व्यवहार ब्रह्मचर्यका आचरण कैसा होता है ?
व्यवहार ब्रह्मचर्य के आचरण व स्वरूप के लिए उचित पुस्तक है आ.डा. हुकुमचंद भारिल्ल(छोटे दादा) की धर्म के दशलक्षण पुस्तक। ब्रह्मचर्य धर्म का प्रकरण पढ़ने पर उसका स्वरूप ख्याल में आ जाऐगा।
ब्रह्मचर्य का पालन शरीर आश्रित विषय भोग की आसक्ति कम हो और जीव आत्मसन्मुख हो, ऐसी भावना के साथ ब्रह्मचर्य का पालन होता है। जब तक विषय भोग की आसक्ति कम नही होगी तब तक आत्मसन्मुख होना कठिन है।
ब्रह्मचर्य में मुख्य रूप से शील की 9 बाड़ का पालन करना होता है। जोकि नाटक समयसार के छंद में बताया है।
वास्तव में शुभचंद्र आचार्य ने ज्ञानार्णव में स्त्री (शरीर) को मांस के लथड़े के समान बताया है। इसमे किंचित मात्र भी सुख नही है।
कुंद कुंद स्वामी ने मूलाचार में शील के 18000 भेद बताये है।इनका पालन मुख्य रूप से मुनिराज को करना होता है।
जिनआगम में ब्रह्मचर्य के तीन स्थान बताये है।
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ब्रह्मचर्य महाव्रत - यह मुनिराज को होता है।
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बह्मचर्य प्रतिमा -यह पालन करने वाले को मध्यमवर्ति सप्तम प्रतिमा धारी श्रावक अथवा इन्हें वर्णी भी कहते है।
इसमे शील की 9 बाड़ का अखंड रूप से निरतिचार पालन होता है। और 1 से 6 प्रतिमा का भी प्रतिज्ञा पूर्वक पालन होता है। -
बह्मचर्य अणुव्रत - यह सामान्य श्रावक और दूसरी प्रतिमा तक अतिचार सहित पालन होता है।
इसमें शील की 9 बाड़ में कभी कभी अतिचार सहित पालन होता है। इसमें श्रावक शादी भी कर सकता है। पुत्र भी पैदा हो सकता है। परंतु परस्त्री के लिए नपुंसक के समान होता है। परस्त्री में शील की 9 बाड़ का पालन करता है। स्व स्त्री में पुत्र प्राप्ति के लिए भोग करेगा।
शरीर के भोग अनंत बार भोगने पर भी जीव सुखी नही होता।आत्मस्वभाव में जाने से जीव अनंत काल तक सुखी हो जाता है। हमें ऐसी श्रद्धा रख कर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
Thank you @Kishan_Shah @JainTanmay
कृपया यहाँ आचार्य का प्रयोजन क्या है वह भी स्पष्ट करें ।
लौकिक में जो कवि लेखक है उन्होंने स्त्री के बाल को समुंदर की लहेरे मुख को चंद्रमा के समान होठ को फूल के समान दिया है।यह सब आसक्ति बढ़ाती है। इसी कारण जीव संसार परिभ्रमण कर रहा है।
परंतु हमारे आचार्यो और कवि ( बनारसीदास जी आदि) ने बालो में असंख्यात समुर्छन्न जीव होते है, शरीर को राख और मिट्टी का ढेर के समान बताकर जीवो को भोगो से छुड़ाने और आत्मसन्मुख करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का प्रयोजन है।
किसीसे द्वेष आदि करने का बिल्कुल भी प्रयोजन नही है।