तीर्थंकर भगवान महावीर (जैन धर्म की कहानियां भाग ९) | Teerthakar bhagwan Mahaveer (Jain Dharm ki kahaniya Part-9)

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मंगल-वन्दना

सुर-असुर-नरपतिवंद्य को, प्रविनष्ट घाती कर्म को।
करता नमन मैं धर्मकर्ता, तीर्थ श्री महावीर को॥

जो सर्वज्ञ हैं, वीतरागी हैं, हितोपदेशी हैं और वर्तमान में जिनका धर्मतीर्थ चल रहा है - ऐसे असाधारण गुणवन्त तीर्थंकर भगवान महावीर को मैं वन्दन करता हूँ।

वे भगवान महावीर जिसका आराधन करके सर्वज्ञ हुए और जिसकी आराधना का भव्यजीवों को उपदेश दिया, ऐसे शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मैं नमस्कार करता हूँ और उसकी पूर्णता की भावना भाता हूँ। अहो ! ये रत्नत्रय मुमुक्षु के सर्व अर्थ को सिद्ध करनेवाले अमूल्य रत्न हैं।

अहो ! आत्मतत्त्व का अद्भुतपन बतानेवाला तथा अनेकान्त धर्म के ध्वज से सुशोभित जिनशासन जयवन्त वर्तो…जो कि पर से भिन्न आत्मतत्त्व का अद्भुत स्वरूप बतलाकर इष्ट की सिद्धि करता है और मिथ्यादृष्टि जिसका पार नहीं पा सकते।

‘श्री महावीर प्रभु मंगलमय हैं।’ ऋषभादि तेईस भगवन्त, सीमन्धरादि बीस विद्यमान भगवन्त और भूत-भविष्यत इत्यादि त्रिकालवर्ती सर्व अरहन्त, सिद्ध, पंचपरमेष्ठी, रत्नत्रय, जिनवाणी, राजगृही आदि सर्वतीर्थ - ये सब मंगल, एक ‘मंगलमय महावीर’ में समा जाते हैं; इसलिये महावीर प्रभु के मंगल गुणगान में अभेदरूप से उन सबका गुणगान भी आ जाता है। इससमय अपना चित्त महावीरमय है; महावीर में सर्व इष्ट पद आ जाते हैं।

अहो महावीर देव ! आपके सर्वज्ञता आदि अगाध गुणों की गम्भीरता के निकट मेरी बुद्धि तो अत्यन्त अल्प है; तथापि आपके परम उपकारों से प्रेरित होकर भक्तिपूर्वक आपके जीवन का आलेखन करने हेतु मैं उद्यमी हुआ हूँ। अल्प होने पर भी मेरी बुद्धि आपके शासन के प्रताप से सम्यक्पने को प्राप्त हुई है; इसलिये मैं निःशंकभाव से आपके अगाध आत्मगुणों का स्तवन करके जगत में प्रकाशित करूँगा। मोक्षगमन के ढाई हजार वर्ष पश्चात् भी आप हम जैसे साधकों के हृदय में ज्यों के त्यों साक्षात् विराज रहे हैं…इसलिये आपके जीवन का सम्यक् आलेखन करना मेरे लिये दुष्कर नहीं है, सुगम है…आनन्दकारी है। हे भव्य साधर्मीजनो ! तुम भी ज्ञान में सर्वज्ञ महावीर को साक्षात् विराजमान करके उन्हें चेतनस्वरूप में जानना, उससे तुम्हें भी महान आत्मिक आनन्द का अपूर्व लाभ होगा।

प्रभो ! आपके गुणों के वर्णन की धुन में मैं शाब्दिक क्षति की अपेक्षा नहीं करता। अहा ! आपके गुणवाचक जो शब्द होंगे, वे सुन्दर होंगे। पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी यदि सोना बन जाता है, तो आप जैसे उत्कृष्ट परमात्मा के साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध होने से क्या शब्द पूज्य नहीं बन जायेंगे ? अरे ! स्थापना निक्षेप से जब परमात्मा के साथ सम्बन्ध करते हैं, तब पत्थर भी परमात्मा के रूप में पूजे जाते हैं, तब जो शब्द आपके परमगुणों के वाचक होकर आपके साथ सम्बन्ध करते हैं, वे शब्द यदि जगत में परमागम के रूप में पूजे जाएँ, तो उसमें क्या आश्चर्य ! मेरा लक्ष्य आपके आत्मिक गुणों पर है, शब्दों पर मेरा लक्ष्य नहीं है। आपके सर्वज्ञतादि गुणों का रसिक मेरा मन, इससमय आपके गुणों के सिवा अन्यत्र कहीं नहीं लगता। बस ! आपके वीतरागी आत्मगुणों में मेरे चित्त की तल्लीनता ही मेरा मंगल है।

भगवान महावीर के पूर्वभव : सम्यक्त्व से पूर्व

हे महावीर प्रभु ! वर्तमान में तो आप मुक्तरूप से परमसुख की अनुभूति में लीन होकर सिद्धपुरी में विराजमान हैं। हम जहाँ से आपको जानते हैं, वहाँ मोक्ष. से पूर्व की आपकी भवावलि भी दृष्टिगोचर होती है। मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व इस संसार की चारों गतियों में आपके जीव ने कैसे-कैसे दुःख सहन किये और पश्चात् जैन मुनिवरों के सम्पर्क में धर्म प्राप्त करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना द्वारा आप इस भवचक्र से छूटे तथा मोक्षपुरी में पधारे। वह सब चित्रपट की भाँति दृष्टिसमक्ष तैरता है। अहा ! आत्मसाधना में आपकी महान वीरता…हमें भी उस साधना के प्रति उत्साहित करती है। प्रभो ! भव से छूटकर मुक्त कैसे होना ? दुःख से छूटकर सुखी कैसे होना ? वह मार्ग आपने अपने जीवन चरित्र द्वारा हमें स्पष्ट बतलाया है; इसलिये पुरुरवा भील से लेकर मोक्ष तक के आपके जीवन-प्रसंगों का वैराग्यरस पूरित आलेखन भव्यजीवों के हितार्थ एवं अपने आत्मा के गुणों की वृद्धि हेतु प्रारम्भ करता हूँ।

पूर्वभव : पुरुरवा भील

भगवान महावीर का जीव अपने पूर्वभव में पहले पुरुरवा नाम का भील था; तब एकबार विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में धर्मात्मा श्रावकों का संघ तीर्थयात्रा हेतु जा रहा था। सागरसेन नाम के मुनिराज भी उस संघ के साथ चल रहे थे। संघ जब जंगल के मार्ग से जा रहा था। तब डाकुओं की टोली ने उसे लूट लिया। संघ के लोग इधर-उधर भाग गये। मुनिराज सागरसेन संघ से पृथक् हो गये और घोर जंगल में किधर जायें यह उन्हें नहीं सूझ रहा था। इतने में भील सरदार पुरुरवा ने उन्हें देखा और मुनिराज को मारने के लिये धनुष पर बाण चढ़ाने लगा; तब भील सरदार की भद्र पत्नी ने उसे रोका और बोली - ठहरो स्वामी ! यह कोई सामान्य शिकार नहीं है। इनकी तेजस्वी मुद्रा से तो ये कोई वनदेवता लगते हैं; या फिर ऐसा लगता है कि ये वन में मार्ग भूल गये हैं। चलो, उनके पास चल कर देखें। यह सुनकर क्रूर भील ने क्षणभर में क्रूरता छोड़ दी। उसने मुनिराज के निकट जाकर विनयपूर्वक वन्दन किया और मार्ग भूले हुए मुनिराज को वन में से बाहर निकलने का मार्ग बतलाया।

मुनिराज ने उसकी भद्रता से प्रभावित होकर कहा- “हे भव्य ! तू अहिंसाधर्म को उत्तम जानकर उसका पालन कर। निर्दोष प्राणियों का घात करनेवाली यह क्रूरता तुझे शोभा नहीं देती; इसलिये यह शिकार एवं मांस भक्षण छोड़कर अहिंसाधर्म का सेवन कर, जिससे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा। मांस के स्वाद की लोलुपतावश निर्दोष जीवों का वध करना वह तो महापाप है। मनुष्यभव पाकर ऐसा पाप करना तुझे शोभा नहीं देता। इसलिये तू उस शाघ्र छोड़ दे।" इसप्रकार मुनिराज ने उसे अत्यन्त करुणापूर्वक हितोपदेश दिया। मुनिराज का कल्याणकारी उपदेश सुनकर वह भील अतिप्रभावित हुआ और उसने शिकार तथा मांसाहार का त्याग करके अहिंसाधर्म धारण किया। अहा ! साधु पुरुषों की क्षणभर की संगति भी जीवों को कितनी हितकारी होती है। वीतरागी सन्तों की संगति से किसे शान्ति नहीं मिलेगी? अहो ! भवदुःख से संतप्त संसारी जीव की तृषा शान्त करने के लिये जैनदर्शन तो शान्तरस के सरोवर समान है, उसका सेवन करो।

श्री मुनिराज के प्रताप से जिसने क्रूरता छोड़ दी है, ऐसा वह पुरुरवा भील भक्तिपूर्वक बहुत दूर तक मुनिराज के साथ चलता रहा और उन्हें नगर के मार्ग पर छोड़ कर लौट आया। अव्यक्त रूप से मानों वह कह रहा था कि प्रभो! आपने तो मुझे भववन में से बाहर निकलने के लिये हितोपदेश दिया तो क्या मैं आपकी इतनी सेवा भी नहीं कर सकता ?

बस, मुनिराज से पृथक् होकर अपने निवास स्थान पर पहुँचे उस भील को अब कहीं चैन नहीं पड़ता था। अब उसने लूटपाट छोड़ दी थी और जंगल में भटके हुए पथिकों की रक्षा करके उनको मार्ग बतलाता था। वह सोचता था कि अरे ! मुझमें कितनी क्रूरता थी और वे मुनिराज कितने शान्त परिणामी थे। उनके क्षणभर के संग से मेरा जीवन बदल गया। अब मुझे कितनी शान्ति मिल रही है - इसप्रकार वह बारम्बार विचारता था; शान्ति की शीतलता उसे तृप्त करती थी। इसप्रकार उसने शेष जीवन स्थल अहिंसाव्रत के पालन में व्यतीत किया और अन्त में मरकर वह भील सौधर्मस्वर्ग में देव हुआ।

पूर्वभव : सौधर्मस्वर्ग में देव

कहाँ क्रूर भील ? और कहाँ देव ? किंचित् अहिंसा का पालन करके भील से देव हुए उस जीव को सौधर्मस्वर्ग में अनेक दिव्य ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं और दो सागरोपम (असंख्यात वर्ष) तक पुण्यफल का उपभोग किया। अहा ! क्षणभर की किंचित् अहिंसा के पालन से एक अज्ञानी को भी असंख्य वर्षों का पुण्यफल प्राप्त हुआ, तो ज्ञानपूर्वक सर्वथा वीतरागी अहिंसा के उत्तम फल का तो कहना ही क्या ? अज्ञानभाव से पुण्य करके स्वर्ग में गये उस देव ने वहाँ की देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा एवं वैभव-विलास में असंख्य वर्ष व्यतीत कर दिये…अभी उसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था। स्वर्ग में उसे अवधिज्ञान था, परन्तु आत्मज्ञान के बिना अवधिज्ञान का क्या मूल्य? अज्ञानपूर्वक पुण्यफल के उपभोग में उसने स्वर्ग में असंख्य वर्ष बिता दिये और आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग से चयकर मनुष्य लोक में अवतरित हुआ।

पूर्वभव : ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार

सौधर्म स्वर्ग से चलकर भूतकाल का वह भील और भविष्य काल का भगवान - ऐसा वह जीव एक अति सुन्दर प्रसिद्ध नगरी में तीर्थंकर के कुल में अवतरित हुआ…कहाँ अवतरित हुआ ? वह पढ़िये-

तीर्थरूप अयोध्या नगरी में देवों ने ऋषभदेव भगवान के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों का आश्चर्यकारी महोत्सव मनाया था। उन ऋषभराजा के दो रानियाँ तथा भरत, बाहुबलि आदि सौ पुत्र थे; उनमें से ज्येष्ठ पुत्र भरत तीन ज्ञान के धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा चरमशरीरी और भरतक्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती थे। अपने चरित्र नायक का जीव सौधर्म स्वर्ग से चयकर इन्हीं भरत चक्रवती का पुत्र हुआ। उसका नाम मरीचिकुमार था। अहा ! भरतक्षेत्र के भावी चौबीसवें तीर्थंकर का जीव वर्तमान में प्रथम तीर्थंकर का पौत्र हुआ। तीर्थंकर का पौत्र और चक्रवर्ती का पुत्र… उसके गौरव का क्या कहना ? पुरुरवा भील का जीव भगवान पुरुदेव का पौत्र हुआ। (ऋषभदेव का एक नाम पुरुदेव भी है)

दादा को पौत्र पर और पौत्र को दादाजी पर अत्यन्त प्रेम था- दोनों आत्मा तीर्थंकर होने वाले थे। दादा ऋषभदेव अपने पौत्र को गोद में लेकर खिलाते और बोलना सिखाते कि बोलो बेटा - ‘अप्पा सो परमप्पा’ और बालक मरीचि तोतली भाषा में ‘अप्पा-पप्पा’ बोलकर दादाजी का अनुसरण करता। वाह ! आदि तीर्थंकर अन्तिम तीर्थंकर को खिलाते होंगे ?.. वह दृश्य कितना आनन्ददायी होगा ? - बहुत ही…देखने योग्य।

एकबार चैत्र कृष्णा नौवीं को महाराजा ऋषभदेव के जन्म दिवस पर हजारों राजाओं के बीच इन्द्र अनेक देव-देवियों सहित जन्मोत्सव मना रहा था; नीलांजना नाम की देवी नृत्य कर रही थी कि अचानक ही उसकी आयु पूर्ण हो जाने से वह देवी अदृश्य हो गई। संसार की ऐसी क्षणभंगुरता देखकर महाराजा ऋषभदेव ने जिनदीक्षा ले ली। भगवान ऋषभदेव के प्रति परमस्नेह के कारण चार हजार राजाओं ने भी उनका अनुसरण किया तथा दादाजी के साथ उनका पौत्र मरीचिकुमार भी अविचारी रूप से दिगम्बर साधु बन गया। अन्तर में चैतन्यतत्त्व की प्रतीति तो थी नहीं; भगवान ऋषभदेव मुनि बनकर किसका ध्यान कर रहे हैं, वह भी नहीं जानता था। ऋषभ मुनिराज तो छह मास तक चैतन्य के ध्यान में लीन होकर ज्यों के त्यों खड़े रहे; परन्तु मरीचि आदि द्रव्यलिंगी साधु दीर्घकाल तक भूख-प्यास सहन नहीं कर सके, इसलिये मुनिमार्ग से भ्रष्ट होकर ज्यों-त्यों वर्तने लगे।

अहा ! जैनधर्म का मुनिमार्ग तो मोक्ष का मार्ग है। कायर जीव उसका पालन कैसे कर सकते थे ? भगवान ऋषभदेव को मुनि होने के एक हजार वर्ष पश्चात् केवलज्ञान हुआ। जिस दिन भगवान ऋषभदेव मुनि को केवलज्ञान हुआ, उसी दिन महाराजा भरत के यहाँ चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। पिता धर्मचक्री बने और पुत्र राजचक्री हुआ। भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती एक ही दिन प्रगट हुए। विवेकी भरत राजा अपने चक्र को एक ओर रखकर प्रथम धर्मचक्री सर्वज्ञपिता का केवलज्ञान-महोत्सव मनाने हेतु समवसरण में आये। वहाँ धर्मपिता के दिव्य आत्मवैभव को देखकर तथा चैतन्यतत्त्व की अलौकिकता सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने भगवान से पूछा - हे देव ! हमारे कुल में आप तीर्थंकर हुए; तो आप जैसा तीर्थंकर होनेवाला दूसरा कोई उत्तम पुरुष इस समय मेरे परिवार में है ?

तब प्रभु की दिव्यध्वनि में उत्तर मिला कि हे भरत ! तुम और तुम्हारे सब पुत्र मोक्षगामी हैं; …और तुम्हारा यह पुत्र मरीचिकुमार तो भरतक्षेत्र की इस चौबीसी में अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होगा।

यह सुनकर भरत को अति हर्ष हुआ कि अहा, मेरे पिता आदि-तीर्थंकर और मेरा पुत्र अन्तिम तीर्थंकर तथा मैं भी इसी भव में मोक्षगामी - इसप्रकार भरतराजा की प्रसन्नता से चारों ओर आनन्दमय उत्सव का वातावरण छा गया। प्रभु की वाणी में अन्य विकल्प को अवकाश नहीं है। अरे! प्रभु की वाणी में अपने तीर्थंकर होने की बात सुनकर भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया और भव के कारणरूप मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा; वह कुमार्ग में ही लगा रहा।

वाह री होनहार ! मुनिवेश छोड़कर भ्रष्ट हुए मरीचि ने तापस का वेश धारण करके सांख्यमत का प्रवर्तन किया। उस मूर्ख जीव ने कुतर्क द्वारा कुमार्ग चलाया और मिथ्यामार्ग के सेवन से अपने आत्मा को असंख्यात भवतक घोर संसारदुःखों में डुबोया। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि -

“अरे जीवो! मिथ्यात्व का पाप मेरु समान है; उसके समक्ष अन्य पाप तो राई जैसे हैं; - ऐसा जानकर प्राण जायें तथापि मिथ्यात्व का सेवन मत करना। सिंह, सर्पादि के विष से तो एकबार मरण होता है, परन्तु कुमार्ग के सेवन से तो जीव भव-भव में अपार दुःख भोगता है। इसलिये हे भव्यजीवो! भयंकर भवदुःखों से छूटने की तथा शाश्वत आत्मसुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो तुम शीघ्र कुमार्गरूप मिथ्यात्व को छोड़ो और जिनमार्ग के सेवन द्वारा सम्यक्त्व को अंगीकार करो।"

पूर्वभव : पाँचवें स्वर्ग में देव

अरेरे! तीर्थंकर का कुल और बाह्य में जिनदीक्षा प्राप्त करके भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया, आत्मज्ञान नहीं किया और मिथ्यात्वसहित कुतप के प्रभाव से मरकर पाँचवें स्वर्ग में देव हुआ। मिथ्यात्वसहित होने के कारण स्वर्ग में उसके परिणाम कुटिल थे। स्वर्ग के दिव्य वैभव में भी उसे सुख नहीं मिला। कहाँ से मिलता ? सुख विषयों में कहाँ है ? सुख तो आत्मा में है; उसे जाने बिना सुख का वेदन कहाँ से होगा ? दस सागरोपम जितने असंख्य वर्षों तक वह जीव स्वर्ग में रहा और अनेक देवांगनाओं सहित स्वर्ग के दिव्य इन्द्रियभोग भोगे; परन्तु उससे क्या ? स्वर्गीय सुख दूसरी वस्तु है और आत्मिक शान्ति दूसरी | मूर्ख जीव ही शान्तिरहित स्वर्गीय सुखों को सच्चा सुख मानते है। आत्मिक शान्ति का अनुभव करनेवाले धर्मात्मा बाह्य विषयों में कदापि सुख की कल्पना नहीं करते - फिर भले ही वे सुख स्वर्ग के ही क्यों न हों ?

पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार प्रियमित्र और प्रथम स्वर्ग में देव

असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक में रहकर भी लेशमात्र आत्मसुख का आस्वादन किये बिना अन्त में वह जीव (भूतकाल का मरीचि और भविष्य के महावीर) वहाँ से च्युत हुआ। संसार तो संसरणरूप है, इसलिये वह संसारी जीव देवगति से संसरित होकर मनुष्यगति में एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ; उसका नाम था प्रियमित्र / पूर्वभव के मिथ्या संस्कारवश अब भी वह मिथ्यामार्ग में प्रवर्तता था। मिथ्यातप के क्लेशपूर्वक मरकर वह जीव प्रथमस्वर्ग में देव हुआ। अपने हिताहित के विवेकरहित वह देव स्वर्ग में भी सुखी नहीं था। दो सागर तक देवोपनीत भोगों में ही काल गँवाकर, भोगों की लालसासहित वह स्वर्ग से मनुष्यलोक में गिरा। 'अरे रे ! असंख्यात वर्षों तक भोगे हुए यह दिव्य भोग अब छूट जायेंगे। - ऐसे शोक से संतप्त आर्तध्यानपूर्वक वह देवलोक से च्युत हुआ।

पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार पुष्पमित्र और दूसरे स्वर्ग में देव

प्रथम स्वर्ग से च्युत हुआ वह जीव इस भारतवर्ष के स्थूणागार नगर में एक ब्राह्मणपुत्र हुआ, उसका नाम था पुष्पमित्र / बालक पुष्पमित्र एकबार खेल रहा था कि एक संन्यासी-बाबा ने उसे लालच दिखाया कि तू हमारे साथ चल, तुझे स्वर्ग का सुख मिलेगा।’ स्वर्ग-मोक्ष का भेद नहीं जाननेवाले उस अविवेकी बालक ने स्वर्ग के लालच से बाल्यावस्था में ही कुतप धारण किया; (भोगहेतु धर्म को, नहिं कर्मक्षय के हेतु को।) अरे रे ! एक भावी तीर्थंकर का आत्मा भी मिथ्यामार्ग के संस्कारवश कुमार्ग में फँसकर संसार में कैसा भटक रहा है ? दीर्घकाल तक मिथ्यात्वसहित कुतप का क्लेश सहन करके वह मरा और दूसरे ईशान स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ उसने अप्सराओं द्वारा होनेवाले नृत्य-गानादि देखने में दीर्घकाल गँवाया। धर्मरहित हीनपुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग ने उसे च्युत कर दिया। जिसप्रकार सोते हुए महावत को मदोन्मत्त हाथी पछाड़ देता है, उसीप्रकार मोहनिद्रा में सोते हुए उस देव को पुण्यरूपी हाथी ने नीचे पछाड़ दिया।

पूर्वभव : अग्निसह ब्राह्मण और तीसरे स्वर्ग में देव

दूसरे स्वर्ग सेच्युत हुआ वह देव, श्वेतिकानगरी में अग्निसह नाम का ब्राह्मणपुत्र हुआ; वहाँ भी पूर्वभव के मिथ्या संस्कार के कारण संन्यासी होकर मिथ्यातप का आचरण करके जीवन बिताया और पुन: तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सात सागर की आयु अप्सराओं के साथ व्यतीत कर दी; परन्तु आत्महित किंचित् नहीं साधा।

अरे रे ! जैनधर्म को प्राप्त नहीं हुआ वह जीव, भावी तीर्थंकर होने पर भी, अज्ञान के कारण संसार की गतियों में कैसा भटक रहा है ? क्षण में मनुष्यलोक और क्षण में स्वर्गलोक में जाता है। पुण्य कर-करके बारम्बार स्वर्ग में जाने पर भी उस जीव को कहीं शान्ति नहीं है, कहीं उसके आत्मा को आराम नहीं है। अहा ! जब जीव जैनमार्ग को प्राप्त कर ले, तभी उसे सुख-शान्ति मिलती है; इसलिये हे जीवो ! तुम जैनमार्ग पाकर महान आदरपूर्वक उसका सेवन करो।

पूर्वभव : अग्निमित्र ब्राह्मण और चौथे स्वर्ग में देव

तीसरे स्वर्ग से निकलकर भील’ और ‘भगवान’ का वह जीव भरतक्षेत्र की मन्दिर नगरी में एक अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण-पुत्र हुआ। उसके काले केश मानों अन्तर की मिथ्यात्वरूपी कालिमा सूचित करते हों - इसप्रकार फर-फर होते थे। युवावस्था में गृहवास छोड़कर वह पुन: संन्यासी होकर तीव्र तप करते हुए मिथ्यामार्ग का उपदेश देने लगा।

दीर्घकाल तक कुमार्ग का प्रवर्तन करके अन्त में असमाधिमरणपूर्वक मरकर वह चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक की विभूतियों को पुण्यफल में भोगा, परन्तु अन्त में जिसप्रकार सूखा पत्ता डाल से खिर पड़ता है, तदनुसार पुण्य सूख जाने पर वह स्वर्गलोक से खिर पड़ा।

