निर्जरा
झरना ,निर्झरण का नाम निर्जरा है।अर्थात कर्मों का झरना ही निर्जर है ।वह कर्मों का झरना 2 प्रकार से होता है ; इस कारण वह निर्जरा ही 2 प्रकार की है :-
1)सविपाक निर्जरा:- ‘स’ अर्थात सहित , ‘विपाक’ अर्थात उदय । जो कर्म उदय आने पर सत्ता में झर जाते हैं ,उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं ।
जिनसेन स्वामी ने सविपाक निर्जरा को हरिवंश पुराण (63 पर्व ) में सविपाकज निर्जरा कहा है।'ज’अर्थात उत्पन्न होना।जो कर्म उदय द्वार से झरते हुए आगामी बंधन को उत्पन्न करने में कारण है ,उसे सविपकज निर्जरा कहते हैं।
अकलंक देव ने राजवार्तिक (9अध्याय ,7वा सूत्र,) में अनुबंधिनी निर्जरा कहा है। जो निर्जरा आगामी बंध में कारण हो ,उसे अनुबंधिनी निर्जरा कहते हैं ।
यह अनुबंधिनी निर्जरा भी 2 प्रकार की है:-
१)कुशलानुबंधिनी :- संयम के प्रभाव से देवादि गति में जो निर्जरा होती है , उसे कुशलानुबंधिनी निर्जरा कहते हैं ।
२)अकुशलानुबंधिनी :- नरकादि गति में जो प्रति समय निर्जरा होती है ,उसे
अकुशलानुबंधिनी निर्जरा कहते हैं ।
2)अविपाक निर्जरा :- ‘अ’ अर्थात ‘नहीं’ , ‘विपाक’ अर्थात ‘उदय’ ।जो कर्म उदय में आए बिना ही झर जाते हैं , इस प्रकार कर्मों के झरन को अविपाक निर्जरा कहते हैं।
प्रश्न:- करणानुयोग में ऐसा नियम है कि कर्म का झरना उदय में आए बिना नहीं हो सकता है , अतः उपर्युक्त बात कैसे संभव है?
उत्तर:- उदय में आए बिना ही झर जाते हैं ।इसका अर्थ यह है कि कर्मों के उदय द्वार को छोड़ कर उदीरणा आदि द्वारों से कर्मो का झरन होता है वह अविपाक निर्जरा है ।
अविपाक निर्जरा को हरिवंशपुराण में अविपाकज निर्जरा कहा है।
अविपाकज में आया ‘ज’ शब्द का अर्थ ‘उत्पन्न होना’ होता है।जो कर्मों का उदय आगामी कर्मों को उत्पन्न करने में कारण नही हो , उसे अविपाकज निर्जरा कहते हैं ।
अविपाकज निर्जरा को राजवार्तिक में निरनुबंधिनी निर्जरा कहा है ।
जो कर्मों का झरन आगामी बंध में कारण नहीं होता है ,ऐसे कर्मों के झरना को निरनुबंधिनी निर्जरा कहते हैं।
मंगत राय जी ने अपनी 12 भावना में कहा भी है:-
उदय भोग अविपाक समय , पक जाय आम डाली ।
दूजी है अविपाक पकावें , पाल विषै माली।।
पहली सबके होय नहीं कुछ सरे काम तेरा ।
दूजी करे जु उद्यम करके, मिटे जगत फेरा ।।
अर्थ :-उदय द्वार से जो कर्म भोगे जाते हैं ,उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं ,जैसे डाली पर आम स्वयमेव स्वसमय में पक जाता है।
उदीरणा आदि द्वारों से जो कर्म बजोगे जाते हैं ,उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं , जैसे कच्चे आम को माली पाल में पकता है।
प्रश्न :- यहाँ कोई कह कि अपने तो उदय और उदीरणा आदि को ही निर्जरा कह दिया , परन्तु आगम में तो उदय ,उदीरणा आदि और निर्जरा का वर्णन तो भिन्न भिन्न ही किया है ,तब आप दोनों को एक कैसे कहते हों ?
उत्तर:- आपका कहना सही है ।आगम में उदय,उदीरणा और निर्जरा का निरूपण पृथक - पृथक ही किया है ,परन्तु उदय ,उदीरणा आदि का नाम ही निर्जरा है , क्योंकि कर्मों की 10 अवस्थाएं होती हैं ,उन 10 अवस्थाओं में निर्जरा नामक कोई अवस्था नहीं है और निर्जरा में भी मात्र कर्मों का खिरना ही होता है और कुछ विशेष नहीं होता है तथा वह कर्मों का खिरना 2 रूपों में होता है ।एक उदय रूप में और दूसरा उदीरणा आदि रूपों में होता है ।
उदय रूप से कर्मों के खिरने को सविपाक निर्जरा कहते हैं।
उदीरणा आदि रूपों से कर्मों के खिरने को अविपाक निर्जरा कहते हैं।
अनेक विद्वान कहते हैं कि कर्म फल दिए बिना ही अकर्म रूप परिणमित हो जाते है ,उसे निर्जरा कहते हैं । उपर्युक्त बात से इस कथन का भी निराकरण हो जाता है , क्योंकि कर्मों की 10 अवस्थाओं में 'बिना फल दिए बिना ही जहर जाए ’ ऐसी कोई अवस्था नहीं है तथा ऐसा कोई भी कर्म नहीं है , जो उदयादि में आए बिना ही अकर्म रूप परिणमित हो जाए ।