आ. कुन्दकुन्द देव
परिचय
यथा-
मंगल कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।
नाम
मूलनंदि संघ की पट्टावली में पाँच नामों का उल्लेख है-
एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्मनंदीति तन्नुति:।।
ऊर्जयंतगिरौ तेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत्, अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम: श्री पद्मनंदिने।।
सोऽवदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।
जिन्होंने कलिकाल में ऊर्जयन्त गिरि के मस्तक पर पाषाण निर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया। कवि वृन्दावन ने भी कहा है-
संघ सहित श्री कुन्दकुन्दगुरु, वंदन हेतु गये गिरनार।
वाद परयो तहं संशयमति सों, साक्षी बदी अंबिकाकार।।
‘‘सत्यपंथ निर्ग्रंथ दिगम्बर’’ कही सुरी तहं प्रगट पुकार।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघन हरण मंगल करतार।।
अर्थात् वहाँ पर पर्वत की पहले वंदना करने का विवाद आने पर श्री कुंदकुंददेव ने अपना चमत्कार दिखलाया और पर्वत पर विराजमान ब्राह्मी ( सरस्वती ) की मूर्ति ने कहा कि - सत्यपंथ निर्ग्रन्थ दिगम्बर ऐसी प्रसिद्धि है।
विदेह गमन
देवसेनकृत दर्शनसार ग्रंथ सभी को प्रामाणिक है। उसमें कहा है कि-
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयासंति।।४३।।
यदि श्री पद्मनंदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे जानते ? पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है-
प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञसीमंधरस्वामितीर्थंकरपरमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवर्ण… पुरप्यागतै: श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवै:।
श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत की प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में -
पूर्व विदेह पुण्डरीकिणीनगर वंदित सीमंधरापरनाम स्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतसम्बोधित भारतवर्ष भव्यजनेन।
इत्यादि रूप से विदेहगमन की बात कही है।
ऋद्धिप्राप्ति
श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक पुस्तक भाग ४ के अन्त में बहुत-सी प्रशस्तियाँ दी हैं। उनमें देखिए-
श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा, ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द:।
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र-सम्जातसुचारणद्र्धि:।
वंद्योविभुम्र्भुवि न वैâरिह कौण्डकुन्द:, कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्ति-विभूषिताश:।
यश्चारुचारण-कराम्बुजचंचरीक-श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम्।
श्री कोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गतचारणद्र्धि:।
…चरित्रसजातसुचारणद्र्धि:।।४।।
तद्वंशाकाशदिनमणि-सीमंधरवचनामृतपान-संतुष्टचित्त-श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणाम्।।५।।
इन पांचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारणऋद्धि का कथन है तथा जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश-२ में शिलालेख नं. ६२, ६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ. २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।
जैन शिलालेख संग्रह-(पृ. १९७-१९८)
रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तबह्यापि संव्यजयिर्तुयतीश: रज: पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतुरंगुल स:।
यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रज:स्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे। उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अन्दर में और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करते थे।
हरी नं. २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख-
स्वस्ति श्री वर्धमानस्य शासने।
श्री कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरंगुलचारण।
