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मंगल-वन्दना
करता नमन मैं धर्मकर्ता, तीर्थ श्री महावीर को॥
जो सर्वज्ञ हैं, वीतरागी हैं, हितोपदेशी हैं और वर्तमान में जिनका धर्मतीर्थ चल रहा है - ऐसे असाधारण गुणवन्त तीर्थंकर भगवान महावीर को मैं वन्दन करता हूँ।
वे भगवान महावीर जिसका आराधन करके सर्वज्ञ हुए और जिसकी आराधना का भव्यजीवों को उपदेश दिया, ऐसे शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मैं नमस्कार करता हूँ और उसकी पूर्णता की भावना भाता हूँ। अहो ! ये रत्नत्रय मुमुक्षु के सर्व अर्थ को सिद्ध करनेवाले अमूल्य रत्न हैं।
अहो ! आत्मतत्त्व का अद्भुतपन बतानेवाला तथा अनेकान्त धर्म के ध्वज से सुशोभित जिनशासन जयवन्त वर्तो…जो कि पर से भिन्न आत्मतत्त्व का अद्भुत स्वरूप बतलाकर इष्ट की सिद्धि करता है और मिथ्यादृष्टि जिसका पार नहीं पा सकते।
‘श्री महावीर प्रभु मंगलमय हैं।’ ऋषभादि तेईस भगवन्त, सीमन्धरादि बीस विद्यमान भगवन्त और भूत-भविष्यत इत्यादि त्रिकालवर्ती सर्व अरहन्त, सिद्ध, पंचपरमेष्ठी, रत्नत्रय, जिनवाणी, राजगृही आदि सर्वतीर्थ - ये सब मंगल, एक ‘मंगलमय महावीर’ में समा जाते हैं; इसलिये महावीर प्रभु के मंगल गुणगान में अभेदरूप से उन सबका गुणगान भी आ जाता है। इससमय अपना चित्त महावीरमय है; महावीर में सर्व इष्ट पद आ जाते हैं।
अहो महावीर देव ! आपके सर्वज्ञता आदि अगाध गुणों की गम्भीरता के निकट मेरी बुद्धि तो अत्यन्त अल्प है; तथापि आपके परम उपकारों से प्रेरित होकर भक्तिपूर्वक आपके जीवन का आलेखन करने हेतु मैं उद्यमी हुआ हूँ। अल्प होने पर भी मेरी बुद्धि आपके शासन के प्रताप से सम्यक्पने को प्राप्त हुई है; इसलिये मैं निःशंकभाव से आपके अगाध आत्मगुणों का स्तवन करके जगत में प्रकाशित करूँगा। मोक्षगमन के ढाई हजार वर्ष पश्चात् भी आप हम जैसे साधकों के हृदय में ज्यों के त्यों साक्षात् विराज रहे हैं…इसलिये आपके जीवन का सम्यक् आलेखन करना मेरे लिये दुष्कर नहीं है, सुगम है…आनन्दकारी है। हे भव्य साधर्मीजनो ! तुम भी ज्ञान में सर्वज्ञ महावीर को साक्षात् विराजमान करके उन्हें चेतनस्वरूप में जानना, उससे तुम्हें भी महान आत्मिक आनन्द का अपूर्व लाभ होगा।
प्रभो ! आपके गुणों के वर्णन की धुन में मैं शाब्दिक क्षति की अपेक्षा नहीं करता। अहा ! आपके गुणवाचक जो शब्द होंगे, वे सुन्दर होंगे। पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी यदि सोना बन जाता है, तो आप जैसे उत्कृष्ट परमात्मा के साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध होने से क्या शब्द पूज्य नहीं बन जायेंगे ? अरे ! स्थापना निक्षेप से जब परमात्मा के साथ सम्बन्ध करते हैं, तब पत्थर भी परमात्मा के रूप में पूजे जाते हैं, तब जो शब्द आपके परमगुणों के वाचक होकर आपके साथ सम्बन्ध करते हैं, वे शब्द यदि जगत में परमागम के रूप में पूजे जाएँ, तो उसमें क्या आश्चर्य ! मेरा लक्ष्य आपके आत्मिक गुणों पर है, शब्दों पर मेरा लक्ष्य नहीं है। आपके सर्वज्ञतादि गुणों का रसिक मेरा मन, इससमय आपके गुणों के सिवा अन्यत्र कहीं नहीं लगता। बस ! आपके वीतरागी आत्मगुणों में मेरे चित्त की तल्लीनता ही मेरा मंगल है।
भगवान महावीर के पूर्वभव : सम्यक्त्व से पूर्व
हे महावीर प्रभु ! वर्तमान में तो आप मुक्तरूप से परमसुख की अनुभूति में लीन होकर सिद्धपुरी में विराजमान हैं। हम जहाँ से आपको जानते हैं, वहाँ मोक्ष. से पूर्व की आपकी भवावलि भी दृष्टिगोचर होती है। मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व इस संसार की चारों गतियों में आपके जीव ने कैसे-कैसे दुःख सहन किये और पश्चात् जैन मुनिवरों के सम्पर्क में धर्म प्राप्त करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना द्वारा आप इस भवचक्र से छूटे तथा मोक्षपुरी में पधारे। वह सब चित्रपट की भाँति दृष्टिसमक्ष तैरता है। अहा ! आत्मसाधना में आपकी महान वीरता…हमें भी उस साधना के प्रति उत्साहित करती है। प्रभो ! भव से छूटकर मुक्त कैसे होना ? दुःख से छूटकर सुखी कैसे होना ? वह मार्ग आपने अपने जीवन चरित्र द्वारा हमें स्पष्ट बतलाया है; इसलिये पुरुरवा भील से लेकर मोक्ष तक के आपके जीवन-प्रसंगों का वैराग्यरस पूरित आलेखन भव्यजीवों के हितार्थ एवं अपने आत्मा के गुणों की वृद्धि हेतु प्रारम्भ करता हूँ।
पूर्वभव : पुरुरवा भील
भगवान महावीर का जीव अपने पूर्वभव में पहले पुरुरवा नाम का भील था; तब एकबार विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में धर्मात्मा श्रावकों का संघ तीर्थयात्रा हेतु जा रहा था। सागरसेन नाम के मुनिराज भी उस संघ के साथ चल रहे थे। संघ जब जंगल के मार्ग से जा रहा था। तब डाकुओं की टोली ने उसे लूट लिया। संघ के लोग इधर-उधर भाग गये। मुनिराज सागरसेन संघ से पृथक् हो गये और घोर जंगल में किधर जायें यह उन्हें नहीं सूझ रहा था। इतने में भील सरदार पुरुरवा ने उन्हें देखा और मुनिराज को मारने के लिये धनुष पर बाण चढ़ाने लगा; तब भील सरदार की भद्र पत्नी ने उसे रोका और बोली - ठहरो स्वामी ! यह कोई सामान्य शिकार नहीं है। इनकी तेजस्वी मुद्रा से तो ये कोई वनदेवता लगते हैं; या फिर ऐसा लगता है कि ये वन में मार्ग भूल गये हैं। चलो, उनके पास चल कर देखें। यह सुनकर क्रूर भील ने क्षणभर में क्रूरता छोड़ दी। उसने मुनिराज के निकट जाकर विनयपूर्वक वन्दन किया और मार्ग भूले हुए मुनिराज को वन में से बाहर निकलने का मार्ग बतलाया।
मुनिराज ने उसकी भद्रता से प्रभावित होकर कहा- “हे भव्य ! तू अहिंसाधर्म को उत्तम जानकर उसका पालन कर। निर्दोष प्राणियों का घात करनेवाली यह क्रूरता तुझे शोभा नहीं देती; इसलिये यह शिकार एवं मांस भक्षण छोड़कर अहिंसाधर्म का सेवन कर, जिससे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा। मांस के स्वाद की लोलुपतावश निर्दोष जीवों का वध करना वह तो महापाप है। मनुष्यभव पाकर ऐसा पाप करना तुझे शोभा नहीं देता। इसलिये तू उस शाघ्र छोड़ दे।" इसप्रकार मुनिराज ने उसे अत्यन्त करुणापूर्वक हितोपदेश दिया। मुनिराज का कल्याणकारी उपदेश सुनकर वह भील अतिप्रभावित हुआ और उसने शिकार तथा मांसाहार का त्याग करके अहिंसाधर्म धारण किया। अहा ! साधु पुरुषों की क्षणभर की संगति भी जीवों को कितनी हितकारी होती है। वीतरागी सन्तों की संगति से किसे शान्ति नहीं मिलेगी? अहो ! भवदुःख से संतप्त संसारी जीव की तृषा शान्त करने के लिये जैनदर्शन तो शान्तरस के सरोवर समान है, उसका सेवन करो।
श्री मुनिराज के प्रताप से जिसने क्रूरता छोड़ दी है, ऐसा वह पुरुरवा भील भक्तिपूर्वक बहुत दूर तक मुनिराज के साथ चलता रहा और उन्हें नगर के मार्ग पर छोड़ कर लौट आया। अव्यक्त रूप से मानों वह कह रहा था कि प्रभो! आपने तो मुझे भववन में से बाहर निकलने के लिये हितोपदेश दिया तो क्या मैं आपकी इतनी सेवा भी नहीं कर सकता ?
