कर्म करो लेकिन फल की चिंता मत करो

आदि पुराण के अनुसार-

  1. पात्र दान से प्राप्त हुए पुण्य के कारण उत्तर कुरु भोगभूमि की आयु का बंद किया था।

2)उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिए हुए दान की अनुमोदना करने से जीव भोग भूमि में उत्पन्न होते हैं।
{Ch.9 (85)}

मुनिराज को आहार दान देने से जीव भोग भूमि में जाते हैं । सीता का भाई भामंडल ने जंगल में चोमासे के 4 महीने रुककर महाराज जी के लिए आहार बनाया था जिसके कारण मरकर वह भोग भूमि गया।

चरणानुयोग में यह बताया जाता है कि मुनिराज के लिए आहार दान दो।

प्रथमानुयोग में यह बताया जाता है कि आहार देकर भोग भूमि के भोग भोगने को मिलेंगे‌।

द्रव्यानुयोग में यह बताया जाता है कि यह भोग कभी न संतुष्ट होने वाले विष के समान होते हैं इनको छोड़ देना चाहिए।

अब मुनिराज तो कभी नहीं चाहेंगे कि श्रावक को भोग भोगने के लिए भोग भूमि मिले। तो क्या वह आहार को उठेंगे जब उनको मालूम है कि उनका भक्त श्रावक आहार दान देकर भोग भूमि जाने की संभावना को बढ़ा लेगा।

इस प्रकार तो कोई श्रावक आहार दान ही नहीं देगा। साधु अपनी चर्या नहीं कर पाएंगे। ‌ इसका समाधान क्या है ?

क्या हमको अपना कर्तव्य निभाते हुए यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारी गति क्या होगी, पुण्य बंद होगा, इत्यादि ?

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प्रथमानुयोग मे आहार दान का फल इसलिए बताया गया है ताकि प्रारंभिक भक्तो को धर्म और धर्म के फल मे रूचि जगाई जा सके| अधिकतर धर्मात्मा का ज्ञान प्रथमानुयोग से ही प्रारम्भ होता है| वहा जब वे यह पढ़ते है की धर्म करने से ही जीव को सुख की प्राप्ति होती है तब उनका धर्म के प्रति श्रद्धा और दृढ़ हो जाय करती है|

चरणानुयोग मे आहार दान देना श्रावक के कर्तव्यों और चरित्र के आवश्यक अनुसार बताया गया है|

अंततः द्रव्यानुयोग मे यह बताया गया है की भोग चाहे धर्म के फल से ही प्राप्त क्यों न हुए हो फिर भी उनको भोगने से पाप बांध और दुर्गति ही होती है|

स्वाध्यायी को चाहिए की वह इन् सब शिक्षा को अनुयोग अनुसार ही समझे| तब कोई दिक्कत नहीं होगी श्रद्धान मे|

मुनिराज के तो कोई भी चाह नहीं होती| हां इतना ज़रूर है की मुनिराज यह हमेशा चाहेंगे की भक्तगण की दुर्गति न हो| नरक और तिर्यंच पर्याय से तो देव या भोगभूमि की पर्याय अच्छी है|

केवल वे भक्त भोगभूमि की चाह करेंगे जो मिथ्यादृष्टि है| सम्यक्दृष्टि के तो भोगाकांशा होगी नहीं|

आपने आखरी मे ठीक लिखा है - कर्त्तव्य का पालन करो| धर्म को निभाओ| परन्तु अपनी द्वारा की गयी क्रियाओ के फल की चिंता मत करो| निदान मत करो| कर्मो से तो मुमुक्षु को छूटना है|

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जब सुख सुखाभास है तो नरक के दुख दुखाभास नहीं हैं क्या ?

आदि पुराण के दसवें चैप्टर में राजा सुविधि, सम्यक दर्शन सहित दिगंबर दीक्षा को धारण करके अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुए। वहां पुण्य के उदय से उनकी दो हजार इकहत्तर देवियां थी जिनमें वे लिप्त रहते थे।

क्या यह बिजनेस है कि मनुष्य के भव में एक को छोड़ो और देव पर्याय में दो हजार मिल जाएंगी ?

