यदि भोगो में सुख है नहीं, तो फिर हमे लगता क्यों है ?
ज्ञानी उत्तर देते है - ज्यो कोई जन खाय धतूरा सो सब कंचन माने
ऐसा कहना तो ठीक है, पर इसका कुछ भाव समझ नहीं आता? क्या जड़ कर्मो ने हमारी आत्मा में कुछ नशा कर रखा है ?
यही प्रश्न इस्टोपदेश में शिस्य ने पूज्यपाद आचार्य से पूंछा कि हमे भोग क्यों अच्छे लगते है? तो आचार्य बोले -मोह कर्म के उदय से, नहीं स्वरूप का ज्ञान, ज्यो मद से उन्मत नर, खो देता सब भान (गाथा ७) । पर यह मद क्या ? क्या कर्म हमारे अंदर कुछ भ्रान्ति/ नशा उत्पन्न करते है ? जो हमे विषय भोग सुहावने लगते है ।
हमे तो भोगो में बड़ा आनंद आता है, जैसे स्वादिस्ट भोजन के जीभ पर लगते से ही तत्काल सुख अनुभव होता है, फिर श्री गुरु ऐसा क्यों कहते ? वज्र अग्नि, विष से विषधर से, ये अधिके दुखदायी, धर्म रत्न के चोर प्रबल अति, दुर्गति पंथ सहाई
भोग बुद्धि वाला शिस्य बोला - कि शास्वत सुख तो मोक्ष में ही है क्योंकि संसार तो छड़भंगुर है । परन्तु मैं भी एक बार राजा- महाराजाओ जैसे विषय भोगो को भोग लू जिससे मेरा कौतुहल / शल्य समाप्त हो जाए फिर मुनि बनकर आत्मा में लीन होऊंगा । तो पंडित जी बोले- कि जो लड्डू छोड़ना ही है तो ग्रेहेन ही क्यों करना ? शिस्य बोला- जिससे कौतुहल मिटे, इसलिए ग्रेहेन करना । तो ज्ञानी बोले - ज्यो ज्यो भोग संजोग मनोहर मनवांछित जन पावे, तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके, लेहेर जहर कि आवे, मैं चक्री पद पाय निरंतर भोगे भोग घनेरे तो भी तनिक भये नहीं पूरन भोग मनोरथ मेरे । सो बोला तो सही फिर भी भोग सुहावने क्यों लगते है ?