ज्ञान गुण के स्व - पर प्रकाशक में पर प्रकाशक सम्बन्धी प्रश्न

ज्ञान गुण स्व-पर प्रकाशक है, उसमे पर प्रकाशक की व्यवस्था किस प्रकार है?
१, " जानने वाला ही जानने में आता है", पर भी स्व ही है - पर प्रत्यक्ष रूपसे जानने में नहीं आता।
परके सम्बन्धीका ज्ञान खुद से खुद में उत्पन्न होता है और वह खुद का ज्ञान जननेमे आता है।
२, ज्ञान पर को विषय बनता है - यानि, परको प्रत्यक्ष जनता है,
लेकिन उसमे तन्मय नहीं होता इसलिए ज्ञान ज्ञान को जनता है ऐसा कहते है

उपरोक्त दोनोमे ज्ञानकी वास्तविक परप्रकाशकता कैसे है ? कृपया अपने विचार बताये।

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पर प्रकाशक - परद्रव्याकार प्रकाशक
स्व प्रकाशक - स्वद्रव्याकार प्रकाशक
उदा. प्रदीप।

ज्ञान पर प्रकाशक है इसमें तो कोई आपत्ति नहीं हैं किन्तु स्व-प्रकाशकता के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है - यह बताने हेतु ज्ञान को स्वपर प्रकाशक कहा गया है।

ज्ञान की सार्थकता और स्वभाव में अन्तर करते हुए ये कहा जाता है कि ज्ञान का स्वभाव तो स्व-पर प्रकाशक ही है किन्तु ज्ञान की सार्थकता तो स्व को जानने में ही है।

जब, ज्ञान स्व को जानता है तब -

पर प्रकाशक - आत्मद्रव्याकार रूप भेद प्रकाशक
स्वप्रकाशक - स्वज्ञानाकार रूप अभेद प्रकाशक।

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जिनागम में ज्ञान को स्व -पर कहा गया है ,और कही पर प्रकाशक कहा है।स्याद्वाद शैली से मात्र स्व प्रकाशक भी कहा जाता है ।
०ज्ञान अपने को जानता है यह उसकी स्व प्रकाशकता है
०ज्ञान पर निमित्तक ज्ञेयाकार को जानता है इसीलिए पर प्रकाशक है ।

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ज्ञान का लक्षण स्व-पर प्रकाशक हैं। ज्ञान प्रति समय स्व को जानता हैं, यह मुझे ज्ञात हैं। पर क्या ज्ञान प्रति समय पर को जानता हैं, आत्मानुभति के समय भी? तभी इस लक्षण में अव्याप्ति दोष नहीं आयेगा।

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आत्मानुभूति के समय भी स्व के साथ लब्धि रुप से पर का ज्ञान होता ही है,और लब्धि आत्मक ज्ञान, प्रगट ज्ञान की पर्याय है। अतः अव्याप्ति दोष नहीं आता।

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got it, thanks

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There is an in-depth सैद्धांतिक explanation of स्व-पर प्रकाशक in वृहद द्रव्य संग्रह (गाथा 44 टीका). Worth reading.

दर्शन स्व प्रकाशक हैं तथा ज्ञान पर प्रकाशक हैं - अभेद नय से चैतन्य आत्मा स्व-पर प्रकाशक हैं।

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@aman_jain Ji, can you explain this? Is it धारणा में पड़ा हुआ ज्ञान?

धारण को भी लब्धि कह सकते हैं ,परन्तु लब्धि रुप जो ज्ञान होता है वह व्यापक होता है और धारणा
रुप जो ज्ञान होता है वह व्याप है।यथा- किसी व्यक्ति को दो ज्ञान हैं मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ,तो उपयोगात्मक रुप में एक ज्ञान रहेगा ,और एक ज्ञान लब्धि रुप में रहेगा, ऐसे ही 3अथवा 4 ज्ञान वालो पर भी घटा लेना।

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One Doubt:

