तत्त्वार्थ सूत्र, हिन्दी पद्यानुवाद | Tattvarthsutra hindi padyanuwad

Pending Proofreading …:warning::warning::warning:
चैतन्य वन्दना

जिन्हें मोह भी जीत न पाये, वे परिणति को पावन करते।
प्रिय के प्रिय भी प्रिय होते हैं, हम उनका अभिनन्दन करते।
जिस मंगल अभिराम भवन में, शाश्वत सुख का अनुभव होता।
वन्दन उस चैतन्य राज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।

जिसके अनुशासन में रहकर, परिणति अपने प्रिय को वरती।
जिसे समर्पित होकर शाश्वत, ध्रुव सत्ता का अनुभव करती।
जिसकी दिव्य ज्योतिमय, चिर संचित अज्ञान तिमिर घुल जाता।
वन्दन उस चैतन्य राज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।

जिस चैतन्य महा हिमगिरि से, परिणति के घन टकराते हैं।
शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द रस की, मूसलधारा बरसाते हैं ।
जो अपने आश्रित परिणति को, रत्नत्रय की निधियां देता।
वन्दन उस चैतन्य राज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।

जिसका चिन्तन मात्र असंख्य, प्रदेशों को रोमांचित करता।
मोह उदयवश जड़वत् परिणति में, अद्भुत चैतन्य रस भरता।
जिसकी ध्यान अग्नि में चिर, संचित कर्मों का कल्मष जलता।
वन्दन उस चैतन्य राज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।

मंगलाचरण

(हरिगीत)

हे मुक्ति पथ नायक-महा, तुम जानते सब सृष्टि को।
हे कर्म-गिरि भेदक नमूँ मैं, तव गुणों की प्राप्ति हो।।

अध्याय - 1

(वीर छन्द)

सूत्र क्रमांक

(1-5)

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित ही एक मात्र शिवपुर का पंथ।
तत्त्वार्थों की श्रद्धा समकित अधिगम से या होय स्वयम्।।
जीव अजीव आसव बन्ध-रु संवर निर्जर मोक्ष सुतत्त्व।
नाम स्थापन द्रव्य भाव से ये सब होते हैं वक्तव्य।।1।।

(6-8)

नय-प्रमाण एवं निर्देश तथा स्वामित्व-रु साधन से।
काल और आधार तथा भेदों से ये जाने जाते।।
सत् संख्या अरु क्षेत्र स्पर्शन काल और अन्तर से जान।
भाव और हीनाधिकता से होता है तत्त्वों का ज्ञान।।2।।

(9- 14)

मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय अरु केवल- ये हैं ज्ञान प्रमाण।
मति-श्रुत दोनों हैं परोक्ष अरु शेष तीन प्रत्यक्ष सुजान।।
मति-स्मृति-संज्ञा-चिन्ता अरु अभिनिबोध जानो मतिज्ञान।
मन अरु इन्द्रिय के निमित्त से भी हो जाता है मतिज्ञान।।3।।

(15-19)

अवग्रह ईहा अवाय धारणा- इस क्रम से होता मतिज्ञान।
बहु बहुविध अरु शीघ्र अप्रगट अकथित ध्रुव वस्तु का ज्ञान-
इन सबके प्रतिपक्ष स्वरूपी सब मिल बारह भेद पदार्थ।
अप्रगट का हो मात्र अवग्रह चक्षु और मन से नहिं ज्ञात।।4।।

(20-23)

मतिपूर्वक ही श्रुत होता है दो अनेक अरु बारह भेद।
सुर-नारक के अवधिज्ञान में भव ही कारण कहें जिनेश।
नर-तिर्यन्चों को क्षयोपशम से होता छह भेदों युक्त।
ऋजुमति और विपुलमति दो हैं मनपर्यय के भेद सुयुक्त।।5।।

(24-28)

सुविशुद्धि अरु अप्रतिपाती की विशेषता है इनमें।
क्षेत्र विशुद्धि स्वामी अरु विषय अपेक्षा भिन्न कहे दोनों।।
कुछ पर्यायों सहित सभी द्रव्यों को जाने मति-श्रुतज्ञान।
अवधिज्ञानरूपी को जाने भाग अनन्ता चौथाज्ञान।।6।।

(29-32)

सकल द्रव्य-गुण-पर्यायों को विषय बनाता केवलज्ञान।
एक जीव को एक साथ हो सकें एक दो त्रय चौ ज्ञान।।
मतिश्रुत अवधि विपर्यय भी हैं मानें असत् और सत् एक।
मनमानी से ग्रहण करें उन्मत्त समान लहें बहु खेद।।7।।

(हरिगीत)

नैगम तथा संग्रह सहित व्यवहार अरु ऋजुसूत्र नय।
शब्द समभिरूढ एवंभूत जानो सप्त नय।।

अध्याय - 2

सूत्र क्रमांक

(1-4)

उपशम क्षायिक मिश्र और औदयिक पारिणामिक निज भाव ।
कमश: दो नौ भेद अठारह एकबीस त्रय चेतन भाव ।।
उपशम के समकित चारित द्वय क्षायिक के हैं दर्शन ज्ञान-
दान लाभ भोगोपभोग बल समकित चारित भेद सुजान।। 1 ।।

(5-6)

ज्ञान चार अज्ञान तीन त्रय दर्शन और लब्धियाँ पाँच ।
समकित चारित और संयमासंयम भाव क्षयोपशम जान ||
गति कषाय लिंग चार चार त्रय मिथ्यादर्शन इक अज्ञान ।
एक असंयम असिद्धत्व लेश्या छह उदयिक इक्किस मान|| 2 ||

(7-13)

भव्य अभव्य तथा जीवत्व भेद पारिणामिक के तीन ।
दर्शन-ज्ञान जीव का लक्षण चार-आठ हैं भेद सही ॥
संसारी अरु मुक्तजीव हैं संसारी मन सहित-अमन ।
संसारी त्रस, थावर- भू जल अग्नि वनस्पति और पवना॥3॥

(14-19)

दो त्रय चार पांच इन्द्रिययुत त्रस हैं, इन्द्रिय होती पांच ।
दो प्रकार की हैं, द्रव्येन्द्रिय, निर्वृत्ति और उपकरण सुजान।
लब्धि और उपयोग जानिये भावेन्द्रिय के भेद अहो।
पर्शन रसना घ्राण चक्षु अरु श्रोत्र पांच इन्द्रियाँ कहो ॥4॥

(20-25)

फरस तथा रस गन्ध वर्ण अरु शब्द विषय हैं इन्द्रिय के।
श्रुत को विषय बनाता है मन थावर की हैं इन्द्रिय एक ॥
एक-एक इन्द्रिय बढ़ती कृमि चींटी भँवरा मनुजों में ।
संज्ञी हैं मन सहित और हो कर्म योग विग्रह गति में ॥5॥

(26-31)

नभ प्रदेश श्रेणी में गति हो मुक्त जीव की सरल गति ।
संसारी की वक, सरल भी. चार समय के पूर्व कही।
एक समय में सरल प्रति है इक दो त्रय तक अनहारी ।
सम्मूर्छन अरु गर्भ तथा उपपाद जन्म लें संसारी ॥6॥

(32-36)

शीत-सचित्त ढँकी, अरु इनसे इतर मिश्र नौ योनि कही।
अण्डज पोत जरायुज ये सब जीव जन्मते गर्भ सहित ।
सुर-नारक उपपाद जन्म लें सम्मूर्खन हैं शेष सभी ।
औदारिक वैकिय आहारक तेजस अरु कार्माण शरीर ॥7॥

(37-43)

क्रमशः अधिक सूक्ष्म है सब तन, प्रदेश असंख्यगुणे तन तीन ।
अन्तिम दो तन के प्रदेश अनन्त भुणे उप्रतिघाती ॥
हैं अनादि से ये दोनों तन सभी जीव के रहते संग ।
कम से कम ये दो तन और अधिकतम चार रहें इक संग || 8 ||

(44-49)

