मोहध्वान्तौघनिर्भेदि ज्ञानज्योतिर्जिनेशिनः॥१॥
अर्थ- जिनकी अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरङ्गलक्ष्मी और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरङ्गलक्ष्मी प्रसिद्ध है ऐसे जिनेन्द्रभगवान् की वह ज्ञानरूप ज्योति जयवन्त है-सर्वोत्कृष्टरूप से विद्यमान है जो कि समस्त समीचीन तत्त्वों को प्रकाशित करनेवाली है तथा मोहरूपी अन्धकार के समूह को नष्ट करनेवाली है।
मुमुक्षूणां हितार्थाय प्रस्पष्टमभिधीयते॥२॥
अर्थ- अब मोक्षाभिलाषी जीवों के हित के लिये मोक्षमार्ग को दिखलाने के हेतु प्रमुख दीपकस्वरूप यह तत्त्वार्थसार नाम का ग्रन्थ अत्यन्त स्पष्टरूप कहा जाता है।
मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः॥३॥
अर्थ- भव्यजीवों के मोक्ष का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों के समूहरूप है जो युक्ति और आगम से अच्छी तरह निश्चित है।
उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम्॥४॥
अर्थ- तत्त्व-अपने-अपने यथार्थ स्वरूप से सहित जीव, अजीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, उनका ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान और रागादि-भावों की निवृत्तिरूप उपेक्षा होना सम्यक्चारित्र सुनिश्चित है।
बोध्याः प्रागेव तत्त्वार्था मोक्षमार्गं बुभुत्सुभिः॥५॥
अर्थ- मोक्षमार्ग को जानने के इच्छुक जीवों को सबसे पहले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषयभूत तत्त्वार्थ जानने के योग्य हैं।
मोक्षश्च सप्त तत्त्वार्था मोक्षमार्गैषिणामिमे॥६॥
अर्थ- मोक्षमार्ग की इच्छा करनेवाले जीवों के लिये जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ जानने के योग्य हैं।
हेयस्यास्मिन्नुपादानहेतुत्वेनास्रवः स्मृतः॥७॥
संवरो निर्जरा हेयहानहेतुतयोदितौ।
हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः॥८॥
(षट्पदम्)
अर्थ- इन सात तत्त्वों में जीवतत्त्व उपादेयरूप से और अजीवतत्त्व हेय-रूप से कहा गया है अर्थात् जीवतत्त्व ग्रहण करने योग्य और अजीवतत्त्व छोड़ने योग्य बतलाया गया है। छोड़ने योग्य अजीवतत्त्व के ग्रहण का कारण होने से आस्रवतत्त्व कहा गया है तथा छोड़ने योग्य अजीवतत्त्व के ग्रहणरूप होने से बन्ध-तत्त्व का निर्देश हुआ है। संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व, अजीवतत्त्व के छोड़ने में कारण होने से कहे गये हैं और छोड़ने योग्य अजीवतत्त्व के छोड़ देने से जीव की जो अवस्था होती है उसे बतलाने के लिये मोक्षतत्त्व दिखाया गया है।
न्यस्यमानतयादेशात् प्रत्येकं स्युश्चतुर्विधाः॥९॥
अर्थ- ये सातों तत्त्वार्थ नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिपेक्ष के द्वारा व्यवहार में आते हैं, इसलिए प्रत्येक तत्त्वार्थ चार-चार प्रकार का होता है। जैसे नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव आदि।
द्रव्यस्य कस्यचित्संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम्॥१०॥
अर्थ- जाति, गुण, क्रिया आदि किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न कर किसी द्रव्य की जो संज्ञा रखी जाती है वह नामनिपेक्ष कहा गया है।
यद्व्यवस्थापनामात्रं स्थापना साभिधीयते॥११॥
अर्थ- पांसा तथा काष्ठ आदि के सम्बन्ध से ‘यह वह है’ इस प्रकार अन्य वस्तु में जो किसी अन्य वस्तु की व्यवस्था की जाती है वह स्थापनानिक्षेप कहलाता है।
स्याद्गृहीताभिमुख्यं हि तद्द्रव्यं ब्रुवते जिनाः॥१२॥
अर्थ- किसी द्रव्य को, आगे होनेवाली पर्याय की अपेक्षा वर्तमान में ग्रहण करना द्रव्यनिक्षेप है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
द्रव्यं भवति भावं तं वदन्ति जिनपुङ्गवाः॥१३॥
अर्थ- वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को जिनेन्द्र भगवान् भावनिक्षेप कहते हैं।
प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्ते च नयैस्तथा॥१४॥
अर्थ- ये सभी तत्त्वार्थ सम्यग्ज्ञान की प्रसिद्धि के लिये प्रमाण के द्वारा प्रमित होते हैं और नयों के द्वारा नीत होते हैं अर्थात् प्रमाण और नयों के द्वारा जाने जाते हैं।
तत्परोक्षं भवत्येकं प्रत्यक्षमपरं पुनः॥१५॥
अर्थ- उन प्रमाण और नयों में प्रमाण को सम्यग्ज्ञानरूप कहा है अर्थात् समीचीनज्ञान को प्रमाण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-एक परोक्ष प्रमाण और दूसरा प्रत्यक्षप्रमाण।
पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम्॥१६॥
अर्थ- गृहीत अथवा अगृहीत पर की प्रधानता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसे परोक्षप्रमाण कहा गया है।
साकारग्रहणं यत्स्यात्तत्प्रत्यक्षं प्रचक्ष्यते॥१७॥
अर्थ- इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से मुक्त तथा दोषों से रहित पदार्थ का जो सविकल्पज्ञान होता है उसे प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं।
मतिश्रुतावधिज्ञानं मनः पर्ययकेवलम्॥१८॥
अर्थ- जो स्व-पर को जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं- १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्ययज्ञान, और ५ केवल-ज्ञान।
प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा॥१९॥
इन्द्रियानिद्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं प्रवर्तते॥२०॥
अर्थ- स्वसंवेदनज्ञान, इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला विज्ञान, स्मरण, प्रत्यभि-ज्ञान, तर्क, स्वार्थानुमिति, बुद्धि और मेधा आदि जो ज्ञान हैं वे मतिज्ञान के भेद हैं। यह मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से प्रवृत्त होता है।
बहोर्बहुविधस्यापि क्षिप्रस्यानिःसृतस्य च॥२१॥
व्यक्तस्यार्थस्य विज्ञेयाश्चत्वारोऽवग्रहादयः॥२२॥
अप्राप्यकारिणी चक्षुर्मनसी परिवर्ज्य सः॥२३॥
अर्थ- मतिज्ञान में सबसे पहले अवग्रह होता है, उसके बाद ईहा होती है, उसके पश्चात् अवाय होता है और उसके बाद धारणा होती है। अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञान के क्रम से विकसित होनेवाले भेद हैं। ये चार भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और अध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थों के होते हैं। इनमें से व्यक्त अर्थात् स्पष्ट पदार्थ के अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं परन्तु व्यञ्जन अर्थात् अस्पष्ट पदार्थ के ईहा आदि तीन ज्ञान नहीं होते, मात्र अवग्रह ही होता है। व्यञ्जनावग्रह दूर से पदार्थ को जाननेवाले चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होता है। चक्षु और मन के सिवाय शेष इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं अर्थात् पदार्थ से सम्बद्ध होकर पदार्थ को जानती हैं।
अर्थ- मतिज्ञान के बाद अस्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिये हुए जो ज्ञान होता है। उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। विस्तार की अपेक्षा पर्याय
आदि के भेद से श्रुतज्ञान बीस तरह का होता है।
वर्धिष्णुर्हीयमानश्च षड्विकल्पः स्मृतोऽवधिः॥२६॥
मानुषाणां तिरश्चां च क्षयोपशमहेतुकः॥२७॥
अर्थ- इन्द्रियादिक परपदार्थों की अपेक्षा के विना रूपी पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान कहा गया है। अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान और हीयमान के भेद से वह अवधिज्ञान छह प्रकार का स्मरण किया गया है। इनके सिवाय अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और क्षयोपशमहेतुक इस प्रकार दो भेद और माने गये हैं। इनमें देव और नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा मनुष्य और तिर्यञ्चों के क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान होता है।
स्यान्मनःपर्ययो भेदौ तस्यर्जुविपुले मती॥२८॥
अर्थ- अन्य पदार्थों की अपेक्षा के विना दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानना मनःपर्ययज्ञान है। इसके ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार दो भेद हैं।
स्वामिक्षेत्र विशुद्धिभ्यो विषयाच्च सुनिश्चितः॥२९॥
अर्थ- विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा ऋजुमति तथा विपुलमति में विशेषता जाननी चाहिये। और स्वामी, क्षेत्र, विशुद्धि तथा विषय की अपेक्षा अवधि और मनःपर्ययज्ञान में विशेषता सुनिश्चित है।
अर्थ- जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित हो, आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रमरहित हो, घातियाकर्मों के क्षय से उत्पन्न हुआ हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं।
असर्वपर्ययेष्विष्टो रूपिद्रव्येषु सोऽवधेः॥३२॥
केवलस्याखिलद्रव्य पर्यायेषु स सूचितः॥३३॥
अर्थ- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय सम्बन्ध समस्त पर्यायों से रहित समस्त द्रव्यों में बुद्धिमानों को जानना चाहिये। अवधिज्ञान का विषय सम्बन्ध समस्त पर्यायों से रहित रूपीद्रव्यों-पुद्गल और संसारी जीवों में है। मनःपर्यय-ज्ञान का विषय सम्बन्ध अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग है और केवलज्ञान का विषय सम्बन्ध समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों में कहा गया है।
ज्ञानानि चतुरन्तानि न तु पञ्च कदाचन॥३४॥
अर्थ- एक जीव में एकसाथ एक को आदि लेकर चार तक ज्ञान हो सकते हैं। पाँच ज्ञान एक साथ कभी नहीं होते।
मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता॥३५॥
यत उन्मत्तवज्ज्ञानं न हि मिथ्यादृशोऽञ्जसा॥३६॥