श्री वर्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्रीकुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।
ष. प्रा.। मो. प्रशत्ति। पृ. ३९३ नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना नाम पंचक विराजित (श्रीकुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र के पुण्डरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधरप्रभु की वंदना की थी।
भद्रबाहु चरित्र में राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि पंचमकाल में चारणऋद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त नहीं होती। अत: यहां शंका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन सामान्य समझना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि ‘‘पंचमकाल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है तथा पंचमकाल के प्रारम्भ में दुर्लभ नहीं है, आगे अभाव है, ऐसा भी अर्थ समझा जा सकता है। यही बात पं. जिनराज फड़कुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में लिखी है।
ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताएं, अब आप इनके ग्रन्थों को देखिए-
ग्रन्थ रचनाएं
कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमें १२ पाहुड़ ही उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में सर्व विद्वान एकमत हैं परन्तु इन्होंने षट्खण्डागम ग्रन्थ के प्रथम तीन खण्डों पर भी एक १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, ऐसा श्रुतावतार में इन्द्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय करने में सहायता मिलती है-
एवं द्विविधो द्रव्य भावपुस्तकगत: समागच्छत्।
गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्त: कोण्डकुण्डपुरे।।१६०।।
श्री पद्मपंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:।
ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य।।१६१।।
इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर श्री पद्मनंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों की व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें निम्न हैं-
षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नाम की टीका-
- समयसार,
- प्रवचनसार,
- नियमसार,
- अष्टपाहुड़,
- पंचास्तिकाय,
- रयणसार
इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार, दशभक्ति, कुरलकाव्य ।
मूलाचार श्री कुन्दकुन्द देव की ही रचना है। कुन्दकुन्द व वट्टकेर एक ही हैं। ऐसा मूलाचार प्रदीप में पं. जिनदास ने स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोशकार भी कुन्दकुन्द का एक नाम वट्टकेर मानते हैं और मूलाचार इन्हीं की कृति मानते हैं तथा मूलाचार सटीक का हिन्दी अनुवाद करते समय मैंने भी पूर्णतया इस कृति को श्री कुन्दकुन्द देव की ही निर्णय किया है। कुरलकाव्य के विषय में भी बहुत से विद्वान इन्हीं की कृति है, ऐसा मानते ही हैं। इन ग्रन्थों में रयणसार, मूलाचार मुनिधर्म का वर्णन करता है। अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुड़ में संक्षेप से श्रावकधर्म वर्णित है। कुरलकाव्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है और परिकर्म टीका में सिद्धान्त कथन होगा। दश भक्तियां, सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सरागचारित्र और निर्विकल्प समाधिरूप वीतरागचारित्र के प्रतिपादक ही हैं।
गुरु
गुरु के विषय में कुछ मतभेद हैं, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली इनके परम्परा गुरु थे। कुमारनन्दि आचार्य शिक्षागुरु हो सकते हैं किन्तु अनेक प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दीक्षागुरु ‘‘श्री जिनचन्द्र’’ आचार्यथे।
जन्मस्थान
समय
यथा-
- श्री गुप्तिगुप्त,
- भद्रबाहु,
- माघनन्दी,
- जिनचन्द्र,
- कुन्दकुन्द,
- उमास्वामी आदि।
इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया।
