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अभयदान का एक उदहारण,
जब जीवंधर जी को अपने आभूषण दान करने का विचार आया था, तब उन्होंने पहले किसान को अणुव्रत दिलवाये, जब किसान ने अणुव्रत स्वीकार कर लिए उसके बादही उन्होंने आभूषण दान दिए -
छत्रचूणामणि ग्रन्थ Pg 312-
अन्य तीनो दानो में भी ये ही भेद बन सकते हैं, क्योकि पात्र, विधि, द्रव्य, दाता की विशेषता से दान के फल में विशेषता आती हैं।
यदि हम किसी मक्षार्थी जीव को ज्ञान दान दे तो वह अज्ञानी की अपेक्षा अधिक फलकर ही होगा। अज्ञानी तो कदाचित सुनकर अपना हित करे या न करे , श्रद्धा करे या न करे, परंतु ज्ञानी तो श्रद्धा और आचरण दोनों करेगा। अर्थात वो तो अपनी विसुद्धि की ही वृद्धि करेगा ।
आहार दान का भी प्रयोजन क्षुधा संबंधी विकल्प शांत कर आराधना बढ़ाना हैं जैसी की ज्ञानी ज्ञान प्राप्ति उपरांत करता हैं।
अभय एवं औसध दान में भी इस ही वत हम समझ सकते हैं।
मैं इससे अज्ञानी जीवो को ज्ञान अदि के दान न देने की बात नही कह रहा हूँ अपितु ज्ञानी को देने से विशेषता होती हैं, आहार वत बस इतना कहना चाहता हूँ। वैसे भी चरणानुयोग में तो व्यवहार धर्म के आधार पर ही पात्र का निर्णय होता हैं।
निष्कर्ष - विसुद्धि की अपेक्षा चारो दानो में पात्र के भेद स्वीकारे जा सकते हैं।
उदहारण - कुन्दकुन्द आचार्य पूर्व भव में जब ग्वाले थे तब उन्होंने मुनि को शास्त्र दिया तब मुनि बोले - तुमने उत्तम पात्र को उत्तम वस्तु का दान दिया, तुम अगले भव में बड़े आचार्य होओगे । सो ग्रहस्त ने उत्तम पात्र को ज्ञान दान दिया जिसका उत्तम फल मिला जो इस कलिकाल में भी साखछात देव दर्शन हुए ।
उदहारण - अभय दान अर्थात किसी के प्राणो की रक्षा करना या करुणा करना - हरिवंशपुराण से - एक मुनि वन में ध्यान मग्न थे इतने में किसी तूफ़ान से एक पेड़ टूटकर मुनि के सन्मुख/ऊपर गिर गया, मुनि के तन में बहुत से काटे चुब गए, पर मुनि ध्यान से नहीं हटे, वन में वानर थे, मुनि को खून से लथ पथ देख, बहुत से वानर इक्कठे हो गए और वानरों ने मिलकर उस पेड़ को मुनि के ऊपर से हटाया, एक वानर को जो पूर्व भव में वैद्य था जातिस्मरण हो गया, उसने औषधि बनाकर मुनि के घावों पर लगाई - देखो तिर्यंचो ने मुनि को अभयदान दिया - सुकर ने भाग से लड़कर - श्री राम ने असुर से लड़कर - विष्णु कुमार मुनि (उत्तम दातार), अकम्पनाचार्य ससंग (उत्तम पात्र) को अभय दान दिया - वसुदेव (श्री कृष्ण के पिता) जो पूर्व भव में मुनि थे (उत्तम दातार) ,अन्य मुनियो (उत्तम पात्र) की बहुत वैयावृत्ति करि, उन्हे समाधिमरण कराया जिससे उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बंद होने जा रहा था यदि वे निदान नहीं करते ।
औषध दान उद्हारण - श्री कृष्ण मुरारी ने पूर्व भव में (गृहस्त ने) सनत्कुमार चक्रवर्ती मुनि को कुस्त रोग में देखकर खाने के लाडू में औषधि मिलाकर आहार में दी जिससे उनका कुस्त रोग दूर हुआ, मुरारी ने उत्तम पात्र को औषध दान दिया जिसका उत्तम फल हुआ ।
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ज्ञान दान एवं अभय दान का व्यापक अर्थ देखने पर भाव स्पष्ट हो रहा है । ज्ञान दान में मात्र उपदेश ही नहीं, अपितु ज्ञान के उपकरण का भी देना बनता है ।
क्षमा चाहता हूँ, किन्तु दान के पात्र बताते समय कभी भी यह नहीं पढ़ा कि यह आहार दान की अपेक्षा से ऐसा भेद है। वो तो ऐसा है कि हमें आहार दान के उदाहरण सरलता से समझने-समझाने को मिल जाते हैं।
जिसके पास आहार बनाने का साधन हो वही तो आहारदान देगा।
जिसके पास औषधि रखने/बनाने का साधन हो वही तो आहारदान देगा।
जिसके पास जिनवाणी सम्भालने का साधन हो वही तो ज्ञानदान देगा।
और, जिसके पास लाठी, डण्डा आदि साधन हो वही तो रक्षा करेगा।
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चारो दानो में सबसे बड़ा दान आहार दान नहीं है। सबसे बड़ा दान ज्ञान दान है । आहार तो एक दिन की क्षुधा मिटाएगा, लेकिन ज्ञान दान तो जन्म जन्मांतर की क्षुधा मिटा सकता है।
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मेरे ख्याल से विष्णु कुमार मुनि को उत्तम दातार कहना अनुचित होगा, क्योकि उन्होंने अपनी मुनि दीक्षा त्याग कर, एक पंडित के रूप में अकम्पनाचार्य आदि मुनियो को अभय दान दिया था।