अर्थ- मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान यदि मिथ्यात्व के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं तो मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं और उस दशा में उनमें प्रमाणता नहीं मानी जाती। मिथ्यादृष्टि जीव को सत् और असत् वस्तु का ज्ञान पागल मनुष्य समान स्वेच्छानुसार समानरूप से होता है, इसलिये उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है।
एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा मतः॥३७॥
अर्थ- प्रमाण के द्वारा जिसका स्वरूप प्रकट है ऐसी अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक देश को जो जानता है वह नय है। नय अनेक प्रकार का माना गया है।
नयावंशेन नेतारौ द्वौ द्रव्यपर्यायार्थिकौ॥३८॥
नयस्तद्विषयो यः स्याज्ज्ञेयो द्रव्यार्थिको हि सः॥३९॥
पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायार्थिको मतः॥४०॥
अर्थ- संसार की सभी वस्तुएँ द्रव्य और पर्यायरूप हैं। वस्तु की इन दोनों रूपता को एक अंश से ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं। अर्थात् जब वस्तु की द्रव्यरूपता को ग्रहण किया जाता है तब द्रव्यार्थिकनय का उदय होता है और जब पर्यायरूपता को ग्रहण किया जाता है तब पर्यायार्थिक-नय का उदय होता है। अनुप्रवृत्ति, सामान्य और द्रव्य ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं अर्थात् तीनों का एक ही अर्थ होता है। जो नय इन्हें विषय करता है वह द्रव्यार्थिक नय है। व्यावृत्ति, विशेष और पर्याय ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। जो नय पर्याय को विषय करता है वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है।
नैगमसंग्रहश्चैव व्यवहारश्च संस्मृतः॥४१॥
अर्थ- शुद्ध और अशुद्ध अर्थ को ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिकनय तीन प्रकार का माना गया है-१ नैगम, २ संग्रह और ३ व्यवहार।
उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मसूक्ष्मार्थ भेदता।
(षट्पदम्)
उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मगोचरता मता॥४३॥
अर्थ- पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं-१ ऋजुसूत्रनय २ शब्दनय, ३ समभिरूढनय और ४ एवंभूतनय। इन नयों में उत्तरोत्तर अर्थ की सूक्ष्मता रहती है। अथवा प्रारम्भ के चार नय अर्थनय हैं और आगे के तीन नय शब्द-नय हैं। इन नयों में भी उत्तरोत्तर विषय की सूक्ष्मता मानी गई है।
प्रस्थौदनादिजस्तस्य विषयः परिकीर्तितः॥४४॥
अर्थ- जो नय पदार्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करता है वह नैगमनय है। जैसे कोई मनुष्य जंगल को जा रहा था, उससे किसी ने पूछा कि-जंगल किसलिये जा रहे हो? उसने उत्तर दिया कि प्रस्थ लाने जा रहा हूँ। प्रस्थ एक परिमाण-का नाम है। जंगल में प्रस्थ नहीं मिलता है। वहाँ से लकड़ी लाकर प्रस्थ बनाया जावेगा, परन्तु जंगल जानेवाला व्यक्ति उत्तर देता है कि-प्रस्थ लाने के लिये जा रहा हूँ। यहाँ प्रस्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करने से नैगमनय का वह विषय माना गया है। दूसरा दृष्टान्त ओदन का है। कोई मनुष्य लकड़ी, पानी, आगी आदि एकत्रित कर रहा था। उससे किसीने पूछा-क्या कर रहे हो? उत्तर दिया, ओदन अर्थात् भात बना रहा हूँ। यद्यपि उस समय वह भात नहीं बना रहा था, सिर्फ सामग्री एकत्रित कर रहा था तो भी भात का संकल्प होने से उसका वह उत्तर नैगमनय का विषय स्वीकृत किया गया है।
समस्तग्रहणं यस्मात्स नयः संग्रहो मतः॥४५॥
अर्थ- अपनी जाति का विरोध न करते हुए भेद द्वारा एकत्व को प्राप्त कर समस्त पदार्थों का ग्रहण जिससे होता है वह संग्रहनय माना गया है। जैसे सत्, द्रव्य और घट आदि। अर्थात् सत् के कहने से समस्त सतों का ग्रहण होता है, द्रव्य के कहने से समस्त द्रव्यों का संग्रह होता है और घट के कहने से समस्त घटों का बोध होता है। संग्रहनय में अवान्तर विशेषताओं को गौण कर सामान्य को विषय किया जाता है।
व्यवहारो भवेद्यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः॥४६॥
अर्थ- संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है। जैसे सत् के दो भेद हैं-द्रव्य और गुण। द्रव्य के दो भेद हैं-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। घट के दो भेद हैं-पार्थिव (मिट्टी का) और अपार्थिव (मिट्टी से भिन्न धातुओं से निर्मित)।
वर्तमानैकसमयविषयं परिगृह्यते॥४७॥
अर्थ- जिसके द्वारा वर्तमान एक समय की पर्याय ग्रहण की जावे उसे ऋजु-सूत्रनय कहते हैं।
व्यभिचारनिवृत्तिः स्याद्यतः शब्दनयो हि सः॥४८॥
अर्थ- जिससे लिङ्ग, साधन, संख्या, काल और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति होती है वह शब्दनय है। लिङ्ग-व्यभिचार- जैसे ‘पुष्यः तारका और नक्षत्रम्।’ ये भिन्न-भिन्न लिङ्ग के शब्द हैं, इनका मिलाकर प्रयोग करना लिङ्ग-व्यभिचार है। साधन व्यभिचार- जैसे, ‘सेना पर्वतमाधिवसति’ सेना पर्वत पर है, यहाँ अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होनी चाहिये, पर ‘अधि’ उपसर्ग पूर्वक वसधातु का प्रयोग होने से द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। संख्या-व्यभिचार- जैसे, ‘जलं, आपः, वर्षाः ऋतुः, आम्राः वनम्, वरणाः नगरम्’। यहाँ एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्दों का विशेषण विशेषरूप से प्रयोग किया गया है। कालव्यभिचार- जैसे, ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ इसका पुत्र विश्वदृश्वा होगा। जिसने विश्व को देख लिया है वह विश्वदृश्वा कहलाता है यहाँ ‘विश्वदृश्वा’ इस भूतकालिक कर्ता का ‘जनिता’ इस भविष्यत्कालिक क्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है। जैसे-‘संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति आदि’ यहाँ परस्मैपदी ‘स्था’ धातु का ‘सम्’ और ‘प्र’ उपसर्ग के कारण आत्मनेपद में प्रयोग हुआ है तथा ‘रम’ इस आत्मनेपदी धातु का ‘वि’ और ‘उप’ उपसर्ग के कारण परस्मैपद में प्रयोग हुआ है। लोक में यद्यपि ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है।
एकस्मिन्नभिरूढोऽर्थे नानार्थान् समतीत्य यः॥४९॥
अर्थ- जहाँ शब्द नाना अर्थों का उल्लङ्घन कर किसी एक अर्थ में रूढ होता है उसे समभिरूढनय जानना चाहिये। जैसे ‘गौः’ यहाँ गो शब्द, वाणी आदि अर्थों को गौणकर गाय अर्थ में रूढ हो गया है।
यो नयो मुनयो मान्यास्तमेवंभूतमभ्यधुः॥५०॥
अर्थ- शब्द जिस रूप में प्रचलित है उसका उसी रूप में जो नय निश्चय कराता है माननीय मुनि उसे एवम्भूतनय कहते हैं। जैसे इन्द्र शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ ‘इन्दतीति इन्द्र’ ऐश्वर्य का अनुभव करनेवाला है इसलिये यह नय इन्द्र को उसी समय इन्द्र कहेगा जब कि वह ऐश्वर्य का अनुभव कर रहा होगा, अभिषेक या पूजन करते समय इन्द्र को इन्द्र नहीं कहेगा। तात्पर्य यह है कि समभिरूढनय शब्द के वाच्यार्थ को ग्रहण करता है और एवंभूतनय निरुक्त अर्थ को।
निरपेक्षाः पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः॥५१॥
अर्थ- ये नय यदि परस्पर सापेक्ष रहते हैं तो सम्यग्ज्ञान के हेतु होते हैं और निरपेक्ष रहते हैं तो मिथ्याज्ञान के हेतु होते हैं।
स्थितिरथ विधानमिति षट् तत्त्वानामधिगमोपायाः॥५२॥
अर्थ- निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तत्त्वों को जानने के ये छह उपाय हैं।
अल्पबहुत्वं चाष्टावित्यपरेऽप्यधिगमोपायाः॥५३॥
अर्थ- इसके अनन्तर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोग भी तत्त्वोंके जाननेके उपाय हैं।
स्याद्वादस्थां प्राप्य तैस्तैरुपायैः प्राग्जानीयात्सप्ततत्त्वीं क्रमेण॥५४॥
अर्थ- मोक्षमार्ग को प्राप्त करने का इच्छुक मनुष्य, अपने मन-वचन-काय-रूप योगों को ठीक कर नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप के द्वारा व्यवहृत तथा स्याद्वाद सिद्धान्त में निरूपित सात तत्त्वों के समूह को पूर्वोक्त उपायों द्वारा सबसे पहले यथाक्रम से जाने।
प्रणिपत्य जिनान्मूर्ध्ना जीवतत्त्वं प्ररूप्यते॥१॥
अर्थ- अनन्तानन्त जीवों में से एक-एक जीव का निरूपण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान को शिर से प्रणाम कर जीवतत्त्व का निरूपण किया जाता है।
स्वं तत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते॥२॥
अर्थ- जीव को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाने वाले औपशमिक आदि पांच भाव जिस तत्त्व के स्वतत्त्व हैं वह जीव कहा जाता है।
क्षायिकश्चाप्यौदयिकस्तथान्यः पारिणामिकः॥३॥
अर्थ- औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के स्वतत्त्व हैं।
अर्थ- औपशमिकभाव के दो भेद हैं-१ औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र।
क्षायोपशमिकस्यैते भेदा अष्टादशोदिताः॥५॥
अर्थ- कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ; देशसंयम, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिकचारित्र तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन सब मिलाकर क्षायोपशमिकभाव के अठारह भेद कहे गये हैं।
भोगोपभोगौ लाभश्च क्षायिकस्य नवोदिताः॥६॥
अर्थ- क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान), क्षायिकचारित्र, क्षायिक-वीर्य, क्षायिकदान, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकलाभ और क्षायिकदर्शन (केवलदर्शन) ये नौ क्षायिकभाव कहे गये हैं।
वेदा मिथ्यात्वमज्ञानमसिद्धोऽसंयतस्तथा।
इत्यौदयिकभावस्य स्युर्भेदा एकविंशतिः॥७॥
अर्थ- चार गतियाँ, छह लेश्याएँ, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यात्व, अज्ञान, असिद्धत्व और असंयतत्त्व ये औदयिकभाव के इक्कीस भेद हैं।