पूर्वभव : भारद्वाज ब्राह्मण और पुनः चौथे स्वर्ग में देव

चौथे स्वर्ग से च्युत होकर वह जीव स्वस्तिमती नगरी में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ और पुन: गतजन्म की भाँति संन्यासी होकर कुतप में जीवन गँवाकर चौथे स्वर्ग में गया। स्वर्गलोक की अनेक ऋद्धियाँ तथा देवांगनाओं आदि के वैभव में आसक्तिपूर्वक असंख्यात वर्ष का जीवन बिता दिया और जब आयु पूर्ण होने को आयी तब उसके कल्पवृक्ष काँपने लगे, उसकी मन्दार मालाएँ मुरझाने लगी, उसकी दृष्टि भ्रमित होने लगी, शरीर की कान्ति निस्तेज होने लगी। ऐसे चिन्हों से उसे विचार आने लगा कि अब स्वर्ग की यह सब विभूति छोड़कर मुझे यहाँ से जाना पड़ेगा। देवियों के विरह से वह विलाप करने लगा ? अरे रे ! देखो तो सही, जिसने बाह्य वस्तुओं में सुख माना वह उनके वियोग में कैसा विह्वल होता है। अरे मूर्ख! विचार तो कर कि असंख्यात वर्षों तक जिन बाह्य विषयों के बीच रहकर उनका उपभोग करने पर भी तुझे शान्ति या तृप्ति नहीं हुई उनमें सुख कैसा ? सुख हो तो मिले न ?..आकुलित होकर मिथ्या प्रयत्न किसलिये करता है ? अनन्तकाल तक भोगने पर भी विषयों में से कदापि सुख प्राप्त नहीं हो सकता।

जिसका आशाचक्र टूट गया है, जिसका पुण्यदीपक बुझ जाने की तैयारी में है और जिसके मानसिक संताप का कोई पार नहीं है - ऐसा वह देव मरण को निकट देखकर अत्यन्त भयभीत हुआ और हताशापूर्वक भोगों की चिन्ता में आर्तध्यान करने लगा कि अरे रे ! मैं असहायरूप से यह सब छोड़कर मर जाऊँगा ? मैं अब किसकी शरण लूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसप्रकार इन भोगों की रक्षा करूँ ? क्या उपाय करके मृत्यु को रोकूँ ? यहाँ से मरकर मैं न जाने किस गति में जाऊँगा? …वहाँ मेरा क्या होगा?..कौन साथ देगा ? वास्तव में पुण्य समाप्त होने पर कोई साथ नहीं देता। देवांगनाएँ देखती रहीं और देव के प्राण छूट गये।

इसप्रकार विलाप करता हुआ वह देव क्षीण पुण्य से मनुष्यलोक में आ पड़ा और अनेक भवों में भटकता फिरा।

पूर्वभव : एकेन्द्रियादि पर्यायों में असंख्यभवों का अनन्तदुःख

जिसके नीच पुण्य का अस्त हुआ है और जो मिथ्यात्व की आग में जल रहा है ऐसा वह भील का जीव (भावी महावीर भगवान का जीव) बारम्बार स्वर्ग-मनुष्य के भवों में भ्रमण करता हुआ तथा दुःख भोगता हुआ संसार में भटक रहा है। वह स्वर्ग से भ्रष्ट होकर कितनी ही निचली त्रस पर्यायों में भटका; अन्त में मिथ्यात्व-रस की पराकाष्ठा के फलस्वरूप स्थावर-एकेन्द्रिय पर्याय में गया और वहाँ दो घड़ी में हजारों बार जन्म-मरण कर-करके दु:खी हुआ। इसप्रकार असंख्यात बार भवभ्रमण कर-करके उसने कल्पनातीत दु:ख सहन किये। सिद्ध भगवन्तों का सुख और एकेन्द्रिय जीवों का दुःख - ये दोनों वचनातीत हैं। दीर्घकाल तक उस जीव ने स्थावर पर्यायों में इतने अधिक दुःख भोगे कि जिनका वर्णन शास्त्रकार भी नहीं कर सकते। जिसप्रकार सिद्धों का सुख किन्हीं संयोगों से नहीं होता, यह ‘स्वभावसिद्ध है; उसीप्रकार निगोद के जीवों का दुःख भी संयोग से नहीं हुआ है, परन्तु भावकलंक की प्रचुरतारूप उनके अपने परिणाम से हुआ है, इसलिये ‘परिणामसिद्ध’ है।

किसी मनुष्य को धधकती हुई अग्नि में डालकर लौहरस के साथ गला दे, वह दुःख भी जिसके समक्ष अत्यल्प माना जाय ऐसे घोरातिघोर दुःख निगोद में एकेन्द्रिय जीवों को होते हैं। ऐसे दुःख उस जीव ने मिथ्यात्व के कारण अनेक भवों तक भोगे।

तथापि देखो तो सही, चेतन के स्वभाव की अद्भुतता… कि ऐसे दुःखों के बीच भी अपने चैतन्यस्वभाव को उसने नहीं छोड़ा; स्वयं अपने चेतनप्राण द्वारा वह जीता ही रहा | तथा अनन्तदुःख भोगने पर भी अपने सुखस्वभाव को नहीं छोड़ा… इसीलिये तो दुःख से परिमुक्त होकर वही जीव आज अनन्त सुख सहित सिद्धपद में विराजमान है…वाह रे वाह चैतन्य ! तेरा स्वभाव ! वास्तव में अद्भुत है।

निजभाव को छोड़े नहीं, परभाव किंचित् ना ग्रहे |
ज्ञाता रु दृष्टा सर्व का मैं, ज्ञानी इसी विधि चिन्तवे॥

अत्यधिक दुःखों से पीड़ित वह महावीर का जीव, मानों अब उनसे छूटने तथा भगवान होने हेतु कटिबद्ध हुआ हो, तदनुसार बड़ी कठिनाई से दीर्घकाल में कुयोनियों से निकलकर पुन: मनुष्य हुआ; निगोददशा को अन्तिम प्रणाम करके सदा के लिये छोड़ दिया।

निगोद से निकलकर मोक्ष की ओर -

पूर्वभव : राजगृही में स्थविर ब्राह्मण और पाँचवें स्वर्ग में देव

हम भगवान महावीर के पूर्व भवों की कथा पढ़ रहे हैं। अति दीर्घकाल तक एकेन्द्रिय पर्याय में तथा विकलत्रय में दुःख के ही अवतार कर-करके अन्त में वह जीव राजगृही में एक ब्राह्मण के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ; उसका नाम स्थविर था। राजगृही…जहाँ से स्वयं कुछ भव पश्चात् धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाला है, - ऐसी उस नगरी में अवतरित वह जीव अभी तो धर्म जानता भी नहीं है; अभी उसने मिथ्यात्व के पाप का भार उतारा नहीं है। राजगृही नगरी की शोभा तो अद्भुत थी; परन्तु वहाँ अवतरित जीव भी धर्म के बिना शोभा नहीं देता था। कोयले को भले ही सुवर्ण मंजूषा में रखो, तो क्या वह वहाँ शोभा देगा? अपने पुण्य-पाप कर्म के अनुसार जीव संसार में अनेक वस्तुएँ ग्रहण करता और छोड़ता है। घोर परिभ्रमण के पश्चात् बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव को प्राप्त वह जीव अभी भी जागृत नहीं हुआ और नास्तिक-पंथ का संन्यासी बनकर मिथ्यात्व में ही पड़ा रहा; अज्ञानपूर्वक कुतप करके वह पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में देव हुआ और दस सागरपर्यंत वहाँ रहा।

वहाँ की आयु पूर्ण होने पर वह पुनः राजगृही में अवतरित हुआ। भविष्य में इसी राजगृही से वह धर्मचक्र का प्रवर्तन करनेवाला है। इसी से मानों अव्यक्तरूप से भी उसकी राजगृही के प्रति ममता हो, इसलिये वह जीव राजगृही में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ।

पूर्वभव : राजगृही नगरी में विश्वनन्दि राजकुमार (वैराग्य, धर्मप्राप्ति, जिनदीक्षा, निदानबंध, दसवें स्वर्ग में देव)

अपना भारत देश अर्थात् तीर्थंकरों की पुण्यभूमि, उसमें भी मगध देश और उसकी भी राजगृही नगरी विशिष्ट तीर्थ समान है। वहाँ पुण्यवन्त धर्मात्मा जीव निवास करते हैं और जैनधर्म का प्रताप वर्तता है।

अपनी कथा का मुख्य पात्र अर्थात् अपने चरित्र नायक का जीव इस धर्म नगरी में विश्वभूति राजा के पुत्ररूप में धर्म प्राप्त करने हेतु अवतरित हुआ है जिसका नाम ‘विश्वनन्दि’ है।

राजा विश्वभूति श्वेत केश देखकर संसार से विरक्त हुए और अपने भ्राता विशाखभूति को राज्य सौंपकर तथा विश्वनन्दिकुमार को युवराज पद देकर चार सौ राजाओं सहित जिनदीक्षा लेकर मुनि हुए।

विशाखभूति ने सुन्दर ढंग से राज्य का संचालन किया और विश्वनन्दि युवराज ने उन्हें अच्छा सहयोग दिया। युवराज ने एक अति सुन्दर उद्यान बनवाया था; उसके सुन्दर पुष्प मानों ‘चैतन्य उद्यान’ विकसित होने की पूर्व सूचना देते हों - इसप्रकार सुशोभित होते थे। यद्यपि अभी चैतन्य उद्यान खिला नहीं था, इसलिये चैतन्य उद्यान की अतीन्द्रिय शोभा को नहीं जाननेवाला वह भव्य, बाह्य उपवन की सुन्दरता पर मुग्ध था। वह उद्यान अनेक प्रकार के उत्तम वृक्षों से शोभायमान था, बारम्बार मुनिवर पधार कर उस उद्यान की शोभा में अभिवृद्धि करते और वहाँ असमय ही आम्रवृक्ष फलते थे। उस अद्भुत उद्यान के प्रति युवराज विश्वनन्दि को अति ममत्व था; क्यों न हो ? जबकि वह उद्यान ही उसके चैतन्य उद्यान के खिलने में कारणभूत होनेवाला है।

एकबार उसके काका के पुत्र राजपुत्र ‘नन्द-विशाख’ (विशाखनन्दि) ने वह अद्भुत उद्यान देखा और उसका मन मोहित हो गया। उसने माता-पिता के पास वह उद्यान उसे दिलवा देने की हठ की। अपने पुत्र को उद्यान दिलवा देने के लिये विशाखभूति ने कपटपूर्वक विश्वनन्दि को-काश्मीर राज्य पर विजय प्राप्त करने के बहाने राज्य से दूर भेज दिया। आज्ञाकारी युवराज शत्रु को जीतने के लिये सेना सहित चल दिया। उसके जाने पर उसके चचेरे भाई नन्द-विशाख ने उसके प्रिय उद्यान पर अधिकार कर लिया। शत्रु राज्य पर विजय प्राप्त करके युवराज विश्वनन्दि शीघ्र ही राजगृही लौट आया। उसके मन में अपने उपवन की चिन्ता थी; उपवन को देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था। (हे भव्य पाठको ! कुछ ही देर में तुम देखोगे की ऐसी घटनाएँ भी भव्यजीवों को किसप्रकार हित का कारण होती हैं !)

राजगृही नगरी में आकर उसने देखा कि प्रजाजन भयभीत हो रहे हैं। नन्दविशाख (उसका चचेरा भाई) उसके उद्यान पर आधिपत्य जमाकर उससे लड़ने को तैयार बैठा है। युवराज विश्वनन्दि ने उसके साथ युद्ध किया। अत्यन्त वीरतापूर्वक पत्थर का एक खम्भा उठाकर उसके प्रहारों से उसने शत्रुसेना के छक्के छुड़ा दिये। उसके पराक्रम से भयभीत होकर नन्द-विशाख भागा और जान बचाने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया; परन्तु अति बलवान विश्वनन्दि ने क्रोध पूर्वक उस वृक्ष को उखाड़ डाला। अन्त में नन्द-विशाख उसकी शरण में आया और चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगा।

यह देखकर उदार हृदय विश्वनन्दि को दया आई और उसका क्रोध शान्त हो गया। अरे ! भाई के साथ युद्ध करके अब मैं पितातुल्य काका विशाखभूति को क्या मुँह दिखाऊँ ? इसप्रकार लज्जित होकर वह राज्य छोड़कर दीक्षा हेतु वन में जाने को तैयार हुआ। 'दुर्जनों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनों को कभी कभी उपकाररूप हो जाता है।’ जिस उद्यान के मोहवश युद्ध करना पड़ा, उसे छोड़कर मुनिदीक्षा ग्रहण करने हेतु वह राजकुमार दिगम्बर जैनाचार्य के निकट जा पहुँचा। वन में संभूतस्वामी नाम के दिगम्बर जैनमुनि संघसहित विराज रहे थे। रत्नत्रय-पुष्पों से सुशोभित वह मुनिसंघ धर्म के सुन्दर उपवन समान था, विश्वनन्दि ने मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और उनके श्रीमुख से राग-द्वेष रहित चैतन्य के शुद्धस्वरूप का श्रवण करके, स्वानुभूतिपूर्वक दिगम्बर जिनदीक्षा अंगीकार की। राजा विशाखभूति ने भी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। भविष्य के महावीर भगवान का जीव विश्वनन्दि अब बाह्य उपवन का ममत्व छोड़कर अन्तर में रत्नत्रय पुष्पों से सुशोभित चैतन्य-उपवन में विचरने लगा; तप द्वारा उसका चैतन्य उद्यान खिल उठा था।

(अहा ! अपने चरित्र नायक इस भव में पहली बार धर्म को प्राप्त हुए। चैतन्य की आराधना द्वारा उन्होंने इस भव में भवकट्टी की; परन्तु उस आराधना में एकबार निदान शल्य के कारण बीच में भंग पड़ गया। पश्चात् मोक्ष की अखण्ड आराधना उन्होंने सिंह के भव में प्रारम्भ की, इसलिये शास्त्रकारों ने सिंह के भव में सम्यक्त्व-प्राप्ति का वर्णन मुख्यरूप से किया है, जो हमें अखण्ड-आराधना की प्रेरणा देता है।)

दीक्षा लेने के पश्चात् राजा विशाखभूति तो नि:शल्य रत्नत्रय का पालन करके दसवें स्वर्ग में गये। इधर राजगृही में उनका पुत्र नन्दविशाख, जिसके अन्याय के कारण विश्वनन्दि ने राज्य छोड़कर दीक्षा ली थी, वह नन्द-विशाख शक्तिहीन तथा पुण्यहीन था। कुछ ही समय पश्चात् एक राजा ने उसका राज्य जीत लिया और वह रास्ते पर भटकता हुआ भिखारी बन गया। राजा मिटकर रंक हो गया। वह भीख माँगता हुआ मथुरा की गलियों में घूमने लगा।

अब अपने चरित्र नायकमहात्मा विश्वनन्दिका क्या हुआ? वह देखें-उपवन का मोह छोड़कर मुनि हुए विश्वनन्दि मुनि यथाशक्ति रत्नत्रय धर्म का पालन करते थे; अनेक बार उपवासादि भी करते थे। एकबार उन्होंने मासोपवास किये। जैनमुनि उपवास में पानी भी नहीं पीते; तथा उपवास के अतिरिक्त दिनों में भी मात्र एक ही बार आहार-जल ग्रहण करते हैं / इसप्रकार अन्न-जल रहित मासोपवासी विश्वनन्दि मुनिराज मथुरा नगरी में पारणा हेतु पधारे और नीचे देखकर मार्ग में चल रहे थे। इतने में एक बैल ने उन्हें सींग मारा और वे धरती पर गिर पड़े।

ठीक उसीसमय राज्यभ्रष्ट नन्दविशाख वहाँ एक वेश्या के घर के पास खड़ा था। उसने वह दृश्य देखा और पूर्व के वैर का स्मरण करके अट्टाहास पूर्वक कटाक्ष किया कि रे विश्वनन्दि ! कहाँ गया तेरा वह बल ? तूने तो विशाल खम्भा उखाड़ कर सारी सेना को जीत लिया था और मैं भाग कर वृक्ष पर चढ़ गया था तब पूरे वृक्ष को अपने बाहुबल से उखाड़ दिया था। उसके बदले आज एक बैल के धक्के से गिर पड़ा है। कहाँ गया तेरा वह बाहुबल ?

एक ओर मासोपवास की अशक्ति के कारण बैल के धक्के से गिर पड़ना और दूसरी ओर भाई द्वारा पूर्वकालिक वैर का स्मरण करके कटाक्ष करना… उससे विश्वनन्दि मुनि की सुषुप्त कषाय जागृत हो उठी; क्रोधावेश में वे अपने मुनिपद को भूल गये। रत्नत्रय का अमूल्य निधान और उसके महा फल मोक्ष को भूलकर मानों उन्होंने अमूल्य रत्न को पानी के भाव बेच दिया। क्रोधवश उनके नेत्रों से अंगारे झरने लगे और वे बोल उठे - अरे दुष्ट ! तू मेरे तप की हँसी उड़ाता है; परन्तु देख लेना इस तप के प्रभाव से भविष्य में मैं तुझे सबके सामने छेद डालूँगा। इसप्रकार अज्ञानवश वे निदान कर बैठे कि मेरे इस तप का कोई फल हो तो मैं अगले जन्म में अद्भुत शारीरिक शक्ति प्राप्त करूँ और इस दुष्ट नन्द-विशाख को मारूँ। ऐसे निदानशल्य के कारण वे रत्नत्रय से भ्रष्ट हो गये तथा विद्याधर की विभूति देखकर मेरे तप के प्रभाव से मुझे ऐसी विभूति प्राप्त हो’ इसप्रकार उसका भी निदान कर बैठे।

रे विश्वनन्दि ! यह तुमने कैसी मूर्खता की ? रत्नत्रय के अमूल्य रत्न को तुमने क्रोध में आकर फेंक दिया ? रत्नत्रय के फल में शारीरिक बल की अभिलाषा करके तुम मिथ्यामार्गी हुए, चैतन्यवैभव को भूलकर तुमने पुण्यवैभव की चाह की और निदानशल्य से अपने आत्मा को भयंकर दुःख में डाल दिया।

इसप्रकार तीव्र क्रोधाग्नि में जिसने अपने सम्यक्त्वरत्न को जला दिया है, ऐसे उन विश्वनन्दि मुनि का जीव, निदानशल्यसहित मरकर, तप के शेष पुण्यप्रताप से महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सोलह सागर तक उसने भोगलालसा से इन्द्रसमान वैभव का उपभोग किया। अनुपम जैनव्रत प्राप्त करके भी उनका पूरा लाभ वह नहीं ले सका। जिसप्रकार कोई मूर्ख पुरुष अमृतपान करके उसका वमन कर दे, तदनुसार उसने रत्नत्रयरूपी अमृत का निदानशल्य द्वारा वमन कर दिया और पुनः संसार में भटकने लगा। (रे भवितव्य ! यह जीव है तो तीर्थंकर होनेवाला… किन्तु… भरतक्षेत्र का ‘चौबीसवाँ’ तीर्थंकर होने वाला है; और कालक्रमानुसार चौबीसवें तीर्थंकर के अवतार में अभी दीर्घकाल लगेगा…इसलिये बीच का समय संसार भ्रमण में बिताने के लिये ही निदानशल्य किया।)

पश्चात् नन्द-विशाख का जीव भी किसी कारणवश वैराग्य प्राप्त करके मुनि हुआ। जिनदीक्षा लेकर उसने तप किया; परन्तु एक बार आकाशमार्ग से जाते हुए किसी विद्याधर की आश्चर्यजनक विभूति देखकर वह भोगों की वांछा से ऐसा निदानशल्य कर बैठा कि ‘मेरे धर्म के फल में मुझे भी ऐसी विभूति प्राप्त हो !’ अरे रे ! धर्म के फल में उसने पुण्य भोगों की याचना की, अमृत के फल में विष माँगा। इसलिये वह भी मिथ्यादृष्टि हुआ और उसके संचित पुण्य अल्प हो गये। हाथ में आये हए धर्मरत्न को फेंक कर उसके बदले में उसने विषयभोगों का कोयला माँगा, अतः धिक्कार है विषयाभिलाषा को ! व्रतभ्रष्ट ऐसे उन विशाख मुनि का जीव भी निदान बंध सहित मरकर दसवें स्वर्ग में देव हुआ और विषय-भोगों की लालसा में ही असंख्य वर्ष व्यतीत किये।

(प्रिय पाठको ! महावीर होनेवाला यह विश्वनन्दि का जीव स्वर्ग से चयकर अब त्रिपृष्ठ वासुदेव और उसका भाई नन्द-विशाख प्रतिवासुदेव होगा। वह कथा आप अगले प्रकरण में पढ़ेंगे।)

जैनधर्म अर्थात् पंचपरमेष्ठी की नगरी

हमें महाभाग्य से इस नगरी में प्रवेश मिला है। आत्मिकसुख इसी नगरी में प्राप्त होता है; इस नगरी का रहन-सहन ही कोई भिन्न प्रकार का, अपूर्व एवं रागरहित होता है। इस वीतराग नगरी के निवासी पंचपरमेष्ठी भगवन्त तथा साधर्मी जगत से भिन्न भाववाले होते हैं।

आओ…इस नगरी में आये हो तो अब इस नगरी के आत्मवैभव को (तीर्थंकरों के महापुराण द्वारा) जान लो। यह समस्त वैभव तुम्हारा ही है। वह दिखलाकर भगवन्तों ने उपकार किया है।

पूर्वभव : त्रिपृष्ठ वासुदेव

जहाँ हम रहते हैं उस भरतक्षेत्र में, प्रत्येक(अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी) कालचक्र में (प्रत्येक के दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम में) दो बार 24-24 तीर्थंकर भगवन्त अवतरित होते हैं। वे सर्वज्ञ होकर, ज्ञानानन्द आत्मा का स्वरूप समझा कर उसकी वीतरागी उपासनारूप मोक्षमार्ग बतलाते हैं और उनके उपदेश से लाखों-करोड़ों-असंख्यात जीव धर्म प्राप्त करके संसार से मुक्त होते हैं। उनमें इस चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान का २५००वाँ अभूतपूर्व महोत्सव भारतभर में मनाया गया था। उस अवसर पर पूज्य श्री कानजीस्वामी की प्रेरणा से लिखे गये इस ग्रन्थ में भगवान महावीर का मंगल जीवन आप पढ़ रहे हैं। उनके पूर्वभवों का वर्णन चल रहा है।

अपने चरित्र नायक महावीर का जीव दसवें स्वर्ग से वासुदेवरूप में कहाँ उत्पन्न होता है ? वह देखें- भरतक्षेत्र की पोदनपुरी में भगवान ऋषभदेव, बाहुबलि के वंश में असंख्यात बड़े-बड़े राजा हुए और मोक्ष प्राप्त किया। उनमें अनुक्रम से प्रजापति नाम के राजा हुए। उनके दो पुत्र - (1) विशाखभूति का जीव (जो पूर्वभव में विश्वनन्दि के काका थे वे) विजय बलदेवरूप में अवतरित हुए और (2) विश्वनन्दि (महावीर का जीव) त्रिपृष्ठ वासुदेव रूप में अवतरित हुए।

उसीसमय पूर्वभव का नन्द-विशाख का जीव विद्याधरों की अलकापुरी नगरी में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ, उसका नाम अश्वग्रीव रखा गया। उस अश्वग्रीव को अनेक विद्याएँ सिद्ध हुईं तथा दस हजार आरेवाला सुदर्शन चक्र, दंड, छत्र, खड्ग आदि अनेक दैवी-आयुध प्राप्त हुए। तीनों खण्डों पर विजय प्राप्त करके वे आधे भरतक्षेत्र के स्वामी (अर्धचक्री-प्रतिवासुदेव) हुए। दग्ध पुण्य के फल का उपभोग करते हुए उन अश्वग्रीव की हजारों राजा सेवा करते थे। पुण्य से क्या नहीं मिलता ?

अरे ! आराधक दशा में बाँधकर पश्चात् निदान बंध द्वारा जलाये हुए दग्ध-पुण्य का भी ऐसा फल है, तो आराधक भावसहित बाँधे हुए आश्चर्यकारी सातिशय-पुण्य का क्या कहना !..तथा पुण्यराग से परे ऐसी चैतन्य आराधना के वीतरागी आनन्द की तो बात ही क्या!.. धन्य आराधना ! धन्य वीतरागता ! धन्य उसका प्रशंसनीय फल !

