नैयायिक प्रमाण के सन्दर्भ में स्मृति से अनुमान तक तो क्रमशः विकास मान्य है, किन्तु आगम भिन्न प्रकार से परोक्ष प्रमाण का हिस्सा है। अतः वह क्रम में बोला जाने पर भी क्रम में नहीं आता।
वस्तु को जानने के लिए और उसे बुद्धि में बनाए रखने के लिए अवग्रह से धारणा और स्मृति से अनुमान तक का सफर तय करने पर वस्तु का वास्तविक ज्ञान होता है। यह ज्ञान प्रामाण्य से सुरक्षित रहता है। किसी कारण से अभ्यस्तानभ्यस्त में समारोप आने से उसमें पुनः प्रमाणरूप परिणमित होने की योग्यता आ जाती है।
किसी वस्तु के अनुभवन हेतु एक प्रामाणिक प्रस्तुतिकरण आवश्यक होता है, जिसके अनन्तर ही उसे चिन्तन-मनन द्वारा स्वीकारा जा सकता है।
यहाँ जिन दो प्रसंगों की बात विवक्षित है, उनमें परार्थनुमान और उसके पंचावयव का क्रम और अनुभवन के क्रम में समानान्तरता तो किसी अपेक्षा बनाई भी जा सकती है।
वस्तु का ज्ञान और उसका अनुभवन दोनों प्रक्रियाओं में मूलभूत कथंचित अन्तर तो है ही साथ ही पहले ज्ञान किया जाता है, फिर अनुभवन, फिर अन्य को उपदेश (आगम), फिर अन्य को ज्ञान और तब कहीं किसी को अनुभवन।
इसमें प्रत्येक सोपान में भूल होने की सम्भावना होने से अन्तिम सोपान तक पहुँचने वाले विरले ही होते हैं।
(I’m absolutely bad at long answers, but I had too because I could’nt resist my dearly favourite question. Thank you for asking.)
धन्यवाद भैया।
क्या ऐसा सर्वथा लिया जा सकता है?
परंपरा तो इसी प्रकार चलेगी, परन्तु जब एक ही जीव की बात की जावेगी तब उनको निज वैभव की प्राप्ति के ४ साधन; और विकास क्रम में उत्पन्न होने वाले प्रमाण ज्ञान की तुलना करेंगे तब इस क्रम के अंतर का कैसे मिलान करें? करें या नहीं करें?
अनुभव भी ज्ञान गुण का ही परिणमन है। तो उसके विकास क्रम में अंतर क्यों? कहीं यह अंतर सामान्य से विशेष और विशेष से सामान्य की और गमन करने के कारण तो नहीं?
आगम की परोक्ष प्रमाण में जाति परार्थानुमान से तो क्रम गर्भित है ही, किन्तु स्वार्थानुमान में अवग्रहादि में ही लिया जाना चाहिए।
कीजिए ना! अनुभवन के पहले 3 सोपानों से ज्ञान और तदनन्तर चतुर्थ में ज्ञान की निर्विकल्पता/असहायता/सविकल्पता की अनावश्यकता इत्यादि।
बिल्कुल है। (समयसार गाथा 15)
(Thank you for unintendedly teaching me how to use the ‘quote’ feature.)