पारिणामिकभावस्य भेदत्रितयमिष्यते॥८॥
अर्थ- पारिणामिकभावके जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन भेद माने जाते हैं।
जीवोऽभिव्यज्यते तस्मादवष्टब्धोऽपि कर्मभिः॥९॥
अर्थ- तादात्म्यभाव को प्राप्त उपयोग ही जीव का लक्षण है। आठ कर्मों से आच्छादित होने पर भी जीव उस उपयोग के द्वारा प्रकट होता है-अनुभव में आता है।
साकारं हि भवेज्ज्ञानं निराकारं तु दर्शनम्॥१०॥
साकार मिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः॥११॥
निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः॥१२॥
चक्षुरादिविकल्पाच्च दर्शनं स्याच्चतुर्विधम्॥१३॥
अर्थ- वह उपयोग साकार (सविकल्पक) और निराकार (निर्विकल्पक) के भेद से दो प्रकार का है। उनमें ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार। क्योंकि ज्ञान वस्तुसमूह को ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि रूप से विशेष को करके जानता है इसलिये ज्ञान की यथार्थता को जाननेवाले मुनियों के द्वारा ज्ञान साकार-सविकल्प माना जाता है और दर्शन विशेषता को न कर सामान्यरूप से वस्तु को ग्रहण करता है इसलिये सर्वदर्शी भगवान ने दर्शन को निराकार-निर्विकल्प कहा है। मतिज्ञानादि पांच सम्यग्ज्ञान और कुमति आदि तीन मिथ्याज्ञान के भेद से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और चक्षुदर्शन आदि के भेद से दर्शनोपयोग चार प्रकार का जानना चाहिये।
लक्षणं तत्र मुक्तानामुत्तरत्र प्रचक्ष्यते॥१४॥
जीवस्थानगुणस्थानमार्गणादिषु तत्त्वतः॥१५॥
अर्थ- संसारी और मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के स्मरण किये गये हैं। उनमें मुक्त जीवों का लक्षण आगे कहा जावेगा। इस समय जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा आदि में विभाजित संसारी जीवों का यथार्थ वर्णन किया जाता है।
प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणौ तथा॥१६॥
गुणस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश॥१७॥
अर्थ- मिथ्यादृष्टि, सासन-सासादन, मिश्र, असंयत, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मकषाय, उपशान्तकषाय, क्षीण-कषाय, योगी-सयोगकेवली और अयोगी-अयोगकेवली ये सब मिलाकर चौदह गुणस्थानों के विकल्प हैं।
उदयेन पदार्थानामश्रद्धानं हि यत्कृतम्॥१८॥
अर्थ- मिथ्यात्वकर्म के उदय से जिसे जीवादि पदार्थों का अश्रद्धान रहता है वह मिथ्यादृष्टि जीव होता है।
उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सासादनाभिधः॥१९॥
अर्थ- मिथ्यात्वप्रकृति के उदय का अभाव रहते हुए अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ में से किसी एक प्रकृति का उदय आने से जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो गया है वह सासादन गुणस्थानवर्ती जीव कहा गया है।
मिश्रभावतया सम्यग्मिथ्यादृष्टिः शरीरवान्॥२०॥
अर्थ- सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से मिश्ररूप परिणाम होने के कारण जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा मिश्रगुणस्थानवर्ती होता है।
जीवः सम्यक्त्वसंयुक्तः सम्यग्दृष्टिरसंयतः॥२१॥
अर्थ- चारित्रमोह के उदय से जिसके अविरति-असंयमदशा उत्पन्न हुई है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि होता है।
विरताविरतो जीवः संयतासंयतः स्मृतः॥२२॥
अर्थ- अप्रत्याख्यानावरणकषायों के क्षयोपशम से जो जीव विरत
तथा अविरतदशा को प्राप्त है वह संयतासंयत अथवा देशसंयत गुणस्थानवर्ती माना गया है।
उदयक्षयतः प्राप्ता संयमर्द्धिः प्रमादवान्॥२३॥
अर्थ- प्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशय से जो संयमरूप संपत्ति को प्राप्त होकर भी प्रमाद से युक्त रहता है वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा जाता है।
प्रमादविरहाद्वृत्तेर्वृत्तिमस्खलितां दधत्॥२४॥
अर्थ- जो छठवें गुणस्थान की तरह संयम को प्राप्त हुआ है तथा प्रमाद का अभाव हो जाने से अस्खलित-निर्दोष वृत्ति को धारण कर रहा है वह अप्रमत्त-संयत कहलाता है।
शमकः क्षपकश्चैव स भवत्युपचारतः॥२५॥
अर्थ- अपूर्वकरण-नये-नये परिणामों को करनेवाला मुनि अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती कहलाता है। यह मुनि उपचार से शमक और क्षपक दोनों प्रकार का होता है।
अनिवृत्तिरनिवृत्तिः परिणामवशाद्भवेत्॥२६॥
अर्थ- जो कर्मों का स्थूलरूप से उपशम अथवा क्षय करनेवाला है तथा परिणामों की अनिवृत्ति-विभिन्नता से रहित है वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान-वाला है।
स्यात्सूक्ष्मसांपरायो हि सूक्ष्मलोभोदयानुगः॥२७॥
अर्थ- जो कषायों के उपशमन अथवा क्षपण करने के कारण उनकी सूक्ष्मता से सहित है वह सूक्ष्मसाम्पराय नामक गुणस्थानवर्ती कहलाता है। इस गुणस्थान में रहने वाला जीव सिर्फ संज्वलनलोभ के सूक्ष्म उदय से युक्त होता है।
भवेत्क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात्॥२८॥
अर्थ- जहाँ सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का उपशम हो जाता है वह उपशान्तकषाय गुणस्थान है और जहाँ सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का क्षय हो जाता है वह क्षीणकषाय गुणस्थान कहलाता है।
सयोगश्चाप्ययोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ॥२९॥
अर्थ- घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से जिसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है किन्तु योग विद्यमान है वह सयोगकेवलीगुणस्थानवर्ती कहलाता है और जिसके योग का अभाव हो जाता है वह अयोगकेवलीगुणस्थानवर्ती कहा जाता है।
संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्चैव द्विधा पञ्चेन्द्रियास्तथा॥३०॥
जीवस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश॥३१॥
अर्थ- एकेन्द्रियों के दो भेद बादर और सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय को आदि लेकर तीन विकल और संज्ञी-असंज्ञी के भेद से दो प्रकार के पञ्चेन्द्रिय ये सात प्रकार के सभी जीव पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। इसलिये सब मिलाकर जीवस्थान के चौदह विकल्प होते हैं। इन्हें चौदह जीवसमास भी कहते हैं।
वचोमनोविभेदाच्च सन्ति पर्याप्तयो हि षट्॥३२॥
सर्वा अपि भवन्त्येताः संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तत्॥३३॥
अर्थ- आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के भेद से पर्याप्तियाँ छह हैं। इनमें एकेन्द्रियों के प्रारम्भ की चार, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी-पञ्चेन्द्रियों तक प्रारम्भ की पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रियों के सभी पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्राणापानौ तथायुश्च प्राणाः स्युः प्राणिनां दश॥३४॥
वाग्द्वयक्षादिषु पूर्णेषु मनः पर्याप्त संज्ञिषु॥३५॥
अर्थ- स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, मनोबल, श्वासोच्छ्वास और आयु, जीवों के ये दश प्राण होते हैं। इनमें कायबल, इन्द्रियाँ तथा आयु प्राण सभी जीवों के होते हैं, श्वासोच्छ्वास पर्याप्तक जीवों के ही होता है, वचनबल द्वीन्द्रियादिक पर्याप्तक जीवों के होता है और मनोबल संज्ञीपञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक के ही होता है।
परिग्रहस्य चेत्येवं भवेत्संज्ञा चतुर्विधा॥३६॥
अर्थ- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा के भेद से संज्ञा चार प्रकार की होती है।
वृत्तदर्शनलेश्यासु भव्यसम्यक्त्वसंज्ञिषु।
आहारके च जीवानां मार्गणाः स्युश्चतुर्दश॥३७॥
अर्थ- १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, ९ दर्शन, १० लेश्या, ११ भव्य, १२ सम्यक्त्व, १३ संज्ञी और १४ आहारक जीवों की ये चौदह मार्गणाएँ होती हैं।
श्वभ्रतिर्यग्नरामर्त्यगतिभेदाच्चतुर्विधा॥३८॥
अर्थ- गति नामकर्म के उदय से जीव की जो अवस्था होती है उसे गति कहते हैं। इसके चार भेद हैं-१ नरकगति, २ तिर्यञ्चगति, ३ मनुष्यगति और ४ देवगति। इनके लक्षण प्रसिद्ध हैं।
प्रत्येकं तद् द्विधा द्रव्यभावेन्द्रिय विकल्पतः॥३९॥
अर्थ- इन्द्र अर्थात् आत्मा का जो लिङ्ग है उसे इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेद से पाँच भेद हैं। इन पाँचों इन्द्रियों में प्रत्येक के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से दो-दो भेद हैं।
बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यमनयोरपि॥४०॥
अर्थ- निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहा गया है। निर्वृत्ति और उपकरण दोनों के बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो-दो भेद होते हैं।
विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरान्तरा॥४१॥
अर्थ- नेत्रादि इन्द्रियों के आकार में अवस्थित विशुद्ध आत्मा के प्रदेशों का जो इन्द्रियाकार परिणमन है उसे आभ्यन्तरनिर्वृत्ति कहते हैं।
नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलप्रचयोऽपरा॥४२॥
अर्थ- इन्द्रियव्यपदेश को प्राप्त हुए उन्हीं आत्मप्रदेशों पर नामकर्म के उदय से इन्द्रियाकार परिणत जो पुद्गल का प्रचय है उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं।
बाह्योपकरणं त्वक्षिपक्ष्मपत्रद्व्यादिकम्॥४३॥
अर्थ- काला तथा सफेद गटेना आदि आभ्यन्तर उपकरण है और नेत्रों की बरूनी तथा दोनों पलक आदि बाह्य उपकरण हैं।
सा लब्धिर्बोधरोधस्य यः क्षयोपशमो भवेत्॥४४॥
अर्थ- लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहा है। ज्ञानावरणकर्म का जो क्षयोपशम है वह लब्धि कहलाती है।
