तत्त्वविचार ( Tattva Vichar)

                 तत्त्वविचार

                 ('वीर' छंद)

दुर्लभ नर भव पाकर चेतन किया न तूने तत्त्व विचार।
तू है कौन ? कहाँ से आया ? कैसे चलता यह व्यापार?
गोरा, काला,शरीर मिला क्यों? क्यों पाया ऐसा परिवार |
कोई सुन्दर, कोई असुन्दर, दुःख-सुख का ना पारावार।।

सभी चाहते नित प्रति सुख हैं, पर सुख को वे नहीं पाते।
अजर-अमर मैं रहूँ सदा ही, पर इक क्षण में वे मर जाते।
मोही होकर जिनको पोषे, वे देते हैं साथ नहीं ।
करे परिश्रम दिवस-निशि तू, पर लगता कुछ हाथ नहीं।।

यश चाहे पर अपयश मिलता, स्वास्थ्य चहे पर होवे रोग |
माल भरा है गोदामों में, कर नहीं पावे उनका भोग ।।
तेरे करने से कुछ हो तो, करले तू इक काला बाल ।
बाल भी काला कर ना पाये, अब तो बदलो अपनी चाल।।

होते हुए काम को जानो, कुछ भी नहीं तेरे आधीन ।
तेरे वश से कुछ नहीं होता, होता है सब कर्माधीन ।।
तू है चेतन, तन है अचेतन, है स्वतंत्र सारा परिवार ।
हो स्वतंत्र परिणमन सभी का, कर लो चेतन तत्त्व विचार।।

रचयिता- आ० पं० राजकुमार जी शास्त्री, उदयपुर

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