कारण से भी इस विषय पर शोध अनिवार्य है।

इन सभी प्रश्नों को हल करने का एक मात्र उपाय नय विवक्षा सहित आगम का आश्रय ही है।

चौथे गुणस्थान में चारित्र की सत्ता -असत्ता के संबंध में अनेकों शोधकर्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं , किस किस ने इस संबंध में अपनी लेखनी को बढ़ावा दिया है उनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है।

अन्य शोधकर्ताओं के नाम व संक्षिप्त जानकारी

  1. मुनि श्री 108 कुंथुसागर जी महाराज - भाव त्रय फल प्रदर्शी

इस पुस्तक में मुनि श्री ने चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की सिधि के संबंध में अत्यंत विशद विवेचन किया है जो कि तार्किकता के साथ मौलिक चिंतन को भी समाहित किये हुए है।

  1. स्व. श्री 108 वीरसागर जी महाराज - निजध्रुवशुद्धात्मानुभव

इस पुस्तक में स्व. वीरसागर जी महाराज ने लगभग 25 ग्रंथों व उनकी टीकाओं के आधार से यह सिद्ध करने का सक्षम व सफल प्रयत्न किया है कि अविरति गृहस्थ को भी वीतराग शुद्धोपयोग आत्मानुभव निश्चय सम्यकदर्शन होता है।

  1. मनोहर मारवड़कर - शुद्धोपयोग विवेचन | इस पुस्तक में मनोहर जी ने न्याय सिद्धांतों की कसौटी पर कसकर चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की सिधि की है।

  2. ब्र. हेमचंद जी हेम (प्रस्तोता) एवं डॉ. राकेश कुमार जी नागपुर (संपादक)- सम्यक्त्व चर्चा

भरपूर आगम प्रमाणों सहित पत्र व्यवहार के आधार पर चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की सिधि। पत्र व्यवहार कर्ता - ब्र. हेमचंद जी हेम एवं प. रतनलाल जी बैनाड़ा, आगरा

  1. डॉ राकेश शास्त्री नागपुर - तत्वार्थ सुधा

वैसे तो प्रस्तुत पुस्तक तत्त्वार्थसूत्र के पहले अध्याय की व्याख्या रूप है किन्तु सम्यक्त्व के संबंध में विवेचना करते हुए ‘चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की आंशिक प्राप्ति’ विषय पर आपने गहराई से प्रकाश डाला है जो कि निश्चित ही पाठकों की जिज्ञासा को शांत करता है।

  1. श्री क्षुल्लक धर्मदास जी - स्व जीवन वृतांत | आपने हालाँकि कोई शोधकार्य तो इस संबंध में नही किया है। किन्तु आपने भी अपने विचार चौथे गुणस्थान में चारित्र होता है इस विषय की सहमति के रूप में ही प्रगट किये हैं।

परिकल्पना

प्रस्तुत शोध में चौथे गुणस्थान में चारित्र की सत्ता को सिद्ध करने का सफल प्रयास करने की कोशिश है, इस विषय को स्पष्ट करने के लिए 3 बिन्दुओं को आधार बनाया गया है

  1. चौथे गुणस्थान में चारित्र नहीं होता इस संबंधी विरोध पक्ष का विश्लेषण

  2. चौथे गुणस्थान में व्यवहार चारित्र की सत्ता

  3. चौथे गुणस्थान में निश्चय चारित्र की सत्ता

  4. चौथे गणस्थान में चारित्र नहीं होता इस संबंधी विरोध पक्ष का विश्लेषण

१. आत्मानुभूति और आत्म विश्वास दोनो अलग अलग चीज़ हैं। चौथे गुणस्थानवर्ती को आत्म विश्वास तो होता है लेकिन आत्मानुभूति नही होती। और आत्मानुभूति न होने के कारण चारित्र का सद्भाव नही माना जा सकता।

२. सम्यकदर्शन होने पर सम्यक चारित्र होना अवश्यम्भावी नही है।

३. चौथे गुणस्थान में सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान , सम्यक चारित्र के बिना होते हैं।

४. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता।

५. मिथायत्व आदि अविरत गुणस्थान में असंयम होता है।

६. स्वरूपाचरण चारित्र का वर्णन किसी भी आचार्य ने नही किया है, यह पाण्डेय राजमलजी की कल्पना मात्र है।

( इन सभी बिंदुओं के समाधान हेतु ब्र. हेमचंद जी हेम की सम्यक्त्व चर्चा को देखें )

  1. चौथे गणस्थान में व्यवहार चारित्र की सत्ता

  2. अशुभ कार्य से दूर होना और शुभ कार्य में प्रवृत होना , उसको चारित्र जानना चाहिए।

चूंकि जिस प्रकार का चारित्र पांचवे अथवा छटवे गुणस्थान में देखा जाता है वैसा चारित्र चौथे गुणस्थान में भी देखा जाए ऐसा नही है। और इसका कारण है एक कषाय चौकड़ी का अभाव। एक कषाय चौकड़ी के अभाव पूर्वक उत्पन्न हुई जितनी वीतरागता है उसके अनुसार होने वाला अन्याय, अनीति, और अभक्ष्य के त्याग रूप बाय चारित्र इस गुणस्थान में भी होता ही होता है। किन्तु यह आचरण भी चारित्र नाम तब ही पता है जब निश्चय सम्यकदर्शन के साथ हो।

  1. देव शास्त्र गुरु की भक्ति का राग रूप बाह्य आचरण। चूंकि इस गुणस्थान में ऐसा कोई नियम नहीं होता है कि अविरत सम्यकदृष्टि नित्य देव दर्शन करे ही करे, अथवा नियमित स्वाध्याय करे ही करे, किन्तु यथायोग्य उत्पन्न हुई वीतरागता के अनुसार उसे देव शास्त्र गुरु की भक्ति का परिणाम आता ही आता है। जो परिणाम आता है वह शुभोपयोग रूप होता है, और वह शुभोपयोग ही उपचार से व्यवहार चारित्र नाम पाता है।

  2. प्रशम, संवेग, आस्तिक्य, अनुकंपा इनकी अपेक्षा भी उपचार से ही व्यवहार चारित्र चौथे गुणस्थान में होता है।

यदि संक्षिप्त में कहा जाए तो जिस चारित्र को आगम में व्यवहार चारित्र की संज्ञा दी गयी है वह चारित्र तो चौथे गुणस्थान में नही होता लेकिन जो चारित्र चौथे गुणस्थान में होता है उस चारित्र को उपचार से चारित्र संज्ञा दी जाती है। जिस व्यवहार चारित्र को अनेकों जैनाचार्य चारित्र मानते हैं वह व्यवहार चारित्र आठवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है।

  1. चौथे गुणस्थान में निश्चय चारित्र की सत्ता

शुद्धोपयोग और आत्मानुभूति ये दोनों ही चारित्र के ही अंश हैं। चौथे गुणस्थान में आत्मानुभूति और शुद्धोपयोग दोनों होते हैं, इस संबंधी कुछ उद्धरण व उनकी समीक्षा इस प्रकार है। -

  1. शुद्धोपयोग को स्वयं शुद्ध होने से शुद्धोपयोग नही कहा जा रहा है, बल्कि शुद्धावलम्बनात्, शुद्धध्येयत्वात् , शुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वात् होने से इसका नाम शुद्धोपयोग है।

समीक्षा-चौथे गुणस्थान में होने वाले शुद्धोपयोग को पूर्ण शुद्ध मानना उचित नही है , अपितु जिसका आश्रय यह जीव लेता है वह शुद्ध निजात्मा उसका ध्येय बनने से उसे शुद्धोपयोग कहा गया है।

  1. शुद्धोपयोग के बिना दर्शनमोह का अभाव अथार्त सम्यकदर्शन उत्पन्न नही होता। जैसा कि आचार्य जयसेन लिखते हैं दर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणामविशेषबलेनपश्चादात्मनियोजयति।’