निरुपभोग है अन्तिम तन गर्भज सम्मूर्छन को पहला।
उपपाद जन्म में वैक्रियतन, यह लब्धि विशेष से भी होता ॥
तैजस भी लब्धि से होता आहारक शुभ और विशुद्ध ।
होता है प्रमत्त संयत मुनिवर को यह व्याघात रहित।।१७।।

हरिगीतिका

(50-53)

नारकी-सम्मूर्छन होते नपुंसक, सुर नहीं ।
शेष सबको तीन लिंग हो सकें कहते जिन यही ।।
औपपादिक, चरम उत्तम तन, असंख्यों वर्ष की
हो आयु जिनकी उन्हें अपवर्तन नहीं होता कभी ।।10।।

अध्याय - 3

सूत्र क्रमांक

(1-2)

रत्न शर्करा बालु पंक अरु धूमप्रभा तम महातमा ।
घन अम्बु तनु वात वलय नीचे-नीचे भू सप्त कहा ॥
तीस पचीस पन्द्रह, एवं तीन लाख बिल पंचम तक ।
छठवें में कम पाँच लाख इक, सप्तम में बिल पाँच निरख ।। 1 ।।

(1-6)

  • नित्य अशुभतर लेश्या अरु परिणाम देह वेदना अहो ।
    तथा विकिया इनकी होती दुख दें एक दूसरे को ॥
    तीजे तक इनको दुख देते असुर कुमार महासंक्लिष्ट ।
    एक तीन अरु सात तथा दस सत्रह अरु बाइस तेतीस॥2॥

(6-9)

-सागर नारकियों की आयु कही जिनागम में उत्कृष्ट ।
मध्य लोक में जम्बू लवणोदधि आदि शुभ द्वीप समुद्र-
पूर्व पूर्व को घेर रहे दूने विस्तृत चूड़ीवत् जान ।
सब द्वीपों के बीच लाख योजन का मेरु नाभि समान ||3||

(10-11)

भरत हैमवत् हरि विदेह रम्यक हैरण्य-रु ऐशवत ।
सात क्षेत्र जम्बू सुद्वीप में इन्हें बाँटते छह पर्वत ॥
हिमवन तथा महाहिमवन गिरि निषध नील रुक्मि शिखरी ।
पूरब से पश्चिम तक फैले सदा सुशोभित उन्नत गिरि ।। 4 ।।

(12-13)

स्वर्ण रजतमय और तप्त सोने के हैं शोभित गिरि तीन ।
नीलमणि चॉदी सोने के शोभित होते हैं गिरि तीन ।
ऊपर नीचे और मध्य में है विस्तार एक जैसा,
सभी पर्वतों का तट चित्र-विचित्र सुशोभित मणियों का ॥5॥

(14-17)

पद्म सरोवर महापद्म अरु तिभिञ्छ केसरी महापुण्डरीक ।
पुण्डरीक नामक छह सरवर से शोभित ये छहों गिरि ।।
पद्म सरोवर एक सहस योजन लम्बा आधा चौड़ा |
दश योजन गहरा है उसके बीच कमल इक योजन का ||6||

(18-19)

शेष सरोवर और कमल हैं दूने-दूने पिछले से ।
श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि अरु लक्ष्मी देवी हैं इनमें ।।
ये सामाजिक और पारिषद देवों के संग रहती हैं ।
मात्र एक पल्योपम आयु इनकी कही जिनागम में ।।७।।

(20-22)

बंधा-सिन्धु रोहित रोहितास्या हरित-हरिकान्ता ।
सीता सीतोदा नारी-नरकान्ता सुवर्ण-रूप्यकुला ||
रक्ता- रक्तोदा ये चौदह नदियाँ बहती सरवर से ।
पहली बहती पूर्व दिशा में दूजी बहती पश्चिम में ।।८।।

(23-25)

सहस चतुर्दश नदियों से हैं घिरी गंग-सिन्धु नदियाँ ।
पाँच शतक छब्बिस योजन अरु उन्नीस में से भाग छठा-
भरत क्षेत्र का इतना है विस्तार वचन जिन आगम का ।
क्षेत्र विदेह तक है विस्तार जानिये सब दूना-ढूना ॥9॥

(26-28)

उत्तर दक्षिण में क्षेत्रादिक सबका है विस्तार समान ।
भरतैरावत में होती है हानि वृद्धि छह काल सुजान ।।
अवसर्पिणि- उत्सर्पिणि कालों द्वारा होता परिर्वतन ।
भरतैरावत के अतिरिक्त कहीं नहिं होता परिवर्तन ॥10॥

(29-32)

हैमवतक हरि देवकुरु में इक द्वय त्रय पल्योपम आयु ।
हैरण्यवतक रम्यक् उत्तर कुरु में भी इसी तरह की आयु ॥
नर-तिर्य चों की विदेह में आयु वर्ष कही संख्यात ।
इक शत नब्बे भाग द्वीप जम्बू का भरतक्षेत्र विस्तार ।।11।।

(33-36)

खण्ड धातकी में सब रचना जम्बूद्वीप से दूनी हैं ।
पुष्करार्ध में भी सब रचना जम्बूद्वीप से दूनी हैं ।
मानुषोत्तर के पहले तक ही मानव हो सकते हैं ।
आर्य-म्लेच्छ- इन दो रूपों में मनुजों के दो भेद कहे ।।12।।

(37-39)

भरतैरावत अरु विदेह में कर्मभूमि पन्द्रह मानो ।
देवकुरु-उत्तरकुरु में नहिं कर्मभूमि होती जानो ॥
मनुजों की उत्कृष्ट पल्यत्रय आयु जघन अन्तर्मुहुरत ।
तिर्यंचों की भी आयु इतनी ही होती मानववत् ।।13।।

अध्याय - 4

सूत्र क्रमांक

(1-3)

भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष अरु कल्पवासि सुर चार प्रकार।
भवनत्रिक में कृष्ण नील कापोत पीत लेश्यायें चार ।।
कल्पोपन्न देव तक चारों के दश आठ पाँच बारह ।
सभी निकायों के देवों के होते हैं दश भेद प्रवर ।।1।।

(4-5)

इन्द्र तथा सामानिक त्रायस्त्रिंश अरु भेद पारिषद हैं ।
आत्मरक्ष अरु लोकपाल, अनीक प्रकीर्णक भेद कहें ॥
आभियोग्य अरु किल्विष ये दश भेद सभी हैं देवों में ।
त्रायस्त्रिंश अरु लोकपाल नहिं होते व्यन्तर ज्योतिष में ॥2॥

(6-9)

भवनवासि व्यन्तर में दो दो इन्द्र कहे जिन आगम में ।
काया से हो काम-क्रिया ऐशान स्वर्ग तक देवों में ॥
शेष सुरों में स्पर्श रूप अरु शब्द तथा मन से होती ।
सोलह स्वर्गों से ऊपर नहि काम भाव सुर में होती ॥३॥

(10-11)

भवनवासि में असुर-नाग-1 -विद्युत-सुपर्ण अरु अग्निकुमार ।
वात-स्तनित-२ उदधि, द्वीप मिल दिक्कुमार दश भेद विचार ।।
किन्नर अरु किं पुरुष महोरग हैं गंधर्व यक्ष राक्षस ।
भूत पिशाच मिलाकर आठ प्रकार जानिये सब व्यन्तर ||4||

(12-17)

सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक ज्योतिष देव कहे ।
सदा मेरु की प्रदक्षिणा कर मध्य लोक में गमन करें ।
इनसे काल भेद है, ढाई द्वीप परे सब हैं स्थिर ।
वैमानिक के भेद लखो कल्पोपन्न अरु कल्पातीत ।।5।।

(18-19)

ऊपर-ऊपर स्वर्गलोक सौधर्मेशान कुमार-सनत् ।
माहेन्द्र ब्रह्म बह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ शुक अरु महाशुक ॥
शतार सहसार आनंत प्राणत आरण अच्युत शुभ नाम ।
नव ग्रैवेयक नव अनुदिश पर पाँच अनुतर कहें विमान ॥6॥