एक दिन पोदनपुर में महाराजा प्रजापति दोनों पुत्रों (विजय और त्रिपृष्ठ) सहित राजसभा में बैठे थे। उससमय मंत्री ने निवेदन किया - हे स्वामी ! आपकी प्रजा सर्व प्रकार से सुखी होने पर भी उसे आजकल एक महा भयंकर सिंह ने लोगों की हिंसा करके भयभीत कर रखा है। उसका उपद्रव इतना बढ़ गया है कि लोग इधर-उधर आ-जा भी नहीं सकते।

यह सुनते ही राजा को खेद हुआ कि अरे ! खेत में अनाज की रक्षा हेतु बाँस का बिजू (बनावटी आदमी) हो, उससे भी हिरण आदि प्राणी भयभीत होकर भागते हैं और फसल की रक्षा होती है; फिर मैं इतना पराक्रमी होकर भी अपनी प्रजा की रक्षा न कर सकूँ यह तो शर्म की बात है। जो प्रजा का दुःख दूर न कर सके वह राजा किस काम का ? ऐसा विचार कर राजा ने सिंह को मारने के लिये सेना को तैयार होने की आज्ञा दी।

इतने में त्रिपृष्ठकुमार उठे और हँसकर बोले - ‘पिताजी एक हिंसक पशु को मारने के लिये स्वयं आपको कष्ट उठाना पड़े, तो फिर हम किस काम के ? इतने छोटे से काम के लिये आपका जाना आवश्यक नहीं है। मैं अभी जाकर सिंह को मारता हूँ। ऐसा कहकर त्रिपृष्ठकुमार वन में गये। सिंह को गुफा से बाहर निकाला। एक हाथ से सिंह के अगले पंजे पकड़े और दूसरे हाथ से झपट्टा मारकर उसे नीचे पछाड़ दिया; फिर जिसप्रकार बजाज कपड़ा फाड़ता है तदनुसार सिंह का मुँह फाड़कर उसको चीर दिया। (मानों उस सिंह को मारने के क्रूर परिणामवश त्रिपृष्ठ को भी अगले भवों में सिंह की पर्याय में जाना पड़ेगा। पाठको ! ऐसे पराक्रम की घटना में वासुदेव को हिंसा में आनन्द माननेरूप ‘हिंसानन्दी-आर्तध्यान’ के जो क्रूर परिणाम वर्तते हैं, उन परिणामों से उसे नरकगति का बन्ध होता है।)

सिंह को मारने से उन राजकुमार के पराक्रम की प्रशंसा चारों ओर फैल गई। तत्पश्चात् एकबार कोटिशिला’ को ऊपर उठाकर उन्होंने महान पराक्रम किया। इस कोटिशिला से करोड़ों मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है। साधारण मनुष्य उसे ऊपर नहीं उठा सकते; नारायण - वासुदेव ही उसे उठाते हैं। एकबार जो प्रथम तीर्थंकर का पौत्र था, वही जीव असंख्यात वर्ष पश्चात् उन्हीं के कुल में अवतरित होकर प्रथम नारायण-अर्धचक्री हुआ। नौ नारायणों में यह प्रथम नारायण, श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए / विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपृष्ठ के साथ किया; तब उसके प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव को अपमान लगा कि विद्याधर ने श्रेष्ठ कन्या मुझेन देकर त्रिपृष्ठ को क्यों दी ? इससे क्रोधित होकर वह त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध करने चला। उधर त्रिपृष्ठकुमार ने भी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी; उसके लिये वह विद्या सिद्ध करने लगा। दूसरों को जो बारह वर्षों में सिद्ध होती हैं - ऐसी विद्याएँ त्रिपृष्ठ को पुण्यप्रताप से मात्र सात दिन में सिद्ध हो गई। अहा ! पुण्य द्वारा जगत में क्या साध्य नहीं है ? पुण्य से जगत में सब कुछ मिल जाता है; परन्तु चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख उससे प्राप्त नहीं होता। इसीलिये तो मुमुक्षु जीव कहते हैं कि अरे, ऐसे हत्पुण्य का हमें क्या करना है ?

(अरेरे! भावी तीर्थंकर ऐसे यह वासुदेव वर्तमान में हिंसा के हेतुभूत लौकिक विद्याएँ साधने में लगे हैं…परन्तु अब कुछ ही भव पश्चात् वे अलौकिक आत्मविद्या साधेगे तथा जगत के जीवों को भी उसे अलौकिक वीतरागी विद्या का बोध देंगे। तब उनकी सच्ची वीरता विकसित हो उठेगी और वे ‘महा-वीर’ कहलायेंगे।)

शस्त्रविद्या साधकर दोनों भाईयों ने युद्ध के लिये प्रस्थान किया। घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ। अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों शूरवीर योद्धा थे। युद्ध सम्बन्धी आर्तध्यान में वे इतने तल्लीन थे कि नरकगति के कर्म आत्मा में प्रविष्ट हो रहे हैं, उन्हें उसकी भी खबर नहीं रही। लाखों लोग आश्चर्य से, भय से तथा कुतूहल से युद्ध देख रहे थे। उनमें से कोई तो वैराग्य के परिणाम कर रहे थे कि अरे रे ! एक तुच्छ बात के लिये ये लोग लड़ रहे हैं…और कोई मूर्ख जीव युद्ध में आनन्द मानकर हिंसानन्दी रौद्रध्यान कर-करके व्यर्थ ही अशुभकर्म बाँध रहे थे। जीवों के परिणामों की भी कैसी विचित्रता है ? कि एक ही प्रसंग पर भिन्न-भिन्न जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के परिणाम करते हैं। इसीलिये तो कहा है कि -

’हैं जीव विध-विध, कर्म विध-विध, लब्धि हैं विध-विध अरे !'

उसमें तू अपना कल्याण कर लेना, जगत की ओर देखने में मत रुकना। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व अश्वग्रीव विद्याधर के दूत ने आकर त्रिपृष्ठ से धमकी भरे वचन कहे; तब उनका उत्तर देते हुए त्रिपृष्ठ ने कहा - हे दूत ! तेरे राजा को आकाश में ऊँचे उड़ने तथा विद्याधरपने का अभिमान होगा; परन्तु आकाश में तो कौए भी उड़ते है; उसमें क्या है ? याद रखना कि तीर्थंकर और चक्रवर्ती कभी विद्याधरों के यहाँ नहीं होते, वे तो भूमिगोचरी राजाओं के यहाँ ही होते हैं।

तब अश्वग्रीव के दूत ने कहा - अरे, हमारे महाराज के पास दिव्यचक्र है; उसके प्रताप को क्या आप नहीं जानते ? सूर्य समान तेजस्वी वह चक्र बड़े-बड़े शत्रुओं का छेदन कर देता है…। त्रिपृष्ठ ने उसे बीच में ही रोक कर कहा- हे दूत ! तू यहाँ से चला जा; अपने राजा की व्यर्थ प्रशंसा मत कर, युद्ध में उसकी परीक्षा हो जायेगी। रणभेरी बज उठी…दोनों ओर के योद्धा सावधान हो गये। जिसप्रकार मुमुक्षु जीवशुद्धोपयोग द्वारा मोह को नष्ट करने हेतु तत्पर होते हैं, तदनुसार शूरवीर योद्धा शत्रु का घात करने हेतु तत्पर हो गये। सामने शत्रुखड़े होने पर भी वे कुशल योद्धा गम्भीर एवं शान्त दिखाई देते थे; क्योंकि कुशल पुरुष आकुलता का प्रसंग आने पर भी व्याकुल नहीं हो जाते…अथवा मोहशत्रु का हनन करने में तत्पर हुआ शूरवीर साधक स्वयं शान्त रहकर ही मोह को नष्ट कर देता है। जिसप्रकार गुरु उत्तम शिष्य को आत्मसाधना हेतु प्रोत्साहित करते हैं, उसीप्रकार राजा अपने सेनापतियों को प्रशंसा द्वारा युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे थे। जब राज सेवक बलदेव-वासुदेव के लिये कवच लाये तब अपनी शूरवीरता के अभिमान से उन्होंने उसे पहिनने से इन्कार किया कि ‘शूरवीर को अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य के रक्षण की क्या आवश्यकता है?’ शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से स्वयंभू-सर्वज्ञ होने वाले अरिहन्तों को किसी अन्य साधन की आवश्यकता कहाँ होती है ?

त्रिपृष्ठ का पराक्रम अद्भुत था। जिसप्रकार सम्यक्त्व हेतु तत्पर मुमुक्षु योद्धा विशुद्धि के प्रहार द्वारा मिथ्यात्व शत्रु के तीन टुकड़े कर देता है, तदनुसार त्रिपृष्ठ ने प्रथम प्रहार में ही शत्रुसेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जिसप्रकार आत्मसाधना हेतु कटिबद्ध हुए, शूरवीर साधक शरीर की परवाह नहीं करते, उसीप्रकार विजय के लिये उन्मत्त योद्धा चारों ओर शस्त्र से विंधे हुए शरीर की परवाह नहीं करते हैं। अरे, खेद है कि वे योद्धा क्रोधावेश में इसप्रकार निर्भयरूप से शरीर को तो छोड़ देते थे; परन्तु शरीर से भिन्न आत्मा का भेदज्ञान करने में अपनी शक्ति नहीं लगाते थे। जितनी शक्ति वे युद्ध में लगा रहे थे, उतनी आत्मसाधना में लगाते तो कितना अपूर्व लाभ होता!

‘युद्ध में जिनके साथ कोई वैर न हो ऐसे हाथी, घोड़े तथा सैनिकों को भी अरे ! मात्र अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिये मरना पड़ता है। धिक्कार है ऐसी पराधीन चाकरी को !’ ऐसा विचार कर अनेक योद्धाओं ने इस युद्ध के बाद तुरन्त चाकरी छोड़ने का निर्णय कर लिया था। जिन्हें हिंसा नहीं रुचती थी - ऐसे अनेक जीवों का चित्त युद्ध से उदास होने पर भी वे युद्ध कर रहे थे। कोई योद्धा युद्ध भूमि में घायल होकर मरने की तैयारी में हो; तब घायल करनेवाला योद्धा स्वयं ही उसे पानी पिलाता था और पंचपरमेष्ठी का नाम सुनाता था। इसप्रकार वे युद्ध भूमि में ही बैरभाव को भूल जाते थे। घायल शत्रु पर कोई भी पुनः प्रहार नहीं करते थे, अपितु उसे आश्वासन देते थे। ऐसे विभिन्न दृश्य युद्ध भूमि में दिखायी देते थे।

विजय और त्रिपृष्ठ द्वारा अपने कितने ही शूरवीर विद्याधरों का नाश होते देखकर अश्वग्रीव ने चक्र हाथ में लेकर गर्जना की; तब भावी महावीर ऐसे त्रिपृष्ठ ने निर्भयरूप से कहा - रे अश्वग्रीव ! तेरी गर्जना व्यर्थ है; जंगली हाथी की गर्जना से हिरन डरते हैं, सिंह नहीं; कुम्हार के चाक जैसे तेरे इस चक्र से मैं नहीं डरता…चला अपने चक्र को।

अन्त में, अत्यन्त क्रोधित होकर अश्वग्रीव ने वह चक्र त्रिपृष्ठ पर फेंका…मानों चक्र के बहाने उसने अपना पुण्य ही फेंक दिया। भयंकर ज्वालाएँ छोड़ता एवं अत्यन्त गर्जना करता हुआ वह चक्र तीव्रगति से चला। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर हाहाकार मच गया। प्रथम तो जिसने अश्वग्रीव के पुण्य का ही छेदन कर दिया है ऐसा वह चक्र आश्चर्यपूर्वक त्रिपृष्ठ के दाएँ हाथ पर आया; उसकी ज्वालाएँ शान्त हो गईं, गर्जनाएँ रुक गईं और वह त्रिपृष्ठ के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तुरन्त वही चक्र क्रोधावेश में त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव पर फेंका। (रे महात्मा ! यह हिंसक चक्र तुम्हारे हाथ में शोभा नहीं देता; अब तुम धर्मचक्र के प्रवर्तक बनने वाले हो। तुम्हारा चक्र जीवों को मारने वाला नहीं, किन्तु तारनेवाला होगा।)

क्रोधपूर्वक त्रिपृष्ठ द्वारा छोड़े हुए उस चक्र ने अश्वग्रीव की ग्रीवा को छेद दिया और वे भरतक्षेत्र के प्रथम वासुदेव के रूप में प्रसिद्ध हुए। त्रिखण्ड का राज्य एवं अपार विभूति होने पर भी सम्यक्त्व रहित वह जीव किंचित् सुखी नहीं था। भोग सामग्री में तल्लीन ऐसा वह जीव दानादि धर्म को नहीं जानता था और सदा अति आरम्भ-परिग्रह में डूबा रहता था। अरे ! विषय समुद्र को पार करने हेतु नौका समान जो जैनशासन है, वह तो आत्मा में ही शान्तिरूप शाश्वत सुख बतलाकर विषयों से सुखबुद्धि छुड़ाता है, तो ऐसा ‘वीर-शासन’ प्राप्त करके ‘त्रिपृष्ठ जैसी मूर्खता’ कौन करेगा ? और विषयों की आग में कौन जलेगा? जिनोक्त धर्म की अवहेलना करके जो विषयों में लुब्ध होता है, वह मूर्ख प्राणी हाथ में आये हुए अमृत को छोड़कर विषपान करता है। राग का नाश होने से आत्मा को जिस स्वाभाविक शान्तिरूप परमसुख की प्राप्ति होती है - क्या उसका अनन्तवाँ भाग भी विषयांध मोही जीव को विषयों में से प्राप्त होता है ? नहीं, विषयरहित वीतरागभाव से ही जीव को शान्ति प्राप्त होती है।

पूर्वभव : त्रिपृष्ठ मरकर सातवें नरक में और विजय बलभद्र मोक्ष में

(दो भाई- एक मोक्ष में, दूसरा नरक में) त्रिपृष्ठ कुमार ने (अपने चरित्र नायक महावीर के जीव ने) विजय बलभद्रसहित त्रिखण्ड के राज्य का दीर्घकाल तक उपभोग किया। योग्य समय पर उनके पिता प्रजापति ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्रगट करके निर्वाण प्राप्त किया। दूसरी ओर इष्ट एवं मनोज्ञ (वास्तव में अनिष्ट एवं बुरे) विषयों में ही जिसका चित्त लीन है- ऐसा वह त्रिपृष्ठकुमार निदान बन्ध के कारण विषयों के रौद्रध्यान सहित निद्रावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ… और जिसका असंख्यात वर्षों का घोरातिघोर दु:ख चिन्तन में भी नहीं आ सकता - ऐसे सातवें नरक में जा गिरा। अरे रे ! एक-एक क्षण तीव्र विषयासक्ति के पापफल में वह जीव असंख्यात वर्ष के महा भयानक दुःखों को प्राप्त हुआ। ऐसे घोर दुःख फलवाले विषयसुखों को सुख कौन कहेगा? उन नरक दु:खों का वर्णन भी जिज्ञासुको संसार से भयभीत कर देता है। अरे ! ऐसे दुःख ? उनसे बचना हो तो अज्ञान को छोड़कर आत्मज्ञान करना चाहिये… विषयों के प्रति वैराग्य करना चाहिये | यह महावीर का जीवपूर्वकाल में अज्ञानदशा से भवभ्रमण करता हुआ त्रिपृष्ठ वासुदेव जैसा महान अवतार प्राप्त करके भी विषय-कषायों में लीनतावश सातवें नरक में गया। इससे ज्ञात होता है कि अरे जीव ! जिन्हें मूर्ख अज्ञानीजन सुख मान रहे हैं - उन्हें तू नरक समान दुःख दाता जान…और उनसे विमुख होकर चैतन्य के अतीन्द्रिय सुख को सच्चा सुख जानकर उसकी अनुभूति में संलग्न हो। विषय-कषाय सांसारिक सुखों का मण भी दुःख है और चैतन्यानुभूति के कण में भी महान सुख है।

कहाँ अर्धचक्रवर्ती के त्रिखण्ड के राजवैभव की अनुकूलता…और कहाँ यह सातवें नरक की प्रतिकूलता ? अपने भाई त्रिपृष्ठ की मृत्यु होने पर विजय बलभद्र छह मास तक उद्वेग में रहे; पश्चात् वैराग्य प्राप्त करके जिनदीक्षा धारण की और रत्नत्रयरूपी अमोघ-अहिंसक शस्त्र द्वारा समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षपद प्राप्त किया। अरे ! सदा साथ रहने वाले दो भाई…उनमें से एक ने तोवीतराग चारित्र द्वारा मोक्षसुख प्राप्त किया और दूसरे ने विषय-कषायवश सातवें नरक के घोर दुःख पाये। यह जानकर हे भव्यजीवो! तुम विषय-कषाय से विरक्त होकर वीतरागी चारित्र की आराधना करो!..अरे ! जीव के परिणामों की विचित्रता तो देखो ! कि वही जीव पुनः नरक से निकलकर वर्तमान में मोक्ष में विराजमान है और हम उसे ‘भगवान महावीर’ रूप में पूजते हैं।

पूर्वभव : सिंह होकर नरक में और पुन: सिंह

सातवें नरक में एक नारकी ने आकर भाले से उसकी आँखें छेद डालीं; वह दुःख से चीत्कार करता कि उससे पूर्व ही एकसाथ कितने ही नारकियों ने उसके शरीर में भाले घोंप दिये; वह गिरा कि उसे उठाकर उबलते हुए लाल रस में डालकर गला दिया। अरे ! उसके करोड़ों दु:खों का कौन वर्णन कर सकता है ?

बड़ी कठिनाई से छूटकर वह नारकी जीव (भावी तीर्थंकर) शान्ति की इच्छा से एक वृक्ष (सेमर वृक्ष) के नीचे गया; किन्तु तुरन्त ही ऊपर से तीक्ष्ण असिधारा वाले पत्ते उस पर पड़ने लगे और उसके हाथ-पैर आदि सर्व अंग कटकर छिन्नभिन्न होकर इधर-उधर बिखर गये। अरे रे ! मर जाऊँ तो यहाँ से छु - ऐसा उसे लगा; किन्तु नरक में मृत्यु भी माँगने से नहीं मिलती। अरे रे ! पापी को शान्ति कैसी ? एक क्षण मात्र कहीं चैन नहीं है ! - इसप्रकार भयंकर मरण वेदनाएँ सहतेसहते उस जीव ने असंख्यात वर्ष बिताये।

ऐसे नरक के तीव्र दुःख भोगकर वह अर्धचक्री का जीव इस भरतक्षेत्र के विपुलसिंह नामक पर्वत पर क्रूरपरिणामी सिंह हुआ; अनन्तानुबन्धी कषायसहित रौद्रध्यान से रंजित उसका मन शान्ति रहित था। भूखा न हो, तब भी बिना कारण वह अनेक निर्दोष जीवों का घात कर देता था। इसप्रकार जिसके रौद्र भावों का प्रवाह कभी रुका नहीं है - ऐसा वह निर्दय सिंह वहाँ से मरकर पुन: नरक में गया और फिर असंख्यात वर्षों तक उसने वहाँ के तीव्र-असह्य दुःख भोगे। उन दुःखों का कथन कैसे हो ? और कैसे सहे जायें ? वह तो भोगनेवाला ही भोगे और भगवान ही जाने।

ऐसे मिथ्यात्व-कषाय के दु:खों से अब बस होओ!..बस होओ ! जिनका वेदन अब इस जीव को तो कभी नहीं करना है; परन्तु जिन दुःखों का वर्णन पढ़ते लिखते हुए भी कपकपी आ जाती है - वे दुःख महावीर के जीव ने अज्ञानवश अन्तिम बार भोग लिये। बस अब फिर कभी वह जीव ऐसे दु:ख में नहीं पड़ेगा। नरक की यह उसकी अन्तिम पर्याय है; अब नरक को तिलांजली देकर वहाँ से बाहर निकलकर वह पुन: सिंह हुआ। उसकी यह सिंह पर्याय (और तिर्यंच पर्याय भी) अन्तिम है, अब फिर वह जीव कभी तिर्यंचगति में भी अवतरित नहीं होगा।

इसप्रकार महावीर के जीव ने नरक और तिर्यंच इन दोनों गतियों में परिभ्रमण करने का अन्त तो किया | अब शेष रही देव और मनुष्य पर्यायों का भी अन्त करके वह जीव अपूर्व सिद्धपद की साधना किसप्रकार करता है - उसकी सरस आनन्दप्रद कथा अब प्रारम्भ होगी। अभी तक तो वह जीव अज्ञान एवं कषायवश संसार में कहाँ-कहाँ भटका और कैसे-कैसे दुःख भोगे - यह उसकी कथा थी, बन्धन की कथा थी; परन्तु अब वह जीव किसप्रकार धर्म प्राप्त करता है, आराधक बनकर कैसी शान्ति का वेदन करता है और कैसे मोक्ष सुख साधकर महावीर बनता है, उसकी सुन्दर आनन्ददायक धर्मकथा पढ़कर प्रसन्नता होगी। दुःख में तो ग्लानि होती ही है; परन्तु दुःख की कथा पढ़कर भी जीव थक जाता है। महावीर के जीव की दुःखद कथा का अन्त हुआ; अब उसकी सुखद कथा प्रारम्भ करते हैं।

भगवान महावीर के पूर्वभव : सम्यक्त्वोपरांत

दसवाँ पूर्वभव : सिंह के भव में सम्यक्त्व प्राप्ति

अपने चरित्र नायक का जीव नरक से निकलकर एक बलवान सिंह हुआ। दसवें भव में जो तीर्थंकर होनेवाला है - ऐसा वह सिंह भरतक्षेत्र के एक पर्वत पर रहता था; वन के विशाल हाथी भी उससे डरते थे; उसके विकराल मुँह से भयानक गर्जना सुनकर वन के पशु काँप उठते थे। क्रूरता से हिंसा करते-करते उसे दीर्घकाल व्यतीत हो गया था। एकबार अमितकीर्ति और अमितप्रभ नाम के दो मुनिवर आकाशमार्ग से जाते हुए वहाँ सिंह को प्रतिबोध देने हेतु उतरे। अचानक ऐसे शान्त मुनिवरों को अपने समक्ष खड़ा महावीर देखकर सिंह को विस्मय हुआ। एक ओर मरा हुआ हिरन पड़ा है, सामने UFIL चेतनवन्त मुनिवर खड़े हैं। सिंह ने दोनों की ओर देखा - एक ओर महान। हिंसा और दूसरी ओर परम शान्ति (एक ओर आस्रव एवं बंधतत्त्व, दूसरी ओर संवर-निर्जरातत्त्व)। विरुद्ध दृश्य एवं विरुद्ध भाव देखकर वह क्षण भर तो विचार में पड़ गया। अन्त में क्रूरता पर शान्ति की विजय हुई; उसे क्रोध की अपेक्षा शान्ति अच्छी लगी। वीतरागता के सान्निध्य में क्रूरता कैसे टिक सकती थी ? मुनियों की ओर देखकर उसके अन्तर में नवीन शान्तभाव जागृत होने लगे ‘अहा ! ऐसी शान्ति’ ! जीवन में प्रथम बार ही अपने अन्तर में ऐसे शान्त परिणामों से सिंह को आश्चर्य होने लगा।

उस समय उसकी सुन्दर चेष्टा देखकर अमितकीर्ति मुनिराज वात्सल्यपूर्ण वचनों से उसे सम्बोधने लगे - हे मृगेन्द्र ! ऐसी क्रूर सिंह पर्याय तुमने कहीं प्रथम बार धारण नहीं की है - ऐसी तो अनन्त क्रूर पर्यायें धारण कर-करके अज्ञान से तुम संसार वन में भटक रहे हो। यह ज्ञान-लक्षण संयुक्त जीव अनादि-अनन्त है; वह अपने परिणामों का कर्ता होकर उनके फल का भोक्ता होता है; अभी तक तुमने अज्ञानवश कषायभाव ही कर-करके उनके फलरूप दुःखों को भोगा है। अब उस मिथ्याबुद्धि को तथा कषायभावों को तुम छोड़ो और आत्मज्ञान करो। अब तुम्हारे हित का अवसर आया है। सिंह बड़ी आतुरता और तल्लीनता से मुनिराज के वचन सुन रहा है।

दूसरे मुनिराज भी प्रेम पूर्वक कहने लगे - अरे वनराज ! तुम्हारे महान भाग्य से तुम्हें मुनिराज का उपदेश मिला है; पात्र होकर तुम अवश्य सम्यक्त्व को अंगीकार करो ! सम्यक्त्व ही परम कल्याणकारी है। सिंह टकटकी लगाकर मुनि के समक्ष देखने लगा, मानों पश्चाताप से अपने पूर्वभव पूछ रहा हो; अत: मुनिराज ने उसके वासुदेव आदि पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनाया।

श्री मुनिराज के मुख से झरती हुई परम वैराग्यवाणी में अपने पूर्वभवों का वर्णन सुनकर सिंह के परिणामों में महान परिवर्तन होने लगा; उसे जातिस्मरण हुआ और समस्त दुःखों के कारणरूप मिथ्यात्व-कषायों से उसकी परिणति पराङ्मुख होने लगी। वाह रे वाह ! धन्य सिंह-शार्दूल ! अब तेरा चैतन्य पराक्रम जागृत होने लगा है। सचमुच हिंसा में पराक्रम नहीं है, अहिंसा एवं शान्ति में ही सच्चा पराक्रम है।

मुनिराज कह रहे हैं - हे भव्य ! हम तुम्हें एक विशेष सुखदायी बात बतलाते हैं, तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो ! अब इस भव में तुम्हारा आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त करके आत्मा की अखण्ड साधना करेगा और क्रमश: उन्नति करते-करते पूर्णता साधकर इस भरतक्षेत्र में चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा। यह बात हमने विदेहक्षेत्र में सीमन्धर स्वामी के श्रीमुख से सुनी है; इसीलिये हमें तुम्हारे प्रति स्नेह जागृत हुआ है।