कर्मणो ज्ञानरोधस्य क्षयोपशमहेतुकः॥४५॥
ज्ञानदर्शनभेदेन द्विधा द्वादशधा पुनः॥४६॥
अर्थ- जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के प्रति व्यापृत होता है ऐसा ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाला आत्मा का परिणाम उपयोग कहलाता है। ज्ञान और दर्शन के भेद से मूल में उपयोग दो प्रकार है फिर ज्ञानोपयोग के आठ और दर्शनोपयोग के चार भेद मिलाकर बारह प्रकार का होता है।
इतीन्द्रियाणां पञ्चानां संज्ञानुक्रमनिर्णयः॥४७॥
अर्थ- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियों के नाम तथा उनका क्रम है। इनके लक्षण इस प्रकार हैं-
विज्ञेया विषयास्तेषां मनसस्तु मतं श्रुतम्॥४८॥
अर्थ- स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये क्रम से स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषय जानना चाहिये। मन का विषय श्रुत-अक्षरात्मक श्रुत है।
बद्धं स्पृष्टं च जानाति स्पर्शं गन्धं तथा रसम्॥४९॥
अर्थ- चक्षु असंस्पृष्ट-दूरवर्ती रूप को देखती है। कान स्पृष्ट-अपने से छुए हुए शब्द को सुनता है। स्पर्शन इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय और घ्राण इन्द्रिय, बद्ध-अपने से संबंध को प्राप्त तथा स्पृष्ट-छुए हुए अपने-अपने विषयभूत स्पर्श, रस और गन्ध को जानती हैं।
श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थिति॥५०॥
अर्थ- कर्ण इन्द्रिय जौकी नली के समान, चक्षु इन्द्रिय मसूर के समान, घ्राण-इन्द्रिय अतिमुक्तक तिल के फूल के समान, जिह्वा इन्द्रिय अर्ध चन्द्र के समान और स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकारवाली है।
शम्बूककुन्थुमधुपमर्त्यादीनां ततः क्रमात्॥५१॥
अर्थ- स्थावर जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है फिर शाम्बूक-क्षुद्र शङ्ख, कुन्थु-कानखजूरा, भ्रमर और मनुष्यादिक के क्रम से एक-एक इन्द्रिय अधिक होती जाती है।
स्वैः स्वैर्भेदैः समा ह्येते सर्व एकेन्द्रियाः स्मृताः॥५२॥
अर्थ- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं अपने-अपने भेदों से सहित हैं। ये सभी स्थावर एकेन्द्रिय माने गये हैं।
कुक्षिक्रम्यादयश्चैते द्वीन्द्रियाः प्राणिनो मताः॥५३॥
अर्थ- शम्बूक, शङ्ख, शुक्ति-सीप, गिंडोले, कौंड़ी तथा पेटके कीड़े आदि ये दो इन्द्रिय जीव माने गये हैं।
घुणमत्कुण यूकाद्या स्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः॥५४॥
अर्थ- कुन्थु, चिंउटी, कुम्भी (?) बिच्छू, वीरबहूटी, घुनका कीड़ा, खटमल, चीलर-जुँवा आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं।
वरटी शलभाद्याश्च भवन्ति चतुरिन्द्रियाः॥५५॥
अर्थ- भौंरा, उड़नेवाले कीड़े, डांस, मच्छर, मक्खी, वर्र तथा टिड्डी आदि चार इन्द्रिय जीव हैं।
तिर्यञ्चोऽप्युरगा भोगिपरिसर्पचतुष्पदाः॥५६॥
अर्थ- मनुष्य, नारकी, देव, तिर्यञ्च, साँप, फणावाले नाग, सरकनेवाले अजगर आदि तथा चौपाये पाँच इन्द्रिय जीव हैं।
धराप्तेजो मरुत्काया नानाकारास्तरुत्रसाः॥५७॥
अर्थ- पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों का आकार क्रम से मसूर, पानी की बूँद, खड़ी सुइयों का समूह तथा ध्वजा के समान है। वनस्पतिकायिक और त्रस जीव अनेक आकार के होते हैं।
लवणोऽयस्तथा ताम्रं त्रपुः सीसकमेव च॥५८॥
मनःशिला तथा तुत्थमज्जनं सप्रवालकम्॥५९॥
गोमेदो रुचकाङ्कश्च स्फटिको लोहितप्रभः॥६०॥
गैरिकश्चन्दनश्चैव वर्चूरो रुचकस्तथा॥६१॥
षट्त्रिंशत्पृथिवीभेदा भगवद्भिर्जिनेश्वरैः॥६२॥
अर्थ- १ मिट्टी, २ रेत, ३ चुनकंकरी, ४ पत्थर, ५ शिलाएँ, ६ नमक, ७ लोहा, ८ ताँबा, ९ रांगा, १० सीसा, ११ चाँदी, १२ सोना, १३ हीरा, १४ हरताल १५ ईंगुर, १६ मैनसिल, १७ तूतिया, १८ सुरमा, १९ मूँगा, २० क्रिरोलक (?), २१ भोड़ल, बड़ी-बड़ी मणियों के खण्ड, २२ गोमेद, २३ रुचकाङ्क, २४ स्फटिक, २५ पद्मराग, २६ वैडूर्य २७ चन्द्रकान्त, २८ जल-कान्त, २९ सूर्यकान्त, ३० गैरिक, ३१ चन्दन, ३२ वर्चूर, ३३ रुचक, ३४ मोठ, ३५ मसार और ३६ गल्ल नामक मणि ये सब पृथिवीकायिक के छत्तीस भेद जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं।
शीतकाद्याश्च विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः॥६३॥
अर्थ- ओस, बर्फ के कण, शुद्धोदक-चन्द्रकान्तमणि से निकला पानी, मेघ से तत्काल वर्षा हुआ पानी तथा कुहरा आदि जलकायिक जीव जानने के योग्य हैं।
अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः॥६४॥
अर्थ- ज्वालाएँ, अंगार, अर्चि-अग्नि की किरण, मुर्मुर-अग्निकण (भस्म भीतर छिपे हुए अग्नि के छोटे-छोटे कण) और शुद्ध अग्नि-सूर्यकान्तमणि उत्पन्न अग्नि ये सब अग्निकायिक जीव जानने के योग्य हैं।
वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः॥६५॥
अर्थ- वृक्ष वगैरह को उखाड़ देनेवाली महान् वायु अर्थात् आंधी, घनवात, तनुवात, गुञ्जा-गूँजनेवाली वायु, मण्डलि-गोलाकार वायु, उत्कलि-तिरछी बहनेवाली वायु और वात-सामान्य वायु ये सब पवनकायिक जीव जानने के योग्य हैं।
संमूर्च्छिनश्व हरिताः प्रत्येकानन्तकायिकाः॥६६॥
अर्थ- मूलबीज-मूल से उत्पन्न होने वाले अदरख, हल्दी आदि, अग्रबीज-कलम से उत्पन्न होने वाले गुलाब आदि, पर्वबीज-पर्व से उत्पन्न होने वाले गन्ना आदि, कन्दबीज-कन्द से उत्पन्न होने वाले सूरण आदि, स्कन्धबीज-स्कन्ध से उत्पन्न होनेवाले ढाक आदि, बीजरूह-बीज से उत्पन्न होनेवाले गेहूँ, चना आदि तथा संमूर्च्छिन्-अपने आप उत्पन्न होनेवाली घास आदि वनस्पतिकाय प्रत्येक तथा साधारण दोनों प्रकार के होते हैं।
योगो ह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते॥६७॥
अर्थ- वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम होनेपर आत्मप्रदेशों का हलन चलन होना योग कहलाता है।
काययोगाश्च सप्तैव योगाः पञ्चदशोदिताः॥६८॥
अर्थ- चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग सब मिलाकर पन्द्रह योग कहे गये हैं।
तथाऽसत्यमृषा चेति मनोयोगश्चतुर्विधः॥६९॥
अर्थ- सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग ये मनोयोगके चार भेद हैं।
तथाऽसत्यमृषा चेति वचोयोगश्चतुर्विधः॥७०॥
अर्थ- सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभय वचनयोग ये वचनयोग के चार भेद हैं।
मिश्राश्च कार्मणं चैव काययोगोऽपि सप्तधा॥७१॥
अर्थ- औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण इस तरह काययोग भी सात प्रकार का होता है।
तैजसः कार्मणश्चैवं सूक्ष्माः सन्ति यथोत्तरम्॥७२॥
यथोत्तरं तथानन्तगुणौ तैजसकार्मणौ॥७३॥
अर्थ- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण ये पाँच शरीर आगे-आगे सूक्ष्म-सूक्ष्म हैं अर्थात् औदारिक शरीर की अपेक्षा वैक्रियिक, वैक्रियिक की अपेक्षा आहारक, आहारक की अपेक्षा तैजस और तैजस की अपेक्षा कार्मणशरीर सूक्ष्म है। प्रदेशों की अपेक्षा औदारिकशरीर से लेकर वैक्रियिक और आहारक असंख्यातगुणे हैं और तैजस तथा कार्मण अनन्तगुणे हैं अर्थात् औदारिकशरीर के जितने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणे वैक्रियिक के हैं, वैक्रियिक-के जितने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणे आहारक के हैं, आहारक से अनन्तगुणे तेजस के और उनसे अनन्तगुणे कार्मणशरीर के हैं।
सर्वस्यानादिसम्बन्धौ स्यातां तैजसकार्मणौ॥७४॥
क्वचिद्वैक्रियिकोपेतौ तृतीयाद्ययुतौ क्वचित्॥७५॥
अर्थ- तेजस और कार्मणशरीर उपभोग-इन्द्रियों द्वारा विषयग्रहण से रहित हैं, प्रतिघात-रुकावट से रहित हैं और सामान्य की अपेक्षा सब जीवों के साथ अनादि सम्बन्ध रखनेवाले हैं। तैजस और कार्मण ये दो शरीर कहीं तो शुद्ध-अर्थात् अन्य शरीरों से रहित होते हैं, कहीं औदारिक शरीर से अधिक होते हैं, कहीं वैक्रियिकशरीर से अधिक होते हैं और कहीं आहारकशरीर से अधिक होते हैं।
अन्यादृक् तैजसं साधोर्वपुर्वैक्रियिकं तथा॥७६॥
अर्थ- औदारिकशरीर से युक्त किसी मुनि के लब्धिप्रत्यय ऋद्धिविशेष उत्पन्न होनेवाला एक अन्य प्रकार का तैजस तथा वैक्रियिकशरीर माना जाता है।
तथा वैक्रियिकाख्यं तु जानीयादौपपादिकम्॥७७॥
अर्थ- औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न होता है तथा वैक्रियिकशरीर उपपाद जन्म से उत्पन्न होता है। अथवा गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से जिसकी उत्पत्ति होती है उसे औदारिक शरीर कहते हैं तथा उपपाद जन्म से जिसकी उत्पत्ति होती है उसे वैक्रियिकशरीर कहते हैं।
संयतस्य प्रमत्तस्य स खल्वाहारकः स्मृतः॥७८॥
अर्थ- ऋद्धिधारक प्रमत्तसंयत मुनि के जो व्याघात से रहित, शुभ तथा शुद्ध पुतला निकलता है वह आहारकशरीर माना गया है।
नामोदयनिमित्तस्तु द्रव्यवेदः स च त्रिधा॥७९॥
पल्यायुषो न देवाश्च त्रिवेदा इतरे पुनः॥८०॥
गमनं त्वच्युतं यावत् पुंवेदा हि ततः परम्॥८१॥
अर्थ- नोकषाय के उदय से उत्पन्न होनेवाला भाववेद स्त्री पुरुष और नपुंसक के भेद से तीन प्रकार का है। इसी प्रकार नामकर्म के उदय से होनेवाला द्रव्यवेद भी तीन प्रकार का है। नारकी तथा सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न होनेवाले जीव द्रव्यवेद की अपेक्षा नपुंसक होते हैं। भोगभूमिज मनुष्य तिर्यञ्च तथा देव नपुंसक नहीं होते अर्थात् स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं। शेष मनुष्य और तिर्यञ्च तीनों वेदवाले होते हैं अर्थात् तीन वेदों में से किसी एक वेद के धारक होते हैं। देवियों का उत्पाद ऐशान स्वर्ग तक होता है परन्तु उनका गमन अच्युत स्वर्ग तक होता है। इस दृष्टि से अच्युत स्वर्ग तक पुरुषवेद और स्त्रीवेद ये दो वेद पाये जाते हैं। उसके आगे सब देव पुरुषवेदी ही होते हैं।
