दोहा
सब सिद्धों को नमनकर आतम सुगुण करण्ड।
भव्य जीव हितकारकं लिखूं बोध मार्तण्ड॥१॥
स्यादवाद वाणी नमों स्यात्पद चिन्हित जोई।
संशयतिमिर विध्वंस कूं मारतण्डवत होई॥२॥
परम दिगम्बर गुरु नमूं, आशा विषय विहीन।
स्वात्महितैषी अक्षजित, आतम में लवलीन॥३॥
सिद्धांत शास्त्र में आचार्यों ने कर्म के तीन भेद बतलाए हैं- (१) द्रव्यकर्म (२) भावकर्म (३) नोकर्म। मोटे रूप से द्रव्यकर्म के मूल भेद आठ प्रकार के बतलाए हैं जैसे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन्ही के उत्तर भेद १४८ और आगे संख्यात, असंख्यात और अनंत भेद बतलाए हैं। भाव कर्म भी- राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया,लोभादि के भेद से नाना प्रकार के कहे गए हैं। नोकर्म- तीन शरीर औदारिक (मनुष्य तिर्यंच का शरीर) वैक्रियिक (देव,नारकियों का शरीर) आहारक (छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि को तत्त्व विचार करते समय कोई संदेह होने पर उसके समाधान होने के लिये केवली या श्रुत केवली के दर्शनार्थ मुनि के दाहिने मस्तक से निकलने वाला पुरुषाकार पुतला जो श्वभ्र वर्ण का होता है आहारक शरीर कहलाता है ऐसे तीन प्रकार के शरीर और आहार- शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास- भाषा और मन इन छह प्रकार की पर्याप्तिरूप होने वाले कर्म पुद्गल परमाणु नोकर्म कहे जाते है। ऐसे तीन तरह के कर्मों से रहित, स्वाभाविक आत्मगुणों के विरोधी ज्ञानावरणादि कर्मों के अभाव में अनंतज्ञानादि अनंत गुणों के भंडार, समस्त सिद्धों कूं नमस्कार करके " मुमुक्षु भव्य जीवों का कल्याण हो " इस भावना से इस आत्म प्रबोध मार्तंड नाम के ग्रंथ का सृजन करता हूँ। सो ये सृजन कैसा होगा जैसे कोई मालाकार (माली) किसी सुन्दर माला बनाने के लिये इधर उधर बिखरे हुए फूलों को एकत्रित कर माला बना देता है उसी तरह मैं भी परंपरागत पूज्य आचार्यों के प्रणीत वाक्यों को लेकर इस ग्रंथ का प्रणयन करता हूं। अपनी स्वेच्छा से मैं कुछ भी नहीं कहूंगा
हर एक संसारी जीव अनादि काल से कर्मों से प्रेरित होकर कर्मफल चेतना का आस्वादन करता हुआ घनाकार ३४३ राजू प्रमाण भवसागर में गोते लगाता हुआ महान आवागमन के दुखों से दुखी हो रहा है। इस जीव की सतत यही भावना बनी रहती है कि मैं किसी प्रकार भी ऐसा सुखी हो जाऊं जिसका कभी वियोग न हो, उस सुख के प्राप्त करने के लिये अपने क्षयोपशमिक ज्ञान के अनुसार प्रयत्न करता है, लेकिन उस प्रयत्न के करने में ही गलती हो जाती है, उसी से भावना के अनुसार सिद्धि नहीं कर पाता, सो ठीक भी है जिस कार्य का जो कारण होता है वह कार्य तो वैसे कारण के संयोग के मिलने पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। सच्चे सुख के प्राप्त करने के लिये हमें वही कारण मिलाने चाहिये जिनके मिलने पर हमें सच्चा सुख मिल सकता है।
प्रश्न- अब सोचना तो ये है कि वे कौन से कारण हैं, जिनके मिलने पर सच्चा आत्मिक सुख मिल सकता है?
