मैं ये नहीं कहा रहा कि पंचामृत अभिषेक सही है या गलत या वो आचार्य मूलसंगी थे या कस्ठा संगी ।
लेकिन अगर हम उनकी किताब पढ़ते है तो उसमें छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए।
जैसे पद्मपुराण को आचार्य रविषेण ने संस्कृत में लिखा था , वे मूल्सांगी नहीं माने जाते। पंडित दौलतराम जी (छह ढाला लिखने वाले) ने ढुंढारी भाषा में उसे translate kia,usme पंचामृत का वर्णन को हटाया नहीं ।
Kundkund कहान पारमार्थिक ट्रस्ट वालो ने दौलतराम जी का (translated) पद्मपुराण से panchamrit ka पूरा para graph ही gayab kar dia.
All the publishers who publish unchanged version of Pandit Daulat Ram translated Padampuran, has the same content as 2nd book in which Panchamrit abhisekh is mentioned. The book is in temple, when I will go there, I will tell.
Very interesting. I took the Gujarati translation of this same from atmadharma.org and did find the full text but with a footnote (which was probably added by the translator).
Can someone explain the footnote to me? But it is indeed not good that the entire section is omitted in the translation.
But in general, I want to get more thoughts from people here. As per my understanding, Panchamrat is a strict no-no for our Murtis (the same is also mentioned in the footnote in the translation published by atmadharma.org). I didn’t know this was mentioned in Jinwani. Anyone care to comment on this section? Is there a context behind this passage in Jinwani? etc. etc.
यह लेख प. मिलापचंद्र जी कटारिया द्वारा लिखित है तथा उनके शोध खोज पूर्ण मौलिक निबन्धों का संकलन जैन निबन्ध रत्नावली भाग 1pdf link में आपको प्राप्त होगा। (पुस्तक का अंतिम लेख है)
वहां विस्तार से इस बात पर मंथन किया गया है कि कैसे कुछ जैन ग्रंथों में पंचामृत की चर्चा आती है, उसका क्या कारण रहा है और अभी वर्तमान में हम सभी को किस प्रकार का अर्थ ग्रहण करना योग्य है।
हमारे प्रथमानुयोग कुछ ग्रंथ श्वेताम्बर के ग्रंथ में से लिखे गए है।
आज हमारे पास जितने भी मूल ग्रंथ समयसार से लेकर षट्खंडागम तक सारे ग्रंथ भट्टारक से मीले है।उन्होंने ही जब मुगल, बौद्ध आदि का जोर पूरे भारत मे था तब उन्होंने हमारे ग्रंथो की रक्षा की थी ।
परंतु बाद में इन ग्रंथों का ताड़पत्र में से लेखन शुरू हुआ तब अपना पंथ को पुष्ट करने के लिए चरणानुयोग,और प्रथमानुयोग के ग्रंथों में कहीं कहीं सुधार कर दिया।
अनुवादक का नियम होता है वह ग्रंथ में कुछ भी निकाल नही सकता इसी लिए नहीतो श्रोता को ग्रंथ अनुवादक पर से भरोसा उठ जाएगा।
अपूर्ण सहित्य, दोषयुक्त साहित्य, विकार युक्त साहित्य में समय के अनुसार, विवेक के आधार से, आगमों की अनुकूलता से जो परिवर्तन होते हैं वे विकास युक्त परिवर्तन कहलाते हैं।
स्वच्छंदता, निज प्रचार, मिथ्यारीति, दुराग्रह, लोकेषणा आदि से युक्त साहित्य में होने वाला परिवर्तन विकार युक्त परिवर्तन कहलाता है।
पहला परिवर्तन हितकर और कल्याणकारी है जबकि दूसरा अहितकर एवं अमंगलप्रद।
जैन सहित्य में दोनों प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, उनमें से विकास युक्त परिवर्तन को आदर की दृष्टि से देखना चाहिए और विकार युक्त परिवर्तन को दूर करना चाहिए।
पद्मपुराण के उक्त अंश में विकार युक्त परिवर्तन की झलक है अतः उसे विकास युक्त परिवर्तन के साँचे में ढालना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।
जैन निबंध रत्नावली के भाग २ के लेख क्र. २४ - ‘क्या पउम चरिय दिगम्बर ग्रंथ है?’ में इस प्रश्न के मूल श्रोत पर बहुत आवश्यक जानकारी मिलती है। पूरा लेख ही पठनीय है। फिर भी उसका कुछ अति महत्वपूर्ण अंश यहाँ पर प्रेषित कर रहा हूँ। Highlighted part पर विशेष ध्यान दें।
आज हमारे पास जितने भी मूल ग्रंथ समयसार से लेकर षट्खंडागम तक सारे ग्रंथ भट्टारक से मीले है।उन्होंने ही जब मुगल, बौद्ध आदि का जोर पूरे भारत मे था तब उन्होंने हमारे ग्रंथो की रक्षा की थी ।
इतिहास का पेट बहुत बड़ा है। लोगों के प्रतिसमय बदलते परिणाम, क्षेत्रों का विकास/पुनर्निर्माण, काल का गाल और विभिन्न प्रकार की सामाजिक-राजनैतिक-आध्यात्मिक-धार्मिक-दार्शनिक-आर्थिक विविधताओं से भरा इतिहास हमारे पास है ही कितना।