तत्त्वचिन्तन | Tattvachintan

(डाॅ. हुकमचन्द भारिल्ल )
–Work in progress—

( हरिगीत )
निज आत्मा को जानकर पहिचानकर निज आत्मा।
निज आतमा का ध्यान धर जो हो गये परमातमा।।
वे वीतरागी सर्वज्ञानी हितंकर सब लोक के।
श्री ऋषभ से वीरान्त तक चौबीस तीर्थंकर हुये।। १।।

उनने जगत के सामने जिस तत्त्व को प्रस्तुत किया।
सुख शान्तिमय जिस वीतरागीमार्ग को प्रस्तुत किया।।
वह अहिंसक मार्ग जग में आज भी विद्यमान है।
और उसको समझना भी एकदम आसान है।। २।।

ऋषभ से वीरान्त तक नमकर सभी को भाव से।
उनके बताये मार्ग को उत्साह से अतिचाव से।।
निजचित्तशुद्धि के लिये अत्यन्त निर्मल भाव से।
तत्त्वचिन्तन कर रहा हूँ सहज ही सद्भाव से।। ३।।

यदि पढ़े कोई चाव से गहराई से अध्ययन करे।
पठन-पाठन करे मन से भाव से चिन्तन करे।।
और उसको लाभ हो तो होय मेरा चित्त भी।
प्रसन्न है हे बंधुवर! हम सभी अनुमोदन करें।। ४।।

जीव और अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा।
अर मोक्ष ये सब तत्त्व हैं अर अर्थ हैं तत्त्वार्थ हैं।।
इनका विमल श्रद्धान दर्शन ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
और दर्शन ज्ञानमय निज में रमणता ध्यान है।। ५।।

पुण्य एवं पाप भी तत्त्वार्थ में आते रहे।
पुण्य एवं पाप आस्रव बंध के ही भेद हैं।।
पुण्य आस्रव पाप आस्रव इसतरह से बंध में।
हम पुण्यबंधरु पापबंधरु भेद करते रहे हैं।। ६।।

यद्यपि षटद्रव्यमय सारा जगत ही ज्ञेय है।
किन्तु सब परद्रव्य केवल ज्ञेय केवल ज्ञेय हैं।।
आत्मा के विकारी परिणाम आस्रव बंध भी।
रे पुण्य एवं पाप भी तो ज्ञेय हैं पर हेय हैं।। ७।।

मुक्ति-संवर-निर्जरा ये ज्ञेय हैं उपादेय हैं।
है ज्ञेय अपना आत्मा श्रद्धेय है अर ध्येय है।।
निज आतमा में अपनपन सम्यक्त्व है श्रद्धान है।
निज आतमा में रमणता ही आतमा का ध्यान है।। ८।।

श्रद्धान एवं ध्यान ही तो मुक्तिमग में मुख्य हैं।
निज आतमा की साधना आराधना ही मुख्य हैं।।
अरे आस्रव बंध तो दुखकरण हैं दुखरूप हैं।
अशुचि हैं विपरीत हैं अर भवभ्रमण के रूप हैं।। ९।।

अरे आस्रव-बंध तो भवरूप हैं भवकूप हैं।
अरे इनके बंधनों में फंस रहे चिद्रूप हैं।।
पाप आस्रव पुण्य आस्रव बंध के ही हेतु हैं।
यदि बंध से है छूटना तो मोह इनका छोड़िये।। १०।।

पुण्य को भी पापवत् ही हेय कहकर आपने।
पुण्य का अपमान प्रियवर कर दिया है आपने।।
संसार में सुख-शांति दाता स्वर्गदाता पुण्य है।
परम्परा से कहें तो अपवर्ग दाता पुण्य है।। ११।।

आस्रव हैं हेय एवं बंध भी जब हेय हैं।
मुक्तीरमा की प्राप्ति में इनका ना रंच प्रदेय है।।
जब सभी आस्रव हेय हैं सब बंध भी जब हेय हैं।
पुण-पाप उनके भेद हैं अतएव वे भी हेय हैं।। १२।।