क्रोधी मानस्तथा माया लोभश्चेति चतुर्विधः॥८२॥
अर्थ- जो चारित्ररूप परिणामों को कषे घाते उसे कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय चार प्रकार की हैं।
मिथ्यात्वपाककलुषमज्ञानं त्रिविधं पुनः॥८३॥
अर्थ- जीवादि तत्त्वों का यथार्थ बोध होना ज्ञान कहलाता है। यह मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल के भेद से पाँच प्रकार का होता है। जो ज्ञान मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से कलुषित रहता है उसे अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान कहते हैं। इसके मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभङ्ग के भेद से तीन भेद होते हैं। इस तरह कुल मिलाकर ज्ञानमार्गणा के आठ भेद हैं।
प्राणस्य परिहारः स्यात् पञ्चधा स च वक्ष्यते॥८४॥
प्राणिघाताक्षविषयभावेन स्यादसंयमः॥८५॥
अर्थ- चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम आदि के द्वारा प्राणघात का परित्याग होता है वह निश्चय से संयम कहलाता है। यह सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का कहा जावेगा। एक ही साथ विरत और अविरत अवस्था होने से संयमासंयम होता है तथा प्राणिघात और इन्द्रियोंके विषयों में प्रवृत्ति होने से असंयम होता है।
आलोचनं पदार्थानां दर्शनं तच्चतुर्विधम्॥८६॥
अवधिदर्शनं चैव तथा केवलदर्शनम्॥८७॥
अर्थ- दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम (और क्षय) होने पर जो पदार्थों का सामान्य अवलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं। यह चार प्रकार का है-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
भावतो द्रव्यतः कायनामोदयकृताङ्गरुक्॥८८॥
शुक्ला चेति भवत्येषा द्विविधापि हि षड्विधा॥८९॥
अर्थ- भाव की अपेक्षा कषाय के उदय से रँगी हुई योगवृत्ति लेश्या कहलाती है और द्रव्य की अपेक्षा शरीर नामकर्म के उदय से निर्मित शरीर की कान्ति लेश्या कहलाती है। यह दोनों प्रकार की लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से छह प्रकार की होती है। कृष्णादि लेश्याओं के लक्षण पहले कहे जा चुके हैं।
भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युर्विपरीतास्तथापरे॥९०॥
अर्थ- भव्य और अभव्य के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। जो सिद्धपर्याय प्राप्त करने के योग्य हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो इनसे विपरीत हैं वे अभव्य कहे जाते हैं।
स्यात्सासादनसम्यक्त्वं पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम्॥९१॥
मिथ्यात्वमुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः॥९२॥
अर्थ- तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से वह सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय से सासादनसम्यक्त्व होता है। सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यात्व होता है तथा मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व होता है। इस तरह सम्यक्त्वमार्गणा के छह भेद हैं। इनके लक्षण पहले कहे जा चुके हैं। मिथ्यात्व पहले गुणस्थान में, सासादन दूसरे गुणस्थान में, सम्यग्मिथ्यात्व तीसरे गुणस्थान में, औपशमिकसम्यग्दर्शन चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक, क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन चौथे से सातवें तक और क्षायिकसम्यग्दर्शन चौथे से चौदहवें तक तथा सिद्धपर्याय में भी रहता है।
अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी कथितो जिनैः॥९३॥
अर्थ- जो जीव शिक्षा, क्रिया तथा आत्मा के प्रयोजन को ग्रहण करता है वह संज्ञी कहलाता है। इससे जो विपरीत है उसे जिनेन्द्र भगवान ने असंज्ञी कहा है। इस तरह संज्ञी और असंज्ञी के भेद से संज्ञीमार्गणा के दो भेद हैं।
आहारकः स विज्ञेयस्ततोऽनाहारकोऽन्यथा॥१४॥
अर्थ- जो औदारिकादि शरीर तथा पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है उसे आहारक जानना चाहिये और जो इससे विपरीत है उसे अनाहारक समझना चाहिए।
सासनो विग्रहगतौ मिथ्यादृष्टिस्तथाव्रतः॥९५॥
अर्थ- अयोगकेवली, लोकपूरण समुद्धात करनेवाले सयोगकेवली, तथा विग्रहगति में स्थित मिथ्यादृष्टि; सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अनाहारक होते हैं।
विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता॥९६॥
प्राहुर्देहान्तरप्राप्तिकर्मग्रहणकारणम्॥९७॥
मुक्तानां चोद्धर्वगमनमनुश्रेणिगतिस्तयोः॥९८॥
अविग्रहैव मुक्तस्य शेषस्यानियमः पुनः॥९९॥
अन्या द्विसमया प्रोक्ता पाणिमुक्तैकविग्रहा॥१००॥
गोमूत्रिका तु समयैश्चतुर्भिः स्यान्त्रिविग्रहा॥१०१॥
तथा गोमूत्रिकायां त्रीननाहारक इष्यते॥१०२॥
अर्थ- निश्चय से विग्रह का अर्थ शरीर है। जिसका पूर्व शरीर नष्ट हो गया है ऐसे जीव की नवीन शरीर के लिये जो गति (गमन) होती है वह विग्रहगति मानी गई है। जिनेन्द्र भगवान् ने विग्रहगति में जीव के कार्मण काययोग कहा है। यह कार्मण काययोग ही अन्य शरीर की प्राप्ति तथा नवीन कर्म ग्रहण का कारण है। मृत्यु होने पर जीवों का जो अन्य भव में गमन होता है तथा मुक्त जीवों का जो ऊर्ध्वगमन होता है उन दोनों में जीवों की गति श्रेणी के अनुसार ही होती है। सविग्रहा-मोड़ सहित और अविग्रहा-मोड़ रहित के भेद से वह विग्रहगति दो प्रकार की होती है। मुक्त जीव की गति अविग्रहा-मोड़ रहित ही होती है। शेष जीवों की गति का कोई नियम नहीं है अर्थात् उनकी गति दोनों प्रकार की होती है। जिस गति में विग्रह-मोड़ नहीं होता उसमें एक समय लगता है तथा जिनेन्द्र भगवान् ने उसका इषुगति नाम कहा है। जिसमें एक मोड़ लेना पड़ता है उसमें दो समय लगते हैं तथा इसका पाणिमुक्ता नाम है। जिसमें दो मोड़ लेना पड़ते हैं उसमें तीन समय लगते हैं तथा उसे जिनेन्द्र भगवान् लाङ्गलिका-गति कहते हैं। जिसमें तीन मोड़ लेना पड़ते हैं उसमें चार समय लगते हैं और उसे गोमूत्रिका कहते हैं। पाणिमुक्तागति में जीव एक समय तक, लाङ्गलिका-गति में दो समय तक और गोमूत्रिकागति में तीन समय तक अनाहारक रहता है। इषुगति में जीव अनाहारक नहीं होता।
सम्मूर्च्छनात्तथा गर्भादुपपादात्तथैव च॥१०३॥
तथोपपादजन्मानो नारकास्त्रिदिवौकसः॥१०४॥
अर्थ- सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद के भेद से सर्वज्ञ भगवान ने जीवों का जन्म तीन प्रकार का कहा है। पोत, अण्डज और जरायुज जीव गर्भजन्म वाले हैं, नारकी और देव उपपाद जन्मवाले हैं और शेष जीव सम्मूर्च्छन जन्मवाले हैं।
सचित्ताचित्तशीतोष्णौ तथा विवृतसंवृतः॥१०६॥
गर्भजानां पुनर्मिश्रः शेषाणां त्रिविधो भवेत्॥१०७॥
उष्णोऽग्नि कायिकानां तु शेषाणां त्रिविधो भवेत्॥१०८॥
विवृतो विकलाक्षाणां मिश्रः स्याद्गर्भजन्मनाम्॥१०९॥
अर्थ- उक्त तीनों प्रकार के जन्मों की सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, विवृत, संवृत और विवृतसंवृत ये नौ योनियां कही गई हैं। जिनेन्द्र भगवान ने नारकी और देवों की अचित्त योनि कही है। गर्भजन्मवालों की सचित्ताचित्त योनि तथा शेष जीवों की तीनों प्रकार की अर्थात् किसी की सचित्त, किसी की अचित्त और किसी की सचित्ताचित्त योनि बतलाई है। देव नारकियों में किन्हीं की शीत तथा किन्हीं की उष्ण योनि, अग्निकायिक जीवों की उष्ण योनि और शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनियां हैं। नारकी, एकेन्द्रिय और देवों की संवृत, विकलत्रयों की विवृत तथा गर्भजन्म वालों की मिश्र विवृतसंवृत योनि होती है।
सप्त सप्त भवन्त्येषां लक्षाणि दश शाखिनाम्॥११०॥
तिर्यग्नारक देवानामेकैकस्य चतुष्टयम्।
एवं चतुरशीतिः स्याल्लक्षाणां जीवयोनयः॥१११॥
अर्थ- नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक इन छह की सात-सात लाख, वनस्पतिकायिक की दश लाख, विकलत्रयों की छह लाख, मनुष्यों की चौदह लाख, तिर्यञ्च, नारकी और देवों में प्रत्येक की चार-चार लाख इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख जीवयोनियाँ होती हैं।
कोटी लक्षाणि भूभ्यम्भस्तेजोऽनिल शरीरिणाम्॥११२॥
स्युर्द्वित्रिचतुरक्षाणां सप्ताष्ट नव च क्रमात्॥११३॥
नवाहिपरिसर्पाणां गवादीनां तथा दश॥११४॥
षड्विंशतिः सुराणां तु श्वाभ्राणां पञ्चविंशतिः॥११५॥
पञ्चायुतानि कोटीनां कोटिकोटी च मीलनात्॥११६॥
अर्थ- पृथिवीकायिक के बाईस लाख, जलकायिक के सात लाख, अग्निकायिक के तीन लाख, वायुकायिक के सात लाख, वनस्पतिकायिक के अठ्ठाईस लाख, द्वीन्द्रियों के सात लाख, त्रीन्द्रियों के आठ लाख, चतुरिन्द्रियों के नौ लाख, जलचरों के साढ़े बारह लाख, सर्प तथा छाती से सरकनेवाले अजगर आदि के नौ लाख, गाय आदि चौपायों के दश लाख, पक्षियों के बारह लाख मनुष्यों के चौदह लाख, देवों के छब्बीस लाख और नारकियों के पच्चीस लाख कुलों की कोटियाँ हैं। सब मिलाकर कुलों की संख्या एक करोड़ निन्यानवे लाख पचास हजार को एक करोड़ से गुणा करने पर जितना लब्ध आवे उतनी है अर्थात् १९९५००००००००००० प्रमाण है।
*नमस्वतां पुनस्त्रीणि वीनां द्वासप्ततिस्तथा॥११७॥**
आयुर्वर्षसहस्राणि सर्वेषां परिभाषितम्॥११८॥
षण्मासाश्चतुरक्षाणां भवत्यायुः प्रकर्षतः॥११९॥
द्व्यक्षाणां द्वादशाब्दानि जीवितं स्यात्प्रकर्षतः॥१२०॥
मनुष्याश्चैव जीवन्ति पूर्वकोटिं प्रकर्षतः॥१२१॥
जघन्यमध्यमोत्कृष्टभोगभूमिषु जीवितम्।
कुभोगभूमिजानां तु पल्यमेकं तु जीवितम्॥१२२॥
