स्वात्मालोचन | Swatmalochan

                     स्वात्मालोचन

                 ('हरिगीतिका' छन्द)

गतराग अरु सर्वज्ञ हैं, घनघाति कर्म विमुक्त हैं।
सर्वोदयी संदेश ‘जिन’ का, चरण में हम विनत हैं ।।
वसु कर्म नष्ट हुए हैं जिनके, हुआ सुक्ख अपार है।
उन ध्रुव अचल श्री सिद्ध प्रभु को, वंदना शतबार है।।1।।

विषय आशा रहित हैं, निज-आत्म में जो निरत हैं।
वे सूरि पाठक- साधु सब, आरंभ परिग्रह-रहित हैं ।।
ऋषभादि ‘तीर्थंकर’ प्रभु को, भाव से वंदन करूँ।
निर्दोष होने अति-विनय से, दोष मैं निज उच्चरूँ ।।2।।

‘अज्ञता’ मेरी प्रभो! मैं क्या कहूँ? कैसे कहूँ ?
कर्तृत्व और ममत्व के वश, घोर दुख क्यों ना सहूँ ?
न्याय-नीति-जिन वचन की बात मैं मुख से करूँ।
पर मैं स्वयं सन्मार्ग पर चलता नहीं कैसे कहूँ ? ।। 3 ।।

परवस्तु को ‘निज-वस्तु’ कहकर, सदा अतिक्रम ही किया।
अन्य से भरपूर लेकर, कण नहीं पर को दिया ।।
निर्माल्य-भक्षण मैं किया प्रभु, जो महा-अघरूप है।
नर-नारि-तन पर हुआ मोहित, जो महा दुखकूप है।।4।।

स्वाद लोलुप हो प्रभो ! मैं, भक्ष्याभक्ष्य सभी चखा।
विषय लोभी ही रहा मैं नहीं संयम धर सका ।।
मैं पिता होकर प्रभो, ना तनय संस्कारित किये।
पुत्र होकर जन्म-दाता, को न सेवा-फल दिये ।।5।।

‘धर्म पत्नी’ बन प्रभो, मैं धर्म से ही च्युत किया।
मैं दुराचारी रहा, अर्धांगिनी चाही सिया।।
परिजनों के मध्य रहकर, न किया सत्कर्म को ।
अधिकार ही चाहा सदा, समझा नहीं कर्त्तव्य को ।।6।।

जग में बड़प्पन को दिखाने, दान मैं देता रहा।
पद-प्रतिष्ठा यश मिले, दिन रात चिंतन में रहा ।।
इसके लिए निर्लज्ज हो, गुणगान सबके ही किये।
लोभ में बनकर ‘सरल’, कटु वचन भी सबके सहे ।।7।।

अपशब्द कहकर मैं सभी को, कष्ट ही देता रहा।
क्रोध-मद में अंध हो, अपमान ही करता रहा।
‘कर्त्ता नहीं, सब जीव ज्ञाता’, सबको समझाता फिरूँ ।
वक्तृत्व के कर्तृत्व में, उन्नत वदन जग में रहूँ ।। 8 ।।

गुरु-नाम का ‘अपलाप’ कर, निज-नाम को ऊँचा किया।
कर्तृत्व था जो अन्य का, उसको कहा 'मैंने किया।
मैं पाप करता रात-दिन पर, पुण्य फल चाहूँ सदा ।
समता-समर्पण-समन्वय के भाव न होते कदा ।।9।।

विषय भोगों की कथा ही, मैं सदा सुनता रहा।
निज आत्मा की वार्त्ता को, मैंने नहीं सुनना चहा ।।
जो दोष अष्टादश-सहित अरु, रूप विविध धरे अरे!
मोहित-मती मेरी रही, जो पूज्य पद उनको कहे ।।10 ।।

जिनदेव अरु जिनधर्म पाकर, आत्मा जाना नहीं।
‘मैं स्वयं हूँ सिद्ध-सम’, यह कभी माना नहीं ।
स्व-पर-हितकर जिन-वचन का, नहीं सेवन मैं किया।
मोह-नाशक जिन-वचन पा, मोह संवर्धन किया ।।11।।

नियत अरु व्यवहार-नय में, एकांत का ही पक्ष ले।
एक को करके ग्रहण, मैं तजा दूजा दोष दे ।।
द्विविध वस्तु है नहीं, बस कथन द्विविध प्रकार है।
जिनवच रहस समझा नहीं, नरदेह की यह हार है।।12।।

व्यवहार-नय के कथन से, कर्तृत्व का पोषण किया।
स्वच्छंद होकर स्वमति से, परमार्थ को दूषित किया।
तन में सदा एकत्व कर, पर में किया ममकार है ।
निज-विभव भूला हे प्रभो! मैं सहा दुक्ख अपार है।।13।।

मैं शुभाशुभ-भावमय, माना यही मदमस्त हो।
सत्यपथ कैसे दिखे ? जब ज्ञान रवि ही अस्त हो ।।
देव-गुरु-गुणगान कर, कहते सदा ‘शुद्धात्मा’।
जिनवचन सुन, अनसुना कीना, रहा मैं बहिरात्मा।।14।।

सद्भाग्य जागा आज मेरा, देव! जिन दर्शन किये।
कर्ण मेरे हुए पावन, जिन-वचन अमृत पिये ।।
जिनदेव कहते दिव्यध्वनि में, तुम शुभाशुभ-मुक्त हो ।
रागी नहीं द्वेषी नहीं, न प्रमत्त अरु अप्रमत्त हो ।।15।।

परमार्थ से तुम शुद्ध हो, अरु एक-दर्शन ज्ञानमय ।
निज-आत्मा को जान-मानो, रमो निज में हो अभय ।।
रस-रूप-गंध-रहित सदा, पर्याय से भी पार हो ।
तुम हो अनूपम विश्व में, तुम मुक्तिश्री हिय हार हो।।16।।

हम हैं सभी शुद्धात्मा, कोई नहीं छोटा-बड़ा ।
जो सिद्ध-सम निज को न देखे, वह भवोदधि में पड़ा ।
मैं सदा ज्ञायक-स्वभावी, अरु अनादि अनंत हूँ।
मैं दीन-हीन नहीं प्रभो! मैं मुक्तिलक्ष्मी कंत हूँ ।। 17 ।।

वर्णादि से विरहित सदा, मेरा अहो चिद्रूप है।
निष्कर्म-निर्मम और निर्मल, ही सदा मम रूप है।
निज-चतुष्टय न तजूँ, परसंग मैं करता नहीं।
अस्तित्व गुण के कारणे, मैं तो कभी मरता नहीं ।।18 ।।

पर्याय-दृष्टि अब तजूं, मैं लखूँ शुद्ध-स्वभाव को ।
निज आत्मा में ‘अहं’ करके, छोड़ दूँ परभाव को ।।
पर्याय में एकत्व ही, सबसे बड़ा मम दोष है।
शुद्धनय से सदा देखूँ, आत्मा निर्दोष है ।।19 ।।

अब चलूँ मैं वीर पथ पर, वीर बनने के लिए।
छोड़ दूँ दुष्कर्म सारे, अज्ञता में जो किये ।।
निज-आत्मा को जानकर, निज में रमूँगा मैं प्रभो !
अज्ञता तज, विज्ञ हो, सर्वज्ञ पद पाऊँ विभो ।।20।।

             -आ० पं० राजकुमार जी शास्त्री, उदयपुर।
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