पश्चात् इन्होंने उमास्वामी को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात नंदिसंघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है।
यथा- ४. जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमास्वामी।
इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने स्वयं अपने मूलाचार में माभूद् मे सत्तु एगागी अर्थात् मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे, ऐसा कहकर पंचमकाल में एकाकी रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इनके आदर्श जीवन व आदेश से आज के आत्महितैषियों को अपना श्रद्धान व जीवन उज्ज्वल बनाना चाहिए।
आ. कुन्दकुन्द का काल निर्धारण
१.परम्परागत मत:—
नंदिसंघ की पट्टावली के अनुसार कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम संवत् ४९ अर्थात् ईसा से १०८ वर्ष पूर्व पट्ट पर बैठे। पट्टावली की विभिन्न प्रतियों में कहीं कहीं अन्तर भी है। डॉ. हार्नले द्वारा इण्डियन एंटीक्वेरी, वाल्यूम २१ में प्रकाशित तीन दिगम्बर पट्टावलियों में से ’‘इ’’ में समय वि. स. १४९ अर्थात् ई. पूर्व ८ दिया गयाा है। विद्वज्जन बोधक में किसी श्लोक के आधार पर कुन्दकुन्दाचार्य एवं गृद्ध पिच्छाचार्य उमास्वामी को समकालीन बतलाकर वि.सं. २०० अर्थात् ईस्वी सन् १४३ बतलाया है। किन्तु जैन परम्परागत मत ईसा से १०८ वर्ष पूर्व का है।
२.श्री पं. नाथूराम प्रेमी का मत :— जैन हितैषी भाग १० में कई दशक पूर्व प्रेमी जी का मत इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार पर आधारित प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्य को विक्रम की तीसरी शताब्दी के अन्तिम चरण, अर्थात् ईसा की प्राय: द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में बतलाया था। यह अनुमान इस बात पर भी आधारित था कि ऊर्जयन्तगिरि पर कुन्दकुन्दाचार्य का श्वेताम्बर आम्नाय से कथित विवाद हुआ था। यह सुत्त पाहुड़ से भी ज्ञात है कि जैन परम्परा में श्वेताम्बर—दिगम्बर भेद हो गया था और इसका समय देवसेन के दर्शनसार के अनुसार विक्रम संवत् १३६ अर्थात् ८१ ई. में हुआ होगा। प्रेमीजी ने १३६ को शक संवत् मानकर २७१ विक्रम संवत् निर्धारित किया जिससे कुन्दकुन्दाचार्य का समय ईस्वी सन् २१४ उनके मत में स्पष्ट हुआ। यह मत बाद में सुधारा भी गया था।
३. डॉ. पाठक का मत :— जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था से प्रकाशित समयप्राभृत की भूमिका में डॉ. के. वी पाठक के मतानुसार कुन्दकुन्दाचार्य वि.सं. ५८५ अर्थात् ईस्वी सन ५२८ में हुए । इस मत की पुष्टि में उन्होंने शक ७१९ एवं शक ७२४ के ताम्रपत्रों का उल्लेख किया था। जिसमें अभिप्राय यह था कि कोण्डकोन्दान्वय के तोरणाचार्य नाम के मुनि इस देश में शाल्मली नामक ग्राम में आकर रहे और उनके शिष्य पुष्पनन्दि और शिष्य के शिष्य प्रभाचन्द्र हुए।
४.डॉ. ए. चक्रवर्ती का मत- यह मत पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में प्रोपेसर हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दि संघ की पट्टावलियों के आधार पर निर्णीत किया गया है जिसमें कुन्दकुन्दाचार्य को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान् माना गया है। प्रो. चक्रवर्ती ने इस तथ्य का आलम्ब लिया है कि कुन्दकुन्दाचार्य द्रविड़ संघ के थे जिसका आधार मंत्रलक्षण पुस्तक का एक श्लोक है।तदनुसार उनका नाम एलाचार्य था जिन्होंने विश्वप्रसिद्ध तमिल ग्रंथ कुरल की १० और १० ही श्लोकों में प्रत्येक समन्वित विषय पर श्लोक लिखकर अपने शिष्य तरुवल्लुवर को दिया, जिन्होंने उसे मदुरासंघ को भेंट कर दिया। यथा :—
‘‘दक्षिण देशे मलये हेम ग्रामे मुनिर्महात्मासीत्।
एलाचार्यो नामा द्रविलगणाधीशो धीमान्।।
एलाचार्य का दूसरा नाम एलाल सिंध था। एलालसिंह को तिरूवल्लुवर का साहित्यिक संरक्षक भी माना जाता है। निष्पक्ष रूप से देखा जाये तो तिरूकुरल में अनेक तथ्य जैनधर्म के हैं तथा बारह वर्ष के दुष्काल को देखते हुए वर्षाकाल एवं कृषि की महिमा की ओर संकेत करने वाले हैं। यह ग्रन्थ विश्व व्यापक दृष्टि से लिखा गया जिसमें दश की समाप्ति पर एक हुए होंगे, अन्यथा मंगलकार क्यों लिखता :—