अर्थ- पृथिवीकायिकजीवों की उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष, जलकायिक-जीवों की सात हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक जीवों की दश हजार वर्ष, वायु-कायिकजीवों की तीन हजार वर्ष, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष, सर्पों की ब्यालीस हजार वर्ष, तीन इन्द्रिय जीवों की उनंचास दिन, अग्निकायिक की तीन दिन, चौइन्द्रिय जीवों की छह माह, छाती से सरकनेवाले अजगर आदि की नौ पूर्वाङ्ग, दो इन्द्रियों की बारह वर्ष, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मच्छ, कर्मभूमिज चौपाये और मनुष्यों की एक करोड़ पूर्व वर्ष, जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि के मनुष्य तथा तिर्यञ्चों की क्रम से एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्य तथा कुभोग-भूमिज मनुष्य और तिर्यञ्चों की एक पल्य प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है।
द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिंशद् घर्मादिषु यथाक्रमम्॥१२३॥
दशवर्षसहस्राणि घम्मायां तु जघन्यतः॥१२४॥
तथा सप्तदश द्व्यग्रा विंशतिश्च यथोत्तरम्॥१२५॥
अर्थ- घर्मा, वंशा, मेघा, अञ्जना, अरिष्टा, मघवी और माघवी इन सात पृथिवियों में रहनेवाले नारकियों की उत्कृष्ट आयु क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर, बाइस सागर और तेतीस सागर प्रमाण है। घर्मा पृथिवी में जघन्य आयु दश हजार वर्ष है तथा वंशा आदि पृथिवियों में क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर और बाईस सागर प्रमाण है।
दशवर्षसहस्रं तु जघन्यं परिभाषितम्॥१२६॥
अर्थ- भवनवासी देवों की उत्कृष्ट आयु एक सागर प्रमाण तथा जघन्य आयु दश हजार वर्ष प्रमाण कही गई है।
दशवर्षसहस्रं तु व्यन्तराणां जघन्यतः॥१२७॥
अर्थ- व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण और जघन्य आयु दश हजार वर्ष प्रमाण है।
पल्योपमाष्टभागस्तु ज्योतिष्काणां जघन्यतः॥१२८॥
अर्थ- ज्योतिष्कदेवों की उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्य और जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है।
षोडशाष्टादशाप्येते सातिरेकाः पयोधयः॥१२९॥
सौधर्मादिषु देवानां भवत्यायुः प्रकर्षतः॥१३०॥
नवस्वनुदिशेषु स्याद् द्वात्रिंशदविशेषतः॥१३१॥
साधिकं पल्यमायुः स्यात्सौधर्मैशानयोर्द्वयोः॥१३२॥
आयुः सर्वार्थसिद्धौ तु जघन्यं नैव विद्यते॥१३३॥
अर्थ- सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार इन छह युगलों में क्रम से कुछ अधिक दो सागर, सात सागर, दश सागर, चौदह सागर, सोलह सागर और अठारह सागर की उत्कृष्ट आयु है। आनत-प्राणत युगल में बीस सागर तथा आरण-अच्युत युगल में बाईस सागर की उत्कृष्ट आयु है। इसके आगे नौग्रेवेयकों में प्रत्येक ग्रैवेयक के अनुसार एक-एक सागर की आयु बढ़ाना चाहिये। इस तरह प्रथम ग्रैवेयक में तेईस सागर और नौवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है। इसके आगे नौ अनुदिशों में सामान्यरूप से एक सागर की वृद्धि होकर बत्तीस सागर की उत्कृष्ट आयु है। इसके ऊपर विजय आदि पाँच अनुत्तर विमानों में एक सागर बढ़कर तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है। इसके आगे पिछले युगलों की उत्कृष्ट स्थिति आगे के युगलों में जघन्य आयु हो जाती है। सर्वार्थसिद्धि में जघन्य आयु नहीं होती है।
अन्तर्मुहूर्तमित्येषां जघन्येनायुरिष्यते॥१३४॥
अर्थ- जिनकी अपमृत्यु नहीं होती उन्हें छोड़कर अन्य सभी तिर्यञ्च और मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त मानी गई है।
देवाश्च नारकाश्चैषामपमृत्युर्न विद्यते॥१३५॥
अर्थ- असंख्यातवर्ष की आयुवाले भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्च, चरमोत्तमदेह के धारक मनुष्य, देव और नारकी इनकी अपमृत्यु नहीं होती।
उत्सेधः स्यात्ततोऽन्यासु द्विगुणो द्विगुणो हि सः॥१३६॥
अर्थ- घर्मा पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई सात धनुष सवा तीन हाथ है और उससे नीचे अन्य पृथिवियों में दूनी दूनी है। (इस तरह दूनी होती होती सातवीं पृथिवी में पाँच सौ धनुष की ऊँचाई हो जाती है।)।
प्रकर्षेण मनुष्याणामुत्सेधः कर्मभूमिषु॥१३७॥
क्रोशत्रयं प्रकृष्टासु भोगभूषु समुन्नतिः॥१३८॥
अर्थ- कर्मभूमि में मनुष्यों की ऊँचाई उत्कृष्टरूप से पाँचसौ पच्चीस धनुष है। जघन्य भोगभूमि में एक कोश, मध्यम भोगभूमि में दो कोश और उत्तम भोगभूमि में तीन कोश है।
शेषभावनभौमानां कोदण्डानि दशोन्नतिः॥१३९॥
अर्थ- ज्योतिष्कदेवों की सात धनुष, भवनवासियों में असुरकुमारों की पच्चीस धनुष और शेष भवनवासी तथा व्यन्तरदेवों की ऊँचाई दश धनुष है।
ततश्चतुर्षु चत्त्वारः सार्द्धाश्चातो द्वयोस्त्रयः॥१४०॥
अधोग्रैवेयकेषु स्यात्सार्द्धं हस्तद्वयं यथा॥१४१॥
अन्त्यग्रैवेयकेषु स्याद्धस्तोऽप्यर्द्ध समुन्नतिः।
एक हस्तसमुत्सेधो विजयादिषु पञ्चसु॥१४२॥
अर्थ- सौधर्म और ऐशान इन दो स्वर्गों में देवों की ऊँचाई सात हाथ; सानत्कुमार और माहेन्द्र इन दो स्वर्गों में छह हाथ; ब्रह्म ब्रह्मोत्तर-लान्तव और कापिष्ट इन चार स्वर्गों में पाँच हाथ, शुक्र-महाशुक्र-शतार और सहस्रार इन चार स्वर्गों में चार हाथ, आनत और प्राणत इन दो स्वर्गों में साढ़े तीन हाथ, आरण और अच्युत इन दो स्वर्गों में तीन हाथ, अधोग्रैवेयक के तीन विमानोंमें अढ़ाई हाथ, मध्यम ग्रैवेयकके तीन विमानों में दो हाथ, अन्तिम ग्रैवेयक के तीन विमानों तथा अनुदिशों में डेढ़ हाथ और विजयादिक पाँच अनुत्तरविमानों में एक हाथकी ऊँचाई है।
एकेन्द्रियस्य देहः स्याद्विज्ञेयः स च पद्मिनि॥१४३॥
सहस्रयोजनो मत्स्यो मधुपश्चैक योजनः॥१४४॥
अर्थ- एकेन्द्रियजीव का शरीर उत्कृष्टता से कुछ अधिक एकहजार योजन विस्तारवाला है। एकेन्द्रियजीव की यह उत्कृष्ट अवगाहना कमल की जानना चाहिये। दो इन्द्रिय जीवों में शङ्ख बारह योजन विस्तारवाला है, तीन इन्द्रिय जीवों में कुम्भी-चिंउटी तीन कोश विस्तारवाली है, चार इन्द्रिय जीवों में भौंरा एक योजन-चार कोश विस्तारवाला है और पाँच इन्द्रिय जीवों में महामच्छ एकहजार योजन विस्तार वाला है।
एकाक्षादिषु सर्वेषु देहस्तावान् जघन्यतः॥१४५॥
अर्थ- एकेन्द्रियादिक सभी जीवों का शरीर जघन्यरूप से घनाङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
मेघान्ताश्च विहङ्गाश्च अञ्जनान्ताश्च भोगिनः॥१४६॥
नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं ताश्च पापिनः॥१४७॥
अर्थ- असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय घर्मानामक पहली पृथिवी तक, सरीसृप वंशा नामक दूसरी पृथिवी तक, पक्षी मेघा नामक तीसरी पृथिवी तक, सर्प अञ्जना नामक चौथी पृथिवी तक, सिंह अरिष्टा नामक पाँचवीं पृथिवी तक, स्त्रियाँ मघवी नामक छठवीं पृथिवी तक, पापी मच्छ तथा मनुष्य माघवी नामक सातवीं पृथिवी तक जाते हैं।
तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः॥१४८॥
संयमं तु पुनः पुण्यं नाप्नुवन्तीति निश्चयः॥१४९॥
प्रयान्ति न पुनर्मुक्तिं भावसंक्लेशयोगतः॥१५०॥
न पुनः प्राप्नुवन्त्येव पवित्रां तीर्थकर्तृताम्॥१५१॥
निर्गत्य नरकान्न स्युर्बल केशवचक्रिणः॥१५२॥
अर्थ- सातवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्यपर्याय प्राप्त नहीं करते। वे तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर फिरसे नरक जाते हैं। मघवी नामक छठवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्य तो होते हैं पर वे पवित्र संयम को प्राप्त नहीं होते, यह निश्चय है। पाँचवीं पृथिवी से निकले हुए कोई नारकी मुनिव्रत तो धारण कर लेते हैं परन्तु भावों की संक्लेशता के कारण मुक्ति को प्राप्त नहीं होते। चौथी पृथिवी से निकले हुए कितने ही नारकी मुक्ति तो प्राप्त कर लेते हैं परन्तु पवित्र तीर्थंकर का पद प्राप्त नहीं करते हैं। इनके सिवाय अन्य पृथिवियों से अर्थात् पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवी से निकले हुए नारकी तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकते हैं। नरक से निकल कर नारकी बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं होते।
वायवोऽसंज्ञिनश्चैषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः॥१५३॥
मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमो मिथः॥१५४॥
नारको न हि देवः स्यान्न देवो नारको भवेत्॥१५५॥
तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मैषां परिकीर्तितम्॥१५६॥
मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यनन्तरे॥१५७॥
नारकामरतिर्यक्षु नृषु वा न तु सर्वतः॥१५८॥
संख्यातवर्षजीविभ्यः संज्ञिभ्यो जन्म संस्मृतम्॥१५९॥
निसर्गेण भवेत्तेषां यतो मन्दकषायता॥१६०॥
तिर्यञ्चो मानुषाश्चैव भाज्याः सिद्धगतौ तु ते॥१६१॥