(20-22)

विजय वैजयन्त-रु जयन्त अपराजित अरु सर्वार्थसिद्धि ।
थिति प्रभाव द्युति सुख लेश्या सुविशुद्धि इन्द्रियां अवधि अधिक ।
गति शरीर परिग्रह अभिमान कहे हैं ऊपर-ऊपर हीन ।
दो युगलों में पीत तीन में पद्म शेष में शुक्ल कही ॥7॥

(23-26)

कल्प कहें सोलह स्वर्गों को ऊपर के हैं कल्पातीत ।
ब्रह्म लोक में लौकान्तिक के आठ भेद सारस्वत आदित्य-
वन्हि अरुण अरु गर्दतोय हैं तुषित अव्याबाध अरिष्ट
विजयादिक दो अन्तिम नरभव मात्र एक सर्वार्थ सिद्धि ॥8॥

(27-29)

देव नारकी और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी तिर्यंच ।
असुरकुमार एक सागर थिति नागकुमार आयु त्रय पल्य ।।
ढाई अरु दो पल्य सुपर्ण-द्वीप की शेष सभी की डेढ़ ।
सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में दो सागर कुछ अधिक कहें ॥9॥

(30-32)

सानत अरु माहेन्द्र स्वर्ग में सप्तोदधि कुछ अधिक थिति ।
तीन सात नव ग्यारह तेरह पन्द्रह अधिक शेष की थिति ॥
नव ग्रैवेयक नव अनुदिश विजयादिक पाँच विमानों में।
एक-एक सागर बढ़ती है आयु कल्पातीतों में ।।10।।

(33-38)

सौधर्म और ईशान स्वर्ग में एक पल्य कुछ अधिक जघन्य ।
पहले-पहले की उत्कृष्ट, वही आगे की आयु जघन्य।।
द्वितियादिक नरकों की है उत्कृष्ट, जघन आगामी की ।
वर्ष सहस दस प्रथम नरक की भवनवासि अरु व्यन्तर की ।।11।।

(39-42)

इक पल्योपम से कुछ ज्यादा व्यन्तर ज्योतिष की उत्कृष्ट-
पल्योपम का भाग आठवाँ ज्योतिष की ही आयु जघन ॥
सब लौकान्तिक देवों की है आयु जघन एवं उत्कृष्ट।
सागर आठ जानिये यह सब जिन आगम के वचन प्रकृष्ट ।।12।।

अध्याय - 5

सूत्र क्रमांक

(1-8)

धर्म अधर्म आकाश और पुद्गल अजीव हैं द्रव्य कहे।
अधिक प्रदेशी द्रव्य जीव भी नित्य अवस्थित द्रव्य कहे ।।
पुद्गल रूपी शेष अरूपी एक-एक हैं नभ पर्यन्त ।
निष्क्रिय, धर्माधर्म जीव के हैं प्रदेश जानिये असंख्य ।।1।।

(9-14)

है आकाश अनन्त प्रदेशी संख्यासंख्य अनन्त पुद्गल ।
परमाणु है एक प्रदेशी लोकाकाश रहें सब द्रव्य ।।
धर्म-अधर्म समस्त लोक में व्याप्त तिलों में तेल समान ।
पुद्गल एक तथा संख्यात असंख्य प्रदेश विभाग सुजान ।।2।।

(15-18)

जीवों का अवगाह लोक में असंख्यातवें भाग प्रमाण ।
हो संकोच तथा विस्तार प्रदेशों में दीपकवत् जान ||
गति स्थिति जीव-रु पुद्गल की क्रमश: धर्म-अधर्म उपकार ।
सब द्रव्यों को अवगाहन दे यह उपकार करे आकाश ।।3।।

(19-22)

तन मन वाणी श्वासोच्छ्वास रचे जाते हैं पुद्गल से ।
इन्द्रिय सुख दुख जन्म मरण में भी पुगल निमित्त होते ॥
एक दूसरे का आपस में करते जीव द्रव्य उपकार ।
वर्तन क्रिया और परिणाम परत्वापरत्व काल उपकार ।।4।।

(23-28)

स्पर्श-गन्ध-रस-वर्णमयी अरु शब्द बन्ध सुक्षम स्थूल-
संस्थान भेद तम छाया आतप अरु उद्योतवन्त पुद्गल ।।
अणु एवं स्कन्ध, भेद-संघात तथा हों दोनों से ।
अणु भेद से एवं चक्षुगम्य खंध हो दोनों से ।।5।।

(29-35)

सत् लक्षण है द्रव्य तथा सत् व्यय-उत्पाद-धौव्य संयुक्त ।
निज भावों के अव्यय होने को ही जिन कहते हैं नित्य ।।
मुख्य-गौण से सिद्धि होती, बन्ध स्निग्धता रूक्षपने ।
नहिं जघन्यगुण से एवं गुण हों सादृश तो नहीं बँधे ।।6।।

(36-42)

यदि दो गुण हों अधिक तभी बंधते है आपस में पुद्गल ।
ज्यादा गुण वाले कर लेते कम गुण वाले को निज सम ।।
गुण पर्यायों युक्त द्रव्य है काल अनन्त समययुत द्रव्य ।
गुण द्रव्याश्रित निर्गुण जानो भाव द्रव्य का है परिणाम ।।7।।

अध्याय - 6

सूत्र क्रमांक

(1-5)

मन-वच-तन की क्रिया योग है उसको आसव कहते हैं।
शुभ से पुण्य अशुभ से पाप कर्म आसव नित होते हैं ।।
सकषायी को साम्परायिक अकषायी को ईर्यापथ है ।
इन्द्रिय कषाय अव्रत अरु किया भेदरूप साम्प्रायिक है ।।1।।

(5-7)

-पाँच चार अरु पाँच तथा पच्चीस भेद क्रमशः इनके ।
तीव्र मन्द अज्ञात ज्ञात भावाधिकरण अरु वीर्य विशेष-
होते हैं तो इस निमित्त से कर्मास्रव भी होय विशेष ।
आस्रव के आधार जीव एवं अजीव दोनों होते ।।2।।

(8-9)

पहला है संरम्भ समारंभ आरम्भ एवं तीनो योग ।
कृत कारित अनुमोदन चार कषाय रूप शत आठ कहो।।
निर्वतन द्वय चौ निक्षेप द्वय संयोग निसर्गत्रय।
ये अजीव-अधिकरण भेद ग्यारह कहते हैं श्री जिनवर।।3।।

(10-11)

दर्श-ज्ञान में दोष तथा निन्हव मात्सर्य और अन्तराय ।
आसादन- उपघात भाव से ज्ञान-दर्शनावरणास्रव।।
दुःख शोक तापाक्रन्दन वध एवं ऐसा करे रुदन ।
जिससे करुणा हो निज-पर को होय असाता प्रकृति बन्ध।।4।।

(12-14)

जीवों व्रतियों में अनुकम्पा दान तथा संयमयुत राग ।
क्रोध-मान- माया-निवृत्ति अरु शौच भाव से सातास्रव ॥
केवलि संघ धर्म श्रुत देव अवर्णवाद से दर्शनमोह ।
हो कषाय का तीव्र उदय इन परिणामों से चारित मोह ।।5।।

चैतन्य वन्दना

जिन्हें मोह भी जीत न पाये, वे परिणति को पावन करते।
प्रिय के प्रिय भी प्रिय होते हैं, हम उनका अभिनन्दन करते।
जिस मंगल अभिराम भवन में, शाश्वत सुख का अनुभव होता।
वन्दन उस चैतन्य राज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।

जिसके अनुशासन में रहकर, परिणति अपने प्रिय को वरती।
जिसे समर्पित होकर शाश्वत, ध्रुव सत्ता का अनुभव करती।
जिसकी दिव्य ज्योतिमय, चिर संचित अज्ञान तिमिर घुल जाता।
वन्दन उस चैतन्य राज को जो भव-भव के दुःख हर लेता।

मंगलाचरण

(हरिगीत)

