आलू का निषेध क्यों?

आलू की उत्पत्ति कब हुई और क्या दिव्यध्वनि में आलू के निषेध की बात आई है ? अगर आई है तो इसकी चर्चा देखने को क्यों नहीं मिलती और अगर नहीं तो भी इसकी चर्चा सामान्य जन को पूर्ण रूपेण नहीं अतः इस पर चर्चा करें। बेंगन में क्या दोष है, लभेड़ा में क्या दोष है आदि को थोड़ा स्पष्ट करें एवं ग्रंथ प्रमाण हो तो उपलब्ध करावें… ।

अंग्रेज जब भारत मे आये टैब वो आलू , टमाटर, वाईन,सिगरेट, रेफ्रिजरेटर, अलुमिनियम के बर्तन , ब्रेड आदि वस्तुए वे भारत लेकर आये थे।उससे पहले भारत मे कोई नही खाता था। ये सभी वस्तुए स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।हमारे पुराने चरणानुयोग के ग्रंथ में भी आलू की बात नही की है क्योंकि उस समय वह था ही नही।जमीन के अंदर उगाई गई सभी वस्तुए सूर्यप्रकाश न मिलने के कारण स्वास्थ्य के लिए भी आर्युवेद शास्त्र ने हानिकारक बताया है और उसमें जीवो की संख्या अधिकमात्र में पाई जाती है।

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प्रश्न एक आलू में कितने जीव पाये जाते है ?
उत्तर आलू ,शक्करकंद आदि में एक सुई के नौक के बराबर टुकड़े पर असंख्य शरीर है और एक शरीर मे अभी तक जो सिद्ध जीव हुए ,छह महीने और आठ समय मे 608 जीव सिध्द होते है , अभी तक के अनत पुद्गगल परावर्तन में सिद्ध की जो संख्या है उसकी अपेक्षा अनत जीव निगोद के है ।
अनत पुद्गगल परावर्तन की जो सिध्द की संख्या फिर वपिश अनत पुद्गगल परावर्तन आया ।
एक पुद्गगल परावर्तन में उसके अनतवे भाग में अनत चौबीसी होती है ।
ऐसा एक पुद्गगल परावर्तन ,ऐसे अनत पुद्गगल परावर्तन ,उसमे एक चौबीसी में भी 608 समय मे 608 की मुक्ति होती है।
ऐसे अनत अनत पुद्गगल परावर्तन की मुक्ति की जो संख्या है ,उसकी तुलना में निगोद के एक शरीर मे अन्तगुनने जीव है
हम विचार करे कि यदि हम आलू ,जिमीकंद खाते है या खाते नही पर लाते है और बनाते है तो हम कितने जीवो का गातः करके कृत ,कारित ,और अनुमोदना का दोष लगता हैं ।

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एक दिन जब पण्डितजी यह समझा रहे थे कि आलू क्यों नहीं खाना चाहिए, तभी प्रवचन के बीच बोला ही एक नवयुवक खड़ा होकर “अभी आपने कहा था कि आलू में निगोदिया जीव होते हैं और वे हर क्षण अपनी मौत मरते हैं, तो फिर हमें शाकों के राजा आलू को न खाने का उपदेश क्यों दे रहे हो ? हमारी वजह से तो वे जीव मरे नहीं, क्योंकि वे तो हर पल अपनी ही मौत से मरते रहते। है न ?”

पण्डितजी ने मीठी चुटकी लेते हुए कहा “भैया । कम से कम राजा को तो बचने दो । जरा विवेक से सोचो। जो अपनी मौत मररहे हो. क्या उन्हें भी कोई दयालू खा सकता है ? और क्या कहा शाकों का राजा! अरे ! राजा को ही खा जाओगे तो फिर पूजा का क्या होगा ?" नवयुवक बोला - "बात को मजाक में मत टाला, पण्डितजी

मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए ।" पण्डितजी ने अत्यन्त शान्त भाव से कहा - “देखो भाई । यदि तुम्हे सही समाधान चाहिए तो पहले मैं जो कुछ पूछू, तुम्हें उन बातो का सही-सही उत्तर देना होगा ।”

!

