५. सम्यग्दर्शन के आठ अंग
निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा पालो।
अमूढ़दृष्टि होकर, उपगूहन संभालो।।१।।
करो स्थितिकरण धर्म में, वात्सल्य उर लाओ।
विनय विशुद्धि और लगन से, धर्म प्रभाव बढ़ाओ।।२।।
आठ अंग सम्यग्दर्शन के , इन्हें सदा तुम धरना।
सकल धर्म का मूल यही है, भवसागर से तरना।।३।।
रचयिता:- बा.ब्र.श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’