मिथ्यात्व अविरति प्रमाद अर कषाय एवं योग ये।
सब स्वयं आस्रव भाव हैं अर बंध के सब हेतु हैं।।
पुण्य एवं पाप सब बस इन्हीं भावों से बंधे।
क्योंकि ये सब भाव ही तो बंध के कारण कहे।।१३।।

कर्मबंधन होय इनसे कर्म ना इनसे कटें।
बंध के ये पाँच हेतु पुण्य भी इनसे बंधे।।
बंध के जो हेतु वे सब मुक्तिमग के हेतु ना।
मुक्ति के हैं हेतु जो वे बंध के हों हेतु ना।। १४।।

जिन्हें मुक्ति चाहिये वे बचें आस्रव-बंध से।
वे बचें सबसे पूर्णतः सब तरह के संबंध से।।
कोई किसी के कुछ नहीं हम भी किसी के कुछ नहीं।
और कोई किसी से भी कभी जुड़ सकते नहीं।। १५।।

सभी द्रव्यों में परस्पर वज्र की दीवाल है।
कोई किसी का कुछ करे इकदम असंभव बात है।।
स्वयं में रह आत्मा यह जान सकता सभी को।
क्योंकि सबको जानना इसका स्वभाविक भाव है।। १६।।

सभी अपने में रहें सब स्वयं में ही परिणमें।
हैं अपरिणामी तत्वतः परिणमन हो पर्याय में।।
जीव बदले स्वयं में पर वह अजीव नहीं बने।
जीव रहकर जीव सब ही निरन्तर बदला करें।। १७।।

बदलकर भी न बदलना आतमा का भाव है।
ना बदलकर भी बदल जाना यही आत्मस्वभाव है।।
अपेक्षा समझे बिना कुछ भी समझ ना आयेगा।
अपेक्षा के समझते सब समझ में आ जायेगा।।१८।।

शुद्ध और अशुद्ध जग में दो तरह के भाव हैं।
अशुद्ध भी हैं दो तरह के शुभ-अशुभ के भेद से।।
शुद्ध बंधन काटते अर शुभाशुभ बंधन करें।
जो भाव बंधन करें उनको मुक्तिमग कैसे कहें?।। १९।।

शुद्ध कहते हैं जिनेश्वर वीतरागी भाव को।
अशुद्ध कहते हैं जिनेश्वर रे शुभाशुभ राग को।।
वीतरागी भाव से ही कर्म के बंधन कटें।
अर शुभाशुभभाव तो पुण-पाप का बंधन करें।। २०।।

पुण-पाप से होता निरन्तर चतुर्गति में परिभ्रमण।
पुण-पाप से हों पार जब, तब रुके जग का परिभ्रमण।।
हो धर्मबुद्धि पुण्य में भवमूल मिथ्याभाव है।
वीतरागीभाव हो तो भवजलधि से पार है।। २१।।

रतनत्रय के भाव ही तो वीतरागी भाव हैं।
अर शुभाशुभ भाव तो मिथ्यात्व और कषाय हैं।।
मिथ्यात्व और कषाय मुक्तिमार्ग हो सकते नहीं।
अर वीतरागीभाव से पुण्य-पाप बंध सकते नहीं।। २२।।

पुण्य में उपादेय बुद्धि स्वयं मिथ्याभाव है।
बंध करने योग्य है - यह भयंकर मिथ्यात्व है।।
बंध चाहे पुण्य का या पाप का हो जानलो।
एक-से हैं हेय इनकी सत्यता पहिचान लो।। २३।।

पुण्य बेड़ी स्वर्ण की अर पाप बेड़ी लोह की।
बेड़ी तो बंधन रूप चाहे स्वर्ण की या लोह की।।
पुण्य की अनुकूलता है लुभाती इस जीव को।
अत्यन्त गहरे भवजलधि में डुबाती इस जीव को।। २४।।

पुण्य से अधिकांशतः भवभोग सामग्री मिले।
और उसके भोगने से पाप का ही बंध हो।।
इसतरह यह पुण्य बदले पाप में सम्पूर्णतः।
रे पाप की प्रतिकूलता, पुण्यात्मा को प्राप्त हो।। २५।।

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