'श्रावक' शब्द का व्यापक अर्थ

श्रावक शब्द का व्यापक क्या अर्थ हो सकता है?

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Shravak shabd ka arth hota hai -

Aisa vyakti jo 2 ya 2 se adhik pratima ka dhaaran aur paalan karne waala ho.

From जैनेन्द्र सिद्धांत कोष-
विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं - पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक। निज धर्म का पक्ष मात्र करने वाला पाक्षिक है और व्रतधारी नैष्ठिक। इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर ११ श्रेणियाँ हैं। जिन्हें ११ प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा में क्रमपूर्वक उठता चला जाता है। अन्तिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित् न्यून रहता है। गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है।

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इस परिभाषा के हिसाब से तो अणुव्रती ही श्रावक होता है। फिर हम सामान्यतः किसी भी जैन षठ आवश्यक पालने वाले को भी श्रावक बोलते हैं। उसके पीछे क्या अभिप्राय होता है?
व इस बोला जाता है कि हमे साधक बनना चाहिए, तो वह कैसे बन सकते हैं? एक साधक अथवा श्रावक कैसा होता है?

ध्यान से पढ़िए, ऐसा नहीं लिखा है।

पाक्षिक श्रावक -जिसकी कोई प्रतिमा या जिसके 5 अणुव्रत नहीं वो पाक्षिक श्रावक है। जो सम्यकदृष्टि अभी किसी कारन वश व्रत लेने में असफल है, वे पाक्षिक श्रावक है।
नैष्ठिक श्रावक- इसके सन्दर्भ में 2 मान्यता है। किन्ही आचार्यो के अनुसार 1 प्रतिमा से शुरू(दर्शन प्रतिमा), और किन्ही आचार्य के अनुसार दूसरी प्रतिमा से शुरू (दर्शन, व्रत) । नैष्ठिक श्रावक का गुणस्तां 5 वा हो जाता है। शास्त्रों में इनकी हर समय , 24 घंटे असंख्यात गुनी असंख्यात गुनी निर्जरा बताई गयी है।
साधक श्रावक- जिनकी 11 प्रतिमा हो, छुल्लक जी, ऐलक जी, और आर्यिका माता, वे साधक श्रावक है।

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इस परिभाषा के हिसाब से भी तो सम्यकदृष्टि श्रावक हुआ। और बाकी दोनो परिभाषा में प्रतिमा धारी को श्रावक कहा है, तो सच्ची व्यवहार प्रतिमा भी सम्यकदृष्टि को ही होती है।
मेरा प्रश्न है कि हम मिथ्यादृष्टि 6 आवश्यक पालने वाले को भी श्रावक कहते हैं, उसका क्या कारण या अभिप्राय है?

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क्या आप किसी को जो 6 आवश्यक का पालन तो करे, पर और देवी देवता को मानता हो, या जिनेन्द्र देव की वाणी पे शंका करता हो , उसे श्रावक मानोगे?

जैसे हम कहते है हमारे परिवार में इन सदस्य का “स्वर्गवास” हो गया। क्या हमने देखा वो स्वर्ग ही गए? कौन स्वर्ग गया, कौन नहीं ये हमे तो नहीं पता। हम अनुमान लगा सकते है , की इस व्यक्ति ने जीवन भर अच्छे काम किए, तो स्वर्ग ही गए होंगे।

उसी प्रकार हमे क्या पता कौन सम्यकदृष्टि है, कौन नहीं ?

जो छह आवश्यक का पालन करता हो, सप्त व्यसन का त्यागी हो, आठ मूलगुण धारण करता हो,हम assume करते है, इनकी कषाये बहुत काम है, इन्हें सच्चे देव शास्त्र गुरु पे पूर्ण श्रद्धा है, समयत्व के 8 अंग का पालन दिखता है, तो हम उसे श्रावक समझते है।

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श्रावक का अर्थ सच्ची श्रद्धा बी होता है। सच्ची श्रद्धा यानी सम्यक दर्शन। मिथयादृष्टी को व्यवहार से भी श्रद्धा सच्ची नहीं होती, निश्चय की बात दूर है। सच्ची श्रद्धा न होने से वे व्यवहार से भी श्रावक नहीं कहलाते। इसका अर्थ ये नहीं की उनको श्रावक नहीं मानना पर वे व्यापक श्रावक नहीं कहलाएंगे।

