मैने कल book" जिनान्माय मे मुनिमार्ग" पढी।
उस मे आया कि मुनिराज पिछी खुद बनाते जो वन मे सहज मिल जाते। यदि ऐसा हे तो उनके अचोर्य व्रत मे दोष नही आता।
छहढाला मे तो आया कि मुनिराज बिना दिए तो मृतिका भी नही लेते।
पहले दीक्षा लेने की परिपाटी रहती थी।और ज़्यादातर लोगों का सोचना यह रहता कि गृहस्थ जीवन पूर्ण कर हम दीक्षा ले लेंगे।
तो ऐसी भावना के साथ दीक्षा लेने चिन्ह स्वरूप ग्रहस्थ अवस्था में ही पिछि बनाकर रखते थे ताकि समय आने पर
- हम स्वयं दीक्षा ले सके
- अन्य मुनिराज को वह पिछि दे सके जिससे उद्दिष्ट का दोष नहीं आए।
सुधार की जरूरत हो तो कृपया सुधार करे।
जय जिनेन्द्र
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पहली बात तो ये कि यह अत्यन्त प्रासंगिक है, मनुष्यों की उपयोगी एवं आधिकारिक सामग्री का मुनियों को प्रयोग निषिद्ध है।
(न जल, मृण हु बिना दियो गहै) - “बिना दिए जल, मृण को ग्रहण नहीं करते।” ये प्रसंग तो अधिकृत जल, मृण के साथ ही सम्भव है।
आज तो वैसे भी जो किसी का नहीं वह सरकार का है, किन्तु तब भी कुछ अन्य स्थान भी हैं ही, जैसे - कुछ जंगल, पर्वतीय प्रांत इत्यादि।
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मूलाचार आदि ग्रन्थो में मुनि के लिए स्वयं पिच्छी व कमण्डल आदि बनाने की चर्चा आती है ।
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