हे मुक्ति पथ नायक-महा, तुम जानते सब सृष्टि को ।
हे कर्म-गिरि भेदक नमूँ मैं, तव गुणों की प्राप्ति हो ।।

अध्याय - 1

(वीर छन्द)

सूत्र क्रमांक

(1-5)

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित ही एक मात्र शिवपुर का पंथ ।
तत्त्वार्थों की श्रद्धा समकित अधिगम से या होय स्वयम् ।।
जीव अजीव आसव बन्ध-रु संवर निर्जर मोक्ष सुतत्त्व।
नाम स्थापन द्रव्य भाव से ये सब होते हैं वक्तव्य ॥1॥

नय-प्रमाण एवं निर्देश तथा स्वामित्व-रु साधन से ।
काल और आधार तथा भेदों से ये जाने जाते ॥
सत् संख्या अरु क्षेत्र स्पर्शन काल और अन्तर से जान ।
भाव और हीनाधिकता से होता है तत्त्वों का ज्ञान ||2|| (6-8)

(९- १४)

मति-श्रुत-अवधि - मनःपर्यय अरु केवल- ये हैं ज्ञान प्रमाण ।
मति-श्रुत दोनों हैं परोक्ष अरु शेष तीन प्रत्यक्ष सुजान ।।
मति-स्मृति-संज्ञा-चिन्ता अरु अभिनिबोध जानो मतिज्ञान ।
मन अरु इन्द्रिय के निमित्त से भी हो जाता है मतिज्ञान।।३।।

(15-19)

अवग्रह ईहा अवाय धारणा- इस क्रम से होता मतिज्ञान ।
बहु बहुविध अरु शीघ्र अप्रगट अकथित ध्रुव वस्तु का ज्ञान
इन सबके प्रतिपक्ष स्वरूपी सब मिल बारह भेद पदार्थ ।
अप्रगट का हो मात्र अवग्रह चक्षु और मन से नहिं ज्ञात।। 4 ।।

(20-23)

मतिपूर्वक ही श्रुत होता है दो अनेक अरु बारह भेद ।
सुर-नारक के अवधिज्ञान में भव ही कारण कहें जिनेश।
नर-तिर्यन्चों को क्षयोपशम से होता छह भेदों युक्त ।
ऋजुमति और विपुलमति दो हैं मनपर्यय के भेद सुयुक्त।।5।।

(24-28)

सुविशुद्धि अरु अप्रतिपाती की विशेषता है इनमें ।
क्षेत्र विशुद्धि स्वामी अरु विषय अपेक्षा भिन्न कहे दोनों।।
कुछ पर्यायों सहित सभी द्रव्यों को जाने मति-श्रुतज्ञान ।
अवधिज्ञानरूपी को जाने भाग अनन्ता चौथाज्ञान ।।6।।

(29-32)

सकल द्रव्य-गुण-पर्यायों को विषय बनाता केवलज्ञान ।
एक जीव को एक साथ हो सकें एक दो त्रय चौ ज्ञान ‌‌‌‌‌‌।।
मतिश्रुत अवधि विपर्यय भी हैं मानें असत् और सत् एक।
मनमानी से ग्रहण करें उन्मत्त समान लहें बहु खेद।।7।।

(हरिगीत)

नैगम तथा संग्रह सहित व्यवहार अरु ऋजुसूत्र नय।
शब्द समभिरूढ एवंभूत जानो सप्त नय।।

अध्याय - 2

सूत्र क्रमांक

(1-4)

उपशम क्षायिक मिश्र और औदयिक पारिणामिक निज भाव ।
कमश: दो नौ भेद अठारह एकबीस त्रय चेतन भाव ।।
उपशम के समकित चारित द्वय क्षायिक के हैं दर्शन ज्ञान-
दान लाभ भोगोपभोग बल समकित चारित भेद सुजान।। 1 ।।

(5-6)

ज्ञान चार अज्ञान तीन त्रय दर्शन और लब्धियाँ पाँच ।
समकित चारित और संयमासंयम भाव क्षयोपशम जान ||
गति कषाय लिंग चार चार त्रय मिथ्यादर्शन इक अज्ञान ।
एक असंयम असिद्धत्व लेश्या छह उदयिक इक्किस मान|| 2 ||

(7-13)

भव्य अभव्य तथा जीवत्व भेद पारिणामिक के तीन ।
दर्शन-ज्ञान जीव का लक्षण चार-आठ हैं भेद सही ॥
संसारी अरु मुक्तजीव हैं संसारी मन सहित-अमन ।
संसारी त्रस, थावर- भू जल अग्नि वनस्पति और पवना॥3॥

(14-19)

दो त्रय चार पांच इन्द्रिययुत त्रस हैं, इन्द्रिय होती पांच ।
दो प्रकार की हैं, द्रव्येन्द्रिय, निर्वृत्ति और उपकरण सुजान।
लब्धि और उपयोग जानिये भावेन्द्रिय के भेद अहो।
पर्शन रसना घ्राण चक्षु अरु श्रोत्र पांच इन्द्रियाँ कहो ॥4॥

(20-25)

फरस तथा रस गन्ध वर्ण अरु शब्द विषय हैं इन्द्रिय के।
श्रुत को विषय बनाता है मन थावर की हैं इन्द्रिय एक ॥
एक-एक इन्द्रिय बढ़ती कृमि चींटी भँवरा मनुजों में ।
संज्ञी हैं मन सहित और हो कर्म योग विग्रह गति में ॥5॥

(26-31)

नभ प्रदेश श्रेणी में गति हो मुक्त जीव की सरल गति ।
संसारी की वक, सरल भी. चार समय के पूर्व कही।
एक समय में सरल प्रति है इक दो त्रय तक अनहारी ।
सम्मूर्छन अरु गर्भ तथा उपपाद जन्म लें संसारी ॥6॥

(32-36)

शीत-सचित्त ढँकी, अरु इनसे इतर मिश्र नौ योनि कही।
अण्डज पोत जरायुज ये सब जीव जन्मते गर्भ सहित ।
सुर-नारक उपपाद जन्म लें सम्मूर्खन हैं शेष सभी ।
औदारिक वैकिय आहारक तेजस अरु कार्माण शरीर ॥7॥

(37-43)

क्रमशः अधिक सूक्ष्म है सब तन, प्रदेश असंख्यगुणे तन तीन ।
अन्तिम दो तन के प्रदेश अनन्त भुणे उप्रतिघाती ॥
हैं अनादि से ये दोनों तन सभी जीव के रहते संग ।
कम से कम ये दो तन और अधिकतम चार रहें इक संग || 8 ||

(44-49)

निरुपभोग है अन्तिम तन गर्भज सम्मूर्छन को पहला।
उपपाद जन्म में वैक्रियतन, यह लब्धि विशेष से भी होता ॥
तैजस भी लब्धि से होता आहारक शुभ और विशुद्ध ।
होता है प्रमत्त संयत मुनिवर को यह व्याघात रहित।।१७।।

हरिगीतिका

(50-53)

नारकी-सम्मूर्छन होते नपुंसक, सुर नहीं ।
शेष सबको तीन लिंग हो सकें कहते जिन यही ।।
औपपादिक, चरम उत्तम तन, असंख्यों वर्ष की
हो आयु जिनकी उन्हें अपवर्तन नहीं होता कभी ।।10।।

अध्याय - 3

सूत्र क्रमांक

(1-2)

रत्न शर्करा बालु पंक अरु धूमप्रभा तम महातमा ।
घन अम्बु तनु वात वलय नीचे-नीचे भू सप्त कहा ॥
तीस पचीस पन्द्रह, एवं तीन लाख बिल पंचम तक ।
छठवें में कम पाँच लाख इक, सप्तम में बिल पाँच निरख ।। 1 ।।

(1-6)

  • नित्य अशुभतर लेश्या अरु परिणाम देह वेदना अहो ।
    तथा विकिया इनकी होती दुख दें एक दूसरे को ॥
    तीजे तक इनको दुख देते असुर कुमार महासंक्लिष्ट ।
    एक तीन अरु सात तथा दस सत्रह अरु बाइस तेतीस॥2॥

