स्वरूप संबोधन स्तोत्र | Swarup Sambodhan Stotra

स्वरूप संबोधन स्तोत्र

(श्रीमद्भट्टाकलङ्क प्रणीत)

मुक्ताऽमुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना ।
अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्तिं नमामि तम् ॥१ ॥

सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं क्रमाद्धेतुफलावहः ।
यो ग्राह्येोऽग्राह्यानाद्यन्तः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः ॥२ ॥

प्रमेयत्वादिभिर्धर्मैरचिदात्मा चिदात्मकः ।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चे तनाचे तनात्मकः ॥ ३ ॥

ज्ञानाद्भिन्नो न चाभिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथंचन ।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥४ ॥

स्वदेहप्रमितश्चायं ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः ।
ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा ॥५ ॥

नानाज्ञानस्वभावत्वादेकोऽनेकोपि नैव सः ।
चेतनैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको भवेत् ॥६॥

स वक्तव्य: स्वरूपाद्यैर्निर्वाच्यः परभावतः ।
तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो नापि वाचामगोचरः ॥७ ॥

सस्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्मपरधर्मयोः ।
समूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात् ॥८ ॥

इत्याद्यनेकधर्मत्वं, बंधमोक्षौ तयोः फलम् ।
आत्मा स्वीकुरुते तत्तत्कारणैः स्वयमेव तु ॥९ ॥

कर्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु ।
बहिरन्तरुपायाभ्यां तेषां मुक्तत्वमेव हि ॥१० ॥

आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय

सदृष्टिज्ञानचारित्रमुपायः स्वात्मलब्धये ।
तत्त्वे याथात्म्यसौस्थित्यमात्मनो दर्शनं मतं ॥ ११ ॥

यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् ।
तत्स्वार्थव्यवसायात्मकथञ्चित्प्रमितेः पृथक् ॥ १२ ॥

दर्शनज्ञानपर्यायेषूत्तरोत्तरभाविषु ।
स्थिरमालम्बनं यद्वा माध्यस्थ्यं सुखदुःखयोः ॥१३॥

ज्ञाता दृष्टाऽहमेकोऽहं सुखे दुःखे न चापरः ।
इतीदं भावनादाय, चारित्रमथवा परम् ॥ १४ ॥

तदेतन्मूलहेतोः स्यात्कारणं सहकारकम् ।
यद्बाह्यं देशकालादि तपश्च बहिरंगकम् ॥१५ ॥

इतीदं सर्वमालोच्य, सौस्थ्ये दौस्थ्ये च शक्तितः ।
आत्मानं भावयेन्नित्यं, रागद्वेषविवर्जितम् ॥१६ ॥

कषायै रञ्जितं चेतस्तत्त्वं नैवावगाहते।
नीलीरक्तेऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि काँकुमः ॥ १७ ॥

ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै निर्मोहो भव सर्वतः ।
उदासीनत्वमाश्रित्य तत्त्वचिंतापरी भव ॥ १८ ॥

हेयोपादेयतत्त्वस्य, स्थितिं विज्ञाय हेयतः ।
निरालम्बो भवान्यस्मादुपेये सावलम्बनः ॥१९॥

स्व- परं चेति वस्तुत्त्वं, वस्तुरूपेण भावय ।
उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते, शिवमाप्नुहि ॥ २० ॥

मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा. स मोक्षमधिगच्छति ।
इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषि, कांक्षां न क्वापि योजयेत् ॥ २१ ॥

साऽपि च स्वात्मनिष्ठत्वात्सुलभा यदि चिन्त्यते ।
आत्माधीने सुखे तात, यत्नं किं न करिष्यसि ॥२२ ॥

स्वं परं विद्धि तत्रापि, व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम् ।
अनाकुलस्वसंवेद्ये, स्वरूपे तिष्ठ केवले ॥२३॥

स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै स्वस्मात्स्वस्याविनश्वरम् ।
स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत्स्वोत्थमानंदममृतं पदम् ॥२४॥

इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाड्मयम्,
य एतदाख्याति शृणोति चादरात् ।
करोति तस्मै परमार्थसम्पदम्,
स्वरूपसंबोधनपंचविंशतिः ॥२५ ॥

Artist - श्री भट्टाचार्य अकलंक
Source: Brahud Adhyatmik Path Sangrah

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हिन्दी अनुवाद

मंगलाचरण करते हुये श्री भट्टाचार्य अकलंक कहते हैं कि जो अविनश्वर, ज्ञानमूर्ति, परमात्मा, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से, रागादि भावकर्मों से, व शरीररूप नोकर्म से मुक्त (रहित ) हैं और सम्यकज्ञान आदि अपने स्वाभाविक गुणों से अमुक्त (युक्त) हैं, उन परमानन्दमय परमात्मा को नमस्कार करता हूँ ॥१ ॥

वह परमात्मा आत्मरूप होने से कारणस्वरूप है और ज्ञान-दर्शनरूप होने से कार्यस्वरूप भी है। इसी तरह केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य होने से ग्राह्य स्वरूप है और इन्द्रियों के द्वारा न जानने योग्य होने से अग्राह्य स्वरूप भी है ॥ २ ॥

