सर्वघाती प्रकृतियां केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण कर्म का क्या कार्य है?
मूल में प्रश्न यह है कि इनमे सर्वघाति का क्या कार्य है, और दर्शन मोहनीय की सर्वघाति से इनके कार्य में क्या अंतर है?
ज्ञान और दर्शन की पूर्ण शुद्घ पर्याय (केवलज्ञान और केवलदर्शन) का घात करता है (प्रकट नहीं होने देता)
ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण है।
दर्शन मोह आत्मा का गुण नही परंतु आत्मा का श्रद्धा गुण का विभाव रूप परिणमन है।
दर्शनमोह की तीन प्रकृति है।
- मिथ्यात्व - सर्वघाती ( सम्यक्त्व होने में पूर्ण रूप से बाधक है)
- सम्यक्मिथ्यात्व- जात्यन्तर सर्वघाती( सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्र रूप परिणाम पाए जाते है)
3)सम्यक प्रकृति - देशघाती ( सम्यक्त्व प्रगट होने देता है परंतु चल मल अगाढ़ आदि दोष लगते है)
केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनवरण दर्शन मोह की मिथ्यात्व प्रकृति जैसा कार्य करते है। 0 % या 100% जैसा कार्य करते है।इसमे क्षयोपशम पना पाया नही जाता।
मेरा प्रश्न इसलिए है क्यूंकि जिस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर सम्यक्त्व का पूर्ण रूप से अभाव होता है, इसी प्रकार केवल ज्ञानावरण के उदय होने पर ज्ञान का पूर्ण अभाव तो नहीं होता है।
Ya because all three are sarvghati prakarti.
Samyaktva ka ghat hota h pr shradha gun ka nhi.samyakdarshan to shradha gun ka samyak parinaman h.mithyatva shradha gun ki purna shuddh paryay ka purn ghat karta h.
Usi prakar kevalgyanavaran bhi gyan ki purn shuddh paryay yani kevalgyan ko prakat nhi hone deta.
kabhi bhi shradha ka aur gyan ka purn ghat nhi hota.
ज्ञान का नहीं होता है पर श्रद्धा / सम्यक्त्व का और चारित्र का होता ही है।
How?
क्युकी श्रद्धा और चरित्र गुण तो निगोदिया जीव को भी होता है ,मिथ्या दर्शन और मिथ्या चारित्र के रूप में।
ज्ञान गुण की 5 पर्याय बताई है।
1)मतिज्ञानावरण ( देशघाती)
2) श्रुतज्ञानावरण (देशघाती)
3)अवधि ज्ञानावरण (देशघाती)
4)मनः पर्याय ज्ञानावरण (देशघाती)
5)केवलज्ञानावरण ( सर्वघाति)
यहां प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र है एक का अभाव होने पर बाकी सबका अभाव हो जाये ऐसा नही है।
जिस प्रकार मोहनीय कर्म की उदय उपशम क्षय क्षयोपशम - ये चारों ही अवस्थाएं होती है, उसी प्रकार अन्य तीन घातिया कर्मों की नहीं होती। उनका मात्र क्षय और क्षयोपशम होता है।
श्रद्धा और चारित्र के पूर्ण विपरीत परिणाम को ही मिथ्या दर्शन और मिथ्या चारित्र कहते है। मोहनीय की सर्वघाती प्रकृति के उदय होने से समयक्त्व और चारित्र का संपूर्ण अभाव है।
उदय भले ही सभी का हो परंतु ज्ञान की तो एक समय में एक ही पर्याय होती है। उस एक पर्याय में इन सभी को घटित करना सही रहेगा, न कि इनको भिन्न भिन्न पर्याय के रूप में स्वीकारना।
एक पर्याय में सबको घटित करना हो तो ज्ञान की देशघाती प्रकुति का सम्पूर्ण रूपसे घात कैसे हो सकता है सम्पूर्ण घात हो जाये तो वह सर्वघाती हो जायेगी।
जैसे क्षयोपशम सम्यकदृष्टि को दर्शन मोह का उदय तो रहता है परंतु मिथ्यात्व का संपूर्ण घात हो जाता है।
उसी तरह ज्ञान में मतिज्ञान का उदय तो रहता है परंतु केवलज्ञानवरण का संपूर्ण घात हो जाता है।
व्यक्त रूप से एक समय में एक ही ज्ञान होगा परन्तु क्षयोपशम रूप से २, ३, ४ ज्ञान एक साथ पाए जा सकते हैं with their respective कर्मोदय। ऐसा कहा भी जाता हैं - चार ज्ञान के धारी मुनिराज।
देशघाती प्रकृति होने के कारण, अनेक जीवों की अपेक्षा मति, श्रुत अवधि, मनःपर्यय ज्ञान में हिनाधिक्ता पायी जाती हैं तथा सर्वघाती होने के कारण, कर्म के अभाव में सर्व केवलज्ञानियों के ज्ञान में समानता पायी जाती हैं।