अहो ! सिंह का भव्य आत्मा यह सुनते ही हर्षपूर्वक नाच उठा…वाह! मैं अब इन भयंकर दु:खों से तथा हिंसा से छूटकर अपूर्व सुख प्राप्त करूँगा। दुःख से छूटने की बात सुनकर कौन आनन्दित नहीं होगा? …मुनियों ने वात्सल्य प्रगट किया, उससे तो वह अति आह्लादित हो उठा - अहा ! मुनिवर मुझे सम्यक्त्व प्राप्त कराने आये हैं, मुझ पर कृपा करके वे आकाशमार्ग से उतरकर मुझे प्रतिबोध देने आये हैं। वाह ! तीर्थंकर के श्रीमुख से मेरे भावी तीर्थंकरत्व की मंगलवाणी निकली।

मुझ जैसा भाग्यशाली कौन होगा ? इससे उत्तम मंगल और क्या होगा? …बस, सिंह तो सब भूल गया और अन्तर चैतन्य की महिमा में इसप्रकार निमग्न होने लगा मानों वर्तमान में ही तीर्थंकर बन गया हो। उसकी परिणति में कषाय से भिन्न शान्ति की तरंगें उठने लगीं; उसका अन्तर वैराग्य से उछलने लगा; परिणति कषाय से भिन्न होकर चैतन्यशान्ति का वेदन करने हेतु अन्तर्मुख हो गई; उसके परिणाम विशुद्ध होने लगे। इसप्रकार भावी तीर्थंकर - ऐसा वह सिंह उपयोग की एकाग्रता से सम्यक्त्व-ग्रहण की ओर झुक रहा है। अपना शान्त चैतन्यतत्त्व देखने पर ही उसका लक्ष्य है। आँखें मूंदकर ज्ञान को स्थिर करके निजस्वरूप को देखने के लिये उसका उपयोग उत्सुक हो उठा है। बस, अब अधिक देर नहीं है।

श्री मुनिराज उसे शुद्धात्मा की देशना दे रहे हैं - भो भव्य ! तुम एकाग्रचित्त से सुनो। यह जीव अनादि-अनन्त सदा उपयोग स्वरूप है, चेतनरूप द्रव्य से, गुण से, पर्याय से शुद्धोपयोगी जैसे अरिहन्त हैं, परमार्थत: यह आत्मा भी वैसा ही उपयोग स्वरूप है; ऐसे आत्मा को तुम अनुभव में लो…तुम्हें महा-आनन्दरूप सम्यक्त्व होगा और परमशान्ति का वेदन होगा, तुम इस भवदुःख से छूट जाओगे।

श्री मुनिराज जो कह रहे हैं उसे श्रवण’ करने की अपेक्षा वैसे भावों के ‘वेदन’ के प्रति अब सिंह का उपयोग विशेष कार्य कर रहा है। सम्यक्त्व के लिये आवश्यक तीन करणों की विशुद्धता उसे होने लगी है…राग से हटकर उसका उपयोग अब अतीन्द्रिय शान्ति की ओर जा रहा है… अहा ! ऐसा अद्भुत शान्त मेरा आत्मा ! ऐसे अन्तर वेदन से उसे अपूर्व शान्ति प्रगट होती जा रही है…शान्ति के समुद्र में उपयोग अधिकाधिक गहराई में उतरता जा रहा है…मुनिवर तो आश्चर्य से सिंह का हृदय परिवर्तन देखते ही रह गये। इतने में, सिंह की परिणति ने चैतन्यरस की प्रबलता से कोई ऐसी छलाँग लगाई कि कषायों से पार होकर चैतन्य के अतीन्द्रिय भाव में जा पहुँचा और शान्तरस के समुद्र में निमग्न हो गया…।

उसे निज परमात्मा का सम्यक् दर्शन प्रगट हुआ। अहा ! उस क्षण के आनन्द का क्या कहना ? सम्यक्त्वरूपी सिंह ने मिथ्यात्वरूपी उन्मत्त हाथी को भगा दिया और मोक्षसाधना का शौर्य प्रगट किया। उसकी अपूर्व शान्तिमय चेष्टा से मुनिराज उसकी स्थिति समझ गये। चैतन्य की ऐसी अपूर्व शान्ति देखकर क्षणभर वे भी निर्विकल्प रस में निमग्न हो गये।) वाह ! इधर मुनिवर ध्यान में लीन होकर बैठे हैं, सामने सिंह भी निर्विकल्प होकर सम्यक्त्व प्राप्ति के धन्य क्षण का अपूर्व आनन्द ले रहा है…वाह रे वाह ! धन्य गुरु ! धन्य शिष्य ! धन्य निर्विकल्पता का आनन्दोत्सव !

क्षणभर के लिये सारा वन प्रदेश स्तब्ध रह गया…वह भी मानों निर्विकल्पता में झूलने लगा। वन के जो पशु पहले भयभीत होकर भागते थे, वे भी सिंह की नवीन शान्त चेष्टा देखकर आश्चर्य से स्तम्भित हो गये। कुछ देर बाद जब सिंह ध्यान से बाहर आया और मुनिवरों की ओर देखा तथा मुनिवरों ने भी मधुर दृष्टि से देखकर उस सम्यग्दृष्टि सिंह की पीठ पर हाथ रखा, तब उसकी आँखों में आँसू भर आये…वे आँसू दुःख के नहीं; किन्तु हर्ष के थे।

अगले पाँवोंरूपी दो हाथ जोड़कर मुनियों की वन्दना करता हुआ वह सिंह मानों उपकार व्यक्त कर रहा था, वहाँ भाषा भले ही नहीं थी; परन्तु भावों द्वारा वह मुनिराज की अपार भक्ति कर रहा था…‘अहो मुनिराज ! आपके प्रताप से मैं भवदुःख से छूटकर ऐसे अपूर्व आत्मानन्द को प्राप्त हुआ’ और जब मुनिराज ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद देकर वात्सल्य प्रगट किया तब तो मानों वह कृतकृत्य हो गया। अहा ! मोक्षगामी मुनिवरों का हाथ जिसके मस्तक पर फिरा और आशीर्वाद मिला, उस भव्य के हर्षानन्द का क्या कहना ? उसके तो भव के फेरे टल गये… और मोक्ष की बारी आयी।

मुनिराज ने कहाहे सिंह! तुम सम्यग्दर्शन पाकर धन्य हुए; अब तुम्हारे मिथ्यात्वजन्य पाप धुल गये; तुम, मोक्ष के साधक बने। वाह ! तुम्हें देखकर हमें वात्सल्य भाव आता है।

सिंह का अन्तर भी आनन्द से नाच उठा, उसने खड़े होकर मुनिराज के चरणों में मस्तक झुकाया और धीरे-धीरे चलकर उनकी प्रदक्षिणा करने लगा।

वाह रे सिंह ! तुझे भी ऐसी भक्ति करना आ गया ! ‘यह तो अन्तर में हुए सम्यक्त्व का प्रताप है।’ अहो ! उस सिंह की भक्ति-चेष्टा ही उसके सम्यक्त्व प्राप्ति के परम उल्लास को प्रगट कर रही थी। अन्तर में उसने अनुभव किया कि अहा यह क्रोध तथा यह सिंहपर्याय मैं नहीं हूँ; मैं तो सदा उनसे भिन्न, ज्ञान-दर्शनआनन्द स्वरूप हूँ। अरेरे! यह हिंसा और यह मांस भक्षण मुझे शोभा नहीं देता। मेरा चेतनतत्त्व तो सुन्दर, शान्त स्वरूप है। सम्यग्दर्शनरूप अति गहरी चैतन्यकन्दरा में जाकर, उपशान्तभावरूप तीक्ष्ण पंजों से मैंने मिथ्यात्व एवं कषायों रूप मदोन्मत्त हाथी को मार दिया है; अब विशेष शुद्धोपयोग की दूसरी छलाँग लगाकर मैं संयम के पर्वत पर चढ़ जाऊँ, उसी में मेरा सच्चा शौर्य, शार्दूलपना है। वाह ! श्री मुनिराज के श्रीमुख से झरते हुए जिनवचन समान उपकारी इस संसार में दूसरा कोई नहीं है। जिसका कभी बदला नहीं दिया जा सके - ऐसा महान उपकार सम्यक्त्व देकर इन मुनिवरों ने मुझ पर किया है। - ऐसा सोचकर अगले पैरोंरूपी पंजों द्वारा बारम्बार हाथ जोड़कर नतमस्तक हो, वह मुनिवरों को नमस्कार करने लगा; उसका चित्त अति प्रशान्त हो गया; उसे संसार से निर्वेद और मोक्षमार्ग के प्रति संवेग हुआ।

श्री मुनिराज ने पुन: कहा- हे सिंहराज ! हे धर्मात्मा! अपूर्वभाव से सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अब तुम परमशान्त भाव द्वारा क्रोध-मान-माया-लोभ का भी निवारण करना; उपसर्ग या परिषहों से डरे बिना उन्हें शूरवीरता से सहन करना। वीतरागी पंच परमगुरुओं को सदा हृदय में रखकर उनकी महिमा करना। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रताप से तुम्हारे पाप कर्म नष्ट हुए हैं तथा प्रशम-संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा के विशुद्ध परिणामों से तुम्हारा आत्मा उज्ज्वल बना है। अनादि से कर्म के आस्रव-बन्ध में वर्तते हुए तुम्हारे आत्मा को अब कर्मों के संवर-निर्जरा प्रारम्भ हुए हैं। अहा ! मोक्ष के मार्ग में आकर तुम धन्य हुए हो; अब निरन्तर ऐसा सुन्दर जीवन जीना; ताकि तुम्हारे अन्तर की विशुद्धता वर्धमान होती रहे। हे भव्य शार्दूल ! अब तुम्हारी आयु मात्र एक मास शेष है। आनेवाले दसवें भव में तुम भारतवर्ष में जगदोद्धारक जिनेश्वर महावीर बनोगे। यह बात हमने ‘कमलाधर’ (लक्ष्मीधर, श्रीधर अथवा सीमन्धर) जिनेन्द्र के श्रीमुख से सुनी है। इसप्रकार मुनिवरों ने अत्यन्त वात्सल्य से सिंह को सम्बोधन किया।

वाह ! देखो तो सही, जिसप्रकार मनुष्य के साथ बातें करते हों तदनुसार मुनिराज सिंह के साथ बात कर रहे हैं और महाभाग्यवन्त सिंह भी मनुष्य की भाषा समझ रहा है। अहा ! जिसके सम्बोधन को आकाश से मुनिराज उतरे हों और जिनेश्वर देव की वाणी में जिसके तीर्थंकरत्व की घोषणा हुई हो, उसकी पात्रता का क्या कहना ? वाह रे वाह! वनराज !! अब तो तुम / ‘जिनराज’ हो-भावी जिनराज हो।

श्री मुनिवर की बात सुनकर तथा अपनी आयु अब मात्र एक मास शेष जानकर सिंह को परम वैराग्य हुआ। बोधिलाभ का जिसे महान आनन्द है और संसार से जिसका चित्त सर्वथा विरक्त हुआ है - ऐसे उस सिंह ने साधकभाव का शौर्य जागृत किया; मुनिवरों के समक्ष उसने बोधिसहित समाधि सल्लेखना धारण की; आहार-जल का सर्वथा त्याग करके सल्लेखना धारण की; आहार-जल का सर्वथा त्याग करके अनशनव्रत अंगीकार किया।

वाह रे सिंह ! तुम्हारा सच्चा शौर्य जागृत हो उठा। (पाठक आत्माओ ! क्षणभर पहले जो क्रूर मांसाहारी सिंह था वह कुछ ही समय पश्चात् चैतन्य की आराधना का शौर्य प्रगट करके कैसा शान्त हो गया है, उसका वर्णन पढ़ते हुए भी हमें उसके प्रति प्रेम उमड़ता है। हम सबके आत्मा (स्वभाव) में भी चैतन्य का ऐसा शौर्य विद्यमान है: सिंह समान वीर बनकर उस शौर्य को जागृत करो। महावीर का मार्ग वह चैतन्य के शौर्य का मार्ग है; उस मार्ग की साधना हेतु वीर बनो…महान वीर बनो।)

प्रशमरस में रत हुआ सम्यग्दृष्टि सिंह विचारता है कि अहा ! मुझे प्रतिबोध देने हेतु ही यह मुनिराज करुणा करके यहाँ पधारे हैं; मुझ पर अचिन्त्य उपकार किया है। मेरे पास तो ऐसा कुछ नहीं है कि मैं इनकी सेवा करूँ, मेरी यह पर्याय ऐसी नहीं है कि मैं उन्हें आहारदान दे सकूँ / मुनिवर तो अत्यन्त नि:स्पृह होते हैं। इसप्रकार उपकार का चिन्तवन करता हुआ सिंह बारम्बार मुनिवरों के चरणों में मस्तक झुकाने लगा…और मानों भक्ति के जल से उनके पग धोता हो। - इसप्रकार उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

सिंह को प्रतिबोध देने का अपना प्रयोजन पूर्ण हुआ - ऐसा समझकर वे मुनिवर वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे…मधुर दृष्टि से सिंह की ओर देखकर धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देकर तथा उसके अयाल पर पींछी फेरकर वे मुनिवर आकाशमार्ग से विहार कर गये।

सिंह अश्रुभीगी आँखों से अत्यन्त प्रेमपूर्वक दूर-दूर तक देखता ही रहा।…अहो ! मुझे भवसमुद्र से पार करने वाले मेरे उपकारी गुरु आकाशमार्ग से चले जा रहे हैं। कुछ देर में मुनिवर अदृश्य हो गये; तथापि मानों अब भी उनका पवित्र हाथ अपने मस्तक पर रखा हो। - इसप्रकार वह उनके गुणचिन्तन में लीन रहा। सिंहराज का जीवन आज पलट गया; मानों उसका आत्मा सम्पूर्ण नवीन बन गया; उसका अन्तर क्रूरता के बदले शान्तरस में सराबोर हुआ; उसकी चेतना परभाव से छूटकर शान्त चैतन्यरस में निमग्न होकर शोभा देने लगी। मुनिराज के जाने से उसका चित्त व्यथित हुआ। अरे ! ऐसे उपकारी सत्पुरुष के विरह में कौन व्यथित नहीं होगा ? अन्त में जिसकी चैतन्य की साधनामय उत्तम चेष्टाएँ हों, ऐसे उस मृगराज ने चैतन्य की अद्भुतता के चिन्तन में अपना चित्त लगाकर, पुन: निर्विकल्प उपयोग द्वारा हृदय से मुनि-वियोग का शोक दूर किया और साथ ही हिंसादि पाँचों पापों को भी दूर भगा दिया। व्रतधारी उत्तम श्रावक होकर उसने अनशन पूर्वक सल्लेखना-व्रत धारण किया और श्री मुनिवरों के पवित्र चरणों से पावन हुई, निर्दोष शिला को तीर्थरूप मानकर उस पर ‘सल्लेखना-मरण’ रूप समाधि लगाई।

पाषाण-शिला पर वह एक ही करवट बैठा रहता और किंचित् भी हलनचलन नहीं करता था। उसने अपने आत्मा को चैतन्यस्वभाव में तथा पंचपरमेष्ठी के गुणचिन्तन में लगा दिया। उसकी लेश्या और अधिक शुद्ध होने लगी, कषाय परिणाम बिल्कुल शान्त हो गये। ग्रीष्म की अति ऊष्ण वायु से उसका शरीर सूख रहा था, सूर्य की प्रखर किरणें उसे जला रही थीं; तथापि उसके मन में कोई क्लेश नहीं था। ऐसे तीव्र ताप में भी उसने जल का त्याग कर दिया था। अन्तर में चैतन्य का शान्तरस उसके भवताप को शीतल कर रहा था, फिर बाह्य जल की क्या आवश्यकता थी ? ‘मैं चलूँगा-फिरूँगा तो वन के जीव मुझे जीवित समझकर भयभीत होंगे’ - ऐसा सोचकर वह चलता-फिरता नहीं था। उसे निश्चेष्ट पड़ा देखकर यह सिंह मर गया है’ - ऐसा मानकर मदमस्त हाथी उसके अयाल को नोंच डालते थे; तथापि मोक्ष के इच्छुक ऐसे मुमुक्षु-सिंह ने तो सहनशीलता ही धारण कर ली थी। अरे ! जिसकी एक गर्जना से हाथियों की टोली दूर भागती थी, वह हाथियों का शत्रु आज तप-आराधना रूपी टंकार से कर्मरूपी हाथी को दूर भगा रहा था। वाह रे सिंह भाई ! धन्य है तुम्हारी आराधना !

शरीर से भिन्न चैतन्यतत्त्व को जानकर, जिसने शरीर का ममत्व सर्वथा छोड़ दिया है - ऐसे उस सिंहराज ने एक महीने तक धैर्यपूर्वक क्षुधा-तृषा सहन किये; काया के साथ कषाय भी क्षीण हो रही थी; जिनमार्ग की आराधना में उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था। अहा ! उस वनराज की शान्त चेष्टाओं से प्रभावित होकर वन के हिरन, खरगोश और बन्दर आदि प्राणी भी निर्भय होकर उसके पास बैठने लगे और उसका आश्चर्यकारी परिवर्तन देखने लगे।

प्रशम-शान्ति की गहरी कन्दरा में रहे हुए उस वनराज को बाह्य उपद्रव कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। उसे मरा हुआ मानकर गीदड़ और लोमड़ी जैसे तुच्छ जंगली प्राणी भी उसे नाखूनों से चीर-चीर कर खाने लगे, गिद्ध और कौए भी चोंच मार-मारकर चीथने लगे; तथापि उसने अपनी समाधि भंग नहीं की और न उन प्राणियों को भगाने का प्रयत्न किया। अहा ! क्षमावान जीवों को कौन डिगा सकता है ?

इसप्रकार उज्ज्वल परिणामी और आत्म-आराधना में शौर्यवान - ऐसा वह वनराज सहित शरीर का त्याग करके उसी क्षण सौधर्म स्वर्ग के मनोहर विमान में हरिध्वज (सिंहकेतु) नामक देव हुआ।

सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव (नौवाँ पूर्वभव - सम्यक्तोपरान्त)

सिंह-पर्याय में सम्यक्त्व प्राप्त करके, सल्लेखनासहित समाधिमरण करके, सौधर्म स्वर्ग में हरिध्वज देवरूप से अवतरित हुए अपने चरित्र नायक को देखते ही स्वर्ग के देव जय-जयकार करने लगे। मंगलवाद्य बजने लगे; देव-देवांगनाओं ने जिनेन्द्र पूजन सहित मंगल उत्सव किया। अहो ! सम्यक्त्व सहित विशुद्धि का फल अद्भुत है ! उस हरिध्वज अथवा सिंहकेतु देव ने अवधिज्ञान द्वारा जान लिया कि मैं पहले सिंह पर्याय में था और दो मुनिराजों ने प्रतिबोध देकर मुझे धर्म प्राप्त कराया; उन्हीं के प्रताप से मैं यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ; मुझ पर उनका महान उपकार है। इसप्रकार मुनिराजों के उपकार का चिन्तवन करता हुआ वह देव अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनिवरों के पास आया और कल्पवृक्ष के अचेतन दिव्यपुष्पों द्वारा उनकी पूजा करके बोला - हे प्रभो ! एक मास पूर्व आपने जिस सिंह को प्रतिबोध दिया था मैं वही हूँ; समाधिमरण करके मैं सिंह से सौधर्म स्वर्ग का देव हुआ हूँ और आपके उपकार का स्मरण होने से आपके दर्शन करने आया हूँ। हे प्रभो! आपके प्रसाद से तीनलोक में श्रेष्ठ चूड़ामणि समान सम्यक्त्व प्राप्त करके मैं कृतकृत्य हुआ हूँ…साधुजनों का सत्संग किसे हितकर नहीं होता ? ऐसा कहकर उसने अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनिराज के चरणों की रज अपने मुकुट पर चढ़ायी - मानों कोई अमूल्य निधान चढ़ा रहा हो।

एक ओर वह देव, पूजा-भक्ति की विधि सहित मुनिवरों की प्रशंसा कर रहा है, उधर मुनियों का लक्ष्य तो अपने चैतन्य की ओर ही स्थिर है। देव क्या कह रहा है, उसका उन्हें लक्ष्य नहीं है; वे तो निन्दा-प्रशंसा में समताभाव रखकर, शुद्धोपयोग द्वारा चैतन्य के ध्यान में लीन होकर क्षपकश्रेणी पर चढ़ रहे हैं…शीघ्रतापूर्वक एक के बाद एक आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान पर चढ़ते हुए मोहकर्म का नाश कर रहे हैं। अभी वह हरिध्वज देव मुनिवरों के समक्ष खड़ाखड़ा उनकी भक्ति कर ही रहा है कि इतने में उन मुनिवरों ने मोह का सर्वथा क्षय करके, क्षायिकभाव पूर्वक केवलज्ञान प्रगट किया। अहा ! आनन्दमय महान उत्सव हुआ, चारों ओर दिव्यता फैल गई। अपने सामने ही अपने परमगुरुओं को केवलज्ञान होता देखकर हरि’ तो परम-आनन्दसहित नाच उठा।…अहो ! सर्वज्ञ परमात्मा का साक्षात्कार होने से हरि को जो आनन्द हुआ उसका क्या कहना ! अत्यन्त हर्षोल्लासपूर्वक केवलज्ञान का मंगल-उत्सव तथा उन दोनों केवली भगवन्तों की पूजा एवं दिव्यध्वनि का श्रवण करके वह हरिध्वज देव सौधर्म स्वर्ग चला गया।

जिसके अन्तर में सम्यक्त्वरूपी महान सम्पदा विद्यमान है - ऐसे उस देव का चित्त स्वर्ग की दैवी सम्पदा में भी आकर्षित नहीं होता। बारम्बार स्वर्ग से धरती पर आकर सर्वज्ञ परमात्मा की भक्ति एवं बहुमानपूर्वक शुद्धात्म तत्त्व की बात श्रवण करके अपनी स्वानुभूति को पुष्ट करता है। इसप्रकार भगवान महावीर के जीव ने अखण्ड आत्म-आराधनापूर्वक सौधर्म स्वर्ग में असंख्यवर्ष व्यतीत किये।

कनकध्वज राजा और आठवें स्वर्ग में देव (8वाँ तथा ७वाँ पूर्वभव)

स्वर्ग से चयकर वह हरिध्वज (सिंहकेतु) देव, विदेहक्षेत्र में कनकप्रभ राजा का पुत्र हुआ; उसका नाम था कनकध्वज / उसके युवा होने पर पिता ने उसे राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली।अपने चरित्र नायक राजा कनकध्वज एकबार सुदर्शन वन में यात्रा करने गये।सुन्दर वृक्षों और फल-फूलों से भरे हुए उद्यान की शोभा निहारते हुए आगे बढ़े कि एक बड़ी शिला पर छोटे-से, किन्तु महान तेजस्वी मुनिराज को ध्यान में बैठे देखा।अहा! कितनी अद्भुत थी उनकी मुद्रा ! अन्तरंग अतीन्द्रिय शान्ति की दिव्य झलक उनकी मुद्रा पर दृष्टिगोचर होती थी।राग-द्वेष को नष्ट करके, वीतरागता द्वारा वे सुशोभित हो रहे थे। क्षमाभाव एक क्षण को भी विस्मरण नहीं करते थे। उनके रत्नत्रय के प्रभाव से आस-पास के वृक्ष भी फल एवंपुष्पाच्छादित हो उठे थे।-ऐसे मुनिराज को देखकर कनकध्वज ऐसे प्रसन्न हुए जैसे उन्हें किसी अपूर्व निधान की प्राप्ति हुई हो।

अत्यन्त हर्ष से जिनका रोम-रोम उल्लसित हो रहा है-ऐसे राजा ने मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और अति अनुराग सहित उनके समीप बैठ गये। मुनिराज ने शान्त दृष्टि से राजा को देखा और राजन! धर्मवृद्धि हो!’ ऐसे आशीर्वचनों द्वारा उन पर परम अनुग्रह किया। अहा ! धर्मात्मा को देखकर मुनिवर भी प्रसन्न होते हैं !