समीक्षा- यहाँ पर दर्शनमोह के नाश की बात है और दर्शनमोह का नाश चौथे गुणस्थान में हो जाता है। और इसका नाश होने पर। सम्यकदर्शन की प्राप्ति होती है। जैसे ही आत्मा का एक गुण सम्यक होता है उसी समय आत्मा के अनंत गुणों में सम्यकता आ जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन गुण के सम्यक होने पर ज्ञान और चरित्रादि सभी गुण सम्यकता को प्राप्त हो जाते हैं (सर्व गुण सर्वथा सम्यक नही हुए अभी) ,अतः सिद्ध होता है कि किसी न किसी रूप में तो सम्यक्चारित्र का सद्भाव अविरत सम्यकदृष्टि के भी पाया जाता है।

  1. जिसने दर्शन मोह का अभाव किया है, उसने शुद्धत्मरूपी चिंतामणि रत्न को प्राप्त कर लिया है।

इसका अर्थ यह है कि चौथे ओर पांचवे गुणस्थान में शुद्धात्मानुभूति लक्षण शुद्धोपयोग की आंशिक उपलब्धि अवश्य होती है।

  1. निज शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित जीवों का जो वीतराग परमानंद सुख प्रतिभासित होता है , वही निश्चय मोक्षमार्ग है।

किंचित वीतराग परमानंद का प्रतिभास चौथे गुणस्थान में भी होता है। क्योंकि उनके मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी के उदय में होने वाले राग भाव का अभाव है , इसलिए अविरत सम्यकदृष्टि भी शुद्धात्मानुभूति वाला है।

  1. पंडित प्रवर टोडरमल जी भी लिखते हैं कि निर्विकल्प अनुभव, चौथे गुणस्थान से ही आरम्भ हो जाता है।

  2. गुणस्थान के आधार से शुद्धोपयोग का काल - संज्वलन , प्रत्याख्यान , अप्रत्याख्यान, और अनंतानुबंधी इन चार कषयों का वासनाकाल क्रम से अन्तर्मुहूर्त, 15 दिन, 6 महीना, और संख्यात , असंख्यात तथा अनंतभव है।

समीक्षा- अविरत सम्यकदृष्टि जीव कम से कम 6 माह में बुधिपूर्वक शुद्धोपयोग प्रगट करता ही है और यही उसका चारित्र है।

  1. चौथे गुणस्थान में द्रव्यानुयोग की अपेक्षा तो शुद्धोपयोग होता है। किंतु करणानुयोग अपेक्षा नही होता। तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है , इसलिए वहाँ छद्मस्थ जिस काल में बुधिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोड़कर (4-5 गुणस्थानवर्ती जीव) आत्मानुभव आदि कार्य में प्रवर्ते , उस काल में उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं।

  2. ध्यान की अपेक्षा चौथे गुणस्थान में चारित्र

धर्मध्यान , सम्यकदृष्टि के ही होता है , वह चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर सप्तम गुणस्थान तक होता है।

धर्मध्यान तो अप्रमत्त गुणस्थान में ही होता है ऐसा कहना ठीक नही है क्योंकि अप्रमत्त गुणस्थान में ही धर्मध्यान मानने पर असंयत सम्यकदृष्टि , संयतासंयत , और प्रमत्त संयत के धर्म ध्यान के अभाव का प्रसंग आता है। असंयत सम्यकदृष्टि आदि के भी सम्यकदर्शन पूर्वक धर्मध्यान होता है।

कोई कहता है कि धर्मध्यान तो सप्तम गुणस्थान वर्ती मुनिराज के ही होता है , लेकिन यह मानना उचित नही है क्योंकि , चौथे , पाँचवे तथा छठे गुणस्थानवर्ती आत्माओं के सम्यकदर्शन के प्रभाव से धर्मध्यान होता है , अतः सातवे गुणस्थानवर्ती के ही धर्मध्यान होने का एकांत हठ करना समुचित नही है।

इसी प्रकार ऐसा मानना की चतुर्थ आदि गुणस्थानों में व्यवहार धर्मध्यान होता है और सप्तम गुणस्थान में शुद्धोपयोगरूप निश्चय धर्मध्यान होता है , यह मान्यता उचित नही है। चतुर्थ आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के भी सम्यकदर्शन के प्रभाव से शुद्धोपयोग होता है।

सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान दोनों चारित्र में गर्भित होते हैं क्योंकि तीनों का परस्पर अविनाभाव संबंध होने से ये तीनों अखण्डित हैं।

चतुर्थ गुणस्थान में अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी का नियम से आभव होता है , अतः चौथे गुणस्थान में चारित्र गुण की पर्याय भी आंशिक वीतरागता को लिए हुए होती है, इसका अर्थ यह हुआ कि सम्यकचारित्र होता है , इसी के आधार से वहाँ पर शुद्धोपयोग होता है। जो शुद्धोपयोग है वही चारित्र है।

निष्कर्ष रूप से कहा जाए तो हमें जिनागम की दोनों शैलियों को समझना होगा, और उसी के आधार से इसका निर्णय करना होगा। यदि वास्तव में देखा जाए तो इन दोंनो (चारित्र की सत्ता असत्ता) के विषय में किसी भी प्रकार का भ्रम नही होना चाहिए क्योंकि जिस चारित्र को व्यवहार चारित्र नाम दिया गया है वह व्यवहार चारित्र चौथे गुणस्थान में नही होता, लेकिन वहाँ मिथ्या चारित्र होता है ऐसा भी नही है , इसलिये जिनागम में इसे अचारित्र नाम दिया गया है। दूसरी बात ये की श्रद्धा और ज्ञान गुण के आंतरिक रूप से निर्मल हो जाने के कारण निश्चय चारित्र की प्राप्ति भी इस चौथे गुणस्थान में हो जाती है , जिसका कारण उस गुणस्थान में न होने वाली कषायें और स्थूल शुद्धोपयोग है।

संदर्भित सूची ग्रंथ

  1. राजवर्तिक 1-1

  2. गुणभद्र आचार्य कृत उत्तर पुराण 74-543

  3. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 12

  4. मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार-9

  5. वृहदद्रव्य संग्रह, 45

  6. देखें वृहदद्रव्य संग्रह, 34 टीका

  7. प्रवचनसार गाथा 80 की तात्पर्य वृत्ति टीका

  8. वही, 81, 82 गाथा की उत्थानिका एवं टीका

  9. वृहदद्रव्य संग्रह, 56, टीका

  10. समयसार तात्पर्य वृति, 212-213

  11. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 46

  12. मोक्षमार्गप्रकाशक, 8 अधिकार, पृष्ठ 284-286

  13. रत्नकरण्डश्रावकाचार, भावना अधिकार, पृष्ठ 364

  14. राजवार्तिक भाग 2, 9/36(13), आसाम

  15. तत्वार्थश्लोकवार्तिककार, भाग7, 9/36, पृष्ठ 305, सर्वार्थसिधि 9/36

  16. प्रवचनसार, गाथा 7 टीका

  17. पंचाध्यायी, अध्याय 2 , श्लोक 765

  18. मोक्षपाहुड गाथा 72 का भावार्थ

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तर्क सयुक्तिक हैं, किन्तु निष्कर्ष नहीं।

साथ ही स्वरूपाचरण, निश्चय सम्यक्चारित्र का पर्यायवाची है। तो जहाँ-जहाँ निश्चय सम्यक्चारित्र पाया जाता है, वहाँ-वहाँ स्वरूपाचरण चारित्र होता है।

अब, यदि 4 गुणस्थान में निश्चय चारित्र अस्वीकार है तब तो अध्यात्म क्या, आगम का भी अपेक्षा से लोप हो जाएगा।

युक्त्यनुशासन श्लोक 52 एवं धवल पुस्तक 1 में 2 गुणस्थान के विस्तार में अनन्तानुबंधी की द्विस्वभावता का प्रकरण

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Already covered by me n @anubhav_jain ji too.

धवला में स्वरूपाचरण चारित्र का वर्णन है। धवला पुस्तक-१ -

सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र का प्रतिबंध करनेवाले अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है।

इससे स्पष्ट है कि अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व एवं स्वरूपाचरण चारित्र दोनों का घात करती है - चतुर्थ गुणस्थान में इसका अनुदय से सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्र का उदय होता है।

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स्वरूपाचरण यह शब्द मूल संस्कृत में नहीं है।

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