उभयाभास - मिथ्या एकान्त या मिथ्या अनेकान्त?

उभयाभासी मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व को क्या कहा जाए - मिथ्या एकान्त या मिथ्या अनेकान्त ?

उभयाभास - मिथ्या एकान्त ही है; क्योंकि मिथ्या एकान्त में एक पक्ष को सर्वथा स्वीकारा जाता है। यहाँ सर्वथा शब्द महत्व पूर्ण है। ना कि एक पक्ष को मानता है या 2 पक्ष को मानता है ,यह महत्वपूर्ण नहीं है।

अतः उभयाभास में भले ही दो पक्ष को मानता हैं, परन्तु सर्वथा मानता है; इसलिए मिथ्या एकान्त है।

प्रश्न:- मिथ्या अनेकांत क्यों नहीं है?
उत्तर:- इसमें दोनों पक्ष को स्वीकारा जाता है, परंतु सर्वथा नहीं स्वीकारा जाता है, अपेक्षा भी लगता है, परंतु प्रत्येक स्थान पर अपेक्षा लगाता है, सम्यक एकान्त को नहीं मानता है , जैसे- मोक्ष का उपाय एक मात्र सम्यक्त्व ही है यह सम्यक एकान्त है, परंतु मिथ्या अनेकांत वादी इसमें भी किसी न किसी प्रकार से अपेक्षा लगाकर कोई दूसरा उपाय भी निकाल लेता है।अतः इस अनेकांत को मिथ्या अनेकांत कहा है।

अतः उभयाभास मिथ्या अनेकांत नहीं है, क्योंकि उभयाभास में अपेक्षा नहीं लगाकर सर्वथा ही मानता है।

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परन्तु अभयकुमार जी नय रहस्य कुछ इसप्रकार कहते हैं।

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फिर भैया उभय एकान्त और मिथ्या अनेकान्त मे क्या अंतर है, क्या इन्हें एक कहा जा सकता है?

जैनेंद्र सिद्धांत कोष में अनेकांत के २ अर्थ इस प्रश्न के उत्तर से सम्बंधित है-
१) जात्यन्तरभावको अनेकान्त कहते हैं (अर्थात् अनेक धर्मों या स्वादोंके एकरसात्मक मिश्रणसे जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है, वही अनेकान्त शब्दका वाच्य है)।
२)जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है।

यदि अनेकांत का शाब्दिक अर्थ देखा जाए तो प्रथम परिभाषा उपयुक्त है क्यूँकि वहाँ सम्यक-मिथ्या की बात ना करते हुए ये बताया की सामान्य रूप में अनेकांत का क्या अर्थ है। (अनेक धर्मों या स्वादों का एक रसात्मक मिश्रण)
अब इस अनेकांत का प्रयोग अलग अलग जगह अलग अलग रूप में किया गया है। कहीं इसे वस्तु के लक्षण को बताने के लिए (दूसरी परिभाषा), कहीं प्रमाण ज्ञान की बात समझाने के लिए(सामान्य विशेषात्मक ज्ञान सो प्रमाण ज्ञान) , कहीं कहीं दोष को बताने के लिए (अनेकांतिक दोष), कहीं तत्वार्थो के अन्यथा श्रद्धान को बताने के लिए (उभयाभासी मिथ्यादृष्टि) आदि आदि रूप में अनेक प्रयोग जैन दर्शन एवं अन्य दर्शन के ग्रंथो में मिलते है। अनेक का स्वाद जहाँ आए वहाँ अनेकांत कहने पर अनेक define भी करने की और/या समझने की ज़रूरत बन जाती है और उस हिसाब से अनेकांत का एक ही अर्थ तो है नहीं जो हर जगह लगाया जा सके, सो उस स्थिति में जिन अनेकों का मिश्रण करके अनेकांत को स्थापित किया जा रहा है, वो योग्य अथवा संभवित है या नहीं, इस बात से सम्यक् और मिथ्या का निर्णय होगा।
रही बात उभयाभास को एकांत(मिथ्या) माने या नहीं तो उस सम्बन्ध में भी एक बात समझ सकते है कि यदि किसी बात को सम्यक् रूप में स्थापित किया तो वहाँ उससे ‘अन्यथा’ सभी को मिथ्या में शामिल करने में कोई दिक्कत नहीं है। [अन्यथा का scope विपरीत से ज़्यादा बड़ा है] [जैसे एक सही रास्ते के अलावा बाक़ी सभी अन्यथा में शामिल होने से मिथ्या मार्ग है] यहाँ वर्तमान प्रसंग में निश्चय और व्यवहार के निरूपण द्वारा उपदेश को सम्यक् रूप में ग्रहण ना करने वाले तीनो ही को (निश्चयभासी, व्यवहाराभासी और उभयाभासी) सम्यक् श्रद्धान से अन्यथा होने के कारण मिथ्या के रूप में लेने में कोई दोष नहीं दिखता। अब रही बात की इस मिथ्या को एकांत के साथ खड़ा किया जाए या अनेकांत के, तो वहाँ हमको अनर्पित को देखकर ही निर्णय करना होगा। यदि सामने एक सम्यक् को खड़ा किया है तो उससे अन्यथा रूप इसे भी एक मिथ्या एकांत माना जा सकता है, और यदि इसके निरूपण में जात्यंतर भाव की मुख्यतः की बात करनी है (निश्चय और व्यवहार दोनो के सम्बन्ध में भूल) तो मिथ्या अनेकांत माना जा सकता है।