(6-9)

-सागर नारकियों की आयु कही जिनागम में उत्कृष्ट ।
मध्य लोक में जम्बू लवणोदधि आदि शुभ द्वीप समुद्र-
पूर्व पूर्व को घेर रहे दूने विस्तृत चूड़ीवत् जान ।
सब द्वीपों के बीच लाख योजन का मेरु नाभि समान ||3||

(10-11)

भरत हैमवत् हरि विदेह रम्यक हैरण्य-रु ऐशवत ।
सात क्षेत्र जम्बू सुद्वीप में इन्हें बाँटते छह पर्वत ॥
हिमवन तथा महाहिमवन गिरि निषध नील रुक्मि शिखरी ।
पूरब से पश्चिम तक फैले सदा सुशोभित उन्नत गिरि ।। 4 ।।

(12-13)

स्वर्ण रजतमय और तप्त सोने के हैं शोभित गिरि तीन ।
नीलमणि चॉदी सोने के शोभित होते हैं गिरि तीन ।
ऊपर नीचे और मध्य में है विस्तार एक जैसा,
सभी पर्वतों का तट चित्र-विचित्र सुशोभित मणियों का ॥5॥

(14-17)

पद्म सरोवर महापद्म अरु तिभिञ्छ केसरी महापुण्डरीक ।
पुण्डरीक नामक छह सरवर से शोभित ये छहों गिरि ।।
पद्म सरोवर एक सहस योजन लम्बा आधा चौड़ा |
दश योजन गहरा है उसके बीच कमल इक योजन का ||6||

(18-19)

शेष सरोवर और कमल हैं दूने-दूने पिछले से ।
श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि अरु लक्ष्मी देवी हैं इनमें ।।
ये सामाजिक और पारिषद देवों के संग रहती हैं ।
मात्र एक पल्योपम आयु इनकी कही जिनागम में ।।७।।

(20-22)

बंधा-सिन्धु रोहित रोहितास्या हरित-हरिकान्ता ।
सीता सीतोदा नारी-नरकान्ता सुवर्ण-रूप्यकुला ||
रक्ता- रक्तोदा ये चौदह नदियाँ बहती सरवर से ।
पहली बहती पूर्व दिशा में दूजी बहती पश्चिम में ।।८।।

(23-25)

सहस चतुर्दश नदियों से हैं घिरी गंग-सिन्धु नदियाँ ।
पाँच शतक छब्बिस योजन अरु उन्नीस में से भाग छठा-
भरत क्षेत्र का इतना है विस्तार वचन जिन आगम का ।
क्षेत्र विदेह तक है विस्तार जानिये सब दूना-ढूना ॥9॥

(26-28)

उत्तर दक्षिण में क्षेत्रादिक सबका है विस्तार समान ।
भरतैरावत में होती है हानि वृद्धि छह काल सुजान ।।
अवसर्पिणि- उत्सर्पिणि कालों द्वारा होता परिर्वतन ।
भरतैरावत के अतिरिक्त कहीं नहिं होता परिवर्तन ॥10॥

(29-32)

हैमवतक हरि देवकुरु में इक द्वय त्रय पल्योपम आयु ।
हैरण्यवतक रम्यक् उत्तर कुरु में भी इसी तरह की आयु ॥
नर-तिर्य चों की विदेह में आयु वर्ष कही संख्यात ।
इक शत नब्बे भाग द्वीप जम्बू का भरतक्षेत्र विस्तार ।।11।।

(33-36)

खण्ड धातकी में सब रचना जम्बूद्वीप से दूनी हैं ।
पुष्करार्ध में भी सब रचना जम्बूद्वीप से दूनी हैं ।
मानुषोत्तर के पहले तक ही मानव हो सकते हैं ।
आर्य-म्लेच्छ- इन दो रूपों में मनुजों के दो भेद कहे ।।12।।

(37-39)

भरतैरावत अरु विदेह में कर्मभूमि पन्द्रह मानो ।
देवकुरु-उत्तरकुरु में नहिं कर्मभूमि होती जानो ॥
मनुजों की उत्कृष्ट पल्यत्रय आयु जघन अन्तर्मुहुरत ।
तिर्यंचों की भी आयु इतनी ही होती मानववत् ।।13।।

अध्याय - 4

सूत्र क्रमांक

(1-3)

भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष अरु कल्पवासि सुर चार प्रकार।
भवनत्रिक में कृष्ण नील कापोत पीत लेश्यायें चार ।।
कल्पोपन्न देव तक चारों के दश आठ पाँच बारह ।
सभी निकायों के देवों के होते हैं दश भेद प्रवर ।।1।।

(4-5)

इन्द्र तथा सामानिक त्रायस्त्रिंश अरु भेद पारिषद हैं ।
आत्मरक्ष अरु लोकपाल, अनीक प्रकीर्णक भेद कहें ॥
आभियोग्य अरु किल्विष ये दश भेद सभी हैं देवों में ।
त्रायस्त्रिंश अरु लोकपाल नहिं होते व्यन्तर ज्योतिष में ॥2॥

(6-9)

भवनवासि व्यन्तर में दो दो इन्द्र कहे जिन आगम में ।
काया से हो काम-क्रिया ऐशान स्वर्ग तक देवों में ॥
शेष सुरों में स्पर्श रूप अरु शब्द तथा मन से होती ।
सोलह स्वर्गों से ऊपर नहि काम भाव सुर में होती ॥३॥

(10-11)

भवनवासि में असुर-नाग-1 -विद्युत-सुपर्ण अरु अग्निकुमार ।
वात-स्तनित-२ उदधि, द्वीप मिल दिक्कुमार दश भेद विचार ।।
किन्नर अरु किं पुरुष महोरग हैं गंधर्व यक्ष राक्षस ।
भूत पिशाच मिलाकर आठ प्रकार जानिये सब व्यन्तर ||4||

(12-17)

सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक ज्योतिष देव कहे ।
सदा मेरु की प्रदक्षिणा कर मध्य लोक में गमन करें ।
इनसे काल भेद है, ढाई द्वीप परे सब हैं स्थिर ।
वैमानिक के भेद लखो कल्पोपन्न अरु कल्पातीत ।।5।।

(18-19)

ऊपर-ऊपर स्वर्गलोक सौधर्मेशान कुमार-सनत् ।
माहेन्द्र ब्रह्म बह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ शुक अरु महाशुक ॥
शतार सहसार आनंत प्राणत आरण अच्युत शुभ नाम ।
नव ग्रैवेयक नव अनुदिश पर पाँच अनुतर कहें विमान ॥6॥

(20-22)

विजय वैजयन्त-रु जयन्त अपराजित अरु सर्वार्थसिद्धि ।
थिति प्रभाव द्युति सुख लेश्या सुविशुद्धि इन्द्रियां अवधि अधिक ।
गति शरीर परिग्रह अभिमान कहे हैं ऊपर-ऊपर हीन ।
दो युगलों में पीत तीन में पद्म शेष में शुक्ल कही ॥7॥

(23-26)

कल्प कहें सोलह स्वर्गों को ऊपर के हैं कल्पातीत ।
ब्रह्म लोक में लौकान्तिक के आठ भेद सारस्वत आदित्य-
वन्हि अरुण अरु गर्दतोय हैं तुषित अव्याबाध अरिष्ट
विजयादिक दो अन्तिम नरभव मात्र एक सर्वार्थ सिद्धि ॥8॥

(27-29)

देव नारकी और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी तिर्यंच ।
असुरकुमार एक सागर थिति नागकुमार आयु त्रय पल्य ।।
ढाई अरु दो पल्य सुपर्ण-द्वीप की शेष सभी की डेढ़ ।
सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में दो सागर कुछ अधिक कहें ॥9॥

(30-32)

सानत अरु माहेन्द्र स्वर्ग में सप्तोदधि कुछ अधिक थिति ।
तीन सात नव ग्यारह तेरह पन्द्रह अधिक शेष की थिति ॥
नव ग्रैवेयक नव अनुदिश विजयादिक पाँच विमानों में।
एक-एक सागर बढ़ती है आयु कल्पातीतों में ।।10।।

