आ. अमृतचंद्र देव
आध्यात्मिक ग्रन्थों के टीकाकारों में श्री अमृतचंद्रसूरि का सर्वप्रथम स्थान है। यदि अमृतचंद्रसूरि न होते तो आचार्य श्री कुंदकुंद देव के रहस्य को समझना कठिन हो जाता अत: कुंदकुंद देव के व्याख्याता के रूप में अमृतचंद्रसूरि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके मौलिक ग्रन्थ भी अपने आप में अतीव विशेषता लिए हुए हैं। निश्चयत: इन आचार्य की विद्वत्ता, वाग्मिता और प्रांजल शैली अप्रतिम है। आध्यात्मिक विद्वानों में कुंदकुंद देव के पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे अमृतचंद्रसूरि हैं।
इनका जीवन परिचय, समय और इनकी रचनाओं पर यहां किंचित् प्रकाश डाला जा रहा है-
जीवन परिचय-इनका परिचय किसी भी कृति में प्राप्त नहीं होता है पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं जिनसे इनके व्यक्तित्व का निश्चय किया जा सकता है। पं. आशाधर ने इनका उल्लेख ‘‘ठक्कुर पद’’ के साथ किया है-‘‘ऐतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचंद्रसूरिविरचित समयसारटीकायां दृष्टव्यम्।’’
यहां ‘‘ठक्कुर’’ शब्द विचारणीय है। ‘‘ठक्कुर’’ शब्द का प्रयोग प्राय: जागीरदार या जमींदार के लिए प्रयुक्त होता है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनों के लिए समानरूप से प्रयुक्त होता है अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचंद्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण पर इतना निश्चय अवश्य है कि वे किसी सम्माननीय कुल के व्यक्ति रहे थे। संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघ के आचार्य थे।
समय विचार-डॉ. उपाध्ये ने इनका समय ईस्वी सन् की १० वीं शताब्दी के लगभग माना है। पट्टावली में अमृतचंद्र के पट्टारोहण का समय वि.सं. ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है। डॉ. नेमिचंद्र ज्योतिषाचार्य भी इनका समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी का अन्तिम भाग ही मानते हैं।
रचनायें-टीका ग्रन्थ-१. समयसार टीका, २. प्रवचनसार टीका, ३. पंचास्तिकाय टीका।
मौलिक ग्रन्थ-४. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ५. तत्त्वार्थसार, ६. समयसार कलश।
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