आत्मा कथंचित् चैतन्य और कथंचित् अचैतन्य

क्या आत्मा किसी भी अपेक्षा चैतन्य के साथ साथ कथंचित अचैतन्य कहा जा सकता है?

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"प्रश्न - जिन धर्मों का एक आत्मा में एक साथ रहने का विरोध नहीं है, वे रहें; परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मा में रह नहीं सकते?

उत्तर - कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहना संभव है? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए; किन्तु जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।"¹


¹ धवला, पुस्तक 1, खण्ड 1, भाग 1, सूत्र 11, पृ. 167

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आचार्य श्री विद्यासागर जी द्वारा विरचित चैतन्य चंद्रोदय में कुछ इस तरह का वर्णन पढ़ने में आया है। कृपया विद्वान जन समीक्षा कर समाधान करें। !

साथ ही साथ आपका कहना यह भी है कि आत्मा में अचेतन स्वाभाव का सद्भाव है, किन्तु अचेतन गुणों का नहीं।
एवं आप श्रद्धा और सुख गुण को अचेतन गुणों की श्रेणी में ही रखते हैं।

आत्मा में अचेतनता आ जाती है इसका तर्क यह दिया है कि जिस तरह कर्म परमाणुओं में वैभविक भाव से परिणत चेतन द्रव्य के संयोग से जिसप्रकार चेतना शक्ति आ जाती है उसी तरह चेतन द्रव्य में अचेतन शक्ति आ जाती है। और यह शक्ति उस द्रव्य का स्वाभाव है।

आत्मा को ज्ञान दर्शन गुण की अपेक्षा चेतन कहा जाता है,और उसे अन्य गुणो की अपेक्षा आत्मा को अचेतन कहा जा सकता है।

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इसमें अन्य गुणों में श्रद्धा और सुख भी सम्मिलित किया जा सकता है?
क्या अचेतनत्व भी जीव का स्वाभाव है?

नयो का प्रयोग किसी प्रयोजन वश किया जाता हैं। अनेक अपेक्षाओं से जीव में अनेक उपाधिया लगाई जा सकती हैं।

जिस प्रकार आलू में रहने वाले निगोदिया शरीर के धारक जीवों को आत्मा कहना एक तरह से जीव को पुद्गल (अचैतन्य) कहना हुआ परन्तु वहाँ प्रयोजन अहिंसा का हैं - उसी प्रकार आत्मा को स्यातपद से चिन्हित आगम में “अचैतन्य” कहने में विरोध तो नहीं होना चाहिए परन्तु कुछ मुख्य प्रयोजन सिद्धि मालूम नहीं पड़ती।

चैतन्यता का सम्बन्ध मात्र ज्ञान-दर्शन से किया गया हैं - अतः सुख (श्रद्धा + चारित्र) सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए।

उपर्युक्त अपेक्षा से स्वभाव हैं।

Correct me if not accurate : )

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(ज्ञान दर्शन) चेतन गुण के कार्य को अन्य गुणों से भिन्न दिखाने की अपेक्षा यह कथन बनता है कि अन्य गुण अचेतन हैं, इसी विविक्षा से श्रृद्धा गुण को छोड़ कर अन्य सभी गुण में अश्रद्धापना, चारित्र गुण के अतिरिक्त अन्य गुणों में अचारित्र पने का कथन भी संभव है। इस कथन के समझने में हमें जो सावधानी चाहिए यह यही है कि जैसे चेतना का सद्भाव हमें सहज स्वीकार्य होता है और वह जीव के असाधारण लक्षण के रूप में स्वीकार्य है, वैसे ही कहीं किसी भाग में अचेतनपना भी है, ऐसा नहीं है, यदि ऐसा माना जाए तो फिर वस्तु का स्वरूप का कथन करना ही कितना जटिल हो जाएगा, दूसरी विविच्छा से विचार किया जाए तो एक गुण का रूप दूसरे गुण में होने से ज्ञान दर्शन के अतिरिक्त अन्य गुणों में भी चेतनत्व का रूप है। शब्दों की अपनी सीमा है, भाव भासन में सावधानी चाहिए।

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इस संबंध में और विचार करने की आवश्यकता है तथा इस संबंध में गोष्ठी आदि करने-कराने का भी विचार करना चाहिए.
क्योंकि प्रमेयत्वादि गुण के कारण यहाँ अचेतन कहां है जबकि प्रमेयत्वपना तो ज्ञान को दर्शा रहा है… और इसे अचेतन कहा. बाद की पक्तियों में “इस प्रकार आत्मा कथंचित चेतन है और कथंचित चेतन है” ? बात समझ नहीं आई .
तथा अकलंक स्वामी का नाम तो सन्दर्भ में दर्शाया किन्तु ग्रंथ का नाम कहीं भी नहीं…

Same thing was said by Muni Shree Pranamya Sagar ji in one of his pravachan , whose cropped video is given below -

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वैसे सारा खेल विवक्षा/स्याद्वाद/ज्ञानी-अभिप्राय/वक्ता-अभिप्राय का होता है।

जैसे - जब राग को जीव की ही ग़लती बताना हो तो उसे चिद्विकार भी कहा जाता है, किन्तु जब राग से भेदविज्ञान करना हो तो उसे पौद्गलिक भी कहा जाता है।

वैसे ही,
जिसप्रकार शरीर धारी आत्मा को मूर्तिक कहा जाता है, उसीप्रकार चैतन्योचित कार्य न करने वाला होने से आत्मा अचेतन भी है। (समयसार में गाथा 142 के बाद 20 भंगों में जीव-अजीव)

द्रव्यसंग्रह के प्रथमोध्यय के परिशिष्ट में भी रागी जीव को अजीव कहा है।

सदा चैतन्य रूप (ध्रौव्य) बने रहने से वह चैतन्य है और सदा चैतन्य रूप नवीन-उत्पाद और पूर्व-व्यय होने से अचैतन्य है।

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जैसा प्रमाण आपने दिया वैसी ही चर्चा गुरूदेवश्री के ज्ञान स्वभाव और ज्ञेय स्वभाव के प्रवचन में भी है, कि - जो धर्म वस्तु में है, नहीं उन्हें वस्तु में कहना ऐसा अनेकांत नहीं। अन्यथा सिद्धों के कथंचित दुःख भी कहना होगा। चूँकि यह क्रमबद्ध पर्याय के कथंचित क्रम-अक्रम के प्रकरण में है।

तथापि, एक शंका है - आत्मा अपने से चेतन है, परद्रव्य की अपेक्षा उसकी चेतनता नहीं इसलिये अचेतनता क्या स्वीकार की जा सकती है ?

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वैभाविक धर्म तो जीव की मिथ्यात्वादि और पुद्गल की स्कंध पर्याय में ही निमित्त कहा है। अचेतनता में यह logic उक्त नहीं । तथापि रागादि क को अचेतन कहा इस अपेक्षा विचार किया जा सकता है।

कर्मबंध के सम्बन्ध से व्यवहार मात्र ही ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि सिद्धों के अव्याप्ति है ।

अन्य अपेक्षाओं से अवश्य विचारणीय है।

आलाप पद्धति में इस विषय के सम्बन्ध में यह बात आती है -


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