बारह भावना :एक अनुशीलन

प्रश्न : संवर, निर्जरा भावना में ही रत्नत्रय का स्वरूप आ जाने पर धर्म भावना को अलग से सम्मिलित क्यों किया गया और यदि संवर निर्जरा और धर्म भावना में अन्तर है, तो अलग लिखने का कारण व अन्तर कृपया स्पष्ट किजिये।

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  • संवर निर्जरा में रत्नत्रय की अपूर्णता (एक देश पूर्णता) ले सकते है ।
    *धर्म भावना में रत्नत्रय की पूर्णता गर्भित कर सकते है ।
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बारह भावना के प्रकरण में जो धर्म भावना आई है ,वह रत्नत्रय रुप परिणमन ही है ,क्योकि यह बारह भावना संवर का कारण है ।

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जो मिथ्यादृष्टि करे उसे धर्म नहीं कह सकते, कारण कि यदि उसकी क्रियाओं को धर्म मान लिया जाये तो सम्यकदृष्टि के धर्म और मिथ्यादृष्टि के धर्म में क्या अंतर ठहरेगा?

निर्जरा चूँकि सभी के होती है, लेकिन संवर पूर्वक निर्जरा वह सम्यकदृष्टि के होती है।

भावनाओं में अंतर उनके विषय की अपेक्षा तो किया जा सकता है, लेकिन उनके भाने में तो जो अनित्य भावना का चिंतन भी कर रहा है वह भी तो रत्नत्रय से युक्त है।
विषय की अपेक्षा धर्म होवे ऐसा भाव संवर भावना में, धर्म की वृद्धि से कर्मों से मुक्त होऊं ऐसा भाव निर्जरा भावना में, धर्म की पूर्णता होने पर जो फल प्राप्त होगा ऐसा भाव धर्म भावना में गर्भित किया जा सकता है। (प्रसंगानुसार)
शेष व्याख्या अनेक तरह से भी संभव है।

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