“हाँ यह बात मंजूर है ! पूछो जो युवक ने उत्साह से कहा - पूछना हो, पर शास्त्र की बात मत पूछना । वे मुझे नहीं आती ।” पण्डितजी ने पूछा “भाई तुम रहते कहाँ हो ?” -

युवक का उत्तर था - “यही बम्बई सेन्ट्रल में ।” "तुम्हारा मकान कितना बड़ा है "

“मकान की क्या पूछते हो ? पूरी हवेली ही हमारी है, चारो और बहु मजिला मकान है और बीच में काफी बड़ा चौक है ।” पण्डितजी ने मन ही मन सोचा

“बात तो बन गई 1” अंतः पण्डितजी ने पुनः प्रश्न किया "भाई ? क्या तुम बता सकते हो कि तुम्हारे मुहल्ले से मरघट और प्रसूति गृह कितने कितने फासले से होंगे ? युवक को इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं था, अतः वह सोचने

लगा - “मेरे प्रश्न का इन सब बातो से क्या प्रयोजन है ? ये पण्डितजी ऐसे ऊँट-पटांग प्रश्न क्यों कर रहे हैं ?”

मन में क्रोध भी बहुत आ रहा था पर क्रोध को पीता हुआ वह बोला “मरघट तो करीब तीस पैंतीस किलोमीटर होगा और प्रसूति गृह भी बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर तो होगा ही ।”

पण्डितजी ने कहा - “तब तो आप के मुहल्ले वाले को मरघट तक मुर्दा ले जाने और प्रसव की पीड़ा से पीड़ित महिलाओं को प्रसूतिगृह तक ले जाने में बड़ा भारी कष्ट झेलना पड़ता होगा ? क्यों जी !एक काम क्यों न करें ? तुम्हारी हवेली के चौक में तो मुहल्ले के मुर्दे दफनाने की व्यवस्था हो जावे और पहली मंजिल में प्रसतिगृह बनवा देवे । क्यों ठीक है न ?”

“क्या बकते हो ! आपको शर्म नहीं आती ऐसा कहते हुए। मेरा मकान मरघट और प्रसूतिगृह ?” बोला। एकदम आग बबूला होकर युवक

• पण्डितजी ने शान्त करते हुए कहा “तुम चिन्ता क्यों करते हो ? तुम्हारी हवेली में तो मात्र वे ही मुर्दे दफनाये जायेंगे, जो अपनी मौत मरे होंगे । हत्या और आत्महत्या से मरे मुर्दे नहीं । तथा उन्हीं महिलाओं का प्रजनन कराया जायेगा जो वैध होगे, जायज होंगे । अवैध और नाजायज प्रसूतियाँ नहीं कराई जायेगी । तब तो ठीक है न ? और सुनो ! यह सब काम मुफ्त में नहीं होगा । तुम्हें इसके किराये का मुँह माँगा पैसा दिया जायेगा ।”

युवक गरज कर बोला “नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता। मेरा मकान और मुर्दा घर ? बंद करो यह बकवास ।”

पण्डितजी ने उसकी आवाज को दबाते हुए उसी जोश से व्यंगवाण छोड़ते हुए कहा “तुम्हें मकान को तो किसी कीमत पर भी मरघट और मुर्दाघर बनाना पसंद नहीं है और मुँह को मुफ्त में ही मरघट बनाना पसंद है और अपने मुँह को प्रसूतिघर भी खुशी-खुशी बना लेते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती । असंख्य जीव तुम्हारे मुँह में मरे क्या तुम्हें यह पसंद है ? भले ही वे अपनी मौत ही मरते हैं, पर मरते तो तुम्हारे मुँह में ही हैं न ?”

पण्डितजी का यह शंका-समाधान सुनकर न केवल युवक बल्कि वहाँ बैठे लगभग सभी गद्गद् थे और लगभग सभी का मन उसी दिन से आलू न खाने का संकल्प करने के लिए आतुर हो उठा

था।

Novel : संस्कार
by:- आ० रतनचंद भारिल्ल जी

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