प्रमेयत्वादिक धर्मों की, अपेक्षा से वह परमात्मा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से चेतनरूप भी है अर्थात् दोनों अपेक्षाओं से चेतन-अचेतन स्वरूप है ॥ ३ ॥

वह परमात्मा ज्ञान से भिन्न है और ज्ञान से भिन्न नहीं भी है । अर्थात् ज्ञान से कथंचित् (किसी अपेक्षा से) भिन्न है सर्वथा (सब अपेक्षाओं से) भिन्न भी नहीं है । इसीप्रकार वह परमात्मा ज्ञान से अभिन्न भी नहीं है अर्थात् ज्ञान से कथंचित् अभिन्न है सर्वथा अभिन्न भी नहीं है; क्योंकि पहिले पिछले सब ज्ञानों का समुदाय ही मिलकर आत्मा कहलाता है ॥ ४ ॥

वह अरहन्त परमात्मा अपने परम औदारिक शरीर के बराबर है और बराबर भी नहीं है अर्थात् समुद्घात (मूल शरीर में रहते हुए भी आत्मा के प्रदेशों का कारण विशेष से कार्माण आदि शरीरों के साथ बाहर निकलना) अवस्था में जिस समय केवली भगवान की आत्मा के प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं, उस समय आत्मा औदारिक शरीर के बराबर नहीं है । इसी तरह वह परमात्मा ज्ञानमात्र है और ज्ञानमात्र नहीं भी है अर्थात् ज्ञानगुण को मुख्य करके व अन्य समस्त गुणों को गौण करके यदि विचारा जाय तो आत्मा या परमात्मा में ज्ञानमात्र ही दृष्टि में आता है और यदि अन्य गुणों को मुख्य किया जाय तो ज्ञानमात्र दृष्टि में नहीं भी आता है । इसी तरह जब केवल ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण लोक व अलोक को जानने को अपेक्षा लेते हैं, तब परमात्मा को सर्वगत भी कह सकते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ परमात्मा से गत है अर्थात् ज्ञात है और सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए भी अरहंत परमात्मा अपने दिव्य औदारिक शरीर में ही स्थित रहता है, इसलिए वह विश्वव्यापी नहीं भी है ॥५॥

उस आत्मा में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि अनेक ज्ञान होते हैं तथा और भी सम्यक्त्व, चारित्र आदि अनेक गुण होते हैं, जिनके कारण यह आत्मा यद्यपि अनेक रूप हो रहा है तथापि अपने चेतन स्वरूप की अपेक्षा एकपने को नहीं छोड़ता ; इसलिए इस आत्मा को कथञ्चित् एक रूप भी जानना चाहिये और कथञ्चित् अनेक रूप भी जानना चाहिये ॥ ६ ॥

वह आत्मा अपने स्वरूप अपेक्षा वक्तव्य (कहे जाने योग्य) भी नहीं है, और पर पदार्थों के स्वरूप की अपेक्षा अवक्तव्य होने से सर्वथा वक्तव्य भी नहीं है ॥७ ॥

वह आत्मा अपने धर्मों का विधान करने वाला प अन्य पदार्थों के धर्मों का अपने में निषेध करने वाला है और ज्ञान के आकार होने से वह आत्मा मूर्तिक तथा पुद्गलमय शरीर से भिन्न होने के कारण अमूर्तीक है ॥८ ॥

इस प्रकार पहले कहे हुए क्रम के अनुसार यह आत्मा अनेक धर्मों को धारण करता है और उन धर्मों के फलस्वरूप, बंध व मोक्षरूप फल को भी उन-उन कारणों से स्वयं अपनाता है ॥९ ॥

जो आत्मा बाह्य शत्रु - मित्र आदि व अंतरंग राग-द्वेष आदि कारणों से ज्ञानावरणादिक कर्मों का कर्ता व उनके सुख-दुःखादि फलों का भोक्ता है, वही आत्मा बाह्य स्त्री, पुत्र, धन, धान्यादिका त्याग करने से कर्मों के कर्ता भोक्तापने के व्यवहार से मुक्त भी है। अर्थात् जो संसारदशा में कर्मों का कर्ता व भोक्ता है, वही मुक्तदशा में कर्मों का कर्ता-भोक्ता नहीं भी है ॥१० ॥

सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति अर्थात् संसार से मुक्त होने के कारण हैं । आत्मा के वास्तविक स्वरूप या सात तत्त्वों के सच्चे श्रद्धान को तो सम्यग्दर्शन कहते हैं। पदार्थों के वास्तविकपने से निर्णय करने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान दीपक की तरह अपना तथा अन्य पदार्थों का प्रकाशक होता है। अज्ञान निवृत्ति रूप जो फल है उससे कथंचित् भिन्न भी है। जो अपनी ही क्रम-क्रम से होने वाली ज्ञानदर्शनादिक पर्यायों में स्थिररूप आलम्बन है उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं । अथवा सांसारिक सुख-दुःखों में मध्यस्थ भाव रखने को सम्यग्चारित्र कहते हैं। या मैं ज्ञाता हूँ, मैं दृष्टा हूँ, अपने कर्तव्य के फलस्वरूप सुख-दुःखों का भोगने वाला स्वयं अकेला ही हूँ, बाह्य स्त्री पुत्रादि पदार्थों का मेरे से कोई सम्बन्ध नहीं है - इत्यादि अनेक प्रकार की शुद्ध आत्मस्वरूप में तल्लीन करानेवाली भावनाओं की दृढ़ता को भी सम्यक् चारित्र कहते हैं ॥११- १४ ॥