बस, मुनिराज से पृथक् होकर अपने निवास स्थान पर पहुँचे उस भील को अब कहीं चैन नहीं पड़ता था। अब उसने लूटपाट छोड़ दी थी और जंगल में भटके हुए पथिकों की रक्षा करके उनको मार्ग बतलाता था। वह सोचता था कि अरे ! मुझमें कितनी क्रूरता थी और वे मुनिराज कितने शान्त परिणामी थे। उनके क्षणभर के संग से मेरा जीवन बदल गया। अब मुझे कितनी शान्ति मिल रही है - इसप्रकार वह बारम्बार विचारता था; शान्ति की शीतलता उसे तृप्त करती थी। इसप्रकार उसने शेष जीवन स्थल अहिंसाव्रत के पालन में व्यतीत किया और अन्त में मरकर वह भील सौधर्मस्वर्ग में देव हुआ।
पूर्वभव : सौधर्मस्वर्ग में देव
कहाँ क्रूर भील ? और कहाँ देव ? किंचित् अहिंसा का पालन करके भील से देव हुए उस जीव को सौधर्मस्वर्ग में अनेक दिव्य ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं और दो सागरोपम (असंख्यात वर्ष) तक पुण्यफल का उपभोग किया। अहा ! क्षणभर की किंचित् अहिंसा के पालन से एक अज्ञानी को भी असंख्य वर्षों का पुण्यफल प्राप्त हुआ, तो ज्ञानपूर्वक सर्वथा वीतरागी अहिंसा के उत्तम फल का तो कहना ही क्या ? अज्ञानभाव से पुण्य करके स्वर्ग में गये उस देव ने वहाँ की देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा एवं वैभव-विलास में असंख्य वर्ष व्यतीत कर दिये…अभी उसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था। स्वर्ग में उसे अवधिज्ञान था, परन्तु आत्मज्ञान के बिना अवधिज्ञान का क्या मूल्य? अज्ञानपूर्वक पुण्यफल के उपभोग में उसने स्वर्ग में असंख्य वर्ष बिता दिये और आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग से चयकर मनुष्य लोक में अवतरित हुआ।
पूर्वभव : ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार
सौधर्म स्वर्ग से चलकर भूतकाल का वह भील और भविष्य काल का भगवान - ऐसा वह जीव एक अति सुन्दर प्रसिद्ध नगरी में तीर्थंकर के कुल में अवतरित हुआ…कहाँ अवतरित हुआ ? वह पढ़िये-
तीर्थरूप अयोध्या नगरी में देवों ने ऋषभदेव भगवान के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों का आश्चर्यकारी महोत्सव मनाया था। उन ऋषभराजा के दो रानियाँ तथा भरत, बाहुबलि आदि सौ पुत्र थे; उनमें से ज्येष्ठ पुत्र भरत तीन ज्ञान के धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा चरमशरीरी और भरतक्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती थे। अपने चरित्र नायक का जीव सौधर्म स्वर्ग से चयकर इन्हीं भरत चक्रवती का पुत्र हुआ। उसका नाम मरीचिकुमार था। अहा ! भरतक्षेत्र के भावी चौबीसवें तीर्थंकर का जीव वर्तमान में प्रथम तीर्थंकर का पौत्र हुआ। तीर्थंकर का पौत्र और चक्रवर्ती का पुत्र… उसके गौरव का क्या कहना ? पुरुरवा भील का जीव भगवान पुरुदेव का पौत्र हुआ। (ऋषभदेव का एक नाम पुरुदेव भी है)
दादा को पौत्र पर और पौत्र को दादाजी पर अत्यन्त प्रेम था- दोनों आत्मा तीर्थंकर होने वाले थे। दादा ऋषभदेव अपने पौत्र को गोद में लेकर खिलाते और बोलना सिखाते कि बोलो बेटा - ‘अप्पा सो परमप्पा’ और बालक मरीचि तोतली भाषा में ‘अप्पा-पप्पा’ बोलकर दादाजी का अनुसरण करता। वाह ! आदि तीर्थंकर अन्तिम तीर्थंकर को खिलाते होंगे ?.. वह दृश्य कितना आनन्ददायी होगा ? - बहुत ही…देखने योग्य।
एकबार चैत्र कृष्णा नौवीं को महाराजा ऋषभदेव के जन्म दिवस पर हजारों राजाओं के बीच इन्द्र अनेक देव-देवियों सहित जन्मोत्सव मना रहा था; नीलांजना नाम की देवी नृत्य कर रही थी कि अचानक ही उसकी आयु पूर्ण हो जाने से वह देवी अदृश्य हो गई। संसार की ऐसी क्षणभंगुरता देखकर महाराजा ऋषभदेव ने जिनदीक्षा ले ली। भगवान ऋषभदेव के प्रति परमस्नेह के कारण चार हजार राजाओं ने भी उनका अनुसरण किया तथा दादाजी के साथ उनका पौत्र मरीचिकुमार भी अविचारी रूप से दिगम्बर साधु बन गया। अन्तर में चैतन्यतत्त्व की प्रतीति तो थी नहीं; भगवान ऋषभदेव मुनि बनकर किसका ध्यान कर रहे हैं, वह भी नहीं जानता था। ऋषभ मुनिराज तो छह मास तक चैतन्य के ध्यान में लीन होकर ज्यों के त्यों खड़े रहे; परन्तु मरीचि आदि द्रव्यलिंगी साधु दीर्घकाल तक भूख-प्यास सहन नहीं कर सके, इसलिये मुनिमार्ग से भ्रष्ट होकर ज्यों-त्यों वर्तने लगे।
अहा ! जैनधर्म का मुनिमार्ग तो मोक्ष का मार्ग है। कायर जीव उसका पालन कैसे कर सकते थे ? भगवान ऋषभदेव को मुनि होने के एक हजार वर्ष पश्चात् केवलज्ञान हुआ। जिस दिन भगवान ऋषभदेव मुनि को केवलज्ञान हुआ, उसी दिन महाराजा भरत के यहाँ चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। पिता धर्मचक्री बने और पुत्र राजचक्री हुआ। भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती एक ही दिन प्रगट हुए। विवेकी भरत राजा अपने चक्र को एक ओर रखकर प्रथम धर्मचक्री सर्वज्ञपिता का केवलज्ञान-महोत्सव मनाने हेतु समवसरण में आये। वहाँ धर्मपिता के दिव्य आत्मवैभव को देखकर तथा चैतन्यतत्त्व की अलौकिकता सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने भगवान से पूछा - हे देव ! हमारे कुल में आप तीर्थंकर हुए; तो आप जैसा तीर्थंकर होनेवाला दूसरा कोई उत्तम पुरुष इस समय मेरे परिवार में है ?
तब प्रभु की दिव्यध्वनि में उत्तर मिला कि हे भरत ! तुम और तुम्हारे सब पुत्र मोक्षगामी हैं; …और तुम्हारा यह पुत्र मरीचिकुमार तो भरतक्षेत्र की इस चौबीसी में अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होगा।
यह सुनकर भरत को अति हर्ष हुआ कि अहा, मेरे पिता आदि-तीर्थंकर और मेरा पुत्र अन्तिम तीर्थंकर तथा मैं भी इसी भव में मोक्षगामी - इसप्रकार भरतराजा की प्रसन्नता से चारों ओर आनन्दमय उत्सव का वातावरण छा गया। प्रभु की वाणी में अन्य विकल्प को अवकाश नहीं है। अरे! प्रभु की वाणी में अपने तीर्थंकर होने की बात सुनकर भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया और भव के कारणरूप मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा; वह कुमार्ग में ही लगा रहा।
वाह री होनहार ! मुनिवेश छोड़कर भ्रष्ट हुए मरीचि ने तापस का वेश धारण करके सांख्यमत का प्रवर्तन किया। उस मूर्ख जीव ने कुतर्क द्वारा कुमार्ग चलाया और मिथ्यामार्ग के सेवन से अपने आत्मा को असंख्यात भवतक घोर संसारदुःखों में डुबोया। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि -
“अरे जीवो! मिथ्यात्व का पाप मेरु समान है; उसके समक्ष अन्य पाप तो राई जैसे हैं; - ऐसा जानकर प्राण जायें तथापि मिथ्यात्व का सेवन मत करना। सिंह, सर्पादि के विष से तो एकबार मरण होता है, परन्तु कुमार्ग के सेवन से तो जीव भव-भव में अपार दुःख भोगता है। इसलिये हे भव्यजीवो! भयंकर भवदुःखों से छूटने की तथा शाश्वत आत्मसुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो तुम शीघ्र कुमार्गरूप मिथ्यात्व को छोड़ो और जिनमार्ग के सेवन द्वारा सम्यक्त्व को अंगीकार करो।"
पूर्वभव : पाँचवें स्वर्ग में देव
अरेरे! तीर्थंकर का कुल और बाह्य में जिनदीक्षा प्राप्त करके भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया, आत्मज्ञान नहीं किया और मिथ्यात्वसहित कुतप के प्रभाव से मरकर पाँचवें स्वर्ग में देव हुआ। मिथ्यात्वसहित होने के कारण स्वर्ग में उसके परिणाम कुटिल थे। स्वर्ग के दिव्य वैभव में भी उसे सुख नहीं मिला। कहाँ से मिलता ? सुख विषयों में कहाँ है ? सुख तो आत्मा में है; उसे जाने बिना सुख का वेदन कहाँ से होगा ? दस सागरोपम जितने असंख्य वर्षों तक वह जीव स्वर्ग में रहा और अनेक देवांगनाओं सहित स्वर्ग के दिव्य इन्द्रियभोग भोगे; परन्तु उससे क्या ? स्वर्गीय सुख दूसरी वस्तु है और आत्मिक शान्ति दूसरी | मूर्ख जीव ही शान्तिरहित स्वर्गीय सुखों को सच्चा सुख मानते है। आत्मिक शान्ति का अनुभव करनेवाले धर्मात्मा बाह्य विषयों में कदापि सुख की कल्पना नहीं करते - फिर भले ही वे सुख स्वर्ग के ही क्यों न हों ?
पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार प्रियमित्र और प्रथम स्वर्ग में देव
असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक में रहकर भी लेशमात्र आत्मसुख का आस्वादन किये बिना अन्त में वह जीव (भूतकाल का मरीचि और भविष्य के महावीर) वहाँ से च्युत हुआ। संसार तो संसरणरूप है, इसलिये वह संसारी जीव देवगति से संसरित होकर मनुष्यगति में एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ; उसका नाम था प्रियमित्र / पूर्वभव के मिथ्या संस्कारवश अब भी वह मिथ्यामार्ग में प्रवर्तता था। मिथ्यातप के क्लेशपूर्वक मरकर वह जीव प्रथमस्वर्ग में देव हुआ। अपने हिताहित के विवेकरहित वह देव स्वर्ग में भी सुखी नहीं था। दो सागर तक देवोपनीत भोगों में ही काल गँवाकर, भोगों की लालसासहित वह स्वर्ग से मनुष्यलोक में गिरा। 'अरे रे ! असंख्यात वर्षों तक भोगे हुए यह दिव्य भोग अब छूट जायेंगे। - ऐसे शोक से संतप्त आर्तध्यानपूर्वक वह देवलोक से च्युत हुआ।
पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार पुष्पमित्र और दूसरे स्वर्ग में देव
प्रथम स्वर्ग से च्युत हुआ वह जीव इस भारतवर्ष के स्थूणागार नगर में एक ब्राह्मणपुत्र हुआ, उसका नाम था पुष्पमित्र / बालक पुष्पमित्र एकबार खेल रहा था कि एक संन्यासी-बाबा ने उसे लालच दिखाया कि तू हमारे साथ चल, तुझे स्वर्ग का सुख मिलेगा।’ स्वर्ग-मोक्ष का भेद नहीं जाननेवाले उस अविवेकी बालक ने स्वर्ग के लालच से बाल्यावस्था में ही कुतप धारण किया; (भोगहेतु धर्म को, नहिं कर्मक्षय के हेतु को।) अरे रे ! एक भावी तीर्थंकर का आत्मा भी मिथ्यामार्ग के संस्कारवश कुमार्ग में फँसकर संसार में कैसा भटक रहा है ? दीर्घकाल तक मिथ्यात्वसहित कुतप का क्लेश सहन करके वह मरा और दूसरे ईशान स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ उसने अप्सराओं द्वारा होनेवाले नृत्य-गानादि देखने में दीर्घकाल गँवाया। धर्मरहित हीनपुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग ने उसे च्युत कर दिया। जिसप्रकार सोते हुए महावत को मदोन्मत्त हाथी पछाड़ देता है, उसीप्रकार मोहनिद्रा में सोते हुए उस देव को पुण्यरूपी हाथी ने नीचे पछाड़ दिया।
पूर्वभव : अग्निसह ब्राह्मण और तीसरे स्वर्ग में देव
दूसरे स्वर्ग सेच्युत हुआ वह देव, श्वेतिकानगरी में अग्निसह नाम का ब्राह्मणपुत्र हुआ; वहाँ भी पूर्वभव के मिथ्या संस्कार के कारण संन्यासी होकर मिथ्यातप का आचरण करके जीवन बिताया और पुन: तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सात सागर की आयु अप्सराओं के साथ व्यतीत कर दी; परन्तु आत्महित किंचित् नहीं साधा।
अरे रे ! जैनधर्म को प्राप्त नहीं हुआ वह जीव, भावी तीर्थंकर होने पर भी, अज्ञान के कारण संसार की गतियों में कैसा भटक रहा है ? क्षण में मनुष्यलोक और क्षण में स्वर्गलोक में जाता है। पुण्य कर-करके बारम्बार स्वर्ग में जाने पर भी उस जीव को कहीं शान्ति नहीं है, कहीं उसके आत्मा को आराम नहीं है। अहा ! जब जीव जैनमार्ग को प्राप्त कर ले, तभी उसे सुख-शान्ति मिलती है; इसलिये हे जीवो ! तुम जैनमार्ग पाकर महान आदरपूर्वक उसका सेवन करो।
पूर्वभव : अग्निमित्र ब्राह्मण और चौथे स्वर्ग में देव
तीसरे स्वर्ग से निकलकर भील’ और ‘भगवान’ का वह जीव भरतक्षेत्र की मन्दिर नगरी में एक अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण-पुत्र हुआ। उसके काले केश मानों अन्तर की मिथ्यात्वरूपी कालिमा सूचित करते हों - इसप्रकार फर-फर होते थे। युवावस्था में गृहवास छोड़कर वह पुन: संन्यासी होकर तीव्र तप करते हुए मिथ्यामार्ग का उपदेश देने लगा।
दीर्घकाल तक कुमार्ग का प्रवर्तन करके अन्त में असमाधिमरणपूर्वक मरकर वह चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक की विभूतियों को पुण्यफल में भोगा, परन्तु अन्त में जिसप्रकार सूखा पत्ता डाल से खिर पड़ता है, तदनुसार पुण्य सूख जाने पर वह स्वर्गलोक से खिर पड़ा।
पूर्वभव : भारद्वाज ब्राह्मण और पुनः चौथे स्वर्ग में देव
चौथे स्वर्ग से च्युत होकर वह जीव स्वस्तिमती नगरी में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ और पुन: गतजन्म की भाँति संन्यासी होकर कुतप में जीवन गँवाकर चौथे स्वर्ग में गया। स्वर्गलोक की अनेक ऋद्धियाँ तथा देवांगनाओं आदि के वैभव में आसक्तिपूर्वक असंख्यात वर्ष का जीवन बिता दिया और जब आयु पूर्ण होने को आयी तब उसके कल्पवृक्ष काँपने लगे, उसकी मन्दार मालाएँ मुरझाने लगी, उसकी दृष्टि भ्रमित होने लगी, शरीर की कान्ति निस्तेज होने लगी। ऐसे चिन्हों से उसे विचार आने लगा कि अब स्वर्ग की यह सब विभूति छोड़कर मुझे यहाँ से जाना पड़ेगा। देवियों के विरह से वह विलाप करने लगा ? अरे रे ! देखो तो सही, जिसने बाह्य वस्तुओं में सुख माना वह उनके वियोग में कैसा विह्वल होता है। अरे मूर्ख! विचार तो कर कि असंख्यात वर्षों तक जिन बाह्य विषयों के बीच रहकर उनका उपभोग करने पर भी तुझे शान्ति या तृप्ति नहीं हुई उनमें सुख कैसा ? सुख हो तो मिले न ?..आकुलित होकर मिथ्या प्रयत्न किसलिये करता है ? अनन्तकाल तक भोगने पर भी विषयों में से कदापि सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
जिसका आशाचक्र टूट गया है, जिसका पुण्यदीपक बुझ जाने की तैयारी में है और जिसके मानसिक संताप का कोई पार नहीं है - ऐसा वह देव मरण को निकट देखकर अत्यन्त भयभीत हुआ और हताशापूर्वक भोगों की चिन्ता में आर्तध्यान करने लगा कि अरे रे ! मैं असहायरूप से यह सब छोड़कर मर जाऊँगा ? मैं अब किसकी शरण लूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसप्रकार इन भोगों की रक्षा करूँ ? क्या उपाय करके मृत्यु को रोकूँ ? यहाँ से मरकर मैं न जाने किस गति में जाऊँगा? …वहाँ मेरा क्या होगा?..कौन साथ देगा ? वास्तव में पुण्य समाप्त होने पर कोई साथ नहीं देता। देवांगनाएँ देखती रहीं और देव के प्राण छूट गये।
इसप्रकार विलाप करता हुआ वह देव क्षीण पुण्य से मनुष्यलोक में आ पड़ा और अनेक भवों में भटकता फिरा।
पूर्वभव : एकेन्द्रियादि पर्यायों में असंख्यभवों का अनन्तदुःख