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोेस्तु मंगलं।।
हो भी सकता है कि यह मंगल तदनुसार उमास्वामी कृत हो क्योंकि यह संस्कृत में है और प्रत्यक्ष रूप से उनके गुरु हेतु ही है। दसार्हा पद्धति विश्व के लिये विगत दो हजार वर्षों में अत्यन्त सिद्ध हुई और सम्पूर्ण विश्व ने उसे तत्काल अपनाया होगा। जैसे ही वह दक्षिण के जैन संघ से बाहर आई होगी और हो सकता है वह प्रथम समुद्री रास्ते से चीन में पहुची हो। इस संबंध में हम आगे लिखेंगे।
एलाचार्य और कुन्दकुन्द क एकरूपता कुरल को ईसा की प्रथम शताब्दी में होना इंगित करती है क्योंकि कुरल तो दक्षिण के शिलप्पदिकारम् एव मणिमेखल से भी प्राचीन है। इससे चक्रवर्ती ने डॉ.पाठक के मत का निराकरण किया है क्योंकि स्कन्द और मुमार एकार्थक हैं। ईसा की प्रथम सदी में पल्लव नरेश संभवत: जैन धर्म के पालक अथवा संरक्षक कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राकृत ग्रंथ रचे हों।
५. पं. जुगल किशोर मुख्तार का मत:— यह मत रत्नकरंडश्रावकाचार, (बम्बई) में प्रकाशित ’’समन्तभद्र’’ नामक निबन्ध में उन्होंने लिखा है। उनके अनुसार कुन्दकुन्दाचार्य के काल का प्रारम्भ वीर निर्माण सं. ७०३ या ७१३ अथवा ईस्वी सन् १७७ या, १८७ होता है। उन्होंने कुन्दकुन्द के एलाचार्य नाम को अमान्य किया है और शिवमृगेश वर्मा के साथ पल्लव नरेश शिवस्कद वर्मा कमे समीकरण को उचित बतलाया है। कुन्दकुन्दाचार्य को उन्होंने द्वितीय भद्रबाहु का शिष्य स्वीकार तो किया पर उनका समय विं. सं. ४ अथवा ईसा पूर्व ५३ नहीं माना है।
६. डॉ. ए. एन. उपाध्ये का मत :— डॉ. उपाध्ये ने जिन बातों को विचारणीय रखा है, क्रमश: इस प्रकार है :—
(अ) श्वेताम्बर—दिगम्बर भेद होने के पश्चात् कुन्दकुन्दाचार्य हुए।
(ब) कुन्दकुन्द, भद्रबाहु के शिष्य थे।
(स) इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के अनुसार दोनों सिद्धान्त गं्रथों का ज्ञान गुरु परम्परा से कुन्दकुन्दपुर में पद्मनन्दि को प्राप्त हुआ और उन्होंने षट् खण्डागम के आद्य तीन खण्डों पर परिकर्म नामक ग्रंथ लिखा।
(द) जयसेन एवं बालचन्द्र की टीकाओं उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दचार्य शिवकुमार महाराज के समकालीन थे।
(इ) कुन्दकुन्दाचार्य तमिलग्रंथ तिरूकुरल के रचयिता थे।
उपर्युक्त के गम्भीर परिशीलन के पश्चात् डॉ. ए. एन. उपाध्ये, श्री प्रेमी जी, श्रीमुख्तारजी, डॉ. हीरालााल जैन तथा पंं. कैलाशचन्द्र, सिद्धान्त शास्त्री ने यह मान्यता दी कि कुन्दकुन्दचार्य का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी का पूर्वार्ध अथवा ईसा की दूसरी शताब्दी का उत्तरार्ध समुचित है।
अब हम दसार्हा पद्धति पर आधारित उस समय की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति का अवलोकन करें , जिसके बिना षट्खंडागम गंथों पर विशद् व्याख्या का लेखन अंक संदृष्टियोें एवं अर्थ संदृष्टियों के बिना ग्राह्य होना अत्यन्त कठिन हो सकता था। धवला टीका में तो मुख्यत: अँक संदृष्टियों का आलम्बन लिया गया है, और उसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती ग्रंथ में भी उनका बाहुल्य है। महाबन्ध में वाक्यांशों के आगे शून्य रखते हुए अभिप्राय प्रदर्शित किया गया है कि उनके द्वारा पूर्ण का अर्थ ग्रहण कर लिया जावे। यह भी उल्लेखनीय है कि अंक संदृष्टियों और अर्थ संदृष्टियों का उपयोग मुख्यत: सिद्धान्त ग्रंथ की दक्षिण भारत में प्राप्य धवलादि टीकाओं में उपलब्ध है, जिसका पूर्ण रूप केशवचंद वर्णी कृत गोम्मटसारादि की कर्णाटिकी वृत्ति में देखने योग्य है।