समाधान- जब तक इस जीव के पर पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना बनी रहेगी- उनके संयोग में सुखी और उनके वियोग में दुखी होने की कल्पना बनी रहेगी तब तक किसी प्रकार का स्थिर सुख मिल नहीं सकता है। क्योंकि ये तो घोर अज्ञान है कि जो पदार्थ अपने नहीं हैं उनको खीचातानी से अपना बनाया जाय, और ये भी निश्चित है कि जो चीज अपनी नहीं है वह किसी प्रयत्न से भी अपनी नहीं हो सकती है। जब वह अपनी नहीं होती तब आत्मा में नाना प्रकार के अशुभ विकल्प खड़े हो जाते हैं। जिनसे ऐसे अज्ञानजनक नवीन-नवीन कर्मों का संबंध होता है जिनके सद्भाव में आत्मा कभी अपने लक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। अत एव सबसे पहिले ऐसे सद्गुरुओं की संगति के मिलाने का यत्न करना चाहिये जो ऐसे आदर्श हों जिनमें हमारा प्रतिबिंब साफ साफ झलक सके “संगति तें गुण होत हैं दुःसंगति गुण जांय” बिना गुरु के सदुपदेश के सच्चा उपाय सूझता नहीं और बिना सच्चा उपाय किये सच्चा सुख मिलता नहीं। सद्गुरु ने ही बतलाया है कि संसार में दो द्रव्य का ही खेल हो रहा है (१) जीव (२) अजीव । अजीव द्रव्य पांच तरह का बतलाया गया है पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल। इनमें ४ तो अरूपी हैं एक पुद्गल द्रव्य रूपी है। दृश्यमान जितने भी पदार्थ हैं सब पुद्गल ही पुद्गल हैं क्योंकि सब पदार्थ पुद्गल से ही बने हुवे हैं। शुद्ध पुद्गल तो परमाणु हैं और परमाणुओं के मेल से बनने वाले सूक्ष्म स्थूल पिंडरूप से दृश्यमान सभी पदार्थ हैं। कर्म भी पुद्गल हैं। इन्ही के संबंध से पर पदार्थों के संयोग वियोग की कल्पना में ये जीव उलझा हुआ है, इन्हीं कर्मों के संयोग से जीव अज्ञानी बना हुवा है उसी अज्ञान से लक्ष्य भ्रष्ट हो रहा है, जिन आत्माओं ने इनसे पृथकता की है वह हमेशा को सुखी हो गये। वही सिद्ध कहलाते हैं। सिद्धात्माएं तो केवल अपने गुण रूपी विभूति के अधिपति होते हैं वे परपदार्थों से जरा भी संसर्ग नहीं करते, इसी से वे कर्मों से तिरस्कृत नहीं होते। वे तो आत्मिक सुख का आस्वादन करते हुए सदा संतुष्ट रहते हैं, बड़े- बड़े विज्ञानियों ने ज्ञान नेत्र से उनके स्वरूप का अवबोध किया तब अन्य जीवों के उपकारार्थ उनके गुणों के वर्णन के साथ-साथ उनके स्वरूप का दिग्दर्शन कराया। जो कोई उन सरीखे बनने की भावना करते हैं उन्हें वैसे ही प्रयत्न करना चाहिये तभी उस तरह के बन सकते हैं। सबसे पहिले सद्गुरु के संयोग का उपाय मिलाओ, सद्गुरुओं के उपदेश की प्राप्ति का प्रयत्न करो, उपदेश की प्राप्ति से कर्तव्य का भान होगा उससे भेदविज्ञान होगा, जिससे पदार्थ के स्वभाव के यथार्थ जानकार हो सकोगे तभी सच्चा कल्याण होगा।
भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि भगवान के सम्मुख प्रार्थना करता है कि-
शरीरतः कर्त्तुमनन्त- शक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्त- दोषम्।
जिनेन्द्र! कोषादिव खड़्ग- यष्टिं,तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः॥
[श्री अमितगति - सूरि - विरचित ‘भावना-द्वात्रिंशतिका’ श्लोक २]
जैसे तमाम पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं उसी तरह अभिन्न सा दीखता हुआ यह शरीर भी भिन्न ही है क्योंकि ये भी पौद्गलिक है। जीव को जितना मोह पर पदार्थों से रहता है क्योंकि उनको वह कभी अपने से अलग नहीं देखना चाहता, उसी तरह शरीर से तो और भी अलग नहीं होना चाहता इस शरीर के लिये ही सब कुछ करता है, इसकी रक्षा के लिये खाद्याखाद्य का कुछ भी विवेक नहीं करता, परन्तु ये शरीर इतना कृतघ्न है कि आखिर में धोखा दिये बिना नहीं रहता है। आयुकर्म के खिरते ही आप संबंध छोड़कर यहीं रह जाता है, एक मिनट भी साथ नहीं देता है, आत्मा को पर्यायान्तर में गमन अकेला ही करना पड़ता है। ऐसी हालत देखकर ज्ञानी भव्य भगवान से प्रार्थना करता है “हे भगवन् आपके प्रसाद से मुझमें उस शक्ति का विकास हो जिनमें अनंत शक्तियों के पुंज इस आत्मा को इस कृतघ्नी शरीर से उस तरह अलग कर लूं जैसे म्यान से तलवार अलग कर ली जाती है” शरीर से आत्मा को तभी अलग किया जा सकता है जब हम पूज्य आचार्यों के वचनों पर चलें। आचार्य वादीभ सिंह सूरी ने अपने क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ में जीवंधर स्वामी के द्वारा भायी गई बारह भावनाओं के प्रकरण में आत्मा को संबोधन करते हुए बतलाया है कि हरएक आत्महितैषी को ऐसा विचारना चाहिये
कोऽहं कीदृग्गुणः क्वत्यः किं प्राप्यः किं निमित्तकः।
इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ॥७८॥
[आचार्य श्री वादीभ सिंह सूरी विरचित ‘क्षत्र चूड़ामणि’ (प्रथम लंब)]
अर्थ – मैं कौन हूं, मुझमें कौन २ से गुण हैं, मैं कहाँ का रहने वाला हूं, मुझे क्या प्राप्त करना है, जो कुछ प्राप्त करना है उसका निमित्त कारण क्या है? इस प्रकार का तर्क प्रतिदिन न किया जायगा तो बुद्धि उन्मार्ग में चली जा सकती है।
कर्तव्य मार्ग को बतलाते हुए पंडितप्रवर आशाधर जी सागार धर्मामृत में बतलाते हैं-
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय कृतपंच नमस्कृतिः
कोऽहं को मम धर्मः किं प्राप्यश्चेति परामृशेत्॥6॥
[पंडितप्रवर आशाधर जी विरचित ‘सागार धर्मामृत’ (छटा अध्याय)]