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को जो ऊपर के लोकों में मोक्षप्राप्ति का मूल कारण बताया है । उनके सहकारी कारण देशकालादिक को व अनशन अवमौदर्य आदि बाह्य तप को समझना चाहिए ।। १५ ।।

इस प्रकार तर्क वितर्क के साथ आत्मस्वरूप को अच्छी तरह जानकर सुख में व दुःख में यथाशक्ति आत्मा को नित्य ही राग-द्वेष रहित चिन्तवन करना चाहिए । अर्थात् सुख सामग्री के मिलने पर राग नहीं करना चाहिए और अनिष्ट समागम में द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये सब इष्ट अनिष्ट पदार्थ आत्मा की कुछ भी हानि नहीं कर सकते । इनका सम्बन्ध सिर्फ शरीर से रहता है, ऐसा विचार रखना चाहिए ॥ १६ ॥

जैसे नीले रंग के कपड़े पर केशर का रंग नहीं चढ़ सकता, वैसे ही क्रोधादि कषायों से रंजायमान हुए मनुष्य का चित्त, वस्तु के असली स्वरूप को नहीं पहिचान सकता ॥ १७ ॥
आचार्य व्यवहारी जीव से कहते हैं कि हे भाई ! जब राग-द्वेष के दूर करने के बिना आत्महित नहीं हो सकता, तब तुमको राग-द्वेष दूर करने के लिए शरीरादिक परपदार्थों का मोह त्याग कर और संसार, शरीर व भोगों से उदासीन भाव धारण करके तत्त्व विचार में तन्मय रहना चाहिए ॥ 18 ॥
हेय (त्यागने योग्य) व उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) तत्त्व का स्वरूप जानकर पररूप जो हेयतत्त्व, उससे निरालंबी होकर उपादेयस्वरूप का आलंबन करना चाहिए ॥ १९ ॥

अपनी आत्मा के व पर पदार्थों के असली स्वरूप का बार-बार चिन्त्वन करना चाहिए और समस्त संसारी पदार्थों की इच्छा का त्याग करके उपेक्षा भावना ( राग-द्वेष के त्याग की भावना) को बढ़ाते-बढ़ाते मोक्षपद प्राप्त करना चाहिए ॥ २० ॥

जब किसी साधु महात्मा पुरुष के ह्रदय से मोक्ष की भी इच्छा निकल जाती है तभी उसको मुक्ति कहते हैं । इस सिद्धान्त वाक्य के ऊपर ध्यान देते हुए आत्महित के इच्छुक जीवों को सभी पदार्थों की इच्छा का त्याग करना चाहिए ।।२१ ॥

यदि कोई यह कहे कि इच्छा करना तो अपने अधीन होने से सुलभ है, किन्तु फल प्राप्ति अपने अधीन न होने से कठिन है, इसलिए इच्छा किसी भी वस्तु की जा सकती हैं। ऐसा कहने वाले को आचार्य करुणापूर्वक कहते हैं कि हे भाई! जैसे इच्छा करना आत्माधीन होने से सुलभ है, वैसे ही परमानन्दमय सुख का पाना भी तो आत्मा के ही आधीन है । इसलिए तुम उसकी प्राप्ति का प्रयत्न ही क्यों नहीं करते, जिससे कि संसार के झगड़ों से छूटकर हमेशा के लिए निराकुलित हो जाओ ॥ २२ ॥

आचार्य कहते हैं कि मुक्ति प्राप्त करना भी अपने ही आधीन समझ कर स्व और पर को जानना चाहिए तथा बाह्य पदार्थों के मोह को नष्ट करना चाहिए और आकुलतारहित स्वानुभवगम्य केवल अपने निजस्वरूप में ही स्थिर होना चाहिए ॥ २३ ॥

इस श्लोक में आचार्य आत्मा में ही सातों कारक सिद्ध करते हुये कहते हैं कि व्यवहारी जीवों को अपनी ही आत्मा में उत्पन्न हुए परमानन्द- मय अविनश्वर पद को प्राप्त करना चाहिए ॥ २४ ॥

श्री अकलङ्क भट्टाचार्य उपसंहार करते हुए ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करते हैं कि जो पुरुष पच्चीस श्लोकों में कहे इस स्वरूप सम्बोधन ग्रन्थ को आदर से पढ़ेंगे, सुनेंगे और इसके वाक्यों द्वारा कहे हुए आत्मतत्त्व का बारम्बार मनन करेंगे उनको यह ग्रन्थ परमार्थ की सम्पत्ति अर्थात् मोक्षपद प्राप्त करेगा ||२५ ||

Source: Brahud Adhyatmik Path Sangrah

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