आस्रव और पुण्य-पाप में अंतर?

आस्रव और पुण्य-पाप में क्या अंतर है?
1.यदि दोनों एक है तो पदार्थ गिनाते समय आस्रव को नही लेना चाहिए, इसप्रकार 8 पदार्थ हुए।
2. यदि दोनों भिन्न है तो 7 तत्व गिनाते समय पुण्य-पाप को आस्रव क्यों कहा जाता है?

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आस्रव, पुण्य और पाप, तीनो अलग अलग है।
तत्त्व सात होते है। जो तत्त्व होते है वे शाश्वत होते है , वे किसी के लिए नहीं बदलते। उद्धरण के तौर पर आपकी आत्मा जीव है। वो आपके लिए भी जीव है, मेरे लिए भी जीव है। ऐसे ही बाकी छह के लिए भी लगा ले।
पदार्थ नौ होते है। सात तत्त्व में पुण्य और पाप जोड़ दे तो नौ पदार्थ हो जायेंगे।

पुण्य और पाप शास्वत नहीं होते। अलग अलग परिस्तिथि में एक ही कार्य पुण्य भी हो सकता है और पाप भी।
उद्धरण के तौर पर राहुल ने एक भिकारी पर पैसे फेक दिए, तो उसने पुण्य कार्य किया। एक और स्थति लेते है, एक आदमी एक गढे में फसा पड़ा है, फसा भी ऐसे है की चारो और पैसे ही पैसे पड़े है। राहुल अगर अब आदमी पर पैसे फेक दे तो उन पैसो से उस आदमी का दम घुट कर मर जायेगा। कार्य वही है (पैसे फेकना) लेकिन यहाँ पाप कार्य है।

जीवो की हिंसा करना पाप कार्य है। हिंसा के फल स्वरुप जो कर्म आएंगे, उन कर्मो के आने को आस्रव कहते है।

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  • द्रव्य अपेक्षा - छह द्रव्य
  • क्षेत्र अपेक्षा - पाँच अस्तिकाय
  • काल अपेक्षा - नौ पदार्थ
  • भाव अपेक्षा - सात तत्त्व
- पुण्य पाप का परिणमन अलग अलग है, लेकिन दोनों का भाव (तत्त्व) एक ही है - आस्रव बन्ध के कारण है । अतः पदार्थों में अलग से गिनाया लेकिन तत्त्वों में आस्रव-बन्ध में गर्भित किया ।
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काल अपेक्षा - द्रव्य(द्रूयन्ते इति द्रव्यः अर्थात जो अपनी समस्त पर्यायों और गुणों में बहता है वह द्रव्य है)
द्रव्य अपेक्षा - पदार्थ ( पद+अर्थ - अर्थ मतलब वस्तु)
–ऐसा कल्पना दीदी ने बताया था।

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तत्वों के संबंध में जो शाश्वत पाने की बात कही है वहाँ ऐसा समझना चाहिए कि मेरा जीव द्रव्य मेरे लिए जीव तत्त्व है और अन्यों के लिए अजीव तत्त्व है।(- सुमत प्रकाश जी)

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वस्तु (अर्थ) को जो नाम (पद) मिलता है वह उसके परिणमन स्वभाव को देखकर दिया जाता है । इसीलिए काल अपेक्षा पदार्थ कहा था । कुछ विशेष होगा तो देखकर बताएँगे । ब्र. कल्पना दीदी के द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण के लिए आपका धन्यवाद …

तथा नौ पदार्थों में से सात पदार्थ तो पर्याय रूप ही है, अतः परिणमन (काल) की मुख्यता अधिक है ।

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प्रश्न:- ‘पद’ से परिणाम स्वभाव को कैसे ग्रहण किया गया है??

पदार्थ में दो शब्द हैं पद व अर्थ,पदो द्वारा जिसे कहा जाता है वह पदार्थ कहलाता है,
संस्कृत में पद की परिभाषा आती है कि जो सुप् व तिङ आदि प्रत्ययो से जो युक्त हो वह पद कहलाता है,
पदो द्वारा जिसे भी कहा जाएगा वह पदार्थ बन जायगा ,अतः यह सामान्य सूचक हुआ इसीलए इसे द्रव्य अंश में लेना उपर्युक्त है।

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From notes of Br. Sumat prakash ji.
Link for complete notes: https://drive.google.com/file/d/1ohv4I_4OphK4MFYrj7GxZjgwEODuWPxr/view?usp=drivesdk

The pravachans on these notes are also available on Jinswara youtube channel: https://www.youtube.com/playlist?list=PLzi_nN7hhdrAYEF9T9OsH7d7FkubS4h0A

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आश्रव ४ (या ५) प्रकार के है।

  • मिथ्यात्व
  • अविरति
  • कषाय
  • योग

(प्रमाद को कषाय में ही जोड़ देते है, या उसका एक अलग उपवर्ग भी बना देते है)

आश्रव अर्थात् जिससे भी कर्म आत्मा के साथ बंधे। या फिर निस्चय से जीव के विकारी परिणाम (योग भी एक प्रकार का विकारी परिणाम ही है)

पुण्य, पाप कषाय के भेद होने से वे आश्रव का subset है।