क्या सिर्फ मनुष्य के भोग विष के समान हैं, देवों के नहीं ?

शास्त्रों में आता है कि पुण्य के उदय से ही सुख की प्राप्ति होती है इसलिए खूब पुण्य करो ? अब यह सुख सुख आभास नहीं है ?

Definitely we need to think. If we don’t get anything in revert to any dharm karya than why should someone do it.
Ultimate goal of dharma karya is eternal bliss.

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आपने उल्टा समझ लिया, मेरा कहने का मतलब यह था कि हमको मालूम है कि आहार देकर बहुत पुण्य बंधेगा जिससे आगे भोगों में दिमाग लगेगा , यह जानते हुए भी क्या हम हमको आहार देना चाहिए ? निदान में तो भोगों की आकांक्षा होती है, लेकिन यहां पर वर्णन भोगों से दूर होने के लिए पुण्य ना बांधने के लिए है।

यह जानते हुए भी कि आहार से भोग की सामग्री प्राप्त होगी , क्या एक सम्मेद दृष्टि श्रावक जो भोगों से विरक्त होना चाहता है , आहार से प्राप्त होने वाले फल (पुण्य) को न देख कर अपने कर्तव्य पर ध्यान दे ?

विषय भोग तो व्यर्थ है ही| उनमे क्या रूचि करनी| बात तो सिर्फ इतनी है की सम्यक्दृष्टि की अधिकतर क्रिया केवल पुण्य बांध ही कराती है| परन्तु पूर्व भाव में किये गए पाप या फिर भाव परिवर्तन हो जाने से उस पुण्य के फल में अगर उसको रूचि हो जाए और इच्छा सहित उनको भोगना प्रारम्भ करदे तो ऐसा भी संभव है| हालाकि सम्यक्दर्शन के प्रभाव से अधिकतम जीव भोग प्राप्त होने के बाद भी उनको इच्छा सहित भोगते नहीं है|

यहाँ आपका अभिप्राय थोड़ा गलत जा रहा है|
हम जितनी भी धार्मिक क्रिया करते है वह पुण्य बांध की इच्छा से नहीं करते| बल्कि आत्मोथान के लिए करते है| करते काटने के लिए करने है| अच्छे संस्कार बांधने के लिए करते है|
अगर धार्मिक क्रिया पुण्य बांध की इच्छा से की जा रही है तो फिर उस जीव का तो अभी सम्यक्दर्शन का ही अत पता नहीं|
पुण्य बांध के फल से भोगो में दिमाग उसका लगेगा जिसका श्रद्धान गड़बड़ है| जिसके भाव अभी पक्के नहीं हुए है और जिसकी 7 तत्त्व पर पूरा विश्वास नहीं बन रहा है|
आखरी लाइन बिलकुल ठीक है| कर्म फल की इच्छा से नहीं किये जाते| अपितु आत्मा का कल्याण किस तरीके से होगा उस हिसाब से किये जाते है|
मेरी अपनी मान्यता यह है की पुण्य फल मिले तो मिलता रहे| जो जीव अभी प्राप्त भोगो को नहीं भोग रहा| जो अभी से ही इन् भोगो से विरक्त है और उदासीन है वह भविष्य में मिलने वाले भोगो को क्यों भोगेगा?

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अगर बाद में बुद्धि ऐसी ही रही, फिर तो ठीक है।

पूण्य फहला अरिहंता

प्रथमानुयोग के कथन को सर्वथा ऐसा ही है, इस प्रकार ग्रहण नहीं करना चाहिए।
भोगभूमि में जाने का कारण सिर्फ और सिर्फ मुनिराज को आहार देना ही नहीं है, जीवन मे किये गए अन्य शुभ कर्म भी इसमें निमित्त बनते हैं।
जीवंधर स्वामी के द्वारा कुत्ते को णमोकार मंत्र सुनाने से वह देव बना। तो इसका अर्थ ऐसा नहीं करना कि णमोकार मंत्र अंत समय मे सुनने से देव पर्याय मिलती है। यदि ऐसा ही होने लगे तो जीवन भर पाप कार्य करना और अंत समय णमोकार मंत्र सुन लेना।
सो यह तो अन्य धर्म के गंगा नहाओ जैसा कार्य हो जावेगा।
एक बात यह भी कि आहार दान देने से भोगभूमि की प्राप्ति होती है। ऐसा कोई अविनाभाव संबंध तो है नहीं।