जिसके नीच पुण्य का अस्त हुआ है और जो मिथ्यात्व की आग में जल रहा है ऐसा वह भील का जीव (भावी महावीर भगवान का जीव) बारम्बार स्वर्ग-मनुष्य के भवों में भ्रमण करता हुआ तथा दुःख भोगता हुआ संसार में भटक रहा है। वह स्वर्ग से भ्रष्ट होकर कितनी ही निचली त्रस पर्यायों में भटका; अन्त में मिथ्यात्व-रस की पराकाष्ठा के फलस्वरूप स्थावर-एकेन्द्रिय पर्याय में गया और वहाँ दो घड़ी में हजारों बार जन्म-मरण कर-करके दु:खी हुआ। इसप्रकार असंख्यात बार भवभ्रमण कर-करके उसने कल्पनातीत दु:ख सहन किये। सिद्ध भगवन्तों का सुख और एकेन्द्रिय जीवों का दुःख - ये दोनों वचनातीत हैं। दीर्घकाल तक उस जीव ने स्थावर पर्यायों में इतने अधिक दुःख भोगे कि जिनका वर्णन शास्त्रकार भी नहीं कर सकते। जिसप्रकार सिद्धों का सुख किन्हीं संयोगों से नहीं होता, यह ‘स्वभावसिद्ध है; उसीप्रकार निगोद के जीवों का दुःख भी संयोग से नहीं हुआ है, परन्तु भावकलंक की प्रचुरतारूप उनके अपने परिणाम से हुआ है, इसलिये ‘परिणामसिद्ध’ है।
किसी मनुष्य को धधकती हुई अग्नि में डालकर लौहरस के साथ गला दे, वह दुःख भी जिसके समक्ष अत्यल्प माना जाय ऐसे घोरातिघोर दुःख निगोद में एकेन्द्रिय जीवों को होते हैं। ऐसे दुःख उस जीव ने मिथ्यात्व के कारण अनेक भवों तक भोगे।
तथापि देखो तो सही, चेतन के स्वभाव की अद्भुतता… कि ऐसे दुःखों के बीच भी अपने चैतन्यस्वभाव को उसने नहीं छोड़ा; स्वयं अपने चेतनप्राण द्वारा वह जीता ही रहा | तथा अनन्तदुःख भोगने पर भी अपने सुखस्वभाव को नहीं छोड़ा… इसीलिये तो दुःख से परिमुक्त होकर वही जीव आज अनन्त सुख सहित सिद्धपद में विराजमान है…वाह रे वाह चैतन्य ! तेरा स्वभाव ! वास्तव में अद्भुत है।
ज्ञाता रु दृष्टा सर्व का मैं, ज्ञानी इसी विधि चिन्तवे॥
अत्यधिक दुःखों से पीड़ित वह महावीर का जीव, मानों अब उनसे छूटने तथा भगवान होने हेतु कटिबद्ध हुआ हो, तदनुसार बड़ी कठिनाई से दीर्घकाल में कुयोनियों से निकलकर पुन: मनुष्य हुआ; निगोददशा को अन्तिम प्रणाम करके सदा के लिये छोड़ दिया।
निगोद से निकलकर मोक्ष की ओर -
पूर्वभव : राजगृही में स्थविर ब्राह्मण और पाँचवें स्वर्ग में देव
हम भगवान महावीर के पूर्व भवों की कथा पढ़ रहे हैं। अति दीर्घकाल तक एकेन्द्रिय पर्याय में तथा विकलत्रय में दुःख के ही अवतार कर-करके अन्त में वह जीव राजगृही में एक ब्राह्मण के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ; उसका नाम स्थविर था। राजगृही…जहाँ से स्वयं कुछ भव पश्चात् धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाला है, - ऐसी उस नगरी में अवतरित वह जीव अभी तो धर्म जानता भी नहीं है; अभी उसने मिथ्यात्व के पाप का भार उतारा नहीं है। राजगृही नगरी की शोभा तो अद्भुत थी; परन्तु वहाँ अवतरित जीव भी धर्म के बिना शोभा नहीं देता था। कोयले को भले ही सुवर्ण मंजूषा में रखो, तो क्या वह वहाँ शोभा देगा? अपने पुण्य-पाप कर्म के अनुसार जीव संसार में अनेक वस्तुएँ ग्रहण करता और छोड़ता है। घोर परिभ्रमण के पश्चात् बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव को प्राप्त वह जीव अभी भी जागृत नहीं हुआ और नास्तिक-पंथ का संन्यासी बनकर मिथ्यात्व में ही पड़ा रहा; अज्ञानपूर्वक कुतप करके वह पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में देव हुआ और दस सागरपर्यंत वहाँ रहा।
वहाँ की आयु पूर्ण होने पर वह पुनः राजगृही में अवतरित हुआ। भविष्य में इसी राजगृही से वह धर्मचक्र का प्रवर्तन करनेवाला है। इसी से मानों अव्यक्तरूप से भी उसकी राजगृही के प्रति ममता हो, इसलिये वह जीव राजगृही में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ।
पूर्वभव : राजगृही नगरी में विश्वनन्दि राजकुमार (वैराग्य, धर्मप्राप्ति, जिनदीक्षा, निदानबंध, दसवें स्वर्ग में देव)
अपना भारत देश अर्थात् तीर्थंकरों की पुण्यभूमि, उसमें भी मगध देश और उसकी भी राजगृही नगरी विशिष्ट तीर्थ समान है। वहाँ पुण्यवन्त धर्मात्मा जीव निवास करते हैं और जैनधर्म का प्रताप वर्तता है।
अपनी कथा का मुख्य पात्र अर्थात् अपने चरित्र नायक का जीव इस धर्म नगरी में विश्वभूति राजा के पुत्ररूप में धर्म प्राप्त करने हेतु अवतरित हुआ है जिसका नाम ‘विश्वनन्दि’ है।
राजा विश्वभूति श्वेत केश देखकर संसार से विरक्त हुए और अपने भ्राता विशाखभूति को राज्य सौंपकर तथा विश्वनन्दिकुमार को युवराज पद देकर चार सौ राजाओं सहित जिनदीक्षा लेकर मुनि हुए।
विशाखभूति ने सुन्दर ढंग से राज्य का संचालन किया और विश्वनन्दि युवराज ने उन्हें अच्छा सहयोग दिया। युवराज ने एक अति सुन्दर उद्यान बनवाया था; उसके सुन्दर पुष्प मानों ‘चैतन्य उद्यान’ विकसित होने की पूर्व सूचना देते हों - इसप्रकार सुशोभित होते थे। यद्यपि अभी चैतन्य उद्यान खिला नहीं था, इसलिये चैतन्य उद्यान की अतीन्द्रिय शोभा को नहीं जाननेवाला वह भव्य, बाह्य उपवन की सुन्दरता पर मुग्ध था। वह उद्यान अनेक प्रकार के उत्तम वृक्षों से शोभायमान था, बारम्बार मुनिवर पधार कर उस उद्यान की शोभा में अभिवृद्धि करते और वहाँ असमय ही आम्रवृक्ष फलते थे। उस अद्भुत उद्यान के प्रति युवराज विश्वनन्दि को अति ममत्व था; क्यों न हो ? जबकि वह उद्यान ही उसके चैतन्य उद्यान के खिलने में कारणभूत होनेवाला है।
एकबार उसके काका के पुत्र राजपुत्र ‘नन्द-विशाख’ (विशाखनन्दि) ने वह अद्भुत उद्यान देखा और उसका मन मोहित हो गया। उसने माता-पिता के पास वह उद्यान उसे दिलवा देने की हठ की। अपने पुत्र को उद्यान दिलवा देने के लिये विशाखभूति ने कपटपूर्वक विश्वनन्दि को-काश्मीर राज्य पर विजय प्राप्त करने के बहाने राज्य से दूर भेज दिया। आज्ञाकारी युवराज शत्रु को जीतने के लिये सेना सहित चल दिया। उसके जाने पर उसके चचेरे भाई नन्द-विशाख ने उसके प्रिय उद्यान पर अधिकार कर लिया। शत्रु राज्य पर विजय प्राप्त करके युवराज विश्वनन्दि शीघ्र ही राजगृही लौट आया। उसके मन में अपने उपवन की चिन्ता थी; उपवन को देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था। (हे भव्य पाठको ! कुछ ही देर में तुम देखोगे की ऐसी घटनाएँ भी भव्यजीवों को किसप्रकार हित का कारण होती हैं !)