(33-38)

सौधर्म और ईशान स्वर्ग में एक पल्य कुछ अधिक जघन्य ।
पहले-पहले की उत्कृष्ट, वही आगे की आयु जघन्य।।
द्वितियादिक नरकों की है उत्कृष्ट, जघन आगामी की ।
वर्ष सहस दस प्रथम नरक की भवनवासि अरु व्यन्तर की ।।11।।

(39-42)

इक पल्योपम से कुछ ज्यादा व्यन्तर ज्योतिष की उत्कृष्ट-
पल्योपम का भाग आठवाँ ज्योतिष की ही आयु जघन ॥
सब लौकान्तिक देवों की है आयु जघन एवं उत्कृष्ट।
सागर आठ जानिये यह सब जिन आगम के वचन प्रकृष्ट ।।12।।

अध्याय - 5

सूत्र क्रमांक

(1-8)

धर्म अधर्म आकाश और पुद्गल अजीव हैं द्रव्य कहे।
अधिक प्रदेशी द्रव्य जीव भी नित्य अवस्थित द्रव्य कहे ।।
पुद्गल रूपी शेष अरूपी एक-एक हैं नभ पर्यन्त ।
निष्क्रिय, धर्माधर्म जीव के हैं प्रदेश जानिये असंख्य ।।1।।

(9-14)

है आकाश अनन्त प्रदेशी संख्यासंख्य अनन्त पुद्गल ।
परमाणु है एक प्रदेशी लोकाकाश रहें सब द्रव्य ।।
धर्म-अधर्म समस्त लोक में व्याप्त तिलों में तेल समान ।
पुद्गल एक तथा संख्यात असंख्य प्रदेश विभाग सुजान ।।2।।

(15-18)

जीवों का अवगाह लोक में असंख्यातवें भाग प्रमाण ।
हो संकोच तथा विस्तार प्रदेशों में दीपकवत् जान ||
गति स्थिति जीव-रु पुद्गल की क्रमश: धर्म-अधर्म उपकार ।
सब द्रव्यों को अवगाहन दे यह उपकार करे आकाश ।।3।।

(19-22)

तन मन वाणी श्वासोच्छ्वास रचे जाते हैं पुद्गल से ।
इन्द्रिय सुख दुख जन्म मरण में भी पुगल निमित्त होते ॥
एक दूसरे का आपस में करते जीव द्रव्य उपकार ।
वर्तन क्रिया और परिणाम परत्वापरत्व काल उपकार ।।4।।

(23-28)

स्पर्श-गन्ध-रस-वर्णमयी अरु शब्द बन्ध सुक्षम स्थूल-
संस्थान भेद तम छाया आतप अरु उद्योतवन्त पुद्गल ।।
अणु एवं स्कन्ध, भेद-संघात तथा हों दोनों से ।
अणु भेद से एवं चक्षुगम्य खंध हो दोनों से ।।5।।

(29-35)

सत् लक्षण है द्रव्य तथा सत् व्यय-उत्पाद-धौव्य संयुक्त ।
निज भावों के अव्यय होने को ही जिन कहते हैं नित्य ।।
मुख्य-गौण से सिद्धि होती, बन्ध स्निग्धता रूक्षपने ।
नहिं जघन्यगुण से एवं गुण हों सादृश तो नहीं बँधे ।।6।।

(36-42)

यदि दो गुण हों अधिक तभी बंधते है आपस में पुद्गल ।
ज्यादा गुण वाले कर लेते कम गुण वाले को निज सम ।।
गुण पर्यायों युक्त द्रव्य है काल अनन्त समययुत द्रव्य ।
गुण द्रव्याश्रित निर्गुण जानो भाव द्रव्य का है परिणाम ।।7।।

अध्याय - 6

सूत्र क्रमांक

(1-5)

मन-वच-तन की क्रिया योग है उसको आसव कहते हैं।
शुभ से पुण्य अशुभ से पाप कर्म आसव नित होते हैं ।।
सकषायी को साम्परायिक अकषायी को ईर्यापथ है ।
इन्द्रिय कषाय अव्रत अरु किया भेदरूप साम्प्रायिक है ।।1।।

(5-7)

-पाँच चार अरु पाँच तथा पच्चीस भेद क्रमशः इनके ।
तीव्र मन्द अज्ञात ज्ञात भावाधिकरण अरु वीर्य विशेष-
होते हैं तो इस निमित्त से कर्मास्रव भी होय विशेष ।
आस्रव के आधार जीव एवं अजीव दोनों होते ।।2।।

(8-9)

पहला है संरम्भ समारंभ आरम्भ एवं तीनो योग ।
कृत कारित अनुमोदन चार कषाय रूप शत आठ कहो।।
निर्वतन द्वय चौ निक्षेप द्वय संयोग निसर्गत्रय।
ये अजीव-अधिकरण भेद ग्यारह कहते हैं श्री जिनवर।।3।।

(10-11)

दर्श-ज्ञान में दोष तथा निन्हव मात्सर्य और अन्तराय ।
आसादन- उपघात भाव से ज्ञान-दर्शनावरणास्रव।।
दुःख शोक तापाक्रन्दन वध एवं ऐसा करे रुदन ।
जिससे करुणा हो निज-पर को होय असाता प्रकृति बन्ध।।4।।

(12-14)

जीवों व्रतियों में अनुकम्पा दान तथा संयमयुत राग ।
क्रोध-मान- माया-निवृत्ति अरु शौच भाव से सातास्रव ॥
केवलि संघ धर्म श्रुत देव अवर्णवाद से दर्शनमोह ।
हो कषाय का तीव्र उदय इन परिणामों से चारित मोह ।।5।।

(15-19)

बहु आरम्भ परिग्रह से नरकायु का होता आस्रव ।
माया से तिर्यच, अल्प आरम्भ परिग्रह से नरभव ।।
मृदु स्वभाव से भी नर होते सुरगति में भी जाते हैं ।
शील व्रतों से रहित जीव चारों गतियों में जाते हैं ।।6।।

(20-23)

यदि सराग संयम हो एवं संयम सहित असंयम भाव।
हो अकाम निर्जश बालतप समकित से भी देवासव ।।
योग वकता, विसंवाद से अशुभनाम कर्मास्रव हो ।
इनसे हो विपरीत भाव तो नाम कर्म शुभ आसव हो ।।7।।

(24)

दर्श विशुद्धि विनय सम्पन्न शीलव्रत में अतिचार न हो-
हो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग संवेग शक्तितः त्याग कहो-
तप भी, साधु समाधि और वैयावृत्ति अर्हत् भक्ति-
आचार्यो बहुश्रुत प्रवचन में भक्ति और आवश्यक भी ।।8।।

(24-25)

-जिनशासन की हो प्रभावना अरु प्रवचन वात्सल्य रखे ।
सोलह भावों से तीर्थंकर प्रकृति नाम का कर्म बँधे ।।
परनिन्दा अरु आत्मप्रशंसा सत्गुण का जो लोप करे ।
असद्गुणों को प्रगटावे तो नीच गोत्र की प्रकृति बँधे ||9||

हरिगीत

(26-27)

उक्त भावों से विपर्यय नम्र निर-अभिमान हो ।
तो उच्च गोत्र-रु विघ्न करने से प्रकृति अन्तराय हो ।।10।।

अध्याय - 7

सूत्र क्रमांक

(1-4)

हिंसा अमृत अरु चोरी अब्रह्म परिग्रह का हो त्याग ।
व्रत कहलाते हैं ये अणुव्रत और महाव्रत भेद कहा ॥
उनमें धिरता हेतु भावना पाँच पाँच होती सबकी ।
मन-वच गुप्ति, समिति ईर्या, आलोकित अशन अहिंसा की ।।1।।

(5-7)

