क्या संयोगों के समान जीव स्वयं की पर्याय में भी सुख की कल्पना करता है?

जिस प्रकार संयोगों में सुख की कल्पना को दुख का कारण कहा गया है, क्या उसी प्रकार का कथन पर्यायों (स्वयं की) के संबंध में भी किया सकता है?

Writing my believes, if wrong please correct me.

“ये ही मैं हूँ” - जब इस बात पर जोर आता है तो अतीन्द्रिय सुख प्रगट होता है ।

“ये सुख है” - जब इस बात पर जोर आता है तो आकुलता प्रगट होती है और अतीन्द्रिय सुख का घात हो जाता है ।

अब ध्यान दे -

  1. “ये ही मैं हूँ” - इस statement में “मैं” 1st person है और इस statement को बताने वाला भी 1st person । इसलिए यहाँ कोई भेद नहीं है, अभेद को ग्रहण किया ।
  2. “ये सुख है” - इस statement में “सुख” 2nd person है और इसे बताने वाला 1st person । सो यहाँ द्रव्य और पर्याय में भेद पड़ गया (सो वस्तु स्वरूप ऐसा नहीं है) |

इसलिए ही कह देते है की “आत्मा अपनी निर्मल पर्याय से भी भिन्न है” (ये उपचार से कहा) - ऐसा सिर्फ इसलिए कहा क्योंकि जब “ये सुख है” ऐसे उपयोग सुख कि ओर जाता है तब वह सुख(गुण) में और द्रव्य(स्वयं में) भेद कर देता है जोकि परमार्थ से नहीं है। ज्ञान कि ओर उपयोग करने में ऐसा नहीं होता क्योंकि ज्ञान जीव का एक अधभुध गुण है, वह जीव का लक्षण है, सुख जीव का लक्षण नहीं है (क्योंकि वह सर्व जीवो में सर्वथा नहीं पाया जाता) ।

एक और बात कहते है कि “आत्मा स्व पर प्रकाशक है” - सो बहुत से लोग मानते होंगे कि ये जो पर पदार्थ जानने में आये सो तो हुआ पर का प्रकाश । और इन्हे जाना तो ज्ञान ने, सो वह ज्ञान हुआ स्व का प्रकाश । पर मेरी समझ के अनुसार यह ठीक नहीं है ।
क्योंकि गाथा है - “जो वस्तु जैसे परिणमित होती है, वह वो ही है” । क्यों? क्योंकि द्रव्य और पर्याय भिन्न नहीं है । जैसे राग रूप परिणमित हुआ जीव स्वयं ही राग है, सुख रूप परिणमित हुआ जीव स्वयं ही सुख है । सो जो पर प्रकाशक कहा वह अन्य द्रव्यों (उनके प्रमेयत्व गुण) कि अपेक्षा से कहा । वास्तव में कसाय रूप परिणमित होती आत्मा स्वयं ही कसाय है, क्योंकि द्रव्य और उसकी पर्याय दो अलग चीज़ नहीं है । सो परमार्थ से पर का प्रकाश कुछ हुआ ही नहीं, सर्वत्र ज्ञान(स्व) का ही प्रकाश हुआ, क्योंकि जो कसाय जानने में आयी वह स्व ही है, जो पर पदार्थ दिखते है वह स्व ही है, (तभी तो आत्मा अरस, अस्पर्शी है) और कहते है कि “मैं ज्ञानमात्र हूँ”, यहाँ मात्र पर जोर दे ।

अब कहते है कि “पर्याय का लक्ष्य करने पर सम्यक्त्व नहीं होता” - शायद आपका प्रश्न इस पर ही आधारित है । क्यों नहीं होता ? क्योंकि भाई जिसे तुम ढूंढ रहे हो, वह तुम ही हो । Actually हम अतीन्द्रिय सुख को ही आत्मा का मिलना मान लेते है, वर्तमान में जो कसाय आदि दिखते है, ऐसा लगता ही नहीं कि ये भी आत्मा है । कोई इसे पर पदार्थ कहता है, कोई भावकर्म कहता है, कोई विकारी पर्याय कहता है (पर पर्याय ही तो द्रव्य है) - Sowmay ने पिछली पोस्ट में गाथा बताई थी “कि प्रगट ज्ञान ही परमार्थ सुख का कारन है” ।

तो प्रश्न बनेगा - जैसे कोई मोटा हथोड़ा कहि जोर से मारा हो, ऐसे उपयोग का अचानक से जोर गया कि “ये ही मैं हूँ” सो ही अतीन्द्रिय सुख प्रगट हो गया, पर १-२ छन बाद ही ऐसा विकल्प आता है कि “यह देखो मुझे सुख हुआ”, फिर दूसरा विकल्प आता है कि “मुझे पर्याय को नहीं देखना है” । सो ऐसे विकल्प का निषेद करते हुए द्रव्य गुण पर्याय में भेद पड़ जाता है और पर्यायदृष्टि हो जाने से सुख का घात हो जाता है । तो अब क्या करे?
तो इसे अस्थिरता कहते है, इसका असली कारन असंयम ही है । इसलिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्नान कि importance बताते हुए कहा है कि जिसके बहिरंग शुद्धि नहीं उसे अंतरंग शुद्धि भी नहीं होती । संयम/ भ्राम शुद्धि बढ़ने पर परिणामो में स्थिरता भी अपने आप आ जाएगी ऐसा मुझे लगता है।

यहाँ अतीन्द्रिय आनंद मतलब स्वानुभव कि बात नहीं कि है, बल्कि स्वानुभव कि ओर बढ़ता हुआ उपयोग या कहे स्व के सन्मुख होता हुआ उपयोग जब विसुद्धि/ प्रायोग्य लब्धि कि stages में होता है तब भी वहाँ अतीन्द्रिय सुख प्रगट होता है गठति हुई आकुलता/ विकल्पों के साथ। मैं आपको कुछ सीख नहीं दे रहा, बस अपनी मान्यता लिख रहा हूँ, जिससे यदि कुछ सूक्ष्म भूल हो रही हो तो वह मुझे ज्ञात हो जाये । आप जो Zoom app पर भावदीपिका ग्रन्थ का स्वाध्याय करते हुए मंगलाचरण बोलते थे that still buzz around my mind.

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