राजगृही नगरी में आकर उसने देखा कि प्रजाजन भयभीत हो रहे हैं। नन्दविशाख (उसका चचेरा भाई) उसके उद्यान पर आधिपत्य जमाकर उससे लड़ने को तैयार बैठा है। युवराज विश्वनन्दि ने उसके साथ युद्ध किया। अत्यन्त वीरतापूर्वक पत्थर का एक खम्भा उठाकर उसके प्रहारों से उसने शत्रुसेना के छक्के छुड़ा दिये। उसके पराक्रम से भयभीत होकर नन्द-विशाख भागा और जान बचाने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया; परन्तु अति बलवान विश्वनन्दि ने क्रोध पूर्वक उस वृक्ष को उखाड़ डाला। अन्त में नन्द-विशाख उसकी शरण में आया और चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगा।
यह देखकर उदार हृदय विश्वनन्दि को दया आई और उसका क्रोध शान्त हो गया। अरे ! भाई के साथ युद्ध करके अब मैं पितातुल्य काका विशाखभूति को क्या मुँह दिखाऊँ ? इसप्रकार लज्जित होकर वह राज्य छोड़कर दीक्षा हेतु वन में जाने को तैयार हुआ। 'दुर्जनों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनों को कभी कभी उपकाररूप हो जाता है।’ जिस उद्यान के मोहवश युद्ध करना पड़ा, उसे छोड़कर मुनिदीक्षा ग्रहण करने हेतु वह राजकुमार दिगम्बर जैनाचार्य के निकट जा पहुँचा। वन में संभूतस्वामी नाम के दिगम्बर जैनमुनि संघसहित विराज रहे थे। रत्नत्रय-पुष्पों से सुशोभित वह मुनिसंघ धर्म के सुन्दर उपवन समान था, विश्वनन्दि ने मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और उनके श्रीमुख से राग-द्वेष रहित चैतन्य के शुद्धस्वरूप का श्रवण करके, स्वानुभूतिपूर्वक दिगम्बर जिनदीक्षा अंगीकार की। राजा विशाखभूति ने भी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। भविष्य के महावीर भगवान का जीव विश्वनन्दि अब बाह्य उपवन का ममत्व छोड़कर अन्तर में रत्नत्रय पुष्पों से सुशोभित चैतन्य-उपवन में विचरने लगा; तप द्वारा उसका चैतन्य उद्यान खिल उठा था।
(अहा ! अपने चरित्र नायक इस भव में पहली बार धर्म को प्राप्त हुए। चैतन्य की आराधना द्वारा उन्होंने इस भव में भवकट्टी की; परन्तु उस आराधना में एकबार निदान शल्य के कारण बीच में भंग पड़ गया। पश्चात् मोक्ष की अखण्ड आराधना उन्होंने सिंह के भव में प्रारम्भ की, इसलिये शास्त्रकारों ने सिंह के भव में सम्यक्त्व-प्राप्ति का वर्णन मुख्यरूप से किया है, जो हमें अखण्ड-आराधना की प्रेरणा देता है।)
दीक्षा लेने के पश्चात् राजा विशाखभूति तो नि:शल्य रत्नत्रय का पालन करके दसवें स्वर्ग में गये। इधर राजगृही में उनका पुत्र नन्दविशाख, जिसके अन्याय के कारण विश्वनन्दि ने राज्य छोड़कर दीक्षा ली थी, वह नन्द-विशाख शक्तिहीन तथा पुण्यहीन था। कुछ ही समय पश्चात् एक राजा ने उसका राज्य जीत लिया और वह रास्ते पर भटकता हुआ भिखारी बन गया। राजा मिटकर रंक हो गया। वह भीख माँगता हुआ मथुरा की गलियों में घूमने लगा।
अब अपने चरित्र नायकमहात्मा विश्वनन्दिका क्या हुआ? वह देखें-उपवन का मोह छोड़कर मुनि हुए विश्वनन्दि मुनि यथाशक्ति रत्नत्रय धर्म का पालन करते थे; अनेक बार उपवासादि भी करते थे। एकबार उन्होंने मासोपवास किये। जैनमुनि उपवास में पानी भी नहीं पीते; तथा उपवास के अतिरिक्त दिनों में भी मात्र एक ही बार आहार-जल ग्रहण करते हैं / इसप्रकार अन्न-जल रहित मासोपवासी विश्वनन्दि मुनिराज मथुरा नगरी में पारणा हेतु पधारे और नीचे देखकर मार्ग में चल रहे थे। इतने में एक बैल ने उन्हें सींग मारा और वे धरती पर गिर पड़े।
ठीक उसीसमय राज्यभ्रष्ट नन्दविशाख वहाँ एक वेश्या के घर के पास खड़ा था। उसने वह दृश्य देखा और पूर्व के वैर का स्मरण करके अट्टाहास पूर्वक कटाक्ष किया कि रे विश्वनन्दि ! कहाँ गया तेरा वह बल ? तूने तो विशाल खम्भा उखाड़ कर सारी सेना को जीत लिया था और मैं भाग कर वृक्ष पर चढ़ गया था तब पूरे वृक्ष को अपने बाहुबल से उखाड़ दिया था। उसके बदले आज एक बैल के धक्के से गिर पड़ा है। कहाँ गया तेरा वह बाहुबल ?
एक ओर मासोपवास की अशक्ति के कारण बैल के धक्के से गिर पड़ना और दूसरी ओर भाई द्वारा पूर्वकालिक वैर का स्मरण करके कटाक्ष करना… उससे विश्वनन्दि मुनि की सुषुप्त कषाय जागृत हो उठी; क्रोधावेश में वे अपने मुनिपद को भूल गये। रत्नत्रय का अमूल्य निधान और उसके महा फल मोक्ष को भूलकर मानों उन्होंने अमूल्य रत्न को पानी के भाव बेच दिया। क्रोधवश उनके नेत्रों से अंगारे झरने लगे और वे बोल उठे - अरे दुष्ट ! तू मेरे तप की हँसी उड़ाता है; परन्तु देख लेना इस तप के प्रभाव से भविष्य में मैं तुझे सबके सामने छेद डालूँगा। इसप्रकार अज्ञानवश वे निदान कर बैठे कि मेरे इस तप का कोई फल हो तो मैं अगले जन्म में अद्भुत शारीरिक शक्ति प्राप्त करूँ और इस दुष्ट नन्द-विशाख को मारूँ। ऐसे निदानशल्य के कारण वे रत्नत्रय से भ्रष्ट हो गये तथा विद्याधर की विभूति देखकर मेरे तप के प्रभाव से मुझे ऐसी विभूति प्राप्त हो’ इसप्रकार उसका भी निदान कर बैठे।
रे विश्वनन्दि ! यह तुमने कैसी मूर्खता की ? रत्नत्रय के अमूल्य रत्न को तुमने क्रोध में आकर फेंक दिया ? रत्नत्रय के फल में शारीरिक बल की अभिलाषा करके तुम मिथ्यामार्गी हुए, चैतन्यवैभव को भूलकर तुमने पुण्यवैभव की चाह की और निदानशल्य से अपने आत्मा को भयंकर दुःख में डाल दिया।
इसप्रकार तीव्र क्रोधाग्नि में जिसने अपने सम्यक्त्वरत्न को जला दिया है, ऐसे उन विश्वनन्दि मुनि का जीव, निदानशल्यसहित मरकर, तप के शेष पुण्यप्रताप से महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सोलह सागर तक उसने भोगलालसा से इन्द्रसमान वैभव का उपभोग किया। अनुपम जैनव्रत प्राप्त करके भी उनका पूरा लाभ वह नहीं ले सका। जिसप्रकार कोई मूर्ख पुरुष अमृतपान करके उसका वमन कर दे, तदनुसार उसने रत्नत्रयरूपी अमृत का निदानशल्य द्वारा वमन कर दिया और पुनः संसार में भटकने लगा। (रे भवितव्य ! यह जीव है तो तीर्थंकर होनेवाला… किन्तु… भरतक्षेत्र का ‘चौबीसवाँ’ तीर्थंकर होने वाला है; और कालक्रमानुसार चौबीसवें तीर्थंकर के अवतार में अभी दीर्घकाल लगेगा…इसलिये बीच का समय संसार भ्रमण में बिताने के लिये ही निदानशल्य किया।)
पश्चात् नन्द-विशाख का जीव भी किसी कारणवश वैराग्य प्राप्त करके मुनि हुआ। जिनदीक्षा लेकर उसने तप किया; परन्तु एक बार आकाशमार्ग से जाते हुए किसी विद्याधर की आश्चर्यजनक विभूति देखकर वह भोगों की वांछा से ऐसा निदानशल्य कर बैठा कि ‘मेरे धर्म के फल में मुझे भी ऐसी विभूति प्राप्त हो !’ अरे रे ! धर्म के फल में उसने पुण्य भोगों की याचना की, अमृत के फल में विष माँगा। इसलिये वह भी मिथ्यादृष्टि हुआ और उसके संचित पुण्य अल्प हो गये। हाथ में आये हए धर्मरत्न को फेंक कर उसके बदले में उसने विषयभोगों का कोयला माँगा, अतः धिक्कार है विषयाभिलाषा को ! व्रतभ्रष्ट ऐसे उन विशाख मुनि का जीव भी निदान बंध सहित मरकर दसवें स्वर्ग में देव हुआ और विषय-भोगों की लालसा में ही असंख्य वर्ष व्यतीत किये।