मुनिराज बोले - हे महाभाग ! तुम सम्यक्त्वरूपी मुकुट से तो अलंकृत हो ही, अब उस पर चारित्ररूपी कलगी चढ़ाओ।

मुमुक्षु राजा को स्वयं भी चारित्र की भावना तो थी ही; उसमें मुनिराज की प्रेरणा मिलने से उन्हें अत्यन्त उल्लास हुआ। अति वैराग्यपूर्वक हाथ जोड़कर बोला - 'हे प्रभो ! यह जीव संसार में अनन्तबार पंचपरावर्तन कर चुका है, अब उस परावर्तन से बस होओ ! श्रुतज्ञान के सारभूत ऐसी चारित्रदशा को मैं आज ही .अंगीकार करूँगा। ऐसा कहकर राजा ने उसीसमय चारित्रदशा अंगीकार कर ली; मुनि होकर शुद्धोपयोग द्वारा आत्मा को ध्याने लगे। ठीक ही है कि महापुरुष अपने हितकार्य को सिद्ध करने में विलम्ब नहीं करते। कनक को छोड़कर जिन्होंने सुन्दर रत्न’ ग्रहण किये हैं - ऐसे वे मुनिराज कनकध्वज मुनिसंघ में अति सुशोभित होने लगे; वीतरागभाव द्वारा अनेक परिषह सहने लगे। अन्त में चार आराधना के अखण्ड पालनपूर्वक आयु पूर्ण करके आठवे स्वर्ग में गये।

वे धर्मात्मा स्वर्गलोक में भी देवों को आनन्द प्राप्त कराते थे, जिससे देवानन्द’ उनका नाम सार्थक था। चौदह सागरोपम के असंख्य वर्षों तक जिनमार्ग के प्रभाव द्वारा असंख्य देवों को आनन्द देकर वे देवानन्द अपनी आत्म-आराधना को आगे बढ़ाने के लिये पुनः मनुष्य लोक में अवतरित हुए।

हरिषेण राजा और पश्चात् स्वर्ग में देव (७वाँ और ६वा पूर्वभव)

बन्धुओ ! आप भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन पढ़ रहे हैं। अब उनके मात्र सात ही भव शेष हैं - उनमें तीन भव तो देव के हैं और अन्य चार भव उत्तम रत्नत्रय धर्म की आराधना सहित मनुष्य के हैं, जिनमें एक चक्रवर्ती का भव है और एक तीर्थंकर का अवतार है। वीरप्रभु के आत्मा द्वारा की गई उस आराधना को देखकर तुम्हें भी आराधना का उत्साह जागृत होगा और उस आराधना में आत्मा को लगाने से तुम्हें सर्वज्ञ महावीर का साक्षात्कार होगा! सर्वज्ञ महावीर केसाक्षात्कार के साथ ही उनके जैसे अपने परम-आत्मा की स्वानुभूति रूप साक्षात्कार होने पर जो अतीन्द्रिय परम आनन्द होता है, उसका क्या कहना? अहा! वह तोमोक्षसुख की वानगी है और वही मंगल निर्वाण-महोत्सव है।

जो जानता महावीर को, चेतनमयी शुद्धभाव से।
वह जानता निज-आत्म को, सम्यक्त्व ले आनन्द से॥

अपने चरित्र नायक का परिणमन अब मोक्ष की ओर तीव्रगति से हो रहा है। आठवें स्वर्ग से एक समय में असंख्य योजन की गति से वे मनुष्य लोक में आये और उज्जयिनी नगरी में वज्रधर राजा के पुत्ररूप में अवतरित हुए; उनका नाम हरिषेण था। एकबार जैनाचार्य श्रुतसागरजी महाराज उज्जयिनी नगरी में पधारे; उनका वैराग्य रस से सराबोर धर्मोपदेश सुनकर महाराजा वज्रधर संसार से विरक्त हुए और हरिषेण कुमार को राज्य सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।

हरिषेण कुमार जो कि सम्यग्दर्शन तो पूर्वजन्म से ही लेकर आये हैं, उन्होंने श्रावक के बारह व्रत धारण किये। पाप के कारणभूत ऐसे विशाल राज्य में रहने पर भी वे महात्मा कमलवत् ऐसे अलिप्त थे कि पाप उन्हें स्पर्श तक नहीं करते थे; उनका चित्त सर्वत्र नि:स्पृह रहता था। अहो ! साधक की ज्ञानचेतना कोई अद्भुत आश्चर्यकारी है। जिसप्रकार चन्दन सर्यों के बीच रहकर भी अपनी शीतलता को नहीं छोड़ता अर्थात् विषरूप नहीं होता, उसीप्रकार विष समान विभिन्न राग-संयोगों के बीच रहने पर भी धर्मात्मा की ज्ञानचेतना अपने शान्तस्वभाव को छोड़कर राग-रूप नहीं होती।

राजा हरिषेण एक दिन संसार से विरक्त हुए और जिनदीक्षा लेकर तपोवन में जाकर प्रशान्तरस में निमग्न हो गये। उन मुनिराज ने आयु के अन्त में समाधिपूर्वक शरीर का त्याग करके महाशुक्र स्वर्ग को अलंकृत किया। वे प्रीतिवर्धन विमान में सोलह सागर आयु के धारी देव हुए।

विदेहक्षेत्र में प्रियमित्र चक्रवर्ती पश्चात् बारहवे स्वर्ग में देव (चौथा और तीसरा पूर्वभव)

अपने चरित्र नायक भगवान महावीर अन्तिम भव में धर्मचक्री होंगे; उससे पूर्व वे विदेहक्षेत्र में राजचक्रवर्ती हुए। स्वर्ग से वे महात्मा विदेह की क्षेमद्युति नगरी में धनंजय राजा के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुए, उनका नाम था प्रियमित्र |

एक दिन राजा धनंजय ने संसार से विरक्त होकर पुत्र प्रियमित्र को राज्य सौंप दिया और स्वयं स्वभावमय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ग्रहण करके तप द्वारा सुशोभित हुए। राज्यलक्ष्मी छोड़कर तपलक्ष्मी द्वारा वे अधिक शोभायमान हो रहे थे।

इधर राजा प्रियमित्र विशाल राज्य के साथ-साथ शुद्धसम्यक्त्वसहित अणुव्रतों का भी पालन करते थे और जगत को यह प्रत्यक्ष कर रहे थे कि इतने बड़े राज्यभार के बीच भी आत्मा की आराधना हो सकती है। आत्मा की जितनी महिमा धर्मी के अन्तर में है उतनी किसी और को नहीं है। एकबार उनके शस्त्र भण्डार में चक्रवर्ती पद के वैभव का सूचक सुदर्शन चक्र प्रगट हुआ; परन्तु उससे वे किंचित् भी आश्चर्यचकित नहीं हुए। अहा! तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ एवं सुन्दर ऐसा चैतन्यरत्न जिन्होंने स्वानुभूति से प्राप्त कर लिया है, उन महात्मा को जगत के जड़रत्नों से क्या आश्चर्य होगा ? मोक्षसाम्राज्य प्रदान कराने वाला सम्यग्दर्शनरूपसुदर्शनचक्र, जिनके अन्तर में निरन्तर चल रहा है, उन्हें बाह्य पौद्गलिक सुदर्शनचक्र की क्या महत्ता लगेगी ? वे धर्मात्मा प्रियमित्र जानते थे कि यह बाह्यवैभव की प्राप्ति कोई मेरी चैतन्य-आराधना का फल नहीं है; परन्तु आराधना के साथ रहने पर भी उससे भिन्न जाति का ऐसा जो राग, उसका यह फल है। अरे ! जिसके साथ रहनेवाले राग का भी ऐसा आश्चर्यकारी बाह्य फल है तो उस रागरहित आराधना के अन्तरंग फल का तो कहना ही क्या ? उस फल का स्वाद तो धर्मात्मा ही ले सकते हैं और उसके समक्ष जगत के समस्त वैभव बिल्कुल नीरस लगते हैं।

चक्ररत्न प्राप्त होने पर उन महाराजा प्रियमित्र ने विदेहक्षेत्र के छहों खण्डों की दिग्विजय की; छह खण्ड में रहनेवाले समस्त मनुष्य, विद्याधर एवं देवों को भी उन्होंने वश में कर लिया। चौदह रत्न एवं नवनिधान के उपरान्त सोलह हजार देव और बत्तीस हजार मुकुटधारी राजा उनकी सेवा करते थे; उनकी छयानवे हजार रानियाँ तथा छयानवे करोड़ पैदल, लाखों उत्तम गज आदि विशाल सेना थी; तथापि ‘इस विषय सामग्री में जीव को तृप्ति देने का गुण कदापि नहीं है; यह सब तो आकुलता देनेवाले हैं। एक चैतन्यतत्त्व ही जीव को सच्ची तृप्ति एवं शान्ति प्रदान करता है’ - ऐसा वे धर्मात्मा जानते थे; इसलिये भोगों में कहीं मूर्च्छित नहीं होते थे; जल में कमलपत्र की भांति अलिप्त रहते थे।

चक्रवर्ती के चौदह रत्न एवं नवनिधान आदि वैभव का वर्णन करके शास्त्रकार ऐसा बतलाना चाहते हैं कि हे जीवो ! देखो, यह सब तो उस जीव के रागादि औदयिक भावों का बाह्य फल है, उसीसमय उनके अन्तर में स्वाभाविक चेतना के जो भाव (सम्यक्त्वादि) वर्त रहे हैं, वे कैसे हैं और उनका फल कैसा सुन्दर उनका स्वरूप जानोगे तभी तुम धर्मात्मा के जीवन को भलीभाँति जान सकोगे और उसे जानने का सम्यक् फल आयेगा। मात्र औदयिक भाव को ही देखने से ज्ञानी का सच्चा स्वरूप जानने में नहीं आता…इसलिये बारम्बार कहते हैं कि चेतनभाव से भगवान को पहिचानो, उदयभाव से नहीं।

उन प्रियमित्र महाराजा ने तेरासी लाख पूर्व के दीर्घकाल तक चक्रवर्ती पद पर रहकर प्रजा का पालन किया। पश्चात् एकबार दर्पण में मुख देखते समय कान के पास श्वेत केश देखकर उनका चित्त संसार से विरक्त हुआ। संसार से विरक्त वे प्रियमित्र चक्रवर्ती बारह वैराग्य भावनाएँ भाते हुए क्षेमंकर जिनेन्द्र भगवान के समवसरण में पहुंचे। सर्वज्ञता से सुशोभित वीतराग जिनेन्द्र देव के दर्शन से उनका प्रशमभाव दुगुना हो गया। उन्होंने अत्यन्त भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान के श्रीमुख से मोक्षमार्ग का श्रवण किया। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र जो कि महा आनन्दमय मोक्ष का कारण है, तद्रूप अपना ही शुद्धस्वभाव परिणमित होता है; वे कहीं बाहर से नहीं आते और न कहीं उनमें राग है।

ऐसे वीतराग रत्नत्रय के आधाररूप शुद्ध आत्मा की अचिन्त्य अपार महिमा भगवान ने बतलायी। उसे सुनकर ज्ञान की अतिशय निर्मलतापूर्वक जिनेन्द्र भगवान के पादमूल में ही जिनदीक्षा लेकर उन्होंने चारित्रदशा के महान रत्नत्रय अंगीकार किये और चक्रवर्ती की अपार विभूति को तृणतुल्य छोड़ दिया। अधिक लेकर अल्प छोड़ दिया, उसमें क्या आश्चर्य है ! मोक्ष के सारभूत निधान लेकर संसार के तुच्छ निधान छोड़ दिये, उन्होंने तो अल्प छोड़कर अधिक ले लिया; तथापि (आश्चर्य है कि) लोग उन्हें महान त्यागी कहते हैं। अहा! सुख का सरोवर अपने में पाकर असत् ऐसे मृगजल की ओर कौन दौड़ेगा? चारित्रदशा का चैतन्य सरोवर प्राप्त करके चक्रवर्ती के विषय-भोगों को छोड़ना वह कोई बड़ी बात नहीं है। विदेहक्षेत्र में राजचक्रीपन छोड़कर जो मुनि हुए हैं और अब चौथे भव में भरतक्षेत्र में धर्मचक्री-तीर्थंकर होनेवाले हैं - ऐसे वे प्रियमित्र मुनिराज जगत में सर्वप्रिय थे और सर्वजीवों के हितकारी थे। उत्तम प्रकार से चारित्र पालन करके उन्होंने सल्लेखना पूर्वक शरीर का त्याग किया और उत्तम रत्नत्रय की आराधना करते-करते शेष रह गये किंचित् कषायकण के महान पुण्यफल का उपभोग करते हेतु सहस्रार नाम के बारहवें सूर्यप्रभ स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न हुए। वहाँ यद्यपि उनको पुण्यजन्य वैभव अपार था; परन्तु अरे रे ! जो कषाय का फल है उसका कितना वर्णन करें।

कषायकलंक के उस फल का विस्तार करने से अथवा उसकी प्रशंसा सुनकर मुमुक्षु जीव लज्जित होते हैं, कि अरे ! हम अपने चैतन्य की शान्ति को साधनेवाले…उसके बीच कषाय तो कलंकरूप है। हम तो अपनी शान्ति का विस्तार करके चैतन्यवैभव की पूर्णता करें - यही हमारे लिये इष्ट है, अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है।

ऐसी भावनापूर्वक स्वर्ग के अपार तथापि अध्रुव वैभवों में से सूर्यप्रभ देव असंख्य वर्ष तक रहे; परन्तु आखिर देवपद भी तो अध्रुव ही है न ! अध्रुव ऐसे रागभावों का फल भी अध्रुव ही होगा न ! इसलिये ऐसी देवगति को छोड़कर ध्रुवपद की साधना के ध्येय से वे धर्मात्मा मनुष्यलोक में अवतरित हुए। जिस अवतार में अपने चरित्र नायक महात्मा ने उत्तम सोलह भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया, अब आप उस अवतार का वर्णन पढ़ेंगे।

नन्द राजा (तीसरा पूर्वभव)

(जिनदीक्षा, सोलहकारण भावना और तीर्थंकर प्रकृति का बंध, पश्चात् सोलहवें स्वर्ग में)

इस भरतक्षेत्र के पूर्वभाग में श्वेतनगरी है; वहाँ भव्यजीव मोक्षमार्ग की साधना करते हैं; वहाँ के जिनालयों की ऐसी अद्भुत शोभा है कि जिसे देखकर नास्तिक को भी श्रद्धा जागृत हो जाय / स्वर्ग से चयकर भगवान महावीर का जीव इसी नगरी के राजा नन्दिवर्धन का पुत्र हुआ; उसका नाम ‘नन्दन’ था (विभिन्न पुराणों के अनुसार नन्दन’ तथा ‘नन्द’ - दोनों नाम स्वीकार किये गये हैं)। एक दिन वनविहार करते समय श्रुतसागर नाम के एक जैन आचार्य को देखकर उन नन्दराजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई और मोक्षमार्ग श्रवण करने की अभिलाषा से पूछा - हे स्वामी ! इस संसार समुद्र से छूटकर जीव मोक्षसुख रूप किनारा किसप्रकार प्राप्त करता है ?

मुनिराज तदनुसार प्रसन्नतापूर्वक इसप्रकार बोले - मानों उनके श्रीमुख से अमृत ही झरता हो - हे भव्य ! जब आत्मा भेदज्ञान द्वारा सम्यक्त्वादि शुद्धभावों को प्रगट करता है; तब वह भवदुःख से छूटकर मोक्षसुख प्राप्त करता है। मुनिराज का उपदेश सुनकर नन्दराजा अपना जीवन प्रसन्नतापूर्वक मोक्षसाधना में बिताते थे। उन्हें कोई अशुभ व्यसन तो था नहीं; मात्र एक ही व्यसन था देव-गुरु-धर्म की उपासना का। धर्म के चिन्तन बिना वे एक दिन तो क्या, एक क्षण भी नहीं रह सकते थे।

महाराजा नन्दिवर्धन ने यद्यपि नन्दकुमार को राज्य का कार्यभार सौंप दिया था; तथापि अब जिनके संसार का किनारा निकट आ चुका है - ऐसे नन्दराजा, 'सदननिवासी तदपि उदासी’ थे। राज्य एवं रमणियों के बीच रहने पर भी उनकी चेतना उन सबसे पृथक् ही रहती थी। निज-चेतना के सिवा उन्हें अन्यत्र कहीं सुख की कल्पना नहीं होती थी। एकबार महाराजा नन्दिवर्धन आकाश में मेघों की क्षणभंगुरता देखकर संसार से विरक्त हुए और पंचमगति-मोक्ष प्राप्त करने के लिये जिनदीक्षा अंगीकार की; पश्चात् ध्यानचक्र द्वारा कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान एवं मोक्ष पद प्राप्त किया।

पिता के वियोग से पुत्र ‘नन्दन’ यद्यपि शोकाकुल हो गया; परन्तु कायर पुरुष ही शोक के आधीन होकर बैठे रहते हैं। बुद्धिमान धीर पुरुष तो शोक को छोड़कर स्वकार्य को सम्हालते हैं, तदनुसार नन्दराजा ने राज्य का कार्यभार सम्हाल लिया। राज्य और धर्म दोनों के सहयोग पूर्वक कई वर्ष बीत गये। एकबार बसन्त ऋतु का आगमन होते ही वन-उपवन नवीन कोंपलों एवं पुष्पों से खिल उठे; उसी केसाथ-साथ मानों रत्नत्रय-पुष्पों का उद्यान भी खिल गया हो…ऐसे प्रौष्ठिल’ नाम के श्रुतकेवली मुनिराज का श्वेतपुरी के उपवन में आगमन हुआ। अहा ! कैसी उनकी अनुपम मुखमुद्रा ! मानों वे चैतन्य की शान्ति में निमग्न हों। शशक जैसे प्राणी आश्चर्य से उनकी ओर देख रहे हैं और उनके चरणों में बैठ गये हैं। ज्ञान के गम्भीर समुद्र, उन मुनिराज को देखकर नन्द राजा को अति आनन्द हुआ…।

अहा ! मोक्ष की जीवन्त मूर्ति ! भक्तिपूर्वक वन्दन करके नन्द राजा ने उन श्रुतकेवली से वीतरागता का उपदेश तथा अपने पूर्वभवों की बात सुनी। सर्वावधिज्ञानी एवं चरमशरीरी ऐसे उन श्रुतकेवली भगवान ने उनकी नरकदशा, वासुदेव पदवी, सिंहपर्याय में सम्यक्त्व प्राप्ति, चक्रवर्ती पद आदि पूर्वभवों का वर्णन करके कहा : हे भव्यात्मा! एक भव के पश्चात् तुम भरतक्षेत्र के चौबीसवें तीर्थंकर होकर मोक्षपद प्राप्त करोगे।

यह सब सुनकर नन्दराजा को भी अपने पूर्वभवों का जातिस्मरण हुआ; उन्होंने अपने पूर्वभव चित्रपट की भाँति देखे तथा भविष्य की सुन्दर कहानी सुनकर उनका चित्त प्रसन्न हो गया। अहा ! मुमुक्षु को अपने मोक्ष की बात सुनकर चित्त में जो प्रसन्नता होती है, उसका क्या कहना ? हजारों प्रजाजन भी आनन्दविभोर होकर भावी तीर्थंकर की ऐसी महिमा एवं उत्सव करने लगे मानों वर्तमान में ही प्रभु के पंचकल्याणक हो रहे हों। पश्चात् श्री प्रौष्ठिल प्रभु ने नन्द राजा को मुनिदशा की परममहिमा बतलाते हुए कहा - अहा ! आत्मसाधक वीर मुनिवरों के तपश्चरणरूपी रणसंग्राम में पापकर्मरूपी उद्धत शत्रु भी नहीं टिक पाते; शुद्धोपयोग-धनुर्धर उन सन्त को कोई जीत नहीं सकता, जिन्होंने मोहलुटेरे को भगा दिया है और पंचपरमेष्ठी जिनकेमार्गदर्शक हैं ऐसे मोक्षपथिक मुनिवर आत्मा की आराधना के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में उलझते नहीं हैं, दीन नहीं होते और न राग-द्वेष करते हैं। अहा ! ऐसे मोक्ष साधक मुनिवरों ने क्या मुक्ति को यहीं नहीं बुला लिया है ? चारित्राराधना परमपूज्य है। हे वत्स ! उसे तुम अंगीकार करो।

अहा ! मुनिराज के मुखचन्द्र से मानों वीतरागी अमृत झरता था। उसे झेलते हुए नन्द राजा के नयनों से आनन्द उमड़ने लगा। सम्यक्त्व से अलंकृत उनका आत्मा वैराग्यभावना द्वारा विशेष सुशोभित हो उठा…और तुरन्त ही उन्होंने प्रौष्ठिल आचार्य के निकट जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। तुच्छ राजलक्ष्मी को छोड़कर महानरत्नत्रयलक्ष्मी को ममत्वरूपसे धारण किया: बाह्य तथा अन्तर में निर्ग्रन्थरूप से शोभायमान होने लगे। अहा! वीतरागता द्वारा नग्न जीव जैसा सुशोभित होता है, वैसा क्या रागी वस्त्राभूषण द्वारा शोभता है ? नहीं, वीतरागता ही जीव की सच्ची शोभा है। इसीलिये तो मोक्षमार्गी जैन मुनियों को मोहरहित जोनग्नता है, उसे तत्त्वज्ञानियों ने मंगलरूप कहा है। वही मुनियों का सच्चा स्वरूप है| ऐसे यथार्थ स्वरूप में अपने चरित्र नायक श्री नन्द मुनिराज सुशोभित होने लगे।- वन्दन हो उन नन्द मुनिराज को ! श्रीनन्द मुनिराज को विशुद्ध चारित्र के बल से कितनी ही लब्धियों सहित ग्यारह अंगरूप श्रुतज्ञान का विकास हो गया। जिनका चित्त केवलज्ञान में संलग्न है ऐसे वे महात्मा, मात्र स्वानुभूति की ऋद्धि से ही ऐसे तृप्त थे कि अन्य किसी ऋद्धि का उपयोग नहीं करते थे। वाह रे वाह चैतन्यऋद्धि ! सचमुच, चैतन्यऋद्धि की तुलना जगत में कौन कर सकता है ? अहा ! प्रशान्त धर्मात्माओं का चारित्र तो आश्चर्य का स्थान है।

भावी तीर्थंकर ऐसे वे नन्द मुनिराज, एकबार प्रौष्ठिल श्रुतकेवली भगवन्त की धर्मसभा में बैठे थे; रत्नत्रयवन्त ऐसे वे मुनिराज बारम्बार निर्विकल्प चैतन्यरस का पान करते थे। दूसरे भी अनेक मुनिवर और धर्मात्मा उस धर्मसभा में विराज रहे थे। अहा ! वहाँ जैनधर्म का अपार वैभव था। अनेक श्रुतकेवली भगवन्त, आचार्य-उपाध्याय-साधु, श्रुतज्ञान का अपार भण्डार ऐसी स्वानुभवरसयुक्त जिनवाणी, वह सर्व जिनवैभव एक साथ देखकर, अपने चरित्र नायक को परम धर्म भावना भक्ति एवं वात्सल्य के कोई ऐसे अचिन्त्य परम अद्भुत भाव उल्लसित हुए कि वहाँ श्रुतकेवली के चरणों में बैठे-बैठे ही उन्हें त्रिलोक पूज्यता के हेतुरूप ऐसा तीर्थंकर नामकर्म बँधना प्रारम्भ हो गया। जिनका सम्यक्त्व अष्ट अंगसहित विशुद्ध है- ऐसे उन नन्द मुनिराज को, आश्चर्यकारी अद्भुत धर्म महिमा देखकर, सोलह प्रकार की ऐसी मंगल भावनाएँ जागृत हुईं कि भव के अन्त की सूचक तथा सर्वज्ञपद की पूर्व भूमिकारूप तीर्थंकर प्रकृति के पिण्डरूप जगत के उत्तम पुद्गल स्वयमेव परिणमित होने लगे।

अहा ! सर्वज्ञ के साथ रहना किसे अच्छा नहीं लगेगा ? ‘आप सर्वज्ञ होंगे, तबतक हम आपके साथ रहेंगे और ठेठ मोक्षगमन तक आपकी सेवा करेंगे।’ - मानों ऐसे भाव से वे शुभपुद्गल प्रभु के आत्मा के साथ एकक्षेत्र में आकर निवास करने लगे। श्रुतकेवली के चरणसान्निध्य में वे मुनिराज अत्यन्त विशुद्ध परिणामों से क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त हुए।

प्रश्न - क्षायिक सम्यग्दर्शन तो आत्मा की विशुद्धि है, उसके लिये बाह्य आलम्बनरूप केवली-श्रुतकेवली के पाद-मूल की समीपता की अनिवार्यता क्यों?
उत्तर - तीर्थंकरादि का महात्म्य जिसने नहीं देखा ऐसे जीव को दर्शनमोह के क्षय के कारणरूप परिणाम उत्पन्न नहीं होते। ‘अदिट्ट तिथ्थयरादिमा हप्पस्स दसणमोहखवण णिबन्धणकरण परिणामाणमणुप्पत्तीदो’ (यही बात तीर्थंकर प्रकृति के बन्धन में भी समझ लेना अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व की भाँति तीर्थंकर प्रकृति का प्रारम्भ भी केवली या श्रुतकेवली के सान्निध्य में ही होता है। -कषायप्राभृत, गाथा-११० (यहाँ, तीर्थंकरत्व के कारणरूप दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का अति सुन्दर भावपूर्ण वर्णन षट्खण्डागम, धवला आदि के आधार से किया गया है; परन्तु महापुराण’ का विस्तार बढ़ जाने से वह प्रकरण यहाँ नहीं दिया जा सका; अन्य किसी पुस्तक में उसे प्रकाशित करेंगे। इसी प्रकार दूसरे भी अनेक प्रकरण संक्षिप्त करने पड़े हैं। जो जिज्ञासु उन्हें पढ़ना चाहते हों वे प्रकाशक से सम्पर्क करें।’)

