प्राचीन जैनाचार्यों का परिचय

आचार्य श्री उमास्वामी



परिचय

तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के रचयिता आचार्य श्री उमास्वामी हैं । इनको उमास्वाति भी कहते हैं । इनका अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य है । धवलाकार ने इनका नामोल्लेख करते हुए कहा है कि-

तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्तेवि ।

उसी प्रकार से गृद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है ।

इनके इस नाम का समर्थन श्री विद्यानन्द आचार्य ने भी किया है । यथा-

एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यंतमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता ।

इस कथन से गृद्धपिच्छाचार्य पर्यंत मुनियों के सूत्रों से व्यभिचार दोष का निराकरण हो जाता है।

तत्त्वार्थसूत्र के किसी टीकाकार ने भी निम्न पद्य मे तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-

तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् ।
वंदे गणीन्द्रसं जातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ।।

गृद्धपिच्छ इस नाम से उपलक्षित, तत्त्वार्थसूत्र के कर्तागण के नाथ उमास्वामी मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ ।

श्री वादिराज ने भी इनके गृद्धपिच्छ नाम का उल्लेख किया है-

अतुच्छगुणसंपातं गृद्धपिच्छं नतो स्मिऽतम् ।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणयोत्पतिष्णव:।।

आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखों का सहारा लेते हैं, उसी प्रकार मोक्षनगर को जाने के लिए भव्य लोग जिस मुनीश्वर का सहारा लेते हैं, उस महामना, अगणित गुणों के भण्डार स्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनि महाराज के लिए मेरा सविनय नमस्कार हो ।

श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की सार्थकता और कुन्दकुन्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है । यथा-

अभूदुमास्वातिमुनि: पवित्रे, वंशे तदीये सकलार्थवेदी ।

सूत्रीकृतं येन जिन प्रणीतं, शास्त्रार्थतार्थजातं मुनिपुंगवेन ।।
स प्राणि संरक्षण सावधानो, बभार योगी किल गृद्धपिक्षान् ।

तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्य, शब्दोत्तर गृद्धपिच्छम् ।।

आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणी को सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणिरक्षा के हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया, इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । इस प्रमाण में गृद्धपिच्छाचार्य को सकलार्थवेदी कहकर श्रुतकेवली सदृश भी कहा है। इससे उनका आगम सम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।

इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं ।

समय निर्धारण और गुरु शिष्य परम्परा-नन्दि संघ की पट्टावली और श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ये गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हुए हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है । वह निम्न प्रकार है-

  1. भद्रबाहु द्वितीय (४)
  2. गुप्तिगुप्त (२६)
  3. माघनन्दि (३६)
  4. जिनचन्द्र (४०)
  5. कुन्दकुन्दाचार्य (४९)
  6. उमास्वामि (१०१)
  7. लोहाचार्य (१४२)

अर्थात नन्दिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी वि. सं. १०१ में आचार्यपद पर आसीन हुए, वे ४० वर्ष आठ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्ष की थी और विक्रम सं. १४२ में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए । प्रो. हार्नले, डॉ. पिटर्सन और डॉ. सतीशचन्द्र ने इस पट्टावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान माना है ।

‘‘किन्तु स्वयं नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इन्हें ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी का अनुमानित किया है ।’’

कुछ भी हो ये आचार्य श्री कुन्दकुन्द के शिष्य थे । यह बात अनेक प्रशस्तियों से स्पष्ट है । यथा-

तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छ: स तपोमहद्र्धि:।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुव्र्विषादोनमृतीचकार ।।१३।।

इन योगी महाराज की परम्परा में प्रदीपस्वरूप महद्र्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए। इनके शरीर के स्पर्शमात्र से पवित्र हुई वायु भी उस समय लोगों के विष आदि को अमृत कर देती थी ।

विरुदावलि में भी कुन्दकुन्द के पट्ट पर उमास्वाति को माना है ।

दशाध्यायसमाक्षिप्तजैनागमतत्त्वार्थ-सूत्रसमूह-श्रीमदुमास्वातिदेवानाम् ।।३।।

इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुन्दकुन्द के पट्ट पर ही ये उमास्वामि आचार्य हुए हैं और इन्होंने अपना आचार्य पद बलाकपिच्छ या लोहाचार्य को सौंपा है ।
http://hi.encyclopediaofjainism.com/index.php/उमास्वामी

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