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यहां पर चरणानुयोग के आधार पर कथन समझना। चरणानुयोग अंतरंग शुद्धता को गौण करके बाह्य आचरण को मुख्या करता है। इस रूप से जो व्यक्ति जैन के सामान्य नियमो का पालन करेगा जैसे नित्य देव दर्शन, रात्रि भोजन त्याग, छने जल का प्रयोग इत्यादि, तो चरणानुयोग के आधार पर वह भी श्रावक कहलाएगा। इसके लिए सम्यक्त्व का होना ज़रूरी नही है।

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प्रथमानुयोग के आधार से

  1. जो जीव देव दर्शन कर सच्चे देव शास्त्र गुरु पर श्रद्धा रखे।

2)मुनिराज को आहार देने की भावना रखे , उनके उपसर्ग आदि दूर करे

  1. जिनका व्यवहार न्याय नीति पूर्वक हो। जो अंतिम समय मे शत्रु को भी णमोकार मंत्र सुनाये।

  2. रात्रिभोजन और अभक्ष्य का त्यागी आदि…

चरणानुयोग - लाटी संहिता के आधार से

  1. पाक्षिक श्रावक- देवशास्त्र गुरु की यथार्थ श्रद्धा,पांचो पापो की स्थूल हिंसा का त्यागी,पांच उदम्बर फल,रात्रि भोजन का त्यागी,सप्तव्यसनो एवं संकल्पी हिंसा से दूर रहता है।

  2. नैष्ठिक श्रवक- अणुव्रती, प्रतिमा धारी, अन्याय अनीति अभक्ष्य से कोसो दूर रहने वाला नैष्ठिक श्रवक

  3. साधक श्रावक- जो व्रती श्रावक जीवन के अंत मे काया और कषायों को कृष करता हुआ पवित्र ध्यान द्वारा संलेखना धारण करता है।

अभिधान राजेश कोष - श्र- तत्वार्थ श्रद्धान
व - शब्द ज्ञान रूप बीज बोने की प्रेणा

क - शब्द महापापो से दूर करने का संकेत

श्रावक धर्म प्रकाश- सम्यक्त्वी और अणुव्रती ग्रहस्थो के धर्म को आचार्यो से श्रवण करे

द्रवयानुयोग- 1) आत्मा जानने की रुचि लगना आत्मानुभव होना वहि श्रावक है।

  1. विषयभोग के प्रति अरुचि होना और श्रद्धान में द्रव्यदृष्टि होना उसे श्रावक कहते है।

  2. करणानुयोग - अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यान का अनुदय पंचम गुणस्थान वरती को श्रवक कहते है।
    4 थे गुणस्थान वाले को उपचार से शावक कहते है।

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इस संदर्भ में पण्डित टोडरमल जी के विचार दृष्टव्य है -

तथा कोई भला आचरण होने पर सम्यक्चारित्र हुआ कहते हैं। वहाँ जिसने जैनधर्म अंगीकार किया हो व कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा ग्रहण की हो; उसे श्रावक कहते हैं। सो श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे इसे श्रावक कहा है। उत्तरपुराणमें श्रेणिकको श्रावकोत्तम कहा है सो वह तो असंयत था; परन्तु जैन था इसलिये कहा है।

- मोक्षमार्गप्रकाशक, आठवाँ अधिकार, प्रथमानुयोग के व्याख्यान का विधान, p. 273

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तथा किसी जीवके विशेष धर्मका साधन न होता जानकर एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश देते हैं। जैसे – भीलको कौएका माँस छुड़वाया, ग्वालेको नमस्कारमन्त्र जपनेका उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय, पूजा-प्रभावनादि कार्यका उपदेश देते हैं, – इत्यादि जैसा जीव हो उसे वैसा उपदेश देते हैं।

वहीं, चरणानुयोग के व्याख्यान का विधान, p. 279

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श्रावक
श्रा- श्रद्धावान
व- विवेकवान
क- क्रियावान