अर्थ- सब लब्ध्यपर्याप्तक जीव, सूक्ष्मकाय, अग्निकायिक, वायुकायिक और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय इनका तिर्यञ्चों से (अन्य गति में) निकलना नहीं होता अर्थात् ये मर कर पुनः तिर्यंच गति में ही उत्पन्न होते हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक इन तीन कायिकों का, विकलत्रयों का तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों का मनुष्य और तिर्यञ्चों में परस्पर उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है अर्थात् मनुष्य मर कर इनमें उत्पन्न हो सकते हैं और ये मर कर मनुष्यों में उत्पन्न हो सकते हैं। नारकी और देवों का परस्पर संक्रमण विरुद्ध है अर्थात् नारकी देव नहीं हो सकता और देव नारकी नहीं हो सकता। स्थूलपर्याप्तक पृथिवीकायिक, जलकायिक, और प्रत्येक वनस्पति इनमें तिर्यञ्च मनुष्य तथा देवों का जन्म कहा गया है। सभी अग्निकायिक और सभी वायुकायिक जीव अनन्तर जन्म में मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं, यह नियम है। पर्याप्तक असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का जन्म कदाचित् नारकियों, देवों, तिर्यञ्चों और मनुष्यों में विरुद्ध नहीं है अर्थात् कभी किसी जीव का जन्म होता है सबका सर्वदा नहीं। असंख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्चों का जन्म संख्यातवर्ष की आयु-वाले संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्चों से माना गया है अर्थात् भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्च कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं। नारकी और देवों का जन्म भोगभूमि में नहीं होता। इसी तरह भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्च भी मर कर भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्च नहीं होते हैं। असंख्यातवर्ष की आयुवाले-भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्चों का जन्म नियम से देवों में ही होता है क्योंकि उनके स्वभाव से मन्दकषाय रहती है। शलाकापुरुष अनन्तर जन्म में तिर्यञ्च और मनुष्य नियम से नहीं होते अर्थात् नरक और देवगति में उत्पन्न होते हैं। कितने ही शलाकापुरुष सिद्धगति को भी प्राप्त होते हैं।
व्यन्तरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः॥१६२॥
उत्कृष्टास्तापसाश्चैव यान्ति ज्योतिष्कदेवताम्॥१६३॥
आजीवास्तु सहस्रारं प्रकर्षेण प्रयान्ति हि॥१६४॥
अत्रैव हि प्रजायन्ते सम्यक्त्वाराधका नराः॥१६५॥
निर्ग्रन्थश्रावका ये ते जायन्ते यावदच्युतम्॥१६६॥
अन्त्यग्रैवेयकं यावदभव्याः खलु यान्ति ते॥१६७॥
उत्पद्यन्ते तपोयुक्ता रत्नत्रयपवित्रिताः॥१६८॥
अर्थ- जो मिथ्यादृष्टि जीव संज्ञी अथवा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय हैं वे व्यन्तर तथा भवनवासी होते हैं। मिथ्यादृष्टि भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च तथा उत्कृष्ट तापस ये ज्योतिष्क देवों में उत्पत्ति को प्राप्त होते हैं। परिव्राजक अधिक से अधिक ब्रह्मलोक अर्थात् पाँचवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। आजीवक अधिक से अधिक सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक जाते हैं। व्रती तिर्यञ्च और अविरत सम्यग्दृष्टि भी यहीं तक उत्पन्न होते हैं। इसके आगे अन्य लिङ्ग के धारकों की उत्पत्ति नहीं है। जो निष्परिग्रह श्रावक हैं वे अच्युत स्वर्गं तक उत्पन्न होते हैं। जो अभव्य निर्ग्रन्थलिङ्ग अर्थात् दिगम्बर मुनि का वेष धारणकर उत्कृष्ट तप करते हैं वे अन्तिम ग्रैवेयक तक जाते हैं। और जो रत्नत्रय से पवित्र निर्ग्रन्थ तपस्वी हैं वे सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं।
तिर्यक्त्वमानुषत्वाभ्यामासहस्रारतः पुनः॥१६९॥
उत्पद्यन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित्॥१७०॥
अनन्तरभवे तेषां भाज्या भवति निर्वृतिः॥१७१॥
शलाका पुरुषत्वेन निर्वाणगमनेन च॥१७२॥
च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामरः॥१७३॥
विकल्प्या रामभावेऽपि सिद्ध्यन्ति नियमात्पुनः॥१७४॥
शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति निर्वृतिम्॥१७५॥
अर्थ- ऐशान स्वर्ग तक से च्युत देव एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं। सहस्रार स्वर्ग तक से च्युत देव तिर्यंच और मनुष्य दोनों में उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु इसके आगे के देव अनन्तरभव में नियम से मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। तिर्यञ्चों में कभी नहीं उत्पन्न होते। व्यन्तर, ज्योतिष्क और भवनवासी देव अनन्तरभव में शलाका पुरुष नहीं होते। वहाँ से आये हुए मनुष्यों को निर्वाण भी प्राप्त हो सकता है। ग्रैवेयक तक से आये हुए देव शलाकापुरुष हो सकते हैं और मोक्ष भी जा सकते हैं। अनुदिश और अनुत्तरवासी देव वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर, बलभद्र और चक्रवर्ती हो सकते हैं और निर्वाण को भी प्राप्त हो सकते हैं। सर्वार्थसिद्धि से च्युत देव तीर्थंकर चक्रवर्ती और बलभद्र भी हो सकते हैं तथा नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। दक्षिण दिशा के इन्द्र, लोकपाल, लौकान्तिकदेव, शची और सौधर्मेन्द्र ये सभी स्वर्ग से च्युत हो, नियम से मनुष्य होकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
व्योम्नि पुद्गलसंछन्नो लोकः स्यात्क्षेत्रमात्मनाम्॥१७६॥
अर्थ- आकाश के बीच में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, तथा कालाणुओं से व्याप्त और पुद्गलद्रव्य से युक्त लोक है। यह लोक ही जीवों का क्षेत्र-आधार है।
ऊर्ध्वं मृदङ्गसंस्थानो लोकः सर्वज्ञवर्णितः॥१७७॥
अर्थ- सर्वज्ञदेव के द्वारा कहा हुआ यह लोक, अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है। यह लोक नीचे वेत्रासन के आकार का है, मध्य में झालर के समान है और ऊपर मृदङ्ग के सदृश है।
श्वाभ्रमानुशदेवानामथातस्तद्विभज्यते॥१७८॥
अर्थ- सर्वसामान्यरूप से यह लोक तिर्यञ्चों का क्षेत्र माना जाता है। अब नरक, मनुष्य और देवों के क्षेत्र का विभाग किया जाता है।
घनाम्वुपवनाकाशे प्रतिष्ठाः सप्त भूमयः॥१७९॥
स्याद्वालुकाप्रभातोऽस्धततः पङ्कप्रभा मता॥१८०॥
तमस्तमः प्रभातोऽधो भुवामित्थं व्यवस्थितिः॥१८१॥
अर्थ- लोक के अधोभाग में रत्नप्रभा आदि सात भूमियाँ हैं जो घनोदधिवात-वलय, घनवातवलय, तनुवातवलय और आकाश के आधार हैं। उन भूमियों में रत्नप्रभा पहली भूमि है, उसके नीचे शर्कराप्रभा हैं, उसके नीचे बालुकाप्रभा है; उसके नीचे पड्ंकप्रभा है, उसके नीचे धूमप्रभा है, उसके नीचे तमः प्रभा है, और उसके नीचे तमस्तमःप्रभा है। इस प्रकार सात भूमियों की स्थिति है।
अधः पञ्चकृतिस्तस्यास्ततोऽधो दशपञ्च च॥१८२॥
पञ्चोनं लक्षमेकं तु ततोऽधः पञ्च तान्यतः॥१८३॥
अर्थ- सबसे ऊपर की भूमि में तीस लाख, उससे नीचे की भूमि में पच्चीस लाख, उससे नीचे की भूमि में पन्द्रह लाख, उससे नीचे की भूमि में दश लाख, उससे नीचे की भूमि में तीन लाख, उससे नीचे की भूमि में पाँच कम एक लाख और उससे नीचे की भूमिमें सिर्फ पाँच विल हैं। ये विल नरक कहलाते हैं।
अत्यन्तमशुभैर्जीवा भवन्त्येतेषु नारकाः॥१८४॥
संक्लिष्टासुरनिर्वृत्तदुःखाश्चोद्धर्वक्षितित्रये॥१८५॥
भुञ्जते दुःकृतं घोरं चिरं सप्तक्षितिस्थिताः॥१८६॥
अर्थ- इन नरकों में नारकी जीव, अत्यन्त अशुभ परिणाम शरीर, लेश्या, वेदना और विक्रिया आदि से युक्त रहते हैं। परस्पर में दिये हुए असह्य दुःख को भोगते हैं। ऊपर की तीन पृथिवियों में संक्लेश परिणामों के धारक असुरकुमार के देव उन्हें दुःखी करते हैं। इस तरह सातों भूमियों में रहनेवाले नारकी जीव नरकगति उदय से नरकायु पर्यन्त चिरकाल तक घोर पाप का फल भोगते हैं।
असंख्याः शुभनामानो भवन्ति द्वीपसागराः॥१८७॥
आदित्यमण्डलाकारो बहुमध्यस्थ मन्दरः॥१८८॥
पूर्वं पूर्वं परिक्षिप्य वलयाकृतयः स्थिताः॥१८९॥
द्वीपस्तु धातकीखण्डस्तं परिक्षिप्य संस्थितः॥१९०॥
आवेष्ट्य पुष्करद्वीपः स्थितः कालोदसागरम्॥१९१॥
यावज्जिनाज्ञया भव्यैरसंख्या द्वीपसागराः॥१९२॥
अर्थ- लोक के मध्यभाग में तिर्यक् रूप से (समान धरातल पर) बढ़ते हुए शुभ नामवाले असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। उन सबके बीच में एक लाख योजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है। यह जम्बूद्वीप सूर्यमण्डल के समान आकारवाला है तथा इसके ठीक बीच में मेरु पर्वत स्थित है। इसके आगे दूने दूने विस्तारवाले समुद्र तथा द्वीप हैं। वे समुद्र और द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप और समुद्र को घेरे हुए चूड़ी के आकार स्थित हैं। जैसे जम्बूद्वीप को घेरकर लवणसमुद्र स्थित है। उसे घेरकर धातकी खण्डद्वीप स्थित है। धातकीखण्डद्वीप को घेरकर कालोदधिसमुद्र स्थित है। और कालोदधिसमुद्र को घेरकर पुष्करद्वीप स्थित है। इसी परिपाटी से स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा से भव्य जीवों के द्वारा जानने योग्य हैं।
विदेहो रम्यकश्चैव हैरण्यवत एव च।
ऐरावतश्च तिष्ठन्ति जम्बूद्वीपे यथाक्रमम्॥१९३॥
अर्थ- जम्बूद्वीप में क्रम से भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, और ऐरावत ये सात क्षेत्र स्थित हैं।
तद्विभागकराः षट् स्युः शैलाः पूर्वापरायताः॥१९४॥
शिखरी चेति संचिन्त्या एते वर्षधराद्रयः॥१९५॥
यथाक्रमेण निर्वृत्ताश्चिन्त्यास्ते षण्महीधराः॥१९६॥
अर्थ- उपर्युक्त सात क्षेत्रों का विभाग करनेवाले छह पर्वत हैं। ये पर्वत किनारों में मणियों से चित्र-विचित्र हैं, ऊपर, नीचे और मध्य में तुल्य विस्तारवाले हैं तथा पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हैं। इनके नाम हैं-१ हिमवान् २ महाहिमवान् ३ निषध ४ नील ५ रुक्मी और ६ शिखरी। ये पर्वत वर्षधर पर्वत अर्थात् कुलाचल कहे जाते हैं। ये छहों पर्वत क्रम से सुवर्ण, चाँदी, सुवर्ण, नीलमणि, चाँदी तथा सुवर्ण से निर्मित हैं अर्थात् उनके समान वर्णवाले हैं।
पुण्डरीको महान् क्षुद्रो हृदा वर्षधराद्रिषु॥१९७॥
द्वितीयो द्विगुणस्तस्मात्तृतीयो द्विगुणस्ततः॥१९८॥
प्रथमे परिमाणेन योजनं पुष्करं हृदे॥१९९॥
अपाच्यवदुदीच्यानां पुष्कराणां प्रमाश्रिताः॥२००॥
पल्योपमायुषस्तेषु पर्षत्सामानिकान्विताः॥२०१॥
अर्थ- उन कुलाचलों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केशरी, महा-पुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के छह सरोवर हैं। पहला सरोवर एक हजार योजन लम्बा और पाँच सौ योजन चौड़ा है। दूसरा सरोवर इससे दूना है और तीसरा सरोवर दूसरे से दूना है। उत्तर के तीन सरोवर दक्षिण के सरोवरों के समान विस्तारवाले हैं। ये सभी सरोवर दश योजन गहरे हैं। पहले सरोवर में एक योजन विस्तारवाला कमल है। दूसरे सरोवर में दो योजन विस्तारवाला और तीसरे सरोवर में चार योजन विस्तारवाला कमल है। उत्तर के कमलों का प्रमाण दक्षिण के कमलों के समान है। उन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, और लक्ष्मी नाम की देवियाँ रहती हैं। ये देवियाँ एक पल्य की आयुवाली हैं तथा पारिषत्क और सामानिक जाति के देवों से सहित हैं।
