तत्त्व सार भाषा। tattvsar bhasha

मूल ग्रन्थ कर्ता: आचार्य श्री देवसेन स्वामी

पण्डितप्रवर द्यानतरायजी कृत

तत्त्वसार भाषा

मंगलाचरण

दोहा

आदिसुखी अन्तःसुखी, शुद्ध सिद्ध भगवान् ।

निज प्रताप परताप बिन, जगदर्पन जग आन ॥१॥

ध्यान दहन विधि-काठ दहि, अमल सुद्ध लहि भाव ।

परम जोतिपद वंदिकै, कहूँ तत्त्वकौ राव ॥१॥

चौपाई

तत्त्व कहे नाना परकार, आचारज इस लोकमँझार ।

भविक जीव प्रतिबोधन काज, धर्मप्रवर्तन श्रीजिनराज ॥२॥

आतमतत्त्व कह्यौ गणधार, स्वपरभेदतैं दोइ प्रकार ।

अपनौ जीव स्वतत्त्व बखानि, पर अरहंत आदि जिय जानि ॥३॥

अरहंतादिक अच्छर जेह, अरथ सहित ध्यावै धरि नेह ।

विविध प्रकार पुन्य उपजाय, परंपराय होय सिवराय ॥४॥

आतमतत्त्वने द्वै भेद, निरविकलप सविकलप निवेद ।

निरविकलप संवरकौ मूल, विकलप आस्रव यह जिय भूल ॥५॥

जहां न व्यापै विषय विकार, ह्वै मन अचल चपलता डार ।

सो अविकल्प कहावै तत्त, सोई आपरूप है सत्त ॥६॥

मन थिर होत विकल्पसमूह, नास होत न रहै कछु रूह ।

सुद्ध स्वभावविषै ह्वै लीन, सो अविकल्प अचल परवीन ॥७॥

सुद्धभाव आतम दृग ग्यान, चारित सुद्ध चेतनावान ।

इन्हैं आदि एकारथ वाच, इनमैं मगन होइकै राच ॥८॥

परिग्रह त्याग होय निरग्रन्थ, भजि अविकल्प तत्त्व सिवपंथ ।

सार यही है और न कोय, जानै सुद्ध सुद्ध सो होय ॥९॥

अन्तर बाहिर परिग्रह जेह, मनवच तनसौं छांड़े नेह ।

सुद्धभाव धारक जब होय, यथा ग्यान मुनिपद है सोय ॥१०॥

जीवन मरन लाभ अरु हान, सुखद मित्र रिपु गनै समान ।

राग न रोष करै परकाज, ध्यान जोग सोई मुनिराज ॥११॥

काललब्धिबल सम्यक वरै, नूतन बंध न कारज करै ।

पूरव उदै देह खिरि जाहि, जीवन मुकत भविक जगमाहि ॥१२॥

जैसे चरनरहित नर पंग, चढ़न सकत गिरि मेरु उतंग ।

त्यौं विन साधु ध्यान अभ्यास, चाहै करौ करमकौ नास ॥१३॥

संकितचित्त सुमारग नाहिं, विषैलीन वांछा उरमाहिं ।

ऐसैं आप्त कहैं निरबान, पंचमकाल विषैं नहिं जान ॥१४॥

आत्मग्यान दृग चारितवान, आतम ध्याय लहै सुरथान ।

मनुज होय पावै निरबान, तातैं यहां मुकति मग जान ॥१५॥

यह उपदेस जानि रे जीव, करि इतनौ अभ्यास सदीव ।

रागादिक तजि आतम ध्याय, अटल होय सुख दुख मिटि जाय ॥

आप-प्रमान प्रकास प्रमान, लोक प्रमान, सरीर समान ।

दरसन ज्ञानवान परधान, परतैं आन आतमा जान ॥१७॥

राग विरोध मोह तजि वीर, तजि विकलप मन वचन सरीर ।

ह्वै निचिंत चिंता सब हारि, सुद्ध निरंजन आप निहारि ॥१८॥

क्रोध मान माया नहिं लोभ, लेस्या सल्य जहाँ नहिं सोभ ।

जन्म जरा मृतुकौ नहिं लेस, सो मैं सुद्ध निरंजन भेस ॥१९॥

बंध उदै हिय लबधि न कोय, जीवथान संठान न होय ।

चौदह मारगना गुनथान, काल न कोय चेतना ठान ॥२०॥

फरस वरन रस सुर नहि गंध, वरग वरगना जास न खंध ।

नहिं पुदगल नहिं जीवविभाव, सो मैं सुद्ध निरंजन राव ॥२१॥

विविध भाँति पुदगल परजाय, देह आदि भाषी जिनराय ।

चेतन की कहियै व्योहार, निहचैं भिन्न-भिन्न निरधार ॥२२॥

जैसैं एकमेक जल खीर, तैसैं आनौ जीव सरीर ।