(प्रिय पाठको ! महावीर होनेवाला यह विश्वनन्दि का जीव स्वर्ग से चयकर अब त्रिपृष्ठ वासुदेव और उसका भाई नन्द-विशाख प्रतिवासुदेव होगा। वह कथा आप अगले प्रकरण में पढ़ेंगे।)
जैनधर्म अर्थात् पंचपरमेष्ठी की नगरी
हमें महाभाग्य से इस नगरी में प्रवेश मिला है। आत्मिकसुख इसी नगरी में प्राप्त होता है; इस नगरी का रहन-सहन ही कोई भिन्न प्रकार का, अपूर्व एवं रागरहित होता है। इस वीतराग नगरी के निवासी पंचपरमेष्ठी भगवन्त तथा साधर्मी जगत से भिन्न भाववाले होते हैं।
आओ…इस नगरी में आये हो तो अब इस नगरी के आत्मवैभव को (तीर्थंकरों के महापुराण द्वारा) जान लो। यह समस्त वैभव तुम्हारा ही है। वह दिखलाकर भगवन्तों ने उपकार किया है।
पूर्वभव : त्रिपृष्ठ वासुदेव
जहाँ हम रहते हैं उस भरतक्षेत्र में, प्रत्येक(अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी) कालचक्र में (प्रत्येक के दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम में) दो बार 24-24 तीर्थंकर भगवन्त अवतरित होते हैं। वे सर्वज्ञ होकर, ज्ञानानन्द आत्मा का स्वरूप समझा कर उसकी वीतरागी उपासनारूप मोक्षमार्ग बतलाते हैं और उनके उपदेश से लाखों-करोड़ों-असंख्यात जीव धर्म प्राप्त करके संसार से मुक्त होते हैं। उनमें इस चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान का २५००वाँ अभूतपूर्व महोत्सव भारतभर में मनाया गया था। उस अवसर पर पूज्य श्री कानजीस्वामी की प्रेरणा से लिखे गये इस ग्रन्थ में भगवान महावीर का मंगल जीवन आप पढ़ रहे हैं। उनके पूर्वभवों का वर्णन चल रहा है।
अपने चरित्र नायक महावीर का जीव दसवें स्वर्ग से वासुदेवरूप में कहाँ उत्पन्न होता है ? वह देखें- भरतक्षेत्र की पोदनपुरी में भगवान ऋषभदेव, बाहुबलि के वंश में असंख्यात बड़े-बड़े राजा हुए और मोक्ष प्राप्त किया। उनमें अनुक्रम से प्रजापति नाम के राजा हुए। उनके दो पुत्र - (1) विशाखभूति का जीव (जो पूर्वभव में विश्वनन्दि के काका थे वे) विजय बलदेवरूप में अवतरित हुए और (2) विश्वनन्दि (महावीर का जीव) त्रिपृष्ठ वासुदेव रूप में अवतरित हुए।
उसीसमय पूर्वभव का नन्द-विशाख का जीव विद्याधरों की अलकापुरी नगरी में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ, उसका नाम अश्वग्रीव रखा गया। उस अश्वग्रीव को अनेक विद्याएँ सिद्ध हुईं तथा दस हजार आरेवाला सुदर्शन चक्र, दंड, छत्र, खड्ग आदि अनेक दैवी-आयुध प्राप्त हुए। तीनों खण्डों पर विजय प्राप्त करके वे आधे भरतक्षेत्र के स्वामी (अर्धचक्री-प्रतिवासुदेव) हुए। दग्ध पुण्य के फल का उपभोग करते हुए उन अश्वग्रीव की हजारों राजा सेवा करते थे। पुण्य से क्या नहीं मिलता ?
अरे ! आराधक दशा में बाँधकर पश्चात् निदान बंध द्वारा जलाये हुए दग्ध-पुण्य का भी ऐसा फल है, तो आराधक भावसहित बाँधे हुए आश्चर्यकारी सातिशय-पुण्य का क्या कहना !..तथा पुण्यराग से परे ऐसी चैतन्य आराधना के वीतरागी आनन्द की तो बात ही क्या!.. धन्य आराधना ! धन्य वीतरागता ! धन्य उसका प्रशंसनीय फल !
एक दिन पोदनपुर में महाराजा प्रजापति दोनों पुत्रों (विजय और त्रिपृष्ठ) सहित राजसभा में बैठे थे। उससमय मंत्री ने निवेदन किया - हे स्वामी ! आपकी प्रजा सर्व प्रकार से सुखी होने पर भी उसे आजकल एक महा भयंकर सिंह ने लोगों की हिंसा करके भयभीत कर रखा है। उसका उपद्रव इतना बढ़ गया है कि लोग इधर-उधर आ-जा भी नहीं सकते।
यह सुनते ही राजा को खेद हुआ कि अरे ! खेत में अनाज की रक्षा हेतु बाँस का बिजू (बनावटी आदमी) हो, उससे भी हिरण आदि प्राणी भयभीत होकर भागते हैं और फसल की रक्षा होती है; फिर मैं इतना पराक्रमी होकर भी अपनी प्रजा की रक्षा न कर सकूँ यह तो शर्म की बात है। जो प्रजा का दुःख दूर न कर सके वह राजा किस काम का ? ऐसा विचार कर राजा ने सिंह को मारने के लिये सेना को तैयार होने की आज्ञा दी।
इतने में त्रिपृष्ठकुमार उठे और हँसकर बोले - ‘पिताजी एक हिंसक पशु को मारने के लिये स्वयं आपको कष्ट उठाना पड़े, तो फिर हम किस काम के ? इतने छोटे से काम के लिये आपका जाना आवश्यक नहीं है। मैं अभी जाकर सिंह को मारता हूँ। ऐसा कहकर त्रिपृष्ठकुमार वन में गये। सिंह को गुफा से बाहर निकाला। एक हाथ से सिंह के अगले पंजे पकड़े और दूसरे हाथ से झपट्टा मारकर उसे नीचे पछाड़ दिया; फिर जिसप्रकार बजाज कपड़ा फाड़ता है तदनुसार सिंह का मुँह फाड़कर उसको चीर दिया। (मानों उस सिंह को मारने के क्रूर परिणामवश त्रिपृष्ठ को भी अगले भवों में सिंह की पर्याय में जाना पड़ेगा। पाठको ! ऐसे पराक्रम की घटना में वासुदेव को हिंसा में आनन्द माननेरूप ‘हिंसानन्दी-आर्तध्यान’ के जो क्रूर परिणाम वर्तते हैं, उन परिणामों से उसे नरकगति का बन्ध होता है।)
सिंह को मारने से उन राजकुमार के पराक्रम की प्रशंसा चारों ओर फैल गई। तत्पश्चात् एकबार कोटिशिला’ को ऊपर उठाकर उन्होंने महान पराक्रम किया। इस कोटिशिला से करोड़ों मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है। साधारण मनुष्य उसे ऊपर नहीं उठा सकते; नारायण - वासुदेव ही उसे उठाते हैं। एकबार जो प्रथम तीर्थंकर का पौत्र था, वही जीव असंख्यात वर्ष पश्चात् उन्हीं के कुल में अवतरित होकर प्रथम नारायण-अर्धचक्री हुआ। नौ नारायणों में यह प्रथम नारायण, श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए / विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपृष्ठ के साथ किया; तब उसके प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव को अपमान लगा कि विद्याधर ने श्रेष्ठ कन्या मुझेन देकर त्रिपृष्ठ को क्यों दी ? इससे क्रोधित होकर वह त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध करने चला। उधर त्रिपृष्ठकुमार ने भी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी; उसके लिये वह विद्या सिद्ध करने लगा। दूसरों को जो बारह वर्षों में सिद्ध होती हैं - ऐसी विद्याएँ त्रिपृष्ठ को पुण्यप्रताप से मात्र सात दिन में सिद्ध हो गई। अहा ! पुण्य द्वारा जगत में क्या साध्य नहीं है ? पुण्य से जगत में सब कुछ मिल जाता है; परन्तु चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख उससे प्राप्त नहीं होता। इसीलिये तो मुमुक्षु जीव कहते हैं कि अरे, ऐसे हत्पुण्य का हमें क्या करना है ?