  • इसप्रकार उन नन्द मुनि ने दर्शनविशुद्धि से लेकर प्रवचन वत्सलत्व तक की सोलह मंगल-भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति बाँधना प्रारम्भ किया। यद्यपि एक ओर अघाति ऐसी तीर्थंकर प्रकृति बँध रही थी, तो दूसरी ओर उसीसमय वे मोहादि घाति-कर्मों को वे नष्ट-भ्रष्ट कर रहे थे…और जिसके बिना तीर्थंकरत्व की सम्भावना नहीं होती - ऐसी सर्वज्ञता को वे अति शीघ्रता से निकट ला रहे थे। वे रत्नत्रयवन्त धर्मात्मा कहीं तीन रत्नों को ही धारण नहीं करते थे; उनका आत्मा तो अपार चैतन्यगुण रत्नों की राशि से शोभायमान था। उनमें सम्यक्त्वादि शुद्धभाव मोक्ष के ही साधक थे, बंध के किंचित् भी नहीं। जब भरतक्षेत्र के २४वें तीर्थंकर ने तीर्थंकर प्रकृति बाँधना प्रारम्भ किया तब १२वे वासुपूज्य तीर्थंकर का शासन प्रवर्त रहा था। एक ओर थोड़ी बंधधारा और दूसरी ओर रत्नत्रय की शुद्धिरूप वेगवती मोक्षधारा - ऐसी द्विरूपधारा में वर्तती हुई उनकी परिणति तीव्रगति से मोक्ष की ओर प्रयाण कर रही थी। एक रागधारा और दूसरी रत्नत्रयधारा - ऐसी दोनों धाराएँ एक साथ साधक की भूमिका में अपना-अपना कार्य करती हैं; उन दोनों धाराओं की भिन्नता को भेदज्ञानी जीव जानते हैं।।

वे राग धारा को मोक्ष का कारण नहीं मानते और रत्नत्रयधारा को किचित् भी बन्ध का कारण नहीं मानते। यदि रत्नत्रय स्वयं बंध का कारण हो तो जगत में मोक्ष के उपाय का अभाव हो जाय; और यदि राग मोक्ष का कारण हो तो सर्व जीव मोक्ष प्राप्त कर लें। इसलिये जिन सिद्धान्त है कि 'जितने अंश में राग उतने अंश में बन्धन; और जितने अंश में रत्नत्रय उतने अंश में मोक्ष का उपाय ! (देखें - पुरुषार्थ सिद्धियुपाय श्लोक - 212 से 214) भगवान के मुनि-जीवन की, (और ऐसे ही प्रत्येक साधक धर्मात्मा की) यह विशेषता है कि उनकी चैतन्यधारा बंध को तोड़ती हुई आनन्दपूर्वक मोक्ष को साधने का कार्य निरन्तर कर रही है, उनकी ज्ञानचेतना का प्रवाह अखण्डरूप से केवलज्ञान की ओर दौड़ रहा है। अहा! धर्मात्मा की यह दशा अद्भुत आश्चर्यजनक है! ऐसी अद्भुत वीतरागीदशा में वे नन्दमुनि शोभायमान थे। यह मुनिराज अब तीर्थंकर होकर मोक्ष में जाने की तैयारी कर रहे हैं, इनके साथ हम भी मोक्ष में जायेंगे’ - ऐसी भावना से प्रेरित होकर जगत के समस्त सद्गुण दौड़-दौड़कर प्रभु के आश्रय में आ रहे थे और क्रोधादि समस्त दोष अब अपना नाश निकट जानकर शीघ्रता से दूर भागने लगे थे।

इसप्रकार दोष रहित गुण सहित निर्दोष मोक्षमार्ग को वे मुनिराज सुशोभित कर रहे थे और जगत को भी उस सुन्दर मार्ग की प्रेरणा दे रहे थे…इसप्रकार रत्नत्रय की उत्तम आराधनापूर्वक समाधिमरण करके वे महात्मा १६वे प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्ररूप से उत्पन्न हुए। यद्यपि वहाँ वे पुण्यजनित दिव्य इन्द्रियसुखों के सागर में रहते थे; तथापि उन मुमुक्षु महात्मा को मोक्षसुख के बिना कहीं चैन नहीं पड़ता था; इसलिये अन्त में उन स्वर्गसुखों को भी छोड़कर मोक्षसुख की साधना के लिये वे मनुष्यलोक में आने को तैयार हुए।

है शार्दूल समान वीरता, साधकत्व है अनुपम |
भव का अन्त किया जिनने, उन महावीर को वन्दन ||

(यहाँ भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन पूर्ण हुआ।)

भगवान महावीर : पंचकल्याणक

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवत् जन्माभिषेकोत्सवे,
यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल ज्ञानप्रकाशोत्सवे |
यत् निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुत तद्रवे;
संगीत: स्तुति मंगले प्रसरतां में सुप्रभातोत्सवः॥

सर्वज्ञ भगवान महावीरस्वामी के पंचकल्याणक जगत का कल्याण करें!

हे जिनेन्द्र ! आपश्री के मंगल पंचकल्याणक प्रसंग पर आपके शुद्धात्मा की दिव्य महिमा को हृदयंगम करके इन्द्रादि आराधक भक्तजनों ने अद्भुत पूजनस्तुतिपूर्वक जो मंगल उत्सव किया, उसके मधुर संस्मरण आज भी आनन्द उत्पन्न कर रहे हैं, मानों आप ही मेरे हृदय में विराज कर बोल रहे हों; ऐसे आपके मंगल चिन्तनपूर्वक आपके पंचकल्याणक का भक्ति सहित आलेखन करता हूँ। जिन भावों से स्वर्ग के हरि ने आपकी भक्ति की थी, उन्हीं भावों से मैं इस मनुष्य लोक का हरि भी आपकी भक्ति करता हूँ। अहो ! त्रिकाल मंगलरूप उन तीर्थंकरों को नमस्कार हो कि जिनके पंचकल्याणक अनेक जीवों को कल्याण के कारण हुए हैं।

भगवान महावीर के आत्मा का भव-भ्रमण पूरा हुआ; अब अन्तिम तीर्थंकर अवतार में उनके पंचकल्याणक होते हैं। उन महात्मा का अनादिकाल के भव समुद्र का किनारा आ चुका है और अनेक भव से चल रही वृद्धिंगत आत्मसाधना के प्रताप से महामंगल मोक्षपद बिल्कुल निकट आ गया है, जिन्होंने चैतन्यसुख का आस्वादन किया है - ऐसे उन महात्मा को देवलोक के दिव्यवैभव लुभा नहीं सके। मोक्ष के साधक को स्वर्ग का भव कैसे ललचा सकेगा ? वीतरागता के साधक को राग के फल कहाँ से अच्छे लगेंगे ? उन मंगल आत्मा को १६वें स्वर्ग से इस भरतक्षेत्र में अवतरित होने में जब छह मास शेष थे, तब वैशाली-कुण्डग्राम में रत्नवृष्टि होने लगी।

अनन्त तीर्थंकरों के मंगलविहार से पावन अपना यह भारत देश; ढाई हजार वर्ष पूर्व वैशाली गणतन्त्र का कुण्डपुर (कुण्डग्राम) अति शोभायमान था। उससमय भगवान पार्श्वनाथ तीर्थंकर का शासन चल रहा था और उनके परम उपासक सिद्धार्थ महाराजा वैशाली गणराज्य के अधिपति थे। उनकी महारानी प्रियकारिणी - त्रिशलादेवी सचमुच भरतक्षेत्र की अद्वितीय नारी-रत्न थीं। गौरववन्ती वैशालीकुण्डपुर की शोभा अयोध्या नगरी जैसी थी; उसमें तीर्थंकर के अवतार की पूर्व सूचना से सम्पूर्ण नगरी की शोभा में और भी वृद्धि होगई थी…जिसप्रकार मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की तैयारी होने पर आत्मा का रूप बदल जाता है और आनन्द की ऊर्मियाँ उठने लगती हैं, तदनुसार जिनराज के अवतार की तैयारियों से समस्त वैशाली की शोभा में आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगा, प्रजाजनों में सुख-समृद्धि एवं आनन्द की वृद्धि होने लगी। महाराजा सिद्धार्थ के प्रांगण में प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती थी। नगरजन नगरी की दिव्य शोभा तथा रत्नवृष्टि देखकर विस्मित होने लगे कि अरे ! इस नगरी में कौन ऐसा पुण्यवान पुरुष है कि जिसके गृह-आँगन में प्रतिदिन ऐसे रत्नों की वर्षा होती है ? जब किन्हीं अनुभवी पुरुषों ने बतलाया कि अपनी नगरी में अन्तिम तीर्थंकर अवतरित होने वाले हैं, उसी की तैयारी के ये चिह्न हैं। मात्र अपनी नगरी का ही नहीं; अपितु सारे भरतक्षेत्र का भाग्योदय हो रहा है।

महारानी त्रिशलादेवी में भी अन्तरंग एवं बाह्य में कोई अद्भुत परिवर्तन होने लगे। महान आनन्द की अव्यक्त अनुभूतियाँ उनके अन्तर में होने लगीं। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि के पिछले प्रहर में अति उत्तम मंगल सूचक सोलह स्वप्न देखकर वे हर्षातिरेक से रोमांचित हो गईं और उसीसमय प्रभु महावीर का मंगल आत्मा १६वें स्वर्ग से चयकर प्रियकारिणी-त्रिशला माता के उदर में अवतरित हुआ।

मंगल दिन अति सुखदाता, आये उर त्रिशला माता।
नर-हरि-देव नमें जिनमाता, हम सिर नावत पावत साता॥

आज त्रिशलादेवी के हर्षोल्लास का पार नहीं था और जब राज सभा में सिद्धार्थ महाराजा के श्रीमुख से उन स्वप्नों का महान फल सुना कि चौबीसवें तीर्थंकर का उनके गर्भ में अवतरण हुआ है, तब तो उन्हें किसी अचिन्त्य निधान की प्राप्ति जैसा अपार हर्ष हुआ। सारी नगरी में भी चारों ओर आनन्द छा गया। लोगों के मुँह से ‘धन्य है…धन्य है’ के उद्गार निकल रहे थे और कह रहे थे कि अपनी नगरी में हम बाल-तीर्थंकर को खेलते-बोलते हुए देखेंगे…हम सबका जीवन भी धन्य होगा!’

इन्द्र-इन्द्राणी ने भी वैशाली आकर माता-पिता का सन्मान किया; दिग्कुमारी देवियाँ त्रिशला माता की सेवा करने लगीं। देव तो ठीक, नरक के जीवों ने भी दो घड़ी साता का वेदन किया और उससे तीर्थंकर महिमा जानकर गहरे विचार में मग्न होने से अनेक जीव चैतन्यविभूति को लक्ष्यगत करके सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए। धन्य हैं तीर्थंकर के कल्याणक का प्रभाव और धन्य हैं उनको देखनेवाले!

अहा ! माता के उदर में विद्यमान वह जीव, अपर्याप्त दशा में जहाँ अभी हाथ-पाँव तथा आँख-कान की भी रचना नहीं हुई थी; तथापि मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान का धारी था, सम्यग्दृष्टि था, आत्मानुभूति के वैभवसहित था, अतीन्द्रिय आनन्द का परिणमन हो रहा था; इसलिये वह आत्मा कल्याणकरूप था; उनकी वह गर्भावस्था भी कल्याणकारी थी। उससमय की भी उनकी देहातीत आत्मदशा जो यथार्थ स्वरूप जान ले उसका कल्याण हो जाये; उसे शरीर एवं आत्मा का भेदज्ञान होकर अतीन्द्रिय ज्ञान. अतीन्द्रिय सुख हो जाये - इसका नाम है गर्भकल्याणक !

अरे ! लक्ष में तो लोवहाँ आँख-कान नहीं हैं; तथापि अतीन्द्रिय ज्ञान वर्तता है;
वहाँ शरीर रचना नहीं हुई है; तथापि अतीन्द्रिय सुख वर्तता है;
वहाँ अभी द्रव्यमन की रचना नहीं हुई है; तथापि सम्यग्दर्शन वर्तता है।

इसप्रकार आत्मा के ज्ञान, सुख, सम्यक्त्वादि भाव देहातीत हैं; इसलिये आत्मा स्वयं ही ज्ञान एवं सुखरूप परिणमने के स्वभाववाला है - ऐसा विश्वास होता है।

हे भाई ! तू इसप्रकार भगवान को पहिचान / ऐसा भगवान का जीवन है; इसलिये प्रत्येक प्रसंग में (गर्भ से लेकर मोक्ष तक) भगवान का आत्मा कैसे चैतन्यभावोंरूप वर्त रहा है, उसे तू जान ! मात्र संयोग या पुण्य का वैभव देखकर अटक मत / आत्मिक गुणों द्वारा प्रभु की सच्ची पहिचान करेगा तो तुझे भी अवश्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानादि होंगे और तू भी मोक्ष के मार्ग में आ जाएगा। इसलिये बारम्बार कहते हैं कि-

जो जानता जिनराज को चैतन्यमय शुद्धभाव से।
वह जानता निज आत्म को सम्यक्त्व लेता चाव से॥

जिसप्रकार सम्यग्दर्शन होने से पूर्व उसकी तैयारी में भी जीव को कोई नवीन आत्मिक आह्लाद जागृत होता है और नई भनक आती है, उसीप्रकार वैशाली में प्रभुजन्म से पूर्व चारों ओर नूतन आनन्द का वातावरण छा गया था। देवकुमारियाँ त्रिशला माता की सेवा करती हैं, नित्य नवीन आनन्दकारी चर्चा करती हैं। एकबार माताजी को विचार आया कि आज मैं देवियों से प्रश्न पूछकर उनके तत्त्वज्ञान की परीक्षा करूँ। देवियाँ भी कोई साधारण नहीं थीं, परन्तु जिनभक्त थीं; वे माता की बात सुनकर प्रसन्न हुईं…और मानों माताजी के मुख से फूल झर रहे हों। तद्नुसार एक के पश्चात् एक प्रश्न पूछने लगी…और देवियाँ भी झट-झट उत्तर देने लगीं। तत्त्वरस से भरपूर उस चर्चा के आनन्द का रसास्वादन आप भी कीजिए -

सर्वप्रथम माताजी ने पूछा - ‘जगत में सबसे सुन्दर वस्तु कौन ?’
देवी ने कहा - 'शुद्धात्मतत्त्व’

माता ने पूछा - आत्मा का लक्षण क्या ? देवी ने कहा - चैतन्यभाव

धर्मी का चिह्न क्या ? शान्तभावरूप ज्ञानचेतना !
उत्तम सदाचार क्या ? वीतरागभाव।

पापी कौन ? जो देव-गुरु-धर्म की निन्दा करे वह।
पुण्य-पाप रहित जीव कहाँ जाता है ? मोक्ष में।

वीर कौन ? जो वीतरागता धारण करे वह।
जिन कौन ? जो मोह को जीते वह।
संतोषी कौन ? जो स्व में तृप्त रहे वह।

विवेकी कौन ? जो जिन-आज्ञा का पालन करे वह।
शूरवीर कौन ? जो शत्रु को भी क्षमा करे वह।

मूर्ख कौन ? जो मनुष्य भवा पाकर भी आत्महित न करे वह।
सर्वश्रेष्ठ कौन ? जो सबको जाने वह।
मुमुक्षु कौन ? जो मोक्ष का ही उद्यम करता हो वह।

-ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्नोत्तर हुए और धर्मचर्चा चली। कई बार तो ऐसा होता था कि माताजी प्रश्न पूछे तब देवी को उत्तर न आता हो; किन्तुज्यों ही माताजी के उदर में विराजमान तीर्थंकर का स्मरण करें कि तुरन्त उत्तर आ जाता था। मानों प्रभु स्वयं ही उदर-भवन में बैठे-बैठे सब प्रश्नों के उत्तर दे रहे हों। उदरस्थ आत्मा अवधिज्ञानी है और उनकी सेवा करनेवाली देवियाँ भी अवधिज्ञानी हैं। उनमें से कुछ तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हैं और कुछ प्राप्त करने में तत्पर हैं - ऐसी वे देवियाँ माता से पूछती हैं -

हे माता ! अनुभूति स्वरूप परिणमित आत्मा आपके अन्तर में विराजमान है, तो ऐसी अनुभूति कैसे होती है ? वह समझाइये न !

माता ने कहा - हे देवी ! अनुभूति की महिमा अति गम्भीर है। आत्मा स्वयं ज्ञान की अनुभूति स्वरूप है। उस ज्ञान की अनुभूति में राग की अनुभूति नहीं है। जब ऐसा भेदज्ञान होता है, तब अपूर्व अनुभूति प्रगट होती है।
दूसरी देवी ने पूछा - हे माता ! आत्मा की अनुभूति होने से क्या होता है?

सुनो देवी ! अनुभूति होने पर सम्पूर्ण आत्मा स्वयं अपने में स्थिर हो जाता है; उसमें अनन्त गुणों के चैतन्यरस का ऐसा गम्भीर वेदन होता है कि जिसके महान आनन्द को अनुभवी आत्मा ही जानते हैं; वह वेदन वाणीगम्य नहीं होता।

हे माता ! वाणी में आये बिना उस वेदन की खबर कैसे पड़ती है ?

हे देवी ! अन्तर में अपने स्वसंवेदन से आत्मा को उसका पता चलता है। जैसे यह शरीर दिखाई देता है, वैसे ही अनुभूति में शरीर से भिन्न आत्मा शरीर से भी विशेष स्पष्ट’ दृष्टिगोचर होता है।

हे माता ! आँखों से शरीर दिखाई देता है उसकी अपेक्षा आत्मा के ज्ञान को विशेष स्पष्ट क्यों कहा?

हे देवी! आँख द्वारा जो शरीर का ज्ञान होता है वह तो इन्द्रिय ज्ञान है, परोक्ष है; और आत्मा को जाननेवाला स्वसंवेदन ज्ञान तो अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष है; इसलिये वह अधिक स्पष्ट है।

अनुभूति के काल में तो मति-श्रुत ज्ञान हैं; तथापि उन्हें प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय क्यों कहा?

क्योंकि अनुभूति के समय उपयोग आत्मा में ऐसा लीन हुआ है कि उसमें इन्द्रियों का तथा मन का अवलम्बन छूट गया है, इसलिये उस समय प्रत्यक्षपना है। अहा ! उस काल के अद्भुत निर्विकल्प आनन्द का क्या कहना !

देवियों ने प्रसन्नता से कहा - हे माता ! आपने अनुभूति की अद्भुत बात समझाई, मानों आपके अन्तर से कोई अलौकिक चैतन्यरस झर रहा हो। यह आपके अन्तर में विराजमान तीर्थंकर के आत्मा की अचिन्त्य महिमा है ! उन बाल-तीर्थंकर को गोद में लेकर हम कृतार्थ होंगे।

इसप्रकार धर्मचर्चा द्वारा आनन्दमय उत्तम भावना भाते-भाते सवा नौ मास आनन्दपूर्वक बीत गये और तीर्थंकर के अवतार की धन्य घड़ी आ पहुँची।

वैशाली में महावीर-जन्म की मंगल बधाई !
आज तो बधाई राजा सिद्धारथ दरबार जी…
त्रिशलादेवी कुँवर जायो जग का तारणहार जी…॥
वैशाली में नौबत बाजे देव करें जयकार जी…।
भव्यों के इस भाग्योदय से हर्षित सब नरनार जी…॥
आतमा को धन्य करने, समकित को उज्ज्वल करने।
बाल-तीर्थंकर दर्शन करने, चलो जायें वैशाली में।

(इस पुस्तक के लेखक ने वीर सं. 2502 की चैत्र शुक्ला 13 को मंगलदिवस वीर जन्मधाम वैशाली में आनन्द पूर्वक मनाया था; इस पुराण का कुछ भाग वहीं रहकर लिखा है और वीरप्रभु की रथयात्रा के समय इसकी पाण्डुलिपि को रथ में विराजमान करके उसकी पूजा की है।)

चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के मंगल-दिन वैशाली-कुण्डग्राम में भगवान महावीर का अवतार हुआ। उस काल (ईस्वी सन् पूर्व 568 वर्ष, तारीख 28 मार्च सोमवार को) समस्त ग्रह सर्वोच्च स्थान में थे। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार ऐसा उत्तमयोग 10 कोड़ाकोड़ी सागरोपम में 24 बार ही आता है और वीरप्रभु की यह जन्मकुण्डली उनका बालब्रह्मचारीपना सूचित करती है।

तीर्थंकर का अवतार होते ही तीनों लोक आश्चर्यकारी आनन्द से खलबला उठे। इन्द्र ऐरावत हाथी लेकर जन्मोत्सव मनाने आ पहुँचा। एक देवपर्याय में असंख्य तीर्थंकरों का जन्माभिषेक करनेवाले इन्द्र पुन: पुन: जन्माभिषेक के अवसर पर किसी नूतन आह्लाद का अनुभव करते हैं। भक्ति भावना से प्रेरित होकर वह सौधर्म इन्द्र स्वयं एक होने पर भी अनेक रूप धारण करके जन्मोत्सव मनाने हेतु तत्पर हुए; जिसप्रकार मोक्ष का साधक आत्मा स्वयं ‘एक’ होने पर भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अनेकरूपों को धारण करता हुआ मोक्ष साधने को तत्पर होता है।

शचि इन्द्राणी के भी हर्ष का पार नहीं है। जिन्हें बाल-तीर्थंकर को गोद में लेने की प्रबल उत्कण्ठा है - ऐसी वे इन्द्राणी कुण्डपुरी में प्रवेश करके तुरन्त ‘जिनमन्दिर’ में गई। (सिद्धार्थ राजा के ‘नंद्यावर्त’ नामक राजप्रसाद में ‘द्रव्यजिन’ का अवतार हुआ और वे ‘द्रव्यजिन’ वहाँ विराजमान होने से पुराणकारों ने उस राजमहल को भी जिन-मन्दिर’ कहा है।) वहाँ प्रवेश करके बाल-तीर्थंकर का मुख देखते ही आनन्द से उसका अन्तर नाच उठा - ‘अहा ! देवी पर्याय में सन्तान नहीं होती; परन्तु मुझे तो इन तीर्थंकर समान पुत्र को गोद में लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।’ इसप्रकार परम हर्षपूर्वक उन बाल-तीर्थंकर के स्पर्श से वे इन्द्राणी चैतन्य की अद्भुतता का अनुभव करने लगी…अहा ! प्रभु के स्पर्श से मैं धन्य हो गई।

अब मैं स्त्री पर्याय का छेद करके मोक्ष प्राप्त करूँगी…ऐसे आत्मिक आह्लाद सहित उन बाल प्रभु को इन्द्र के हाथ में दिया। इन्द्र भी प्रभु का रूप देखकर ऐसे आश्चर्य चकित हुए कि एक साथ हजार नेत्र बनाकर उस रूप को निहारने लगे। जिसप्रकार मोक्षाभिलाषी जीव अतीन्द्रिय ज्ञान की सर्व किरणों द्वारा आत्मा के अलौकिक रूप का निरीक्षण करता है और महा आनन्दित होता है, उसीप्रकार हरि हजार नेत्रों द्वारा प्रभु के रूप को देखकर अति प्रसन्न हुए। उससमय होनेवाली दिव्य पुष्पवृष्टि से ऐसा लग रहा था, मानों आकाश में सुन्दर उद्यान खिला हो !

…परन्तु अरे ! उस दिव्य पुष्पोद्यान की अपेक्षा प्रभु के आत्मा में जिन चैतन्य के अद्भुत गुणों का उद्यान खिल रहा था, उसे तो धर्मात्मा ही देख सकते थे और अगन्धभाव’ से उस चैतन्यउद्यान की अपूर्व सुगन्ध लेते थे।

इसप्रकार अद्भुत जिनमहिमा देखकर तथा चैतन्य की अचिन्त्यता को लक्ष्यगत करके अनेक जीव सम्यक्त्व को प्राप्त हुए; सम्यक्त्व के अनुपम प्रकाश से उनका आत्मा जगमगा उठा। प्रभु का जन्म उनके लिये सचमुच कल्याणकारी हुआ। अहो ! तीर्थंकरों का अचिन्त्य प्रभाव !