अखिल विश्व में ईसा से अनेक वर्ष पूर्व से संख्याएँ लिखने की अनेक विधियाँ थी किन्तु शून्य का उपयोग करते हुए किसी अंक के आगे उसे रखने पर प्राप्त उसका मूल्य देने वाली दशमलव पद्धति कहीं भी नहीं थीं। यहाँ दो वस्तुओं की ओर ध्यान देना है। एक तो शून्य के चिन्ह का बिन्दी रूप में उपयोग और उसे किसी अँक के आगे रख देने पर उसका मान प्राप्त करना। इसी प्रकार संख्याओं के लेखन की विधि के आविष्कारक का नाम आज तक कोई ज्ञात नहीं कर सका है, जैसा कि तिरूकुरल के रचयिता का नाम। यह तथ्य भी ध्यान में रखने योग्य है कि ऐसी लेखन पद्धति की उस आविष्कारक को आवश्यकता रही होगी, और उस प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के पूर्व यह लेखन प्रणाली विश्व में कहीं भी प्रचलित न थी। शून्य द्वारा वाक्यांशों को पूरा करने का अभिप्राय एवं उपयोग केवल भूतबलि आचार्य के महाबंध में देखने में आया है। उस समय तक बिन्दी द्वारा ऐसा उपयोग विश्व के किसी भी भाग में देखने में नहीं आया है। इस समय का निर्धारण प्रोपेसर डॉ. ए. एन. सिंह २ ने लगभग ईसा से २०० वर्ष पूर्व का आंकलित किया है, जिसे उन्होंने भारत में निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित किया है :—
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The earliest palaeographic record of the use of the place value system belongs to the close of the sixth century, A.D.
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The earliest use place-value principle with the word numerals belongs to the second or the third century A.D. it occurs in the Agnipurana, the Bakhshali Manuscript and the Paulisa siddhanta.
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the earliest use of the place Value principle with the letter nunerals is found in the works of Bhaskara- I about the beginning of the sixth century A.D.
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the earliest use of the place-value system in a marhematical work occurs in the Bakhshali Manuscript about 200 A.D. (?) It occurs in the Aryabhatiya composed in the 499 A.D., and in all later works without exception.
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References to the place-value system are found in literature from about 100 B.C Three references ranging from tje second to the fourth century A.D. are found in the puranas.
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The use of a symbol for zero is found in Pingalal’s Chandahsutra as early as 200 B.C.
(1) (10) Two different things are involved here, though so closely connected. place-value could and did exist without any symbol for zero, as in chind from the late thou on wards. but the heo symbol. as part of the numeral system, never existed, and could not have come into being without place value. It seems to be established that place-value was known to, and used by the author of the paulisa (heewefueMe) Siddhanta in the early years of the 5th century, and centainly by the time of Aryabhta and Varahanihira (C.500) And this was the decimal place-value of earlier China, not the sexage-simal place-value of earlier Babylonia. It may be very significant that the older literary Indian references simply. use the word sunya (MetvÙe) ‘emptiness’ just as if they were describing the empty spaces on Chinese counting-boards. The earliest zero symbol used in computatio, the dot (bindu), occurs in the Bakhshali MSS but this cannot now be dated earlier than the—10th century (Renou filliozat (1), Vol.2 p.p.175,679; Cajori (2) pp. 85,89, (3) p.77. Better evidence for the use of the dot comes from the—6th centud poem Vasavadatta (JeemeJeoòee) of Subandhu (Renou filliozat (1) p. 703.) This remains the earliest reference. The dot is still used in the Sarda (Meejoe) script of Kashmir."