Refer to this link:
http://www.jainkosh.org/wiki/अनेकान्त

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प्रश्न:- उभयाभास कौन से गुण की पर्याय है?
क्योंकि (उभय)निश्चय, व्यवहार ज्ञान गुण और आभास श्रद्धा गुण की पर्याय है, परंतु दो गुण की एक पर्याय कैसे हो सकती है?

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नय तो श्रुतज्ञान की पर्यायें हैं (अर्थात् पर्याय की पर्यायें हैं।)

निश्चय-व्यवहार, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय तो अपने-अपने तरीकों से सम्पूर्ण द्रव्य को विषय करते हैं।

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जिस प्रकार ‘देव शास्त्र गुरु का श्रृद्धान और सात तत्व का श्रृद्धान’, चारित्र और ज्ञान की प्रधानता से सम्यकदर्शन की परिभाषाएं कहीं जाती हैं, उसी प्रकार उभयाभास को भी ज्ञान (मिथ्याज्ञान/अज्ञान) की प्रधानता से मिथ्यादर्शन की परिभाषा समझी जा सकती है।

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Adding to what has been already said -

दो गुणों की पर्यायों का विषय तो एक हो ही सकता है (जानेगा तभी तो श्रद्धान करेगा)

इसीलिए पं. टोडरमल जी ने इन दोनों नयों के ग्रहण करने के प्रसंग में कहा -

जिनमार्ग में कहीं तो निश्चय नय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे तो ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ - ऐसा जानना । तथा कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे ‘ऐसे है नहीं, निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार किया है’ - ऐसा जानना (मोक्षमार्गप्रकाशक, p. 251)

निश्चय का निश्चय रूप और व्यवहार का व्यवहार रूप श्रद्धान करना कहा है (p. 250)

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(मेरी और अमन आरोन की चर्चा में यह निष्कर्ष सामने आया है…)
उभयाभास - मिथ्या एकांत है।

प्रश्न:- परंतु मान तो 2 पक्षों को रहा है, इसलिए मिथ्या अनेकांत है।

उत्तर:- 1)मिथ्या एकांत में किसी पक्ष को सर्वथा स्वीकार किया जाता है। उभयाभास में भी किन्हीं पक्षों को सर्वथा स्वीकार किया गया है। अतः मिथ्या एकांत है।

प्रश्न:- परंतु आचार्य समन्तभद्र स्वामी उभय एकांन्त में सत्- असत् दोनों को ही ग्रहण किया है, अतः मिथ्या अनेकांत ही है।

