यूँ तो केवलज्ञानी सब कुछ देखते जानते हैं।
लेकिन अनादि को अनादि रूप में और अनंत को अनंत रूप में जानने का क्या मतलब है? अगर सब जानते हैं तो अनादि का आदि क्यों नहीं है? और अगर अनादि को अनादि रूप से जानते हैं तो सब जानते हैं ये कैसे सिद्ध होता है?
Note - आगम प्रमाण के स्थान पर तर्क देकर सिद्ध करने का प्रयास करें। केवलज्ञान की परिभाषा के स्थान पर उसके स्वरुप पर समीक्षा करें।
जैसे यह प्रश्न काल संबंधी हो रहा हैं की यदि अनादि का आदि है तो उसके पहले क्या काल था? तथा यदि अनंत का अंत हैं तो उसके बाद क्या कल होगा? - वैसे ही यह प्रश्न क्षेत्र संबंधी भी होगा की अगर अलोकाकाश का अंत हैं तो उसके बाद कोनसा क्षेत्र हैं?
If we try to think about it from our क्षयोपशम ज्ञान - we can’t derive any conclusion. If we can, केवल ज्ञान तथ क्षयोपशम ज्ञान में कुछ अंतर नहीं रहेगा।
जिन आगम ग्रंथो में - जिनका तर्क के द्वारा परिक्षण हो सके, ऐसे प्रयोजनभूत तत्वों का सही निरूपण किया हो - उन ग्रंथो के माध्यम से इन क्षयोपशम ज्ञान के परे विषयों को स्वीकारना चाहिए।
अनादि को अनादि रूप तथा समस्त अनादि की पर्यायों सहित जानते हैं - यदि नहीं जाने तो सर्वज्ञता के concept पर अनेक प्रश्न उत्पन्न होंगे।
किसी अन्य को समझाने के लिए हमारे पास तर्क नहीं हैं, जब तर्क नहीं होते हैं तो हमारी सर्वज्ञता अपने आप संकट में आ जाती है। (सर्वज्ञ सिद्धि विषय यहाँ न जोड़ें)
इस संबंध में एक उदहारण भी आता है - जैसे हमारे हाथ में कोई गेंद है, तो हम उस गेंद को पूरा जानेंगे किन्तु फिर भी हमे उसका कोना या कोई end point नही दिखेगा क्योंकि उस गेंद में कोई कोना है ही नही, उसीप्रकार से सर्वज्ञ भी अनादि को अनादि रूप ही जानते है या अनन्त को अनन्त रूप ही जानते है क्योंकि कोई आदि या अंत है ही नही। वे अनादि अनंत की सर्व पर्यायो को भी उस रूप ही जानेंगे।
प्रश्न - अनन्त को केवलज्ञान के द्वारा जान लेने से अनन्तता नहीं रहेगी? उत्तर - १. उसके द्वारा अनन्त का अनन्त के रूपमें ही ज्ञान हो जाता है। अतः मात्र सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञानसे उसमें सान्तत्व नहीं आता। २. प्रायः सभी वादी अनन्त भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओं को अनन्त कहते हैं। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्मा को सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। सांख्य पुरुष और प्रकृति को सर्वगत होने से अनन्त कहते हैं। इन सबका परिज्ञान होने मात्र से सान्तता हो नहीं सकती। अतः अनन्त होनेसे अपरिज्ञान का दूषण ठीक नहीं है। ३. यदि अनन्त होनेसे पदार्थ को अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञ का अभाव हो जायेगा। ४. यदि पदार्थों को सान्त माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनों का लोप हो जायेगा। सो कैसे? वह बताते हैं - (१) यदि जीवों को सान्त माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसार का उच्छेद हो जायेगा। यदि संसारोच्छेद के भयसे मुक्त जीवों का संसार में पुनः आगमन माना जाये तो अनात्यंन्तिक होनेसे मोक्ष का भी उच्छेद हो जायेगा। (२) एक जीवमें कर्म और नोकर्म पुद्गल अनन्त हैं। यदि उन्हें सान्त माना जाये तो भी संसार का अभाव हो जायेगा और उसके अभाव से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। (३) इसी तरह अतीत और अनागत कालको सान्त माना जाये तो पहले और बादमें काल व्यवहार का अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि असत्की उत्पत्ति और सत् का सर्वथा नाश दोनों ही अयुक्तिक हैं। (४) इसी तरह आकाश को सान्त माननेपर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश माननेपर सान्तता नहीं रहेगी। रा. प./प्र. १, २/(प्रो. लक्ष्मीचन्द्र) पायथागोरियन युगमें जीनों'के तर्कों ने इसकी सिद्धि की थी। ....केंटरके कन्टीनम् (continuum) १, २, ३.... के अल्पबहुत्व से अनन्त के अल्पबहुत्व की सिद्धि होती है। ...जार्ज केन्टरनेAbstractset Theory’ की रचना करके अनन्त को स्वीकार किया है।
हम सभी लोग अनंत भव धारण कर चुके हैं । यदि आप केवली से प्रश्न करोगे की मैं अभी से 10 करोड़ भव पहले किस पर्याय में था? तो केवली उसका उत्तर देदेंगे। यदि आप पूछोगे कि 10 लाख करोड़ वर्ष पहले क्या था उसका भी उत्तर आपको मिल जाएगा। इसप्रकार जहाँ तक हमारी बुद्धि/counting जा सकती है - वहाँ तक का सम्पूर्ण ज्ञान केवली भगवान आपको करवा सकते हैं। अब जब आप यह पूछोगे की अनंत भव पहले मैं क्या था? तो अनंत तो अनंत प्रकार का होता है। वों पहले नंबर का अनंत भी हो सकता है और अनंतवे नंबर का अनंत भी हो सकता है।
इसलिए अनंत व अनादि को “उस रूप” में ही जानने की बात आई। क्योंकि फिर तो हम ही स्ववचनबाधित हो जाते।