(2) (10): " From the tables in which ancient Indian numerals have been assembled’ it can be seen that from the time of king Asoka onwards (3rd century) there was steady development of forms akin to ‘Hindu-Arabic three integers are written on just the same way as the Chinese; some of the ancient systems’ also have a x for 4 (cf. Table 22, cols. I Jg) " But in nearly al of themh there were separate symbols (containing no ‘place-value component’)I for 10 and multiples of 10, 20, 30, 40, 100 etc. and so long as any such practice prevailed place-value arithmetic could not exist. While the first epigraphic evidence for the zero in India is, as has just been mentioned, of the late ± 9th century,j It has been discovered about two hendred years earlier in Indo-China and other parts of south-east Asia. this fact may be of much sinificance. The literary and epigraphic evidence for the antiquity of place-value in India has been conflicting. While the former pointed to a date well befor 500 A.D. for the development of place-value and the zero concept,k it was never entirely convincing because of the certain chronology of indian history and the difficulty of dating documents. Kage (1) in his critical examination of the dated inscriptions, could not take place-value back before the 8th century at the earliest. But Coede’s (2) has shown that indo-Chinese inscriptions use place-value much earlier ( Cambodia ± 604, Champa ± 609, java ±732). They employed a system of 'symbolic words, i.e name of things which were universally known to be associated with a given numerical value" Thus, in an inscription at Phnom Bayan in Cambodia for ±604, the 526th year of the Sake era was expressed as the year (designated by) the (five) arrows, the (two) Asvins, and the (six) tastes b Now it is soon after this period that first incription appear showing the zero (simultaneously in Cambodia and Sumatra ±683; and on Banka Island±686). The 605 the year of the Saka era is represented as.
(4) he=. (11-12) What ideographic stimulus could it have received at that in that interface? Could it have adopted an encircled vacancy from the empty blanks left for zeros on the Chinese country boards? The essential points is that the Chinese had possessed, long before the time of the sun Tzu Suan Ching (late 3rd century) a fundamentally decimal place-value system.a It may be, then, that the emptiness’ of Taoist mysticism,b no less than the void of indian philo-sophy, contributed to the invention of a symbol for Sunya,e i.e the zero. d it would seen, indeed, that the finding of the first appearance of the zero in dated inscription on the borderline of the Indian and chinese culture areas can hardly be a coincidence.
सन्दर्भ
१. वैलाश चन्द्र जैन, शास्त्री, कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, शोलापुर १९६०, पृ.—१४
२. B.B. Dutt & A.N. Singh History of Hindu Mathematies, Bombay, 1962, P-86.
३. गणितसार संग्रह—आ. महावीर, संपादन एवं अनुवाद प्रो.लक्ष्मीचन्द्र जैन, (हिन्दी संस्करण)१९६३
४. J. Needham & W. Ling Science & Civilization in China,3-vol, 1954.
५. S.R. Goyal The Riddle of Canakya and Kautilya Sinasa (efpe%eemee) jaipur, 1 No. 3-4 PP. 32-51 & S.R. Goyal, A Religions History of Ancient India, Vol-1, 1984 pp. 207-208.
—लक्ष्मीचंद्र जैन
निदेशक, आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान,
ण्/० सूर्या एम्पोरियम, ५५४, सराफा, जबलपुर (म.प्र.)
अर्हत् वचन अंक-३ जुलाई ९१ पृ. ३३-४१
http://hi.encyclopediaofjainism.com/index.php/कुन्दकुन्द_आचार्य