(अरेरे! भावी तीर्थंकर ऐसे यह वासुदेव वर्तमान में हिंसा के हेतुभूत लौकिक विद्याएँ साधने में लगे हैं…परन्तु अब कुछ ही भव पश्चात् वे अलौकिक आत्मविद्या साधेगे तथा जगत के जीवों को भी उसे अलौकिक वीतरागी विद्या का बोध देंगे। तब उनकी सच्ची वीरता विकसित हो उठेगी और वे ‘महा-वीर’ कहलायेंगे।)
शस्त्रविद्या साधकर दोनों भाईयों ने युद्ध के लिये प्रस्थान किया। घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ। अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों शूरवीर योद्धा थे। युद्ध सम्बन्धी आर्तध्यान में वे इतने तल्लीन थे कि नरकगति के कर्म आत्मा में प्रविष्ट हो रहे हैं, उन्हें उसकी भी खबर नहीं रही। लाखों लोग आश्चर्य से, भय से तथा कुतूहल से युद्ध देख रहे थे। उनमें से कोई तो वैराग्य के परिणाम कर रहे थे कि अरे रे ! एक तुच्छ बात के लिये ये लोग लड़ रहे हैं…और कोई मूर्ख जीव युद्ध में आनन्द मानकर हिंसानन्दी रौद्रध्यान कर-करके व्यर्थ ही अशुभकर्म बाँध रहे थे। जीवों के परिणामों की भी कैसी विचित्रता है ? कि एक ही प्रसंग पर भिन्न-भिन्न जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के परिणाम करते हैं। इसीलिये तो कहा है कि -
’हैं जीव विध-विध, कर्म विध-विध, लब्धि हैं विध-विध अरे !'
उसमें तू अपना कल्याण कर लेना, जगत की ओर देखने में मत रुकना। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व अश्वग्रीव विद्याधर के दूत ने आकर त्रिपृष्ठ से धमकी भरे वचन कहे; तब उनका उत्तर देते हुए त्रिपृष्ठ ने कहा - हे दूत ! तेरे राजा को आकाश में ऊँचे उड़ने तथा विद्याधरपने का अभिमान होगा; परन्तु आकाश में तो कौए भी उड़ते है; उसमें क्या है ? याद रखना कि तीर्थंकर और चक्रवर्ती कभी विद्याधरों के यहाँ नहीं होते, वे तो भूमिगोचरी राजाओं के यहाँ ही होते हैं।
तब अश्वग्रीव के दूत ने कहा - अरे, हमारे महाराज के पास दिव्यचक्र है; उसके प्रताप को क्या आप नहीं जानते ? सूर्य समान तेजस्वी वह चक्र बड़े-बड़े शत्रुओं का छेदन कर देता है…। त्रिपृष्ठ ने उसे बीच में ही रोक कर कहा- हे दूत ! तू यहाँ से चला जा; अपने राजा की व्यर्थ प्रशंसा मत कर, युद्ध में उसकी परीक्षा हो जायेगी। रणभेरी बज उठी…दोनों ओर के योद्धा सावधान हो गये। जिसप्रकार मुमुक्षु जीवशुद्धोपयोग द्वारा मोह को नष्ट करने हेतु तत्पर होते हैं, तदनुसार शूरवीर योद्धा शत्रु का घात करने हेतु तत्पर हो गये। सामने शत्रुखड़े होने पर भी वे कुशल योद्धा गम्भीर एवं शान्त दिखाई देते थे; क्योंकि कुशल पुरुष आकुलता का प्रसंग आने पर भी व्याकुल नहीं हो जाते…अथवा मोहशत्रु का हनन करने में तत्पर हुआ शूरवीर साधक स्वयं शान्त रहकर ही मोह को नष्ट कर देता है। जिसप्रकार गुरु उत्तम शिष्य को आत्मसाधना हेतु प्रोत्साहित करते हैं, उसीप्रकार राजा अपने सेनापतियों को प्रशंसा द्वारा युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे थे। जब राज सेवक बलदेव-वासुदेव के लिये कवच लाये तब अपनी शूरवीरता के अभिमान से उन्होंने उसे पहिनने से इन्कार किया कि ‘शूरवीर को अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य के रक्षण की क्या आवश्यकता है?’ शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से स्वयंभू-सर्वज्ञ होने वाले अरिहन्तों को किसी अन्य साधन की आवश्यकता कहाँ होती है ?
त्रिपृष्ठ का पराक्रम अद्भुत था। जिसप्रकार सम्यक्त्व हेतु तत्पर मुमुक्षु योद्धा विशुद्धि के प्रहार द्वारा मिथ्यात्व शत्रु के तीन टुकड़े कर देता है, तदनुसार त्रिपृष्ठ ने प्रथम प्रहार में ही शत्रुसेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जिसप्रकार आत्मसाधना हेतु कटिबद्ध हुए, शूरवीर साधक शरीर की परवाह नहीं करते, उसीप्रकार विजय के लिये उन्मत्त योद्धा चारों ओर शस्त्र से विंधे हुए शरीर की परवाह नहीं करते हैं। अरे, खेद है कि वे योद्धा क्रोधावेश में इसप्रकार निर्भयरूप से शरीर को तो छोड़ देते थे; परन्तु शरीर से भिन्न आत्मा का भेदज्ञान करने में अपनी शक्ति नहीं लगाते थे। जितनी शक्ति वे युद्ध में लगा रहे थे, उतनी आत्मसाधना में लगाते तो कितना अपूर्व लाभ होता!
‘युद्ध में जिनके साथ कोई वैर न हो ऐसे हाथी, घोड़े तथा सैनिकों को भी अरे ! मात्र अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिये मरना पड़ता है। धिक्कार है ऐसी पराधीन चाकरी को !’ ऐसा विचार कर अनेक योद्धाओं ने इस युद्ध के बाद तुरन्त चाकरी छोड़ने का निर्णय कर लिया था। जिन्हें हिंसा नहीं रुचती थी - ऐसे अनेक जीवों का चित्त युद्ध से उदास होने पर भी वे युद्ध कर रहे थे। कोई योद्धा युद्ध भूमि में घायल होकर मरने की तैयारी में हो; तब घायल करनेवाला योद्धा स्वयं ही उसे पानी पिलाता था और पंचपरमेष्ठी का नाम सुनाता था। इसप्रकार वे युद्ध भूमि में ही बैरभाव को भूल जाते थे। घायल शत्रु पर कोई भी पुनः प्रहार नहीं करते थे, अपितु उसे आश्वासन देते थे। ऐसे विभिन्न दृश्य युद्ध भूमि में दिखायी देते थे।
विजय और त्रिपृष्ठ द्वारा अपने कितने ही शूरवीर विद्याधरों का नाश होते देखकर अश्वग्रीव ने चक्र हाथ में लेकर गर्जना की; तब भावी महावीर ऐसे त्रिपृष्ठ ने निर्भयरूप से कहा - रे अश्वग्रीव ! तेरी गर्जना व्यर्थ है; जंगली हाथी की गर्जना से हिरन डरते हैं, सिंह नहीं; कुम्हार के चाक जैसे तेरे इस चक्र से मैं नहीं डरता…चला अपने चक्र को।
अन्त में, अत्यन्त क्रोधित होकर अश्वग्रीव ने वह चक्र त्रिपृष्ठ पर फेंका…मानों चक्र के बहाने उसने अपना पुण्य ही फेंक दिया। भयंकर ज्वालाएँ छोड़ता एवं अत्यन्त गर्जना करता हुआ वह चक्र तीव्रगति से चला। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर हाहाकार मच गया। प्रथम तो जिसने अश्वग्रीव के पुण्य का ही छेदन कर दिया है ऐसा वह चक्र आश्चर्यपूर्वक त्रिपृष्ठ के दाएँ हाथ पर आया; उसकी ज्वालाएँ शान्त हो गईं, गर्जनाएँ रुक गईं और वह त्रिपृष्ठ के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तुरन्त वही चक्र क्रोधावेश में त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव पर फेंका। (रे महात्मा ! यह हिंसक चक्र तुम्हारे हाथ में शोभा नहीं देता; अब तुम धर्मचक्र के प्रवर्तक बनने वाले हो। तुम्हारा चक्र जीवों को मारने वाला नहीं, किन्तु तारनेवाला होगा।)