अर्थ- प्रत्येक प्राणी को ब्रह्ममुहूर्त- अर्थात् रात्रि समाप्त होने के दो घड़ी पहिले उठकर अपने इष्टदेव पंच परमेष्ठी के वाचक पंच णमोकार मंत्र का जाप कर ऐसा विचार करना चाहिये कि मैं कौन हूं! मुझे इस मनुष्य भव को पाकर क्या करना है, मेरा क्या धर्म है? ऐसा विचार नित्य करना चाहिये ऐसा विचार करने से मनुष्य अपने कर्तव्य मार्ग से च्युत ना हो कर निराकुल सुख के सम्मुख होता है। क्योंकि आयु थोड़ी होती है और कर्तव्य कर्म बहुत होता है। संपूर्ण उम्र में तो कार्य किया नहीं जाता है। कार्य करने के विषय में एक विद्वान ने दर्शाया है कि-
आयुष अर्द्ध अरे मति मंद, व्यतीत भई तब नींद मंझारी।
अर्द्ध त्रिभाग जरापन यौवन, शैशव के वश व्यर्थ विसारी।
आतम में दृढ़ धार सुधी गह, ज्ञान असि मोहपास विदारी।
मुक्ति रमा रमणी वश कारण, हो दृढ़ नित्य सु सम्यकधारी॥
[श्री मल्लिषेण आचार्य विरचित ‘सज्जन चित्त वल्लभ’, श्लोक १६ का पद्यानुवाद- कवि मेहरचन्द]
अर्थ- हे आत्मन् बड़े शोक की बात है कि इस शरीर में रहते हुए तेरी आधी आयु तो सोते सोते बीत जाती है। बाकी आयु बालापन, बुढापा और युवावस्था ऐसी तीन विभागों की भिन्न-भिन्न दशाओं में बीत जाती है- अर्थात् बालापन में अज्ञानता की प्रधानता रहती जिससे ये अवस्था खेल कूद में ही बीत जाती है। युवावस्था विषयों के सेवन, अर्थार्जन, रक्षण आदि में बीत जाती है, बुढापा जिसमें कोई भी इन्द्रिय काम नहीं देती शरीर क्षीण हो जाने से अशक्त हो जाता है, इस अवस्था में कुछ भी आत्महितैषी कार्य बन नहीं सकता, अब तू खुद निश्चय कर कि मनुष्य पर्याय पाकर क्या प्राप्त किया! इसलिये अब सचेत होकर मुक्ति रूपी स्त्री को बस में करने वाले दृढ़ सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर जिससे अनादि कालीन अपनी भूल का मार्जन हो सके हे प्राणी जिस शरीर पर तू निछावर हो रहा है जिसके भरण पोषण में दत्तचित्त रहता है उसके स्वरूप का तो विचार कर।
कविवर भूधरदास जी अपनी जैनशतक में बतलाते हैं कि-
(मत्तगयंद सवैया)
मात-पिता-रज-वीरज सौं, उपजी सब सात कुधात भरी है।
माँखिन के पर माफिक बाहिर, चाम के बेठन बेढ़ धरी है॥
नाहिं तौ आय लगैं अब ही बक, वायस जीव बचै न घरी है।
देहदशा यह दीखत भ्रात ! घिनात नहीं किन बुद्धि हरी है॥२०॥
[कविवर भूधरदास जी विरचित ‘जैनशतक’]
अर्थ- हे भाई यह शरीर माता पिता के घृणित रज और वीर्य से उत्पन्न हुवा है, इसमें हाड़ मांस मज्जा मेदा खून वीर्य आदि सात कुधातुएं भरी हुई हैं, ऊपर से मक्खियों के पर की तरह चमड़े से घिरा हुआ है अर्थात् मढ़ा हुआ है। यदि इस चमड़े से मढ़ा हुआ न होता तो बगुले, कौए आदि जीव आकर नोंच-नोंच कर खा जाते एक, घड़ी के लिये भी नहीं बच सकता था, देह की तो ऐसी दसा है इसको देखते हुए भी तुम्हे इस देह से घृणा नहीं होती आश्चर्य है, तुम्हारी बुद्धि किसने हरण कर ली है?