मिलैं एक पै जुदे त्रिकाल, तजै न कोऊ अपनी चाल ॥२३॥

नीर खीरसौं न्यारौ होय, छांछिमाहिं डारै जो कोय ।

त्यौं ज्ञानी अनुभौ अनुसरै, चेतन जड़सौं न्यारौ करै ॥२४॥

दोहा

चेतन जड़ न्यारौ करै, सम्यकदृष्टी भूप ।

जड़ तजिकैं चेतन गहै, परमहंसचिद्रूप ॥२५॥

ज्ञानवान अमलान प्रभु, जो सिवखेतमँझार ।

सो आतम मम घट बसै, निहचै फेर न सार ॥२६॥

सिद्ध सुद्ध नित एक मैं, ग्यान आदि गुणखान ।

अगन प्रदेस अमूरती, तन प्रमान तन आन ॥२७॥

सिद्ध सुद्ध नित एक मैं, निरालम्ब भगवान् ।

करमरहित आनंदमय, अभै अखै जग जान ॥२८॥

मनथिर होत विषै घटै, आतमतत्त्व अनूप ।

ज्ञान ध्यान बल साधिकै, प्रगटै ब्रह्मसरूप ॥२९॥

अंबर घन फट प्रगट रवि, भूपर करै उदोत ।

विषय कषाय घटावतैं, जिय प्रकास जग होत ॥३०॥

मन वच काय विकार तजि, निरविकारता धार ।

प्रगट होय निज आतमा, परमातमपद सार ॥३१॥

मौनगहित आसन सहित, चित्त चलाचल खोय ।

पूरव सत्तामैं गलें, नये रुकैं सिव होय ॥३२॥

भव्य करैं चिरकाल तप, लहैं न सिव विन ग्यान ।

ग्यानवान ततकाल ही, पावैं पद निरवान ॥३३॥

देह आदि परद्रव्यमैं, ममता करै गँवार ।

भयौ परसमैं लीन सो, बांधै कर्म अपार ॥३४॥

इंद्रीविषै मगन रहै, राग दोष घटमाहिं ।

क्रोध मान कलुषित कुधी, ज्ञानी ऐसौ नाहिं ॥३५॥

देखै सो चेतन नहीं, चेतन देखौ नाहिं ।

राग दोष किहिसौं करौं, हौं मैं समतामाहिं ॥३६॥

थावर जंगम मित्र रिपु, देखै आप समान ।

राग विरोध करै नहीं, सोई समतावान ॥३७॥

सब असंखपरदेसजुत, जनमै मरै न कोय ।

गुणअनंत चेतनमई, दिव्यदृष्टि धरि जोय ॥३८॥

निहचै रूप अभेद है, भेदरूप व्योहार ।

स्यादवाद मानै सदा, तजि रागादि विकार ॥३९॥

राग दोष कल्लोलबिन, जो मन जल थिर होय ।

सो देखै निजरूपकौं, और न देखै कोय ॥४०॥

अमल सुथिर सरवर भयैं, दीसै रतनभण्डार ।

त्यौं मन निरमल थिरविषैं, दीसै चेतन सार ॥४१॥

देखैं विमलसरूपकौं, इन्द्रियविषै विसार ।

होय मुकति खिन आधमैं, तजि नरभौ अवतार ॥४२॥

ज्ञानरूप निज आतमा, जड़सरूप पर मान ।

जड़तजि चेतन ध्याइयै, सुद्धभाव सुखदान ॥४३॥

निरमल रत्नत्रय धरैं, सहित भाव वैराग ।

चेतन लखि अनुभौ करैं, वीतरागपद जाग ॥४४॥

देखै जानै अनुसरै, आपविषैं जब आप ।

निरमल रत्नत्रय तहां जहां न पुन्य न पाप ॥४५॥

थिर समाधि वैरागजुत, होय न ध्यावै आप ।

भागहीन कैसैं करै, रतन विसुद्ध मिलाप ॥४६॥

विषयसुखनमैं मगन जो, लहै न सुद्ध विचार ।

ध्यानवान विषयनि तजै लहै तत्त्व अविकार ॥४७॥

अथिर अचेतन जड़मई, देह महादुखदान ।

जो यासौं ममता करै, सो बहिरातम जान ॥४८॥

सरै परै आमय धरै, जरै मरै तन एह ।

हरि ममता समता करै, सो न वरै पन-देह ॥४९॥

पापउदैकौं साधि, तप, करै विविध परकार ।

सो आवै जो सहज ही, बड़ौ लाभ है सार ॥५०॥

करमउदय फल भोगतें, करै न राग विरोध ।

सो नासै पूरव करम, आगैं करै निरोध ॥५१॥

चौपाई - १५ मात्रा

कर्मउदै सुख दुख संजोग, भोगत करैं सुभासुभ लोग ।

तातैं, बांधैं करम अपार, ज्ञानावरनादिक अनिवार ॥५२॥