क्रोधपूर्वक त्रिपृष्ठ द्वारा छोड़े हुए उस चक्र ने अश्वग्रीव की ग्रीवा को छेद दिया और वे भरतक्षेत्र के प्रथम वासुदेव के रूप में प्रसिद्ध हुए। त्रिखण्ड का राज्य एवं अपार विभूति होने पर भी सम्यक्त्व रहित वह जीव किंचित् सुखी नहीं था। भोग सामग्री में तल्लीन ऐसा वह जीव दानादि धर्म को नहीं जानता था और सदा अति आरम्भ-परिग्रह में डूबा रहता था। अरे ! विषय समुद्र को पार करने हेतु नौका समान जो जैनशासन है, वह तो आत्मा में ही शान्तिरूप शाश्वत सुख बतलाकर विषयों से सुखबुद्धि छुड़ाता है, तो ऐसा ‘वीर-शासन’ प्राप्त करके ‘त्रिपृष्ठ जैसी मूर्खता’ कौन करेगा ? और विषयों की आग में कौन जलेगा? जिनोक्त धर्म की अवहेलना करके जो विषयों में लुब्ध होता है, वह मूर्ख प्राणी हाथ में आये हुए अमृत को छोड़कर विषपान करता है। राग का नाश होने से आत्मा को जिस स्वाभाविक शान्तिरूप परमसुख की प्राप्ति होती है - क्या उसका अनन्तवाँ भाग भी विषयांध मोही जीव को विषयों में से प्राप्त होता है ? नहीं, विषयरहित वीतरागभाव से ही जीव को शान्ति प्राप्त होती है।
पूर्वभव : त्रिपृष्ठ मरकर सातवें नरक में और विजय बलभद्र मोक्ष में
(दो भाई- एक मोक्ष में, दूसरा नरक में) त्रिपृष्ठ कुमार ने (अपने चरित्र नायक महावीर के जीव ने) विजय बलभद्रसहित त्रिखण्ड के राज्य का दीर्घकाल तक उपभोग किया। योग्य समय पर उनके पिता प्रजापति ने दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्रगट करके निर्वाण प्राप्त किया। दूसरी ओर इष्ट एवं मनोज्ञ (वास्तव में अनिष्ट एवं बुरे) विषयों में ही जिसका चित्त लीन है- ऐसा वह त्रिपृष्ठकुमार निदान बन्ध के कारण विषयों के रौद्रध्यान सहित निद्रावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ… और जिसका असंख्यात वर्षों का घोरातिघोर दु:ख चिन्तन में भी नहीं आ सकता - ऐसे सातवें नरक में जा गिरा। अरे रे ! एक-एक क्षण तीव्र विषयासक्ति के पापफल में वह जीव असंख्यात वर्ष के महा भयानक दुःखों को प्राप्त हुआ। ऐसे घोर दुःख फलवाले विषयसुखों को सुख कौन कहेगा? उन नरक दु:खों का वर्णन भी जिज्ञासुको संसार से भयभीत कर देता है। अरे ! ऐसे दुःख ? उनसे बचना हो तो अज्ञान को छोड़कर आत्मज्ञान करना चाहिये… विषयों के प्रति वैराग्य करना चाहिये | यह महावीर का जीवपूर्वकाल में अज्ञानदशा से भवभ्रमण करता हुआ त्रिपृष्ठ वासुदेव जैसा महान अवतार प्राप्त करके भी विषय-कषायों में लीनतावश सातवें नरक में गया। इससे ज्ञात होता है कि अरे जीव ! जिन्हें मूर्ख अज्ञानीजन सुख मान रहे हैं - उन्हें तू नरक समान दुःख दाता जान…और उनसे विमुख होकर चैतन्य के अतीन्द्रिय सुख को सच्चा सुख जानकर उसकी अनुभूति में संलग्न हो। विषय-कषाय सांसारिक सुखों का मण भी दुःख है और चैतन्यानुभूति के कण में भी महान सुख है।
कहाँ अर्धचक्रवर्ती के त्रिखण्ड के राजवैभव की अनुकूलता…और कहाँ यह सातवें नरक की प्रतिकूलता ? अपने भाई त्रिपृष्ठ की मृत्यु होने पर विजय बलभद्र छह मास तक उद्वेग में रहे; पश्चात् वैराग्य प्राप्त करके जिनदीक्षा धारण की और रत्नत्रयरूपी अमोघ-अहिंसक शस्त्र द्वारा समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षपद प्राप्त किया। अरे ! सदा साथ रहने वाले दो भाई…उनमें से एक ने तोवीतराग चारित्र द्वारा मोक्षसुख प्राप्त किया और दूसरे ने विषय-कषायवश सातवें नरक के घोर दुःख पाये। यह जानकर हे भव्यजीवो! तुम विषय-कषाय से विरक्त होकर वीतरागी चारित्र की आराधना करो!..अरे ! जीव के परिणामों की विचित्रता तो देखो ! कि वही जीव पुनः नरक से निकलकर वर्तमान में मोक्ष में विराजमान है और हम उसे ‘भगवान महावीर’ रूप में पूजते हैं।
पूर्वभव : सिंह होकर नरक में और पुन: सिंह
सातवें नरक में एक नारकी ने आकर भाले से उसकी आँखें छेद डालीं; वह दुःख से चीत्कार करता कि उससे पूर्व ही एकसाथ कितने ही नारकियों ने उसके शरीर में भाले घोंप दिये; वह गिरा कि उसे उठाकर उबलते हुए लाल रस में डालकर गला दिया। अरे ! उसके करोड़ों दु:खों का कौन वर्णन कर सकता है ?
बड़ी कठिनाई से छूटकर वह नारकी जीव (भावी तीर्थंकर) शान्ति की इच्छा से एक वृक्ष (सेमर वृक्ष) के नीचे गया; किन्तु तुरन्त ही ऊपर से तीक्ष्ण असिधारा वाले पत्ते उस पर पड़ने लगे और उसके हाथ-पैर आदि सर्व अंग कटकर छिन्नभिन्न होकर इधर-उधर बिखर गये। अरे रे ! मर जाऊँ तो यहाँ से छु - ऐसा उसे लगा; किन्तु नरक में मृत्यु भी माँगने से नहीं मिलती। अरे रे ! पापी को शान्ति कैसी ? एक क्षण मात्र कहीं चैन नहीं है ! - इसप्रकार भयंकर मरण वेदनाएँ सहतेसहते उस जीव ने असंख्यात वर्ष बिताये।
ऐसे नरक के तीव्र दुःख भोगकर वह अर्धचक्री का जीव इस भरतक्षेत्र के विपुलसिंह नामक पर्वत पर क्रूरपरिणामी सिंह हुआ; अनन्तानुबन्धी कषायसहित रौद्रध्यान से रंजित उसका मन शान्ति रहित था। भूखा न हो, तब भी बिना कारण वह अनेक निर्दोष जीवों का घात कर देता था। इसप्रकार जिसके रौद्र भावों का प्रवाह कभी रुका नहीं है - ऐसा वह निर्दय सिंह वहाँ से मरकर पुन: नरक में गया और फिर असंख्यात वर्षों तक उसने वहाँ के तीव्र-असह्य दुःख भोगे। उन दुःखों का कथन कैसे हो ? और कैसे सहे जायें ? वह तो भोगनेवाला ही भोगे और भगवान ही जाने।
ऐसे मिथ्यात्व-कषाय के दु:खों से अब बस होओ!..बस होओ ! जिनका वेदन अब इस जीव को तो कभी नहीं करना है; परन्तु जिन दुःखों का वर्णन पढ़ते लिखते हुए भी कपकपी आ जाती है - वे दुःख महावीर के जीव ने अज्ञानवश अन्तिम बार भोग लिये। बस अब फिर कभी वह जीव ऐसे दु:ख में नहीं पड़ेगा। नरक की यह उसकी अन्तिम पर्याय है; अब नरक को तिलांजली देकर वहाँ से बाहर निकलकर वह पुन: सिंह हुआ। उसकी यह सिंह पर्याय (और तिर्यंच पर्याय भी) अन्तिम है, अब फिर वह जीव कभी तिर्यंचगति में भी अवतरित नहीं होगा।
इसप्रकार महावीर के जीव ने नरक और तिर्यंच इन दोनों गतियों में परिभ्रमण करने का अन्त तो किया | अब शेष रही देव और मनुष्य पर्यायों का भी अन्त करके वह जीव अपूर्व सिद्धपद की साधना किसप्रकार करता है - उसकी सरस आनन्दप्रद कथा अब प्रारम्भ होगी। अभी तक तो वह जीव अज्ञान एवं कषायवश संसार में कहाँ-कहाँ भटका और कैसे-कैसे दुःख भोगे - यह उसकी कथा थी, बन्धन की कथा थी; परन्तु अब वह जीव किसप्रकार धर्म प्राप्त करता है, आराधक बनकर कैसी शान्ति का वेदन करता है और कैसे मोक्ष सुख साधकर महावीर बनता है, उसकी सुन्दर आनन्ददायक धर्मकथा पढ़कर प्रसन्नता होगी। दुःख में तो ग्लानि होती ही है; परन्तु दुःख की कथा पढ़कर भी जीव थक जाता है। महावीर के जीव की दुःखद कथा का अन्त हुआ; अब उसकी सुखद कथा प्रारम्भ करते हैं।