ततो हरिद्धरिकान्ते च शीताशीतोदके तथा॥२०२॥
रक्तारक्तोदके च स्तो द्वे द्वे क्षेत्रे च निम्नगे॥२०३॥
पश्चिमार्णवगामिन्यः पश्चिमास्तु तयोर्मताः॥२०४॥
नदीनां द्विगुणास्तिस्रस्तिसृतोऽर्द्धार्द्धहापनम्॥२०५॥
अर्थ- गङ्गा सिन्धु, रोहित रोहितास्या, हरित् हरिकान्ता, शीता शीतोदा, नारी नरकान्ता सुवर्णकूला रूप्यकूला और रक्ता रक्तोदा इन सात युगलों की चौदह महानदियाँ हैं। जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र में दो-दो नदियाँ बहती हैं। दो-दो नदियों के युगल में पहली नदी पूर्व समुद्र की ओर जाती है और दूसरी नदी पश्चिम समुद्र की ओर गमन करती है। गङ्गा-सिन्धु का सहायक परिवार चौदह हजार नदियाँ हैं। इसके आगे तीन युगलों की सहायक नदियों का परिवार दूना दूना है और उसके आगे तीन युगलों का परिवार आधा-आधा होता जाता है।
विस्तारो भरतस्यासौ दक्षिणोत्तरतः स्मृतः॥२०६॥
आविदेहात्ततस्तु स्युरुत्तरा दक्षिणैः समाः॥२०७॥
अर्थ- जम्बूद्वीप के विस्तार अर्थात् एक लाख योजन में एकसौ नब्बे योजन का भाग देने पर जो लब्ध आता है उतना अर्थात् ५२६ ६१९ योजन भरत क्षेत्र का दक्षिण से उत्तर तक विस्तार माना गया है। आगेके कुलाचल और क्षेत्र दूने दूने विस्तार वाले हैं। यह दूने दूने विस्तार का क्रम विदेह क्षेत्र तक ही है। उत्तर के कुलाचल और क्षेत्र दक्षिण के कुलाचल और क्षेत्रों के समान हैं।
भरतैरावतौ मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित्॥२०८॥
अर्थ- छह कालों से युक्त तथा वृद्धि और हानि को देनेवाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी भरत और ऐरावत क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र किसी क्षेत्र में नहीं होती हैं।
द्विगुणा धातकीखण्डे पुष्करार्द्धे च निश्चिताः॥२०९॥
श्रूयते वलयाकारस्तस्य प्रागेव मानुषाः॥२१०॥
निवासोऽत्र मनुष्याणामत एव नियम्यते॥२१९॥
अर्थ- जम्बूद्वीप में क्षेत्र और कुलाचलों की जो संख्या कही गई है, धातकी-खंड और पुष्करार्ध में उससे दूनी संख्या निश्चित है अर्थात् इन दो खण्डों में चौदह-चौदह क्षेत्र और बारह-बारह कुलाचल हैं। पुष्करद्वीप के मध्य में चूड़ी के आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत सुना जाता है। उसके पहले-पहले ही मनुष्यों का सद्भाव कहा है। इसीलिये अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में मनुष्यों का निवास नियमित किया जाता है।
आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः।
म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि॥२१२॥
अर्थ- आर्य और म्लेच्छों के भेद से मनुष्य दो प्रकार के हैं। जो आर्यखण्ड में उत्पन्न हैं वे आर्य कहलाते हैं। आर्य खण्ड में उत्पन्न होनेवाले कितने ही शक, यवन, शबर आदि म्लेच्छ भी कहलाते हैं। म्लेच्छखण्डों तथा अन्तरद्वीपों में उत्पन्न हुए मनुष्य म्लेच्छ कहलाते हैं।
देवाश्चतुर्णिकायाः स्युर्नामकर्मविशेषतः॥२१३॥
अर्थ- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से देवों के चार निकाय हैं। ये भेद नामकर्म की विशेषता से होते हैं।
ज्योतिष्काः पञ्चधा ज्ञेयाः सर्वे वैमानिका द्विधा॥२१४॥
अर्थ- भवनवासी दश प्रकार के, व्यन्तर आठ प्रकार के, ज्योतिष्क पाँच प्रकार के और सभी वैमानिक दो प्रकार के जानना चाहिये।
द्वीपविद्युत्कुमाराख्या दशधा भावनाः स्मृताः॥२१५॥
अर्थ- नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, दिक्कुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और विद्युत्कुमार ये दश प्रकार के भवनवासी देव माने गये हैं।
यक्षराक्षसभूताश्च पिशाचा व्यन्तराः स्मृताः॥२१६॥
अर्थ- किन्नर, किम्पुरुष, गन्धर्व, महोरग, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये आठ प्रकार के व्यन्तर स्मरण किये गये हैं।
ज्योतिष्काः पञ्चधा ज्ञेया ते चलाचलभेदतः॥२१७॥
अर्थ- सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा के भेद से ज्योतिष्कदेव पाँच प्रकार के जानना चाहिये। ये ज्योतिष्क देव चल और अचल के भेद से दो प्रकार के हैं। अढ़ाई द्वीप के ज्योतिष्क देव चल हैं और उसके बाहर के अचल-अवस्थित हैं।
अर्थ- कल्पोपपन्न और कल्पातीत के भेद से वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। सोलहवें स्वर्गं तक के देव कल्पोपपन्न और उसके आगे के कल्पातीत कहलाते हैं।
किल्विषा आभियोग्याश्च भेदाः प्रतिनिकायकाः॥२१९॥
व्यन्तरज्योतिषामष्टौ भेदाः सन्तीति निश्चिताः॥२२०॥
अर्थ- इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पार्षद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, किल्विष और अभियोग्य ये दश भेद प्रत्येक निकाय में होते हैं। परन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल भेद से रहित हैं अर्थात् उनके आठ ही भेद होते हैं।
स्पर्शरूपध्वनिस्वान्त प्रवीचारास्ततः परे।
ततः परेऽप्रवीचाराः कामक्लेशाल्पभावतः॥२२१॥
अर्थ- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म ऐशान स्वर्ग तक के देव कायप्रवीचार हैं। उसके आगे तीसरे चौथे स्वर्ग के देव स्पर्शप्रवीचार, पाँचवें से आठवें स्वर्ग तक के देव रूपप्रवीचार, नौवें से बारहवें तक शब्दप्रवीचार और तेरहवें से सोलहवें स्वर्ग तक के देव मनःप्रवीचार होते हैं। उसके आगे के देव प्रवीचार से रहित होते हैं क्योंकि उनके काम-बाधा अत्यन्त अल्प रहती है।
भवनानि प्रसिद्धानि वसन्त्येतेषु भावनाः॥२२२॥
विविधेष्वन्तरेष्वत्र व्यन्तरा निवसन्ति ते॥२२३॥
तिर्यग्लोकं समाच्छाद्य ज्योतिष्का निवसन्ति ते॥२२४॥
अर्थ- घर्मा-रत्नप्रभा पृथिवी के पहले और दूसरे भाग में कुछ भवन प्रसिद्ध हैं उनमें भवनवासी देव रहते हैं। रत्नप्रभा पृथिवी के मध्यभाग में, उपरितन भाग में और मध्यमलोक के नाना स्थानों में व्यन्तर देव निवास करते हैं। पृथिवी से ऊपर चलकर आकाश में ज्योतिष्क निवास करते हैं। ये ज्योतिष्क देव समस्त मध्यम लोक के आकाश को व्याप्तकर स्थित हैं।
उपर्युपरि तिष्ठत्सु विमानप्रतरेष्विह॥२२५॥
विमानैरिन्द्रकैर्युक्ताः श्रेणीबद्धैः प्रकीर्णकैः॥२२६॥
माहेन्द्रश्च प्रसिद्धौ द्वौ ब्रह्मब्रह्मोत्तरावुभौ॥२२७॥
द्वौ सतारसहस्रारावान तप्राणतावुभौ॥२२८॥
ग्रैवेयाणि नवातोऽतो नवानुदिशचक्रकम्॥२२९॥
सर्वार्थसिद्धिरित्येषां पञ्चानां प्रतरोऽन्तिमः॥२३०॥
द्युतिलेश्या विशुद्ध्यायुरिन्द्रियावधिगोचरैः॥२३१॥
हीनास्तथैव ते मानगति देहपरिग्रहैः॥२३२॥
सिद्धानां तु पुनः क्षेत्रमूर्ध्वलोकान्त इष्यते॥२३३॥
अर्थ- जो वैमानिक देव हैं वे ऊर्ध्वलोक में ऊपर-ऊपर स्थित विमानों के पटलों में निवास करते हैं। ऊर्ध्वलोक में त्रेशठ पटल हैं जो कि इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक इन तीन प्रकार के पटलों से युक्त हैं। सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र, सतार सहस्रार, आनत-प्राणत और आरण-अच्युत इन आठ युगलों के सोलह कल्प हैं। इनके आगे ऊपर-ऊपर नौ ग्रैवेयकों के नौ पटल हैं, उनके ऊपर नौ अनुदिश विमानों का एक पटल है, और इसके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों का एक पटल है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार वैमानिक देव इनमें उत्पन्न होते हैं। ये वैमानिक देव द्युति, लेश्या की विशुद्धता, आयु, इन्द्रिय तथा अवधिज्ञान का विषय, सुख और प्रभाव से ऊपर-ऊपर अधिकता को लिये हैं और मान, गति, देह तथा परिग्रह की अपेक्षा ऊपर-ऊपर हीनता को लिये हुए हुए हैं। इस तरह यह समस्त लोक संसारी जीवों का क्षेत्र कहा गया है। सिद्ध जीवों-का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक का अन्तभाग माना गया है।
स एवासिद्धनोसिद्धसिद्धत्वात् कीर्त्यते त्रिधा॥२३४॥
प्रशमक्षयतद् द्वन्द्वपरिणामोदयोद्भवात्॥२३५॥
षड्मार्गगमनात्षोढा सप्तधा सप्तभङ्गतः॥२३६॥
पदार्थ नवकात्मत्वान्नवधा दशधा तु सः।
दशजीव भिदात्मत्वादिति चिन्त्यं यथागमम्॥२३७॥
अर्थ- सामान्य की अपेक्षा जीव एक प्रकार का है, बद्ध और मुक्त की अपेक्षा दो प्रकार का है, असिद्ध, नोसिद्ध-जीवन्मुक्त-अरहंत और सिद्ध की अपेक्षा तीन प्रकार का है, नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के भेद से चार प्रकार का है, उपशम, क्षय, क्षयोपशम परिणाम और उदय से होनेवाले भावों से पञ्चरूप होने के कारण पाँच प्रकार का है, चार दिशाओं और ऊपर, नीचे इस तरह छह दिशाओं में गमन करने के कारण छह प्रकार का है, स्यादस्ति, स्यात् नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिअवक्तव्य, स्याद्नास्तिअवक्तव्य और स्यादस्तिनास्तिअवक्तव्य इन सात भङ्गरूप होने से सात प्रकार का है, ज्ञानादि आठगुणों से तन्मय होने के कारण आठ प्रकार का है; जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थरूप होने से नौ प्रकार का है तथा जीवसमास के प्रकरण में कहे गये दश भेदरूप होने से दश प्रकार का है। इस तरह आगम के अनुसार और भी भेदों का विचार किया जा सकता है।
शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत्॥२३८॥
अर्थ- इस तरह शेष छह तत्त्वों के साथ जो जीवतत्त्व की श्रद्धा करता है, उसे जानता है और उससे उपेक्षा कर चारित्र धारण करता है वह निश्चय से निर्वाण को प्राप्त होता है।