दो बातें आती है -

पहली बात : पर ज्ञेय आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकता, ज्ञान ही ज्ञेयाकार रूप हो परिणमित होता है, इसलिए हम बस अपने ज्ञान को ही जानते है, हमारा लोक हमारे भीतर ही है, तीन लोक हमारे ज्ञान में ही है। (समयसार)

दूसरी बात : शिस्य बोला - गुरुवर ! क्या पर को जानने से आत्मा मिथ्यादृष्टि हो जाता है ? आचार्य बोले - नहीं, पर ज्ञेय को जानना तो आत्मा का स्वभाव है। “सब कुछ बस एक ज्ञान ही है, सभी वस्तुए एक ज्ञान में ही नाना प्रकार से स्थित रहती है” - यदि ऐसा माना जाये, तो ज्ञेय कुछ नहीं सिद्ध हुआ और ज्ञेय के बिना ज्ञान भी कुछ नहीं रहा, क्योंकि जो जाने वही ज्ञान है। (दृष्टि का विषय)

इन दोनों बातों में परस्पर विरोध मालूम पड़ता है

आपकी दोनों शंकाएं ज्ञानाकर-ज्ञेयाकार विषय की ओर संकेत कर रहीं है। एतदर्थ आदरणीय अभय जी भाईसाहब, देवलाली के द्वारा प्रवचनसार के विषय पर चर्चा करते हुए इस विषय को प्रत्येक विवक्षा को स्पष्ट करते हुए समझाया गया है। आप अवश्य सुनें।

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संक्षेप में मैं भी प्रयत्न करता हूँ। :pray:
@Chinmay

यहाँ प्रयोजन ज्ञान के स्वच्छ परिणमन को मुख्य करना है, एवं निर्विकारता को दर्शाना है। गुरुदेव श्री ने समयसार गाथा 87-88 की व्याख्या करते हुए इसके संदर्भ में कहा/-

यहाँ ज्ञान स्वभाव को मुख्य करने के साथ साथ, मिथ्यात्व का सम्बंध श्रद्धा से है, इस बात का विचार भी आवश्यक है।

भाईसाब, ज्ञेय अपने स्वरूप में पूर्ण प्रतिष्ठित है,ज्ञान में वह घुस नही जाता (जिससे उसका अस्तित्व सुरक्षित है) यही बताना यहाँ चाहतें हैं।
इसके लिए आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा 87 से 90 की गाथा में मोर-दर्पण, स्फटिक मणि के उदाहरणों के माध्यम से समझाया है, वहाँ अवश्य देखें।

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श्री नीरज जी,

आपका प्रश्न उचित ही है।
उपयोग के भी अनेक रूप हैं, छद्मस्थों में एक समय में 1 उपयोग होने पर भी उस ज्ञान/दर्शन पर्याय को स्व-पर प्रकाशक कहा गया है।

अर्थात् उपयोग अवस्था भी स्व-पर-प्रकाशक ही है। जैसे - घटमहमात्माना वेद्मि या आबाल-गोपाल को अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा सतत अनुभव में आ रहा है।

रही बात आत्मानुभव काल की तो शुद्धोपयोग के काल में भी उपयोग में अबुद्धिपूर्वक ज्ञेयों का परिवर्तन तो पृथक्त्ववितर्कवीचार में भी मान्य ही है।

इसलिए ही तो कहते हैं कि शुद्धोपयोग अर्थात् शुद्ध-ध्येय, शुद्धात्मस्वरूप-साधक और शुद्ध-अवलम्बन।

यदि गौण रूप से हम सभी को आत्मा का अस्तित्व अनादि से स्वीकृत है तो भी मुख्य रूप से पर का अस्तित्व = यही तो पर्यायदृष्टि है and vice-versa।

धवला के इस वाक्य पर विचार करें कि दर्शनोपयोग स्वप्रकाशक और ज्ञानोपयोग परप्रकाशक तब तो बात बदल जाती है, वहाँ आत्मानुभूति भी परप्रकाशक है (रहस्यपूर्ण चिट्ठी से अनुमानित)।

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