जबलौं परमानूसम राग, तबलौं करम सकैं नहिं त्याग ।

परमारथ ज्ञायक मुनि सोय, राग तजैं बिनु काज न होय ॥५३॥

सुख दुख सहै करम वस साध, करै न राग विरोध उपाध ।

ज्ञानध्यानमैं थिर तपवंत, सो मुनि करै कर्मकौ अन्त ॥५४॥

गहै नहीं पर तजै न आप, करै निरन्तर आतमजाप ।

ताकैं संवर निर्जर होय, आस्रव बंध विनासै सोय ॥५५॥

तजि परभाव चित्त थिर कीन, आप-स्वभावविषैं ह्वै लीन ।

सोई ज्ञानवान दृगवान, सोई चारितवान प्रधान ॥५६॥

आतमचारित दरसन ज्ञान, सुद्धचेतना विमल सुजान ।

कथन भेद है वस्तु अभेद, सुखी अभेद भेदमैं खेद ॥५७॥

जो मुनि थिर करि मनवचकाय, त्यागै राग दोष समुदाय ।

धरै ध्यान निज सुद्धसरूप, बिलसै परमानंद अनूप ॥५८॥

जिह जोगी मन थिर नहिं कीन, जाकी सकति करम आधीन ।

करइ कहा न फुरे बल तास, लहै न चेतन सुखकी रास ॥५९॥

जोग दियौ मुनि मनवचकाय, मन किंचित चलि बाहिर जाय ।

परमानंद परम सुखकंद, प्रगट न होय घटामैं चंद ॥६०॥

सब संकल्प विकल्प विहंड, प्रगटै आतमजोति अखण्ड ।

अविनासी सिवकौ अंकूर, सो लखि साध करमदल चूर ॥६१॥

विषय कषाय भाव करि नास, सुद्धसुभाव देखि जिनपास ।

ताहि जानि परसौं तजि काज, तहां लीन हूजै मुनिराज ॥६२॥

विषय भोगसेती उचटाइ, शुद्धतत्त्वमैं चित्त लगाइ ।

होय निरास आस सब हरै, एक ध्यानअसिसौं मन मरै ॥६३॥

मरै न मन जो जीवै मोह, मोह मरैं मन जनमन होय ।

ज्ञानदर्श आवर्न पलाय, अन्तरायकी सत्ता जाय ॥६४॥

जैसैं भूप नसैं सब सैन, भाग जाइ न दिखावै नैन ।

तैसैं मोह नास जब होय, कर्मघातिया रहै न कोय ॥६५॥

कीनैं चारिघातिया हान, उपजै निरमल केवलज्ञान ।

लोकालोक त्रिकाल प्रकास, एक समैंमैं सुखकी रास ॥६६॥

त्रिभुवन इन्द्र नमैं कर जोर, भाजैं दोषचोर लखि भोर ।

आव जु नाम गोत वेदनी, नासि भयैं नूतन सिवधनी ॥६७॥

आवागमनरहित निरबंध, अरस अरूप अफास अगंध ।

अचल अबाधित सुख विलसंत, सम्यकआदि अष्टगुणवंत॥६८॥

मूरतिवंत अमूरतिवंत, गुण अनंत परजाय अनंत ।

लोक अलोक त्रिकाल विथार, देखै जानै एकहि बार ॥६९॥

सोरठा

लोकसिखर तनुवात, कालअनंत तहां बसै ।

धरमद्रव्य विख्यात, जहां तहां लौं थिर रहै ॥७०॥

ऊरधगमन सुभाव, तातैं बंक चलै नहीं ।

लोकअंत ठहराव, आगैं धर्मदरव नहीं ॥७१॥

रहित जन्म मृति एह, चरमदेहतैं कछु कमी ।

जीव अनंत विदेह, सिद्ध सकल वंदौं सदा ॥७२॥

ते हैं भव्य सहाय, जे दुस्तर भवदधि तरैं ।

तत्त्वसार यह गाय, जैवंतौ प्रगटौ सदा ॥७३॥

देवसेन मुनिराज, तत्त्वसार आगम कह्यौ ।

जो ध्यावै हितकाज, सो ज्ञाता सिवसुख लहै ॥७४॥

भाषा छन्दकार की प्रार्थना

सम्यकदरसन ग्यान, चारित सिवकारन कहे ।

नय व्यवहार प्रमान, निहचैं तिहुमैं आतमा ॥७५॥

लाख बातकी बात, कोटि ग्रन्थकौ सार है ।

जो सुख चाहौ भ्रात, तो आतम अनुभौ करौ ॥७६॥

लीजौ पंच सुधारि, अरथ छंद अच्छर अमिल ।

मो मति तुच्छ निहारि, छिमा धारियौ उरविषैं ॥७७॥

द्यानत तत्त्व जु सात, सार सकलमैं आतमा ।

ग्रन्थ अर्थ यह भ्रात, देखौ जानौ अनुभवौ ॥७८॥

इति तत्वसार भाषा

इति शुभम्