बाल-तीर्थंकर का रूप निहारने के लिये हजार नेत्र खोलकर इन्द्र ऐसा बतलाना चाहता था कि अरे जीवो ! मेरे यह हजार नेत्र जिनका रूप देखने के लिये कम लग रहे हैं, उन साधक के अन्तर का तो क्या कहना ? ऐसे आत्मसाधक आत्मा की पहिचान बाह्य नेत्रों द्वारा नहीं; किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा ही होती है। इसलिये जन्मकल्याणक में तुम प्रभु को मात्र इन्द्रिय ज्ञान द्वारा न देखकर उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा पहिचानना। उससे प्रभु के कल्याणक के साथ तुम्हारा भी कल्याण होगा, तुम्हें सम्यग्दर्शनादि कल्याणकारी भाव प्रगट होंगे।

अति शोभायमान शाश्वत मेरुपर्वत जिनप्रभु के जन्माभिषेक से अत्यधिक सुशोभित हो उठा अथवा ऐसे कहो कि जिनराज ने आकर मेरु की शोभा का हरण कर लिया; क्योंकि लोग तो मेरु की दिव्य शोभा को देखना छोड़कर प्रभु के मुखारविन्द को निहार रहे थे। प्रभु में लगे हुए उनके चित्त को दूसरा कोई आकर्षित नहीं कर सकता था। मेरु पर ‘स्थापनारूप जिन’ तो सदा-शाश्वत विराजते हैं, तदुपरान्त आज तो ‘द्रव्यजिन’ तथा अशंत: ‘भावजिन’ वहाँ पधारे थे; फिर उसके गौरव की क्या बात?

अहा ! वह तो जगत का एक पूज्यनीय तीर्थ बन गया था। वहाँ ध्यान धारण कर अनेक मुनिवर निर्वाण प्राप्त करते हैं, इसलिये वह सिद्धिधाम (निर्वाण तीर्थ) भी है। अहा ! तीर्थ स्वरूप आत्मा का जहाँ-जहाँ स्पर्श होता है वह सब तीर्थ बन जाता है। सम्यग्ज्ञान की यह महत्ता है कि वह द्रव्य-क्षेत्र-काल से ‘भाव’ मंगल को जानकर उसके साथ आत्मा की सन्धि कर लेता है। उस जन्माभिषेक के समय सर्वत्र आनन्द छा गया… “धन्य घड़ी धन्यकाल शुभ देखो, हरि अभिषेक करे प्रभुजी को”

देवगण भक्ति से नाच उठे और मुनिवर चैतन्य की अगाध महिमा का चिन्तन करते-करते ध्यानमग्न हुए। निर्विकल्प जिनभक्ति तथा सविकल्प जिनभक्ति - दोनों का वहाँ संगम हुआ। वाह प्रभो ! अभी तो आप बाल-तीर्थंकर हैं, द्रव्यतीर्थंकर हैं; तथापि ऐसी अगाध महिमा ! तब फिर जब आप भविष्य में इसी भव में सर्वज्ञ होकर साक्षात् तीर्थंकर होंगे और इष्ट-उपदेश द्वारा जगत में रत्नत्रय-तीर्थ का प्रवर्तन करेंगे, उस काल की महिमा का क्या कहना ? घटे ‘द्रव्य-जगदीश’ अवतार ऐसा, कहो ‘भाव-जगदीश’ अवतार कैसा?

प्रभो ! आपकी महिमा को जो जानेगा वह अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। हे देव ! आपके जन्मोत्सव में कहीं राग का ही उल्लास नहीं था; राग से पार ऐसे वीतरागरस की एकधारा भी वहाँ चल रही थी। जैनदर्शन की इस अद्भुतता को ज्ञानी ही जानते हैं। जब सारी दुनिया जन्मोत्सव के हर्षातिरेक में पागल हो रही थी तब हमारे प्रिय बालप्रभु तो अपनी ज्ञानचेतना की शान्ति में निमग्न होकर बैठे थे। वाह रे वाह ! वीतरागमार्ग में हमारे भगवान तो इसीप्रकार शोभा देते हैं।

पार्श्वनाथ प्रभु के मोक्षगमन पश्चात् 178 वर्ष में महावीर प्रभु का जन्म हुआ। उनके शरीर में 1008 उत्तम लक्षण थे; उनके बाँये पैर में केसरी सिंह (हरि) देखकर हरि ने, हरि का, हरि लक्षण प्रसिद्ध किया। (1. हरि = इन्द्र; 2. हरि = भगवान; 3. हरि = सिंह। एक देव, एक मनुष्य, एक तिर्यंच) उन सिंहलक्षण युक्त प्रभु को ‘वीर’ ऐसे मंगल नाम से सम्बोधित करके इन्द्र ने स्तुति की। “अरे, अनन्त गुणसम्पन्न भगवान ‘वीर’ ऐसे एक ही शब्द से वाच्य कैसे होंगे?" हाँ, जैन शासन के अनेकान्त के बल से वह सम्भव हो सका; क्योंकि एक गुण द्वारा अभेदरूप से अनन्त गुण सम्पन्न - ऐसे पूर्ण गुणी को प्रत्यक्ष किया जा सकता है - ऐसा जैन-शासन के अनेकान्त ज्ञान का ही विशिष्ट सामर्थ्य है।

मेरु पर जन्माभिषेक के पश्चात् प्रभु की शोभायात्रा लेकर इन्द्र वैशालीकुण्डपुर लौटे और माता-पिता को उनका पुत्र सौंपते हुए कहा - हे जगत्पूज्य माताजी ! हे महाराज ! त्रिलोकपूज्य पुत्र को पाकर आप धन्य हुए हैं; वे मोह को जीतने में ‘वीर’ हैं और धर्मतीर्थ का उद्योत करनेवाले हैं - इसप्रकार स्तुति करके इन्द्र तो माता-पिता का सन्मान कर रहे थे; परन्तु माता त्रिशलादेवी का ध्यान उसमें नहीं था; वे तो बस पुत्र को देखने में तल्लीन थीं। जिसप्रकार स्वानुभूति में प्रथमबार ही चैतन्य का अतीन्द्रियरूप देखकर मुमुक्षु जीव का चित्त अपूर्व आनन्द के वेदन में लग जाता है…उसीप्रकार पुत्र का अद्भुतरूप देखकर त्रिशला माता का चित्त अनुपम आनन्द से तृप्त हो गया। इन्द्र-इन्द्राणी ने ताण्डव नृत्य करके अपना हर्षोल्लास व्यक्त किया। इसप्रकार प्रभु के जन्म कल्याणक का भव्य उत्सव करके देवगण अपने स्वर्गलोक में चले गये; किन्तु कितने ही देव छोटे बच्चे का रूप धारण करके वीर कुँवर के साथ वहीं क्रीड़ा करने हेतु रुक गये। अहा ! तीर्थंकर जैसे बालमित्र के साथ रहना तथा खेलना किसे अच्छा नहीं लगेगा?..वाह ! उसमें तो बड़ा ही आनन्द आयेगा। उन देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए वीर कुँवर को देखकर उनमें देव कौन है और मनुष्य कौन ? उसका पता भी नहीं चलता था; क्योंकि सबका रूप एक जैसा था; परन्तु जब वे देवकुमार तीर्थंकर देव का चरण स्पर्श करते तब समझ में आता था कि देव कौन है, वे देव कहते थे कि हे प्रभो ! हम देव नहीं हैं; वास्तव में तो देव आप ही हैं। इसप्रकार गुणों की विशेषता के कारण वीर कुँवर सबसे अलग पहिचाने जाते थे।

वीर कुँवर का जन्म होने से वैशाली सर्वप्रकार से वृद्धिंगत होने लगी; उसका वैभव भी बढ़ने लगा और आत्म गुण भी। इसलिये माता-पिता एवं प्रजाजनों ने उन वीर कुँवर को वर्द्धमान नाम से सम्बोधन किया।

"पणमामि वड्ढ़माणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं” (प्रवचनसार)

अहा ! ‘वर्द्धमान’ ऐसे सुन्दर नाम से जो वाच्य हैं, जिन प्रभु के गुणों की पहिचान से आत्मा के गुण वृद्धिंगत होते हैं - ऐसे धर्मवृद्धिकर श्री वर्धमान जिन को मैं वन्दन करता हूँ। चैतन्यगुणों में वृद्धिंगत उन महात्मा को देवलोक से आनेवाले दिव्यवैभव भी आश्चर्यचकित नहीं करते थे। अहा ! क्या चैतन्यगुणों से अधिक सुन्दर कोई ऐसी वस्तु इस जगत में है, जो धर्मी के चित्त को आश्चर्य में डाल सके।

वीर-वर्द्धमानकुमार दो वर्ष के बालक होने पर भी तीन ज्ञान से गम्भीर हैं और आराधना सहित श्रेष्ठ जीवन जीते हैं। उन्हें देख-देखकर भव्यजीवों का हृदय शान्त होता है।

उनकी बाल क्रीड़ाएँ निर्दोष हैं। अवधिज्ञानी - आत्मज्ञानी वे महात्मा ऐसा विशिष्ट क्षयोपशम लेकर आये हैं कि किसी शिक्षक के पास कोई विद्या पढ़ना शेष नहीं रहा; जगत को चैतन्यविद्या पढ़ानेवाले वे स्वयंबुद्ध भगवान स्वयं सर्व विद्याओं में पारंगत हैं। अहा ! ऐसे बालप्रभु जिनके गृह में सदा क्रीड़ा करते हों और जिनके हृदय में विराजते हों, उनके महान सौभाग्य का क्या कहना !

देवियाँ उन्हें आनन्द से खिलाती थीं, माता उन्हें झूले में झुलाती थीं, देवकुमार हाथी के बच्चे का रूप धारण करके वीर कुँवर को सूंड पर बैठाकर झुलाते थे…तथापि वीर कुँवर डरते नहीं थे आनन्द से झूलते थे।

उनके शरीर की ऊँचाई 1 धनुष (छह फुट) थी; रंग पीला सुवर्ण जैसा था; 72 वर्ष की आयु थी और तीनों लोक में सबसे सुन्दर अद्भुत रूप था। अति मनोज्ञ उनके शरीर में जन्म से ही दस अतिशय थे - वह शरीर मलमूत्र रहित, प्रस्वेद रहित था, रक्त का रंग श्वेत दूध समान था, वज्र संहनन था, सर्वांग सुन्दर उसकी आकृति थी, सुगन्धित श्वास था, अद्भुत रूप, अतिशयबल एवं मधुरवाणी थी। उस शरीर में 1008 उत्तम चिन्ह थे।

इसप्रकार बाल-तीर्थंकर के शरीर में जन्म से ही पुण्यजनित दस अतिशय थे। वह अतिशयता कर्मजनित शरीराश्रित थी, उसके द्वारा कहीं भगवान की सच्ची पहिचान नहीं होती; हाँ ! भगवान के आत्मा में जन्म से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप चैतन्य भावों की जो अतिशयता थी, वह धर्मजनित और आत्माश्रित थी, वही उनकी सच्ची अतिशयता थी और उन लक्षणों द्वारा भगवान को सच्चे स्वरूप में पहचाना जा सकता है। शरीर के गुणों की दिव्यता वह कहीं वास्तव में महावीर नहीं है, वह तो महावीर के आत्मा के साथ संयोगरूपं मात्र से लगा हुआ सुन्दर पुद्गलों का पिण्ड है, महावीर के सान्निध्य के कारण वह भी उपचार से पूज्यरूप बना है। सच्चे महावीर तो अतीन्द्रिय, रूपातीत, अशरीरी, चैतन्यगुण-सम्पन्न हैं। ऐसे भाव से जो महावीर को जानता है वह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करके आनन्दित होता है।

तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वप्रभु का निर्वाण होने के 250 वर्ष पश्चात् भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया अर्थात् पार्श्वप्रभु के निर्वाण के 178 वर्ष पश्चात् वीरप्रभु का अवतार हुआ। उनकी आयु 71 वर्ष 6 माह 16 दिन थी। (बालप्रभु वीरकुँवर को रत्नों के पालने में झुलाते हुए माता त्रिशला देवी तथा छप्पन कुमारी देवियाँ कैसे सुन्दर मंगल-गीत गाती थीं ! उनकी वानगी भगवान नेमिनाथ चरित्र में देखिये।)

देवकुमारों तथा राजकुमारों की तत्त्वचर्चा

एकबार चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन वीरकुँवर का जन्मदिन मनाने हेतु देवकुमार और राजकुमार कुण्डग्राम के राजोद्यान में एकत्रित हुए थे। वीरकुँवर के आने में कुछ देर होने से वे तत्त्वचर्चा करने लगे। उनकी चर्चा कितनी सुन्दर थी वह हम देखें :

देवकुमार - भाइयो ! आज वीरकुँवर का जन्मदिन है। वे राजभवन से यहाँ पधारें तब तक हम थोड़ी धर्मचर्चा करें।
राजकुमार बोले- वाह ! यह तो बड़ी अच्छी बात है ! धर्म के महान दिवस पर तो धर्म चर्चा ही शोभा देती है।
देवकुमार - ठीक है; आज हम ‘सर्वज्ञ’ के स्वरूप की चर्चा करेंगे। बोलो राजकुमार ! हम किस धर्म को मानते हैं ? और हमारे इष्टदेव कौन हैं? राजकुमार - हम जैनधर्म को मानते हैं…उसमें आत्मा के शुद्धभाव द्वारा मोह को जीतते हैं और भगवान सर्वज्ञ’ अपने इष्टदेव हैं।

देवकुमार - ‘सर्वज्ञ’ कौन हैं ?
राजकुमार - ‘सर्वज्ञ नाम कोई व्यक्तिवाचक नहीं है, अपितु मोह का नाश करके ज्ञानस्वभावी आत्मा की सम्पूर्ण ज्ञान-शक्ति जिनके विकसित हो गई है, वे सर्वज्ञ हैं; - इसप्रकार सर्वज्ञ’ शब्द गुण वाचक है।’

देवकुमार - सर्वज्ञ कब हुए ?
राजकुमार - सर्वज्ञ अनादि से होते आ रहे हैं; वर्तमान में होते हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे।
देवकुमार - सर्वज्ञ कितने हैं ? उनके कितने प्रकार हैं ?
राजकुमार - सर्वज्ञता प्राप्त जीव अनन्त हैं; उन सबकी सर्वज्ञता एकसमान है, उसमें कोई अन्तर नहीं है; किन्तु अन्य प्रकार से उनके ‘सिद्ध’ और ‘अरिहन्त’ ऐसे दो भेद हैं।
देवकुमार - वे सर्वज्ञ भगवन्त कहाँ रहते हैं ?
राजकुमार - सर्वज्ञ में जो सिद्ध हैं, वे लोकाग्र में सिद्धलोक में विराजते हैं; वे अनन्त हैं, उनके अतिरिक्त कितने ही सर्वज्ञ अरिहन्त’ पद पर विराजमान हैं, वे इस मध्यलोक में मनुष्यरूप में विचरते हैं और ऐसे लाखों ‘अरिहन्त’ हैं।

देवकुमार - ऐसे किन्हीं सर्वज्ञ का नाम बतलाएँगे ?
राजकुमार - हाँ, इस समय महाविदेहक्षेत्र में श्री सीमन्धर भगवान आदि सर्वज्ञरूप से विचर रहे हैं; वे अरिहन्त-सर्वज्ञ’ हैं; और पार्श्वनाथ तक हुए भगवन्त वर्तमान में सिद्धलोक में विराजते हैं वे 'सिद्ध-सर्वज्ञ हैं। अपने महावीरकुमार भी ४२वें वर्ष में सर्वज्ञ होंगे।

देवकुमार - सर्वज्ञ क्या करते हैं ?
राजकुमार - सर्वज्ञ अर्थात् सबके ज्ञाता; सर्वज्ञ भगवान अपने ज्ञान सामर्थ्य से सब जानते हैं और उस ज्ञान के साथ वे अपने पूर्ण आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं। वे विश्व के ज्ञाता हैं, किन्तु कर्ता नहीं हैं।

देवकुमार - ऐसे सर्वज्ञ को ही देव किसलिये मानना ?
राजकुमार - क्योंकि अपने को अतीन्द्रिय पूर्ण सुख और पूर्णज्ञान इष्ट है, प्रिय है; इसलिये जिन्हें ऐसा सुख एवं परिपूर्ण ज्ञान प्रगट हुआ है, उन्हीं को हा अपने इष्टदेव के रूप में मानेंगे।

देवकुमार - सर्वज्ञ को मानने से हमें क्या लाभ ?
राजकुमार - सर्वज्ञ को जानने से हमें आत्मा के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होती है और अपने आत्मा के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होने के कारण पर में से ज्ञान या सुख लेने की पराधीन मान्यता दूर हो जाती है; बाह्यविषयों में सुख की मिथ्या-कल्पना छूटकर आत्मस्वभाव में जो अतीन्द्रिय ज्ञान एवं सुख है उसकी श्रद्धा प्रगट होती है। तथा सर्वज्ञता के साथ राग-द्वेष का कोई अंश भी नहीं रह सकता; इसलिये सर्वज्ञ को जानने से राग-द्वेष से भिन्न अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप की पहिचान होती है। इसप्रकार सर्वज्ञ को जानने से अपने आत्मा में स्वाश्रयपूर्वक सम्यग्ज्ञान एवं अतीन्द्रिय सुख होता है अर्थात् धर्म का प्रारम्भ होता है - यह अपूर्व लाभ है।

देवकुमार - क्या सर्वज्ञ को माने बिना धर्म नहीं हो सकता ?
राजकुमार - नहीं, सर्वज्ञ को माने बिना धर्म कदापि नहीं होता।

देवकुमार - सर्वज्ञ को माने बिना धर्म क्यों नहीं होता ?
राजकुमार - क्योंकि सर्वज्ञता ही आत्मा की पूर्ण प्रगट हुई परमात्मशक्ति है; आत्मा की पूर्ण प्रकट हुई शक्ति को जो नहीं मानेगा वह अपने आत्मा की परमात्मशक्ति को भी कहाँ से जानेगा? और जब तक अपने आत्मा की पूर्ण शक्ति को नहीं जानेगा, तबतक पर में से ज्ञान या सुख प्राप्त करने की पराश्रित मिथ्याबुद्धि बनी ही रहती है; जहाँ पराश्रित बुद्धि हो अर्थात् बाह्यविषयों में सुखबुद्धि हो वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। इसप्रकार सर्वज्ञ को माने बिना कदापि धर्म नहीं हो सकता।

देवकुमार - सर्वज्ञ को माने बिना आत्मा की पूर्ण शक्ति को मान लें तो?
राजकुमार - यदि आत्मा की पूर्ण शक्ति को यथार्थरूप से मानें तो उसमें सर्वज्ञ की प्रतीति भी अवश्य आ ही जाती है। यदि सर्वज्ञ की प्रतीति न हो तो आत्मा की पूर्ण शक्ति की प्रतीति भी नहीं होती। अपने को पूर्ण सुख चाहिये न ? तो जहाँ पूर्णज्ञान हो वहीं पूर्ण सुख होता है; इसलिये पूर्णज्ञान कैसा होता है उसका निर्णय करना चाहिये। पूर्णज्ञान के निर्णय में ही सर्वज्ञ की मान्यता आ गई तथा ज्ञान एवं राग का भेदज्ञान भी हो गया; क्योंकि पूर्णज्ञान में राग का सर्वथा अभाव है। भले ही सर्वज्ञ अपने सामने उपस्थित न हों; परन्तु अपने ज्ञान में तो उनका निर्णय हो ही जाना चाहिये। तभी आत्मा की पूर्णशक्ति का विश्वास आयेगा और धर्म होगा।

देवकुमार - सर्वज्ञ कौन हो सकता है ?
राजकुमार - प्रथम जो सर्वज्ञ को तथा सर्वज्ञ समान अपने आत्मा की परमात्मशक्ति को जाने, वह जीव अपनी सर्वज्ञत्व शक्ति में से सर्वज्ञता की व्यक्ति करके सर्वज्ञ होता है। इसलिये जो सर्वज्ञ स्वभाव को जाने, वही आत्मज्ञ होता है और जो आत्मज्ञ हो, वह अवश्य ही सर्वज्ञ होता है। इसप्रकार सर्वज्ञता जैनधर्म का मूल है।

इसलिये हे मुमुक्षु भव्यजीवो! यदि तुम धर्मार्थ सर्वज्ञ का निर्णय करना चाहते हो तो सर्वज्ञता के प्रति जिनकी परिणति उल्लसित हो रही है, जिनकी वाणी एवं मुद्रा सर्वज्ञता की नि:शंक घोषणा कर रही है तथा राग से भिन्न ज्ञानचेतना के बल से जो सर्वज्ञ होकर जिनशासन के धर्मचक्र का प्रवर्तन करनेवाले हैं - ऐसे श्री वीर प्रभु को चैतन्यभाव से जानो।

जो जानता महावीर को चेतनमयी शुद्धभाव से।
वह जानता निज आत्म को सम्यक्त्व लेता चाव से॥

प्रभु की ज्ञानचेतना को जानने से रागरहित सर्वज्ञस्वभावी आत्मा तुम्हारे स्वसंवेदन में आ जायेगा और सम्यक्त्व सहित सर्वज्ञता का सर्व समाधान हो जायेगा; तुम्हारा परिणमन राग से भिन्न ज्ञानचेतनारूप हो जायेगा और तुम स्वयं अल्पकाल में अल्पज्ञ मिटकर सर्व काल के लिये सर्वज्ञ हो जाओगे।

इसप्रकार देवकुमारों तथा राजकुमारों के बीच तत्त्वचर्चा चल रही थी, उससमय राजभवन में (चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को) क्या हो रहा था - वह हम देखें।

वर्द्धमानकुमार ने प्रात:काल सिद्धों का स्मरण करके आत्मचिन्तन किया। फिर माताजी के पास आये। त्रिशला माता ने बड़े उत्साहपूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके प्रिय पुत्र को तिलक किया और बलैयाँ लेकर मंगल आशीर्वाद दिया। माता का आशीष लेकर वीरकुमार प्रसन्न हुए और उनसे आनन्दपूर्वक चर्चा करने लगे। अहा ! माताजी के साथ वीरं कुँवर कैसी आनन्दप्रद चर्चा करते हैं, वह सुनने के लिये आइए हम राजभवन में चलें…!