क्रोध-लोभ-भय-हास्य वचन नहिं कहे, वचन निर्दोष कहे।
दूजे व्रत में: शून्य त्यक्त आवास अन्य अवरोध तजे-
भिक्षा- शुद्धि साधर्मी से अविसंवाद तीसरे की ।
नारी-राग कथा सुनना अरु सुअंग निरखने का त्यागी ।।2।।

(7-10)

पूर्व भोग स्मरण करे नहिं, इष्ट रसों का त्याग करे।
तन का भी संस्कार करे नहिं ब्रह्मचर्य भावना कहें ।
पंचेन्द्रिय विषयों में राग न द्वेष न हो अपरिग्रह की ।
पापों से हो उभय लोक में भय निन्दा एवं दुःख भी ।।3।।

(11-13)

मैत्री भाव सभी जीवों में गुणी जनों में होय प्रमोद |
दुखियों के प्रति करुणा एवं दुर्जन में मध्यस्थ रहो ।
संवेग और वैराग्य हेतु जग-तन स्वभाव का हो चिन्तन ।
हिंसा होती है प्रमादवश करे प्राण का व्यपरोपण ।।4।।

(14-20)

असत् कथन में झूठ पाप अरु ब्रहण अदत्त कहें चोरी।
मैथुन किया अब्रह्म तथा मूर्च्छा का भाव परिग्रह ही ।।
व्रती रहें निःशल्य, भेद द्वय देशव्रती अरु सकलव्रती।
पाँच पाप के एकदेश त्यागी होते हैं अणुव्रती ।। 5 ।।

(21-23)

दिश्वत देश अनर्थदण्ड विरति समता प्रोषध उपवास।
सीमित हों भोगोपभोग अरु अतिथि विभाग कहे व्रत सात।
मरण समय में प्रीति पूर्वक श्रावक सल्ले खाना बहो ।
जिनवच में शंका, भोगों की आकाँक्षा, विचिकित्सा हो ।।6।।

(23-25)

-अन्य दृष्टि की करे प्रशंसा-स्तुति समकित के अतिचार ।
अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत के होते पाँच पाँच अतिचार ।।
वध बन्धन छेदन जीवों का और रखे उन पर अतिभार ।
अन्न-पान नहिं देवे उनको पाँच अहिंसा व्रत अतिचार ।।7।।

(26-27)

दे मिथ्या उपदेश, गुप्त को करे प्रगट, झूठा लिखखना ।
रखी अमानत को हड़पे, साकार मन्त्र, सत् का अतिचार ।।
चौर्य कर्म की करे प्रेरणा चौर्य वस्तुओं का आदान ।
राज्य विरुद्ध-रु प्रतिरूपक हीनाधिक वस्तु मानोन्मान ।।8।।

(28-29)

अन्य विवाह कराना, परनारी-विधवा-त्यक्ता का संग ।
रमे अन्य अंगों से अतिकामुकता करे ब्रह्मचर्य भंग ।।
खेत मकान स्वर्ण चाँदी धन-धान्य तथा दासी अरु दास ।
वस्त्रादिक परिग्रह की सीमा का उल्लंघन है अतिचार ||9||

(30-31)

ऊपर नीचे तिर्यक् दिशि में सीमा का हो उल्लंघन ।
क्षेत्र वृद्धि अरु सीमा विस्मृति अतीचार दिव्रत के पन्च ।
सीमा के बाहर से वस्तु मँगाना, सेवक को भेजें ।
शब्द-रूप से करे इशारा, पुदगल क्षेपण जानो पन्च ।।10।।

(32-33)

हँसी मजाक अश्लील चेष्टा बहुत बोलना सोचे व्यर्थ ।
व्यर्थ वचन अरु किया, कीमती वस्तु रखे ये पाँच अनर्थ ॥
मन-वच - तन की अनुचित वृत्ति सामायिक में नहिं उत्साह ।
पाठ भूलना ये पाँचों हैं सामायिक व्रत के अतिचार ।।11।।

(34-35)

देखो शोधे बिना उठाना धरना शैया पर सोना ।
धर्म कार्य में रखे अनादर विस्मृति प्रोषध के अतिचार ॥
वस्तु सचित्त तथा सम्बन्धित मिश्रित या कामोत्तेजक।
जला अधपका खाना, ये परिमाण-भोग के हैं अतिचार ।।12।।

(36-37)

सचित पात्र में रखे सचित से ढके अन्य द्वारा देना।
करे अनादर समय टाल दे अतिथि-भाग व्रत के अतिचार ॥
जीने-मरने की वान्छा एवं मित्रों से हो अनुराग ।
पूर्व भोग स्मृति, निदान, ये सल्लेखन व्रत के अतिचार ।। 1 ।।

हरिगीतिका

(38-39)

निज वस्तुओं को स्व-पर अनुग्रह हेतु देना दान है ।
विधि द्रव्य दाता पात्र से हों विशेषतायें दान में ।।14।।

अध्याय - 8

सूत्र क्रमांक

(1-4)

मिथ्यादर्शन अविरति और प्रमाद कषाय योग से बन्ध ।
सकषायी होने से कर्म योग्य पुद्गल का आना बन्ध ।।
प्रकृति स्थिति एवं अनुभाग प्रदेश, बन्ध के चार प्रकार।
ज्ञानदर्शनावरण वेदनी मोहनीय - ये प्रकृति चार ।।1।।

(4-6)

-पुनः आयु अरु नाम गोत्र फिर अन्तराय भी मिलकर आठ ।
पाँच तथा नव दो अट्ठाइस चार ब्यालिस दो अरु पाँच ॥
क्रमशः सभी प्रकृतियों के भेदों की यह संख्या जानो ।
ज्ञानावरणी मति श्रुत अवधि मनपर्यय केवल मानो ।।2।।

(7-9)

चक्षु अचक्षु अवधि केवल निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला ।
प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्ध ये दर्शनावरणी भेद कहा।
साता और असाता दो हैं वेदनीय के भेद कहो।
दर्शन अरु चारित्र मोहनी मोह प्रकृति के भेद लखो ||3||

(9)

समकित अरु मिथ्यात्व मिश्र ये तीनों दर्शनमोह प्रकृति।
हास्य अरति रति शोक भीति अरु घृणा नपुंसक नर-नारी।
नौ प्रकार अकषाय वेदनी सोलह भेद कषाय कही ।
अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानी अरु प्रत्याख्यानी ।।4।।

(9-11)

पुनः संज्वलन भेदरूप हैं कोध मान अरु माया लोभ ।
नारक तिर्यक् नर सुर चारों आयु कर्म के भेद लखो ।
गति जाति तन अंगोपांग और निर्माण तथा बन्धन ।
संघात और संस्थान संहनन फरुस गन्ध रस एवं वर्ण ।।5।।

(11)

-आनुपूर्वी अगरुलघु उपघात तथा परघात लखो ।
आतप अरु उद्योत तथा उच्छ्वास विहायोगति जानो ।
प्रत्येक देह साधारण त्रस थावर अरु सुभग और दुर्भग ।
सुवर दुरवर सूक्ष्म स्थूल शुभाशुभ प्रकृति नाम की लख ॥6॥

(11-13)

-पर्याप्ति अरु अपर्याप्ति स्थिर अस्थिर आदेय कही ।
अनादेय यश-अयश कीर्ति अरु तीर्थंकर भी प्रकृति लखी ।।
ऊँच नीच है गोत्र तथा अब पाँच प्रकार लखो अन्तराय ।
दान लाभ अरु भोग तथा उपभोग वीर्य ये भेद बताय ॥7॥

(14-20)

प्रथम तीन अरु अन्तराय की उत्कृष्ट थिति है सागर तीस-
कोडाकोड़ी, मोहनीय की सत्तर, गोत्र-नाम की बीस ॥
आयु कर्म की तेतीस सागर, वेदनी जघन मुहूर्त बारह ।
नाम-गोत्र की आठ मुहुर्त-रु शेष सभी मुहूर्त अन्तर ।।8।।

(21-24)

