तप | Tapa(Uttam Tapa)

इच्छाओं की पूर्ति न होवे, आशा तृष्णा बढ़ती जावे।
जब इच्छा निरोध हो जावे, निज में ही विश्रांति पावे।।
सम्यक्‌ तप हो मंगलकारी, तब ही होवे शिवमगचारी ।
अंतरंग छह बहिरंग छह, सुख देते प्राणी को अक्षय ।।
अनशन ऊनोदर हितकारी, रस परित्याग सदा सुखकारी |
अपनी वृत्ति सीमित कीजे, हो असंग कायोत्सर्ग कीजे।।
दोषों का प्रायश्चित्त सु करना, सहज विनय जीवन में धरना।
वैयावृत्त से दुख नाशे, स्वाध्याय से ज्ञान प्रकाशे।।
निर्मम भाव सदा सुखदाता, आत्मध्यान सब कर्म नशाता।
सोना अग्नि माहिं तपाता, तब ही उत्तम शुद्ध कहाता ।।
सम्यक्‌ तप जब धारे आतम, तब ही कहलावे परमातम।
श्रद्धा सहित समझ कर कीजे, शक्ति प्रमाण सदा ही कीजे।।

Artist: बाल ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्‌’
Source: बाल काव्य तरंगिणी