उत्तर:- आप सही कह रहे हैं, परन्तु आ. देव उभय एकांन्त कह रहे हैं, मिथ्या अनेकांत नहीं। उभय एकांन्त के अंत में एकांन्त आ रहा है इसका अर्थ यह एकांत का ही भेद है और एकांन्त में सम्यक तो हो नहीं सकता है; अतः मिथ्या एकांत ही है।

मिथ्या अनेकांत नहीं है -


इस राजवार्तिक कि परिभाषा पर उक्त उभयाभासी खरा नहीं उतरता है।

प्रश्न:- आपने जो कहा है कि सर्वथा होने से मिथ्या एकांत है सो नयचक्र में तो लिखा है कि मिथ्या एकांन्तो का समूह मिथ्या अनेकांत है।

उत्तर:- इनके संदर्भ में और निष्कर्ष के रूप में आ. समन्तभद्र देव के आप्त मीमांसा की टीका में आ. वसुनंदी देव(11-12 वीं शताब्दी) लिखते हैं कि (108 कारिका)

निष्कर्ष - उभयाभास मिथ्या एकांन्त ही है, क्योंकि मिथ्या एकांन्तों का संग्रह मिथ्या एकांन्त ही है।

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इतने विस्तृत समाधान के लिए धन्यवाद।

उभयाभास को मिथ्या एकांत रूप समझने की उक्त युक्तियां बिल्कुल स्वीकार है। परन्तु यहां एक प्रश्न है कि क्या कोष में दी हुई अनेकांत की प्रथम परिभाषा (जात्यंतर भाव) को उभयाभास में नहीं लिया जा सकता है?

उस रूप में उभयाभास में अनेक का विषयी होने के कारण अनेकांत, तथा वस्तुरूप में उस विषय के अभाव होने के कारण मिथ्या संज्ञा का प्रयोग सफल है। वस्तु रूप में तो मिथ्या अनेकांत और मिथ्या एकांत का अस्तित्व है ही नहीं, परन्तु वस्तु के संबंध में मान्यता में विपरीतता होती है जिसे मिथ्या अनेकांत और मिथ्या एकांत - दोनों रूप में समझा जा सकता है।

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जात्यन्तर एक-रसात्मकता का अभिप्राय अनेक भंगों/एकान्तों में 1 वस्तुत्व को बनाए रखने वाला।

उभय-अनुभय भंग क्रमाक्रम की सापेक्षता से ही स्वीकारे गए हैं।

यदि सुलभ जी का अभिप्राय कालभेद (जात्यन्तरता) को मुख्य करके उभय एकान्त को मिथ्यानेकान्त में लेना है तो आपका कथन योग्य ही है।

किन्तु, यदि अमन जी का अभिप्राय भावाभेद(एक रसता) को मुख्य करके उभय एकान्त को मिथ्यैकान्त में लेना है तो आपका कथन भी योग्य ही है।

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आप्तमीमांसा की कारिका 108 में मिथ्यासमूहो मिथ्या चेत् के संदर्भ में कुछ विचार -
  • यहाँ समूह का अर्थ समस्त मिथ्या एकांतों से है । यदि मात्र दो एकांतों का समुदाय कहना होता तो आचार्य उभय-एकान्त का खण्डन तो प्रत्येक परिच्छेद में करते ही आये है । ये कारिकायें पूरे ग्रन्थ के उपसंहार स्वरूप है । अतः यहाँ मिथ्यासमूहो से समस्त मिथ्या एकान्तों को ग्रहण करना चाहिए और मिथ्या शब्द से मिथ्या-अनेकान्त को ग्रहण करना चाहिए ।
  • (In the screenshots given above) आचार्य अकलंकदेव ने इस मिथ्या-अनेकान्त को परिभाषित करते हुए अर्थशून्य वाग्विलास रूप बताया एवं आचार्य वसुनन्दी भी टीका में वही अर्थ करते है कि वह मिथ्या एकन्तों का समूह मिथ्या है- असत्य रूप है ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि उभयाभास को मिथ्या-एकान्त नहीं कह सकते ।
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