राजभवन में त्रिशला माता और वीरकुमार की मधुर वार्ता

वाह ! देखो, यह राजा सिद्धार्थ का राजभवन कितना भव्य एवं विशाल है, इसका शृंगार भी कितने अद्भुत ढंग से किया गया है ! आज चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को वीरप्रभु का जन्मदिन होने से राजभवन के प्रांगण में हजारों प्रजाजन वीर कुँवर के दर्शनार्थ एकत्रित हुए हैं; आज वे पाँचवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। राजभवन के भीतर उस कक्ष की शोभा तो स्वर्ग की इन्द्रसभा को भी भुला दे - ऐसी है; परन्तु अपना लक्ष्य वहाँ नहीं जाता, अपनी दृष्टि तो सीधी महावीर कुँवर पर केन्द्रित है। अहा ! वे कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? त्रिशला माता अपने इकलौते पुत्र को कितना लाड़ कर रही हैं और कुँवर भी माताजी से आनन्दपूर्वक चर्चा कर रहे हैं। चलो, वह हम भी सुनें -

वीर कुँवर ने पूछा- हे माता ! जिन्हें भव नहीं है और जो मोक्ष को भी प्राप्त नहीं हुए, वे कौन हैं?
माता ने कहा - (हँसकर सिर पर हाथ फेरते हुए) ‘वह तो मेरा प्यारा पुत्र है।’ फिर (गोद में लेकर चुम्बन करते हुए) कहा-बेटा ! वह तो तू ही है कि जिसे अब भव भी नहीं हैं और जिसने अभी मोक्ष प्राप्त भी नहीं किया है।

वीर कुँवर कहते हैं - हे माता ! शुद्धात्मतत्त्व की महिमा कैसी अगाध है, वह तुम जानती हो ?
माता - हाँ बेटा ! जब से तू मेरे अन्तर में आया तब से शुद्धात्मतत्त्व की महिमा मैंने जान ली है।

वीर कुँवर - ‘तुमने आत्मा की कैसी महिमा जानी है ? वह मुझे बतलाओ न।’
माता- बेटा ! जब से यहाँ रत्नवृष्टि प्ररम्भ हुई, मुझे 16 स्वप्न दिखाई दिये और मैंने उन स्वप्नों का उत्तम फल जाना, तब से मुझे ऐसा लगा कि अहा! जिसके पुण्य का प्रभाव इतना आश्चर्यकारी है उस आत्मा की पवित्रता का क्या कहना? ऐसा आराधक आत्मा मेरे उदर में विराज रहा है - ऐसी अद्भुत महिमा से आत्मा के आराधक भावों में विशुद्धता वृद्धिंगत हुई और किसी अचिन्त्य आनन्दपूर्वक मुझे शुद्धात्मतत्त्व का भास हुआ। बेटा ! यह सब तेरा ही प्रताप है।

वीर कुँवर - हे माता! तुम्हें तीर्थंकर की माता बनने का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ, तुम जगत की माता कहलाई। चैतन्य की अद्भुत महिमा को जानने वाली हे माता ! तुम भी अवश्य मोक्षगामी हो।
माता - बेटा वर्द्धमान ! तेरी बात सत्य है। स्वर्ग से तेरा आगमन हुआ तभी से अन्तर एवं बाह्यवैभव वृद्धिंगत होने लगा है; मेरे अन्तर में आनन्द का अपूर्व स्फुरण होने लगा है। तेरे आत्मा का स्पर्श होते ही मेरे आराधक भावों में विशेष वृद्धि होने लगी। अब मैं भी एक भव पश्चात् तेरी भाँति मोक्ष की साधना करूँगी।

वीर कुँवर- धन्य हो माता ! मेरी माता को तो ऐसी ही शोभित होना चाहिये, माता ! तुम्हारी बात सुनकर मुझे आनन्द होता है। मैं इसी भव में मोक्ष को साधने हेतु अवतरित हुआ हूँ तो मेरी माता भी ऐसी ही होगी न !
माता- बेटा ! तू तो समस्त जगत को मोक्षमार्ग दर्शानेवाला है; तेरे प्रताप से तो जगत के भव्यजीव आत्मज्ञान करेंगे और मोक्ष को साधेगे…तो मैं तेरी माता क्यों बाकी रहूँ? मैं भी अवश्य मोक्षमार्ग में आऊँगी। बेटा तू भले ही सारे जगत का नाथ है; परन्तु मेरा तो पुत्र ही है ! तुझे आशीर्वाद देने का मुझे अधिकार है।

पुत्र - वाह, माता ! तुम्हारा स्नेह अपार है…माता के रूप में तुम पूज्य हो…तुम्हारा वात्सल्य जगत में अजोड़ है।
माता ! मेरी मोक्षसाधिका धन्य-धन्य है तुझको…
तव स्नेह भरी मीठी आशिष प्यारी लागे है मुझको…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता- बेटा ! तेरी अद्भुत महिमा सम्यक् हीरे जैसी है…
तेरा दर्शन करके भविजन मोह के बन्धन तोड़े हैं…
बेटा ! दर्शन तेरा रे…जगत को मंगलकारक है…

पुत्र - माता ! तेरी मीठी वाणी से तो फूल हि फूल बरसते हैं…
तेरे हिरदय हेतु फव्वारे झरझर-झरझर झरते हैं…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता- तेरी वाणी सुनकर भविजन मोक्षमार्ग में दौड़ें…
चेतन रस को पीकर वे तो राजपाट सब छोड़ें…
बेटा जन्म तुम्हारा रे…जगत को मंगलकारक है…

पुत्र - माता मुझको जगे भावना कब मैं बनूँ वैरागी…
रागमयी बन्धन सब तोडूं बनूँ परिग्रह त्यागी…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता- बेटा ! तू तो पाँच वर्ष का पर गम्भीर बहुत है…
गृहवासी तू तदपि उदासी दशा मोह विरहित है…
बेटा ! जन्म तुम्हारा रे…जगत को मंगलकारक है…

पुत्र - माता ! तू तो अन्तिम माता फिर नहिं होगी माता…
रत्नत्रय से केवल मिलता जन्म मरण भग जाता…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता - बेटा ! तू तो जग में उत्तम जग का त्रास मिटाता… दि
व्यध्वनि में दे संदेशा मुक्ति मार्ग प्रगटाता…
बेटा ! धर्म तुम्हारा रे…जगत को मंगलकारक है…

पुत्र - भरतक्षेत्र में भव्यों के हित मुक्ति मार्ग प्रगटा है…
और भव्य स्वयं ही चलकर उस पर आय डटा है…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता - वर्द्धमान ! तू सच्चा बेटा धर्म वृद्धि का कर्ता…
महावीर भी सच्चा तू है मोहमल्ल का जेत्ता…
बेटा ! धर्म तुम्हारा रे…जगत को मंगलकारक है…

पुत्र - माता ! मैं निजधर्म बढ़ाऊँ परमातम पद पाऊँ…
जीव सभी जिनधर्म को पायें यही भावना भाऊँ
माता ! दर्शन तेरा रे…नगर को आनन्ददायक है…

माता - बेटा ! तेरे ही प्रताप से जग में धर्म बढ़ेगा…
जो तेरा अनुचर बन जाये मोक्षपुरी पहुँचेगा…
बेटा ! धर्म तुम्हारा रे…जगत को आनन्ददायक है…

पुत्र - माता ! चेतन की अनुभूति अतिशय मुझको न्यारी…
अनुभूति तें आनन्द उछले उसकी जाति न्यारी है…
माता ! दर्शन तेरा रे…जगत को आनन्ददायक है…

माता - बेटा ! तू तो स्वानुभूति की मस्ती में नित झूमे…
रत्नत्रय के लेता झोंके प्यारे-प्यारे हिय में…
बेटा ! जन्म तुम्हारा रे…जगत को आनन्ददायक है…

अहा ! त्रिशला माता और बाल-तीर्थंकर वर्द्धमान कुँवर की यह चर्चा कितनी आनन्दकारी है !

माता को आनन्दित करके वीरकुमार बोले- माँ ! मेरे मित्र बाहर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनके पास जाता हूँ। माँ ने कहा - अवश्य जाओ बेटा! सबको आनन्द देने के लिये तो तुम्हारा अवतार है।

माताजी से आज्ञा लेकर वीरकुमार राजोद्यान में आये; उन्हें देखते ही देवकुमार तथा राजकुमार हर्षपूर्वक जय-जयकार करने लगे और अनेक प्रकार से उनका सन्मान किया। वर्द्धमानकुमार ने भी प्रसन्न दृष्टि से सबकी ओर देखा और माताजी के साथ हुई आनन्दकारी चर्चा कह सुनायी। वह सुनकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई|

एक राजकुमार बोले - अहा ! तीर्थंकर के मित्र होने से अपने को उनके साथ रहने तथा खेलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तो हम सब उनके साथ मोक्ष की साधना भी अवश्य करेंगे…वे दीक्षा ग्रहण करेंगे तब उनके साथ हम सब भी दीक्षा लेंगे। यह सुनकर देवकुमारों के मुख पर उदासी छा गई। तुम क्यों उदास हो गये मित्र ?’ ऐसा पूछने पर…।

देवकुमारों ने कहा - हे मित्रो ! तुम तो मनुष्य पर्याय में हो, इसलिये प्रभु के साथ दीक्षा ले सकोगे; परन्तु हम देवपर्याय में होने के कारण प्रभु के साथ दीक्षा नहीं ले सकते, इस विचार से हमें खेद होता है।

महावीर बोले - बन्धु देव ! सम्यग्दर्शन द्वारा देवपर्याय में भी चैतन्य की आराधना चलती रहती है और ऐसे आराधक जीव मोक्ष के मार्ग में ही चल रहे हैं; जीव को मोक्षमार्ग की प्राप्ति वह अपूर्व महान लाभ है। मोक्षमार्ग में लगा हुआ जीव अल्पकाल में मोक्ष को साध लेगा इसमें संशय नहीं है।

महावीर की ऐसी गम्भीर वाणी सुनकर सब को हर्ष हुआ और फिर बाल तीर्थंकर के साथ सम्यक्त्व सम्बन्धी बहुत चर्चा की। अहा! छोटे-से द्रव्य-तीर्थंकर के श्रीमुख से वीतरागी मोक्षमार्ग की सुन्दर बातें सुनकर उन कुमारों को जो हार्दिक प्रसन्नता हुई, उसका क्या कहना ? ढाई हजार वर्ष पूर्व का यह प्रसंग आज भी हमें उतना ही आनन्द देता है, तो उस प्रसंग को प्रत्यक्ष देखनेवाले जीवों के महान आनन्द का क्या कहना ! कितने ही कुमार उस समय सम्यक्त्व को प्राप्त हए / साथ ही पाठकों को यह जानकर आनन्ददायक हर्ष होगा कि वीर कुँवर की बात मनुष्यों की भाँति हाथी-घोड़े और बन्दर भी प्रेम से सुनते थे और प्रसन्न होते थे।

बाल महावीर अपने बालमित्रों के साथ ऐसी चर्चा भी करते थे और बालसुलभ क्रीड़ाएँ भी; परन्तु उस समय वे मात्र क्रीड़ाओं में ही नहीं वर्तते थे, उन बाल महात्मा की चेतना उससमय भी अन्तर में अतीन्द्रिय ज्ञानक्रीड़ा करती थी। कई बार वे चैतन्यवन में जाकर निर्विकल्प ध्यान कर लेते थे। उनके अन्तरंग ज्ञान जीवन का आनन्द कोई अनुपम था। एकबार वीरकुमार अपने मित्रों के साथ चर्चा-विनोद करते थे, इतने में अचानक एक आश्चर्यजनक घटना हुई…क्या हुआ ? वह अगले प्रकरण में पढ़िये -

बालवीर की महा-वीरता

जीत लिया मिथ्यात्व-विष, सम्यक् -मंत्र प्रभाव।
नाग लगा फुफकारने, प्रभु को समता भाव ||
जहाँ इन्द्रियातीत भाव है, वहाँ नाग क्या करता ?
रूप बदलकर बना देव वह, नमन वीर को करता।

फूँ.फूँ …( करता हुआ एक भयंकर विषैला नाग अचानक ही फुफकारता हुआ वहाँ आ पहुँचा…जिसे देखकर सब राजकुमार इधर-उधर भागने लगे; क्योंकि उन बालकों ने पहले कभी ऐसा भयंकर सर्प नहीं देखा था; परन्तु महावीर न तो भयभीत हुए और न भागे। अहिंसा के अवतार महावीर को मारनेवाला कौन है ? वे तो निर्भयता से सर्प की चेष्टाएँ देखते रहे। जैसे मदारी साँप का खेल कर रहा हो और हम देख रहे हों; तदनुसार वर्द्धमान कुमार उसे देख रहे थे।

शान्तचित्त से निर्भयतापूर्वक अपनी ओर देखते हुए वीरकुमार को देखकर नागदेव आश्चर्यचकित हो गया कि वाह ! ये वर्द्धमान कुमार आयु में छोटे होने पर भी महान हैं…वीर हैं, उसने उन्हें डराने के लिये अनेक प्रयत्न किये; बहुत फुफकारा…परन्तु वीर तो अडिग रहे; वे निर्भयता से सर्प के साथ खेलने के लिये उसकी ओर जाने लगे।

दूर खड़े राजकुमार यह देखकर घबराने लगे कि अब क्या होगा?..सर्प को भगाने के लिये क्या किया जाये, उसके सोच-विचार में पड़ गये…इतने में लोग क्या देखते हैं कि यह भयंकर सर्प अपने आप अदृश्य हो गया।…उसके स्थान पर एक तेजस्वी देव खड़ा है…और हाथ जोड़कर वर्द्धमानकुमार की स्तुति करते हुए कह रहा है कि - हे देव ! आप सचमुच महावीर’ हैं। आपके अतुल बल की प्रशंसा स्वर्ग के इन्द्र भी करते हैं। मैं स्वर्ग का देव हूँ; मैंने अज्ञानभाव से आपके बल और धैर्य में शंका की; मैं नाग का रूप धारण करके आपकी परीक्षा ले रहा था; मुझे क्षमा कर दें ! तीर्थंकरों की दिव्यता वास्तव में अद्भुत है ! प्रभो! आप वीर नहीं; किन्तु ‘महावीर’ हैं।

महावीर कुमार तो देव की बात गम्भीरता से सुन रहे हैं; परन्तु हम उस देव को उत्तर देंगे कि अरे देव ! तू तो परीक्षा करने के लिये सर्प का रूप धारण करके आया था; परन्तु कदाचित् सच्चा सर्प भी आया होता तो क्या था ? वह सर्प भी महावीर के सान्निध्य में निर्विष हो जाता। जिनकी शान्त दृष्टि के समक्ष मिथ्यात्व का विष भी टिक नहीं सकता, उन भगवान की दृष्टि पड़ने से सर्प भी निर्विष हो जाएँ - इसमें क्या आश्चर्य है, सम्पूर्ण कषायों को जीतने वाले वीर क्या एक सर्प से डर जायेंगे ? कदापि नहीं। महावीर की वीरता वह किन्हीं बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिये नहीं है; किन्तु वह तो अन्तरंग कषाय-शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाली वीतरागी वीरता है। उन वीर की वीतरागता के सान्निध्य में विषैले सर्प भी अहिंसक बन जायेंगे और मिथ्यात्व-विष को छोड़कर सम्यक्त्व-अमृत का पान करेंगे।

अन्तर एवं बाह्य में वृद्धिंगत होते-होते राजकुँवर महावीर जब आठ वर्ष के हुए, तब एक बार अत्यन्त विशुद्धि से अन्तर में चैतन्य धाम में एकाग्रता की धुन लगने से निर्विकल्प ध्यान का महाआनन्द प्रगट हुआ और प्रभु चतुर्थ गुणस्थान से पंचम गुणस्थान में पधारे। आठ वर्ष की आयु में शुद्धि की वृद्धिपूर्वक प्रभु ने पंच अणुव्रत धारण किये। प्रभु श्रावक हो गये। यद्यपि उनका जीवन तो पहले से ही अहिंसादि रूप था; परन्तु आठवें वर्ष में बालक वर्द्धमान के चौथे से पाँचवें गुणस्थान में आने पर अप्रत्याख्यान सम्बन्धी चारों कषायें नष्ट हो गईं और आत्मिक आनन्द की वृद्धि हुई; कषायों को जीतने की वीरता में वीर प्रभु एक डग आगे बढ़े।

तत्पश्चात् बाल-तीर्थंकर की वीतरागी वीरता की एक अन्य घटना हुई, जिसका आनन्ददायक वर्णन आप आगे पढ़ेंगे।

शान्तदृष्टि से हाथी को वश में करने की घटना

वह दिख रहा है वैशाली राज्य का नंद्यावर्त राजप्रासाद; जिस पर अहिंसा धर्म की ध्वजा फहरा रही है। कैसी अद्भुत है इस राजप्रासाद की शोभा ? क्यों न हो, बाल-तीर्थंकर जिसके अन्तर में वास करते हों, उसकी शोभा का क्या कहना ! उस प्रासाद की शोभा चाहे जैसी हो, तथापि इन्द्रियगम्य एवं नश्वर थी; जबकि उसमें निवास करनेवाले प्रभु के सम्यक्त्वादि गुणों की शोभा अतीन्द्रिय गोचर एवं अविनश्वर थी। प्रभु के पुण्य ही उस प्रासाद का रूप धारण करके सेवकरूप में सेवा करने आये थे।

उस सात खण्ड ऊँचे राजप्रासाद के प्रांगण में छोटे-से वीरप्रभुखड़े हो तब प्रेक्षकों को वीर प्रभु बड़े और प्रासाद छोटा लगता था। राजप्रासाद के निकट हस्तिशाला में कितने ही श्रेष्ठ हस्ती शोभा देते थे। राजप्रासाद के मार्ग से आनेजाने वाले हजारों प्रजाजनों को वर्द्धमान कुँवर के दर्शनों की उत्कण्ठा रहने से उनकी दृष्टि राजप्रासाद के प्रत्येक झरोखे पर घूम जाती थी और कभी किसी को झरोखे में खड़े हुए वीरप्रभु के दर्शन हो जाते तो उसका हृदय आनन्दसे नाच उठता था…कि वाह ! आज तो बाल-तीर्थंकर के दर्शन हो गये। पाठक ! चलो हम भी राजप्रासाद में चलें और वीर प्रभु के दर्शन करके धन्य बनें।

राजकुमार महावीर शान्तिपूर्वक अपने कक्ष में बैठे हैं और विचार कर रहे हैं कि अहा ! चैतन्य की अल्प (चौथे-पाँचवें गुणस्थान की) शान्ति को भी डिगा सके ऐसी शक्ति जगत में किसी की नहीं है; तो फिर चैतन्यतत्त्व की परिपूर्ण परम शान्ति का क्या कहना ! शान्त रस के उस महासागर की शक्ति तो अपार है। जगत के भव्य जीव एकबार भी अपने शान्तरस को देख ले तो अन्तर में परमतृप्ति का अनुभव होकर जगत से निर्भय हो जाएँ। कक्ष में बैठे-बैठे वीर कुँवर इसप्रकार आत्मा के शान्तरस का विचार कर रहे हैं; उससमय राजप्रासाद के बाहर - बचाओ!.. बचाओ!..की आवाजें आ रही हैं ! राजा का हाथी पागल होकर दौड़ रहा है…राजमार्ग पर कोलाहल मचा है और प्रजाजन भयभीत होकर इधर-उधर भाग रहे हैं।

आत्मा की अगाध शान्ति का विचार / करते हुए महावीर ने वह कोलाहल सुना और धीर-गम्भीररूप से बाहर राजमार्ग पर आये। उन्होंने हाथ उठाकर लोगों को आश्वासन दिया और शान्त रहने को कहा।

महावीर को देखते ही मानों चमत्कार हुआ…लोग निर्भय होकर आश्चर्यपूर्वक देखने लगे कि अब क्या होगा? एक ओर बालक महावीर…दूसरी ओर क्रोधाविष्ट मदोन्मत्त हाथी / बालक महावीर धीर-गम्भीर चाल से उस ओर चलने लगे जिधर से हाथी दौड़ता आ रहा था…हाथी के सामने आकर उस पर दृष्टि स्थिर करके खड़े हो गये…क्षण दो क्षण शान्तदृष्टि से हाथी को देखते रहे !

अहा ! कैसी शान्तरस भरी थी वह अमी दृष्टि ! मानों उससे अमृत झर रहा था। मानों उस दृष्टि द्वारा महावीर कह रहे थे कि अरे गजराज! यह पागलपन छोड़, लोग तेरे पागलपन का कारण नहीं जानते; किन्तु मैं जानता हूँ। अरे ! यह चार गति के दुःख और उनमें यह तिर्यंच गति की वेदना…उससे तू अकुला गया है और छूटने को उद्विग्न हुआ है…परन्तु धैर्य रख…शान्त हो ! उद्वेग करने से यह दु:ख दूर नहीं होगा। अहा ! हाथी तो मानों भगवान के नेत्रों से झरते हुए शान्त रस के स्रोत का पान कर रहा हो, इसप्रकार टकटकी बाँधकर प्रभु की ओर देखता ही रह गया…आस-पास के वातावरण को वह भूल गया।

‘वाह कैसी शान्ति है इन कुमार के मुखमण्डल पर ! मुझे भी ऐसी शान्ति प्राप्त हो जाए तो कितना अच्छा हो!’ - ऐसा विचारते हुए वह हाथी बिलकुल शान्त हो गया। लोगों ने यह चमत्कार देखा; परन्तु वे समझ नहीं पाये कि महावीर ने किसप्रकार मदोन्मत हाथी को वश कर लिया ? जो लोग विचक्षण थे वे समझ गये कि बालप्रभु ने किसी बल से या शस्त्र से नहीं; किन्तु आन्तरिक शान्ति के बल से ही हाथी को वश कर लिया है और ऐसा करके जगत को बतलाया है कि “जगत के किसी भी अस्त्र-शस्त्र की अपेक्षा आत्मबल-शान्तिबल महान है।”

बन्धुओ ! जिसप्रकार शिशु महावीर ने विशाल हाथी को वश कर लिया, उसीप्रकार अल्प चेतनभाव भी बड़े-बड़े उदयभावों को जीत लेता है। हाथी को जीतने के लिये महावीर को क्रोध नहीं करना पड़ा; किन्तु शान्ति के बल से ही उसे जीत लिया, उसीप्रकार विषय-कषायरूप पागल हाथी को जीतने के लिये क्रोध की अथवा रागादि की आवश्यकता नहीं होती; किन्तु वीतरागी शान्ति द्वारा ही मुमुक्षु वीर उसे जीत लेते हैं। हाथी जैसा प्राणी भी क्रोध द्वारा वश में नहीं होता, वह शान्ति द्वारा सहज ही वश में हो जाता है; इससे सिद्ध होता है कि उसे भी क्रोध अच्छा नहीं लगता, शान्ति ही अच्छी लगती है। जगत् के सर्व जीवों को शान्ति प्रिय है; क्योंकि शान्ति उनका स्वभाव है।

क्या सचमुच वह हाथी पागल हुआ था ? या फिर उसे प्रभु के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा जागृत हुई थी ? …और वीर कुँवर के दर्शनों की धुन में वह आकुलित होकर राजप्रासाद की ओर दौड़ रहा था; उसे दौड़ता देखकर ही लोगों ने उसे पागल मान लिया होगा ! देखो, प्रभु को देखते ही वह हाथी बिल्कुल शान्त हो गया ! प्रभु का प्रभाव सचमुच आश्चर्यजनक है।
(कवि श्री नवलशाह रचित महावीर पुराण में इस हाथी की घटना में हाथी को देव की विक्रिया होना लिखा है।)

अब यहाँ एक बात लक्ष्य में रखना है कि शिशु महावीर ने विशाल हाथी को जीत लिया इसी से वे कहीं अपने इष्टदेव नहीं है; अपने इष्टदेव तो सर्वज्ञ महावीर’ हैं। हाथी को जीतते समय उनमें, मोहरूपी हस्ती को जीतकर जो सम्यक्त्वादि भाव वर्तते थे, वही भाव उनको सर्वज्ञता का साधन हुए हैं, इसलिये मोहविजयी महावीर अपने इष्ट हैं।

एक रीति से देखा जाये तो उपरोक्त घटना में हाथी द्वारा हुआ उत्पात वह उदयभावों का प्रतीक है और महावीर ने शान्त-प्रतिबोध से उसे जीत लिया, वह उपशान्तभाव का प्रतीक है। बाल्यावस्था में भी उन महावीर आत्मा में जितना उपशान्त भाव (ज्ञानचेतनारूपभाव) था, वही हमें इष्ट है और उस भाव स्वरूप ही हमें महावीर को देखना चाहिये।

(पुराणों में वर्णित प्रत्येक घटना द्वास उन-उन आराधक महात्माओं की चैतन्य परिणति में ज्ञानादि के कैसे-कैसे भाव वर्तते थे ? उन भावों की पहिचान करने से उन आराधक जीवों की सच्ची पहिचान होती है और स्वयं को वैसे आराधकभाव की उत्तम प्रेरणा मिलती है।)

सन्मतिनाथ (संजय और विजय मुनिवरों का प्रसंग)

तीर्थंकर वर्द्धमान जब बाल्यावस्था में थे, तब पार्श्वनाथ तीर्थंकर का शासन चल रहा था; उस शासन में संजय और विजय नाम के दो मुनि विचर रहे थे; रत्नत्रयवन्त वे मुनिवर आकाशगामी थे। स्वानुभूति की चर्चा करते-करते वे सिद्ध क्षेत्र की यात्रा हेतु सम्मेदशिखर तीर्थ भूमि में पधारे और वहाँ अनन्त सिद्धों का स्मरण करके आत्मध्यान किया।

पश्चात् संजय मुनि बोले - अहा ! स्वानुभूति में आत्मा स्पष्ट ज्ञात होता है; वहाँ मति-श्रुतज्ञान होने पर भी वे अतीन्द्रिय भाव से काम करते हैं, इसलिये स्वसंवेदन में प्रत्यक्षपना है, उसमें कोई सन्देह नहीं रहता। तब विजय मुनि ने कहा- हाँ मुनिराज ! आपकी बात सत्य है; परन्तु मति-श्रुतज्ञान के निर्बल होने से किन्हीं सूक्ष्म ज्ञेयों में सन्देह भी बना रहता है। देखो न, सूक्ष्म अगुरुलघुत्वजनित षट्गुणी वृद्धि-हानि के किसी गम्भीर स्वरूप का हल अभी हमें नहीं मिलता और सूक्ष्म शंका रहा करती है।

पार्श्वनाथ भगवान तो मोक्ष पधार गये; वर्द्धमान तीर्थंकर अभी बाल्यावस्था में हैं; किन्हीं केवली या श्रुतकेवली के दर्शन से ही हमारी इस सूक्ष्म शंका का समाधान हो सकेगा। इसप्रकार सूक्ष्म शंका सहित विचरते हुए वे मुनिवर सम्मेदशिखर तीर्थ की यात्रा करके लौटते समय वैशालीकुण्डपुर में सिद्धार्थ महाराजा के राजप्रासाद के ऊपर से जा रहे थे और सोच रहे थे कि अहा! यह एक तीर्थंकर की जन्मभूमि है; भारत के अन्तिम तीर्थंकर