चरणानुयोग का कथन चारित्र की अपेक्षा से देखना। मुनियों के द्वारा हमें देव और उनकी वाणी शास्त्र का श्रवण करने मिलता है, सो यह उनका हम पर उपकार है। अतः श्रावक का कर्तव्य है कि उनकी देह को आगमानुकूल जो भी भोजन उचित हो उसका दान देवें।
दूसरा, मनुष्य देह सामन्यतः भोजन-जल आदि पर निर्भर होती है, सो कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो इसका निर्वाहन तो आवश्यक है।

इसका स्पष्टिकरण ऊपर दिया जा चुका।

द्रव्यानुयोग का कथन अन्य विवक्षा लिए होता है। यहाँ तो हेय को हेय और उपादेय को उपादेय ही कहा जाता है। लौकिक व्यवहार आदि से ऊपर उठकर इसका कथन होता है। सो इसमें अन्य अपेक्षाओं का अभाव ही नहीं करना, अपितु अन्य को गौण करके चलना।

दूसरा यह तो एक उपदेशात्मक कथन है, यदि पुण्य कर्म बांधे हैं तो उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा। चक्रवर्ती कितना ही क्यों न सोचे कि मैं 6 खण्ड का राजा न बनूँ। किन्तु उस जाति के कर्म का बंध होने पर वैसा कार्य तो होता ही है।

बाजार से हम केले लाते हैं, जब केले लाते हैं तब छिलके के साथ लाते हैं, लेकिन जब खाते हैं तब छिलका अलग कर देते हैं। अब कोई कहे कि जब छिलका खाना ही नहीं था तो लिया क्यों?
और अन्य कोई ग्राहक फलवाले से कहे कि मुझे तो केले केले दो, छिलके नहीं, क्योंकि मैं पैसे केले के दे रहा हूँ, छिलके के नहीं।

सो ऐसे में स्वयं विचार करना कि छिलका सहित केला खरीदते समय अच्छा या बुरा? और खाते समय छिलका रहित अच्छा या छिलका सहित अच्छा?

बस ऐसा ही कुछ यहाँ पर है। जब तक शुद्धोपयोग की अवस्था न हुई हो तब तक छिलका सहित केला ही उचित है, अर्थात शुभोपयोग रूप परिणाम ही उचित हैं।
क्योंकि जिसप्रकार से वह छिलका हमारे केले को सुरक्षित करके रखता है, उसीप्रकार शुभोपयोग शुद्धोपयोग में निमित्त बनता है।

यदि भूमिका सातवे गुणस्थान की हो जावे तब तो कहना ही क्या! किन्तु यदि निचली भूमिका हो तो पुण्य बंध पाप की अपेक्षा तो उपादेय होगा, किन्तु श्रद्धान में उसे भी पाप के समान हेय ही मानना।

सुख तो है नहीं और सुख जैसा प्रतीत हो तो सुखाभास है। दुख के साथ ऐसा नहीं है। दुःख तो होता ही है। प्रयास सुख के लिए करने हैं, दुःख के लिए नहीं। सुख के लिए पुरुषार्थ करने पर जब विपरीत दिशा में पुरुषार्थ हो जावे और वह उचित लगने लगे तो उसे सुखाभास कहते हैं।

सिर्फ भोग ही क्यों देखने? सम्यक्त्व होने पर उनसे विरक्ति भी है। ऊपर ऊपर के स्वर्ग में भोगने की प्रक्रिया में अंतर आता जाता है।

भोग विष के समान हैं, गति नहीं। अब चाहे मनुष्य के हों या देव के।

यहाँ भी केले के उदाहरण से स्पष्टीकरण समझना।

भूमिकानुसार तो राग आएगा ही। चौथे गुणस्थान में मान्यता सही होगी। किन्तु चारित्र मोहनीय होने से वैसा आचरण में नहीं होगा। और यदि उस भूमिका में दान आदि के भाव न आएं तो सम्यक्त्व से ही भ्रष्ट हो जाये। (सर्वथा नहीं लेना)

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