कर्मों का विपाक अनुभव होता उनके नामों अनुसार ।
फल देकर उन कर्म प्रकृतियों की निर्जरा कही सविपाक ।
नाम-गुणों के प्रत्यय परमाणु प्रदेश में स्थित हैं।
योगों की विशेषता से प्रतिसमय जीव से बंधते हैं ।।9।।

हरिगीत

(25-26)

वेदनी साता तथा शुभ आयु नाम-रु गोत्र की।
प्रकृतियाँ हैं पुण्य, इनके अलावा सब पाप ही ।।10।।

अध्याय 9

सूत्र क्रमांक

(1-4)

आसव का निरोध संवर है गुप्ति समिति अरु धर्म कहो ।
अनुप्रेक्षा परिषह जय एवं चारित - इनसे संवर हो ।
तप से संवर और निर्जरा, सम्यक् योग निरोध गुप्ति ।
ईर्या भाषा निक्षेपण-आदान एषणा समिति कही ।।1।।

(4-7)

-पंचम है उत्सर्ग समिति अरु कहे धर्म के लक्षण दश ।
उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम अरु तप
त्याग और आकिन्चन एवं ब्रह्मचर्य को धर्म कहो ।
अनुप्रेक्षा बारह अनित्य अशरण संसारैकत्व लखो ।।2।।

(7-8)

-अन्यत्व अशुचि आसव संवर निर्जश लोक बोधि दुर्लभ।
तथा धर्म का चिन्तन अनुप्रेक्षा है जिससे मुक्ति सुलभ ॥
संवर पथ पर रहे अडिगता और कर्म क्षय हेतु कहे।
सहने योग्य परीषह बाइस जंगल में मुनिराज सहें ||3||

(9)

क्षुधा तृषा शीतोष्ण दंशमश नाग्न्य अरति स्त्री चर्या-
निषद्या शैयाकोश याचना वध अलाभ अरु रोग कहा-
तृणस्पर्श सत्कार तथा मल पुरस्कार प्रज्ञा अज्ञान-
और अदर्शन मिल सब होते हैं बाईस परीषह जान ||4||

(10-14)

दसवें से बारहवें तक हो सकते हैं चौदह परिषह ।
तेरहवें में ग्यारह एवं छह से नौ तक सब परिषह ।।
प्रज्ञा अरु अज्ञान परीषह ज्ञानावरण निमित्त से हों ।
दर्श-मोह से होय अदर्शन अन्तराय से लाभ न हो ।।5।।

(15-18)

नाग्न्य अरति स्त्री निषद्या अरु आकोश याचना भी।
होते हैं सत्कार पुरस्कार चारित मोह उदय में ही।।
वेदनीय से शेष, अधिकतम एक साथ होते उन्नीस।
सामायिक छेदोपस्थापन अरु परिहार विशुद्धि भी।।6।।

(18-20)

-सूक्ष्मसाम्पराय-रु यथाख्यात पाँच चारित्र सही ।
अनशन अवमौदर्य और वृत्ति परिसंख्या रस त्यानी -
विविक्त शय्यासन अरु कायाक्लेश बाह्य तप, अरु अन्तरंग-
प्रायश्चित विनय वैयावृत स्वाध्याय व्युत्सर्ग सुध्यान ।।7।।

(21-23)

ध्यान पूर्व नौ चार और दश पाँच तथा दो भेद कहे ।
प्रायश्चित के आलोचन प्रतिक्रमण और तदुभय कहते-
तपश्छेद व्युत्सर्ग विवेक-रु परिहारोपस्थापन है ।
ज्ञान दर्श चारित्र और उपचार विनय के भेद कहे ।।8।।

(24-26)

आचार्योपाध्याय तपस्वी शैक्ष्य ग्लान गण कुल अरु संघ-
साधु मनोज्ञ - इन दश प्रकार के मुनि सेवा वैयावृत्त अंग ॥
वाचन पृच्छा अनुप्रेक्षा आम्नाय सुनाना है स्वाध्याय।
बाहृयाभ्यन्तर उपधि त्याग- यह दो प्रकार व्युत्सर्ग कहा।।9।।
(27-30)

अन्तर्मुहुर्त होकर एकाग्र करे चिन्ताओं का परिहार ।
उत्तम संहनन युक्त जीव जब होता उसे ध्यान तप सार ॥
आर्त रौद्र अरु धर्म शुक्ल चौ भेद अन्तद्वय हैं शिवपंथ
हो अनिष्ट संयोग दूर करने का चिन्तन आर्त प्रथम ।।10।।

(31-35)

इष्ट प्राप्ति का चिन्तन ढूजा वेदन निग्रह तीजा आर्त ।
चौथा है निदान, हो अविरति देशविरत प्रमत्त तक आर्त ॥
हिंसा अमृत अरु स्तेय विषय संरक्षण रौद्र कहा ।
अविरत चारों, देशविरत को रौद्र ध्यान है हो सकता ।।11।।

(36-39)

आज्ञा विचय अपाय विपाक और संस्थान धर्म चौ ध्यान ।
पूर्वज्ञानधर को होते हैं प्रथम द्वितीय भेद शुक्ल ध्यान ।।
अन्तिम दो केवलि को होते चार भेद जानो यह ध्यान ।
पृथक्त्व और एकत्व वितर्क, सूक्ष्म किया प्रतिपाति सुध्यान ।।12।।

(39-42)

व्युपरत क्रिया निवृति चतुर्थम पहला तीनों योग सहित-
किसी एक योगी को दूजा- तीजा काया योग सहित ॥
चौथा ध्यान अयोगी को है पहले दो सवितर्क विचार-
पूर्व ज्ञानधारी को होते, दूजे में हों नहीं विचार ।।13।।

(43-45)

श्रुत वितर्क है व्यन्जन अर्थ-रु योगों की संक्रान्ति वीचार ।
गुण असंख्य निर्जरा कही है इन सबकी क्रमशः अनिवार-
सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्त-वियोजक दृगमोह क्षपक ।
चरितमोह उपशामक अरु उपशान्तमोहयुत तथा क्षपक- ।।14।।

(45-47)

-क्षीण मोह एवं जिनेन्द्र क्रम से करते निर्जश महान।
पुलाक बकुश कुशील और निर्ग्रन्थ स्नातक मुनि भगवान ।।
संयम श्रुत प्रतिसेवन तीर्थ लिंग लेश्या उपपाद स्थान।
इन आठों अनुयोगों से हो पाँचों मुनि में भेद सुजान ।।15।।

अध्याय 10

सूत्र क्रमांक

(1-4)

मोहक्षय एवं त्रिघाति के क्षय से होता केवलज्ञान ।
संवर और निर्जश से सम्पूर्ण कर्मक्षय है निर्वाण ।।
उपशम उदय क्षयोपशम भाव तथा भव्यत्व नष्ट होते ।
क्षायिक समकित दर्शन ज्ञान और सिद्धत्व सदा रहते ।।1।।

(5-7)

कर्मक्षय होने पर ऊपर जीव गमन करता लोकान्त ।
पूर्व प्रयोग असंग बन्ध का छेद स्वभावी-ऊर्ध्वगमन।।
ज्यों कुम्हार का चक घूमता तँबी से मिट्टी हटती ।
एरण्ड बीज ऊपर जाता अरु अग्नि शिखा ऊपर जाती।।2।।

(8-9)

नहिं अलोक में धर्मद्रव्य है अतः जीव रहता लोकाग्र ।
क्षेत्र काल गति लिंग तीर्थ चारित्र और बोधित प्रत्येक-
बोधित बुद्ध ज्ञान अवगाहन अन्तर संख्या अल्प बहुत्व-
इन बारह बिन्दु के द्वारा सिद्ध जीव हो सकें विभक्त॥3॥

(दोहा)

जिन गुरु जिनश्रुत भक्ति से प्रेरित यह अनुवाद ।
पढ़ें सुनें भविजन सदा पावें निजपद राज ॥
भाव-द्रव्य की दृष्टि से यदि हो कोई भूल ।
ध्यानाकर्षित करें सुधी, शीघ्र लहूँ भव-कूल॥4॥

रचयिता:- पं. श्री अभय कुमार जी, देवलाली

2 Likes