कविवर बनारसीदास जी ने भाषा छंदोबद्ध नाटक समयसार में बतलाया है कि-
सुन प्रानी! सदगुरु कहै, देह खेह की खांनि।
धरै सहज दुख-दोषकौं, करै मोख की हांनि।। 39।।
[कविवर बनारसीदास जी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार)]
अर्थ- श्रीगुरु उपदेश करते हैं- हे जीव चित्त लगाकर सुन, यह देह तो खेद की खदान है, स्वभाव से दुख और दोषों को धारण करने वाली होकर मोक्ष से विमुख रखने वाली है। फिर कैसी यह देह है-
रेत-कीसी गढ़ी किंधौं मढ़ी है मसान-कीसी,
अंदर-अंधेरी जैसी कंदरा है सैल की।
ऊपर की चमक-दमक पट-भूषन की, धोखै
लागै भली जैसी कली है कनेल की॥
औगुन की औंडी महाभौंडी मोह की कनौडी,
माया की मसूरति है मूरत है मैल की।
ऐसी देह याही के सनेह याकी संगतिसौं,
ह्वै रही हमारी मति कोल्हू-कैसे बैल की॥
[कविवर बनारसीदासजी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार-छंद 40)]
अर्थ यह देह बालू (रेता) की गढी के समान अथवा श्मशान की मढ़ी के समान है, भीतर पर्वत का गुफा के समान अंधकारमय है। ऊपर की चमक दमक तो वस्त्र और गहनों में हो रही है, ये तो कनैर की कली के समान अत्यंत दुर्गंधित है, अवगुणों से भरी हुई है, अत्यंत खराब और कानी आंख के समान निकम्मी है, माया की समुदाय रूप तथा मैल की मूर्ति है। इस ही के प्रेम और संगति से हमारी बुद्धि कोल्हू के बैल के समान हो रही है, जिससे संसार में सदा भ्रमण करना पड़ता है। फिर कहते हैं-
ठौर-ठौर रकत के कुंड केसनि के झुंड,
हाड़निसौं भरी जैसैं थरी है चुरैल की।
नैकु-से धका-के लगै ऐसै फटि जाय मानौ,
कागदकी-पूरी किधौं चादरि है चैल की॥
सूचै भ्रम-वांनि ठानि मूढ़निसौं पहचांनि,
करै सुख-हानि अरु खांनि बदफैल की।
ऐसी देह याही के सनेह याकी संगतिसौं,
ह्वै रही हमरी मति कोल्हू कैसे बैल की॥
[कविवर बनारसीदासजी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार-छंद 41)]
अर्थ- इस देह में जगह-जगह रक्त के कुंड और बालों के झुंड हैं, यह हड्डियों से भरी हुई है, मानों चुडैलों का निवास स्थान ही है! जरा से धक्का लगने से ऐसे फट जाती जैसे कागज की पुड़िया अथवा कपड़े की पुरानी चद्दर, यह अपने अस्थिर स्वभाव को प्रगट करती है। पर मूर्ख लोग इससे स्नेह लगाते है, यह सुख की घातक और बुराइयों की खानि है। इस ही के प्रेम और संगति से हमारी बुद्धि कोल्हू के बैल के समान संसार में चक्कर लगाने वाली हो गई है। इस प्रकार के घिनावने शरीर को देखकर भी तुम्हे अपने आत्म कल्याण करने में रुचि क्यों नहीं होती है? और भी कहते हैं सो सुनो- सबसे पहिले मनुष्य को ऐसा चिंतवन करना चाहिये कि ये शरीर की छाया तो अपनी ही है, जब तुम अपनी ही छाया पर मुग्ध होकर उसके पीछे पीछे दौडोगी तब वह छाया तुम्हारे हाथ तो न आवेगी प्रत्युत वह आगे आगे भागी ही चली जावेगी। जब तुम्हारा ये विचार हो जावेगा कि हमें इस छाया से कोई प्रयोजन नहीं है, उसका पीछा छोड़ कर पीछा लौटकर आने लगोगे तब वही छाया तुम्हारे पीछे पीछे स्वयमेव दौड़ी आवेगी। उसी तरह हम जिस समय इन पर पदार्थों को प्राप्त करनेके लिये इनके पीछे- २ दौड़ेंगे तब ये पदार्थ हमसे दूर- २ ही भागेंगे जब हम इनका पीछा छोड़ देंगे तो ये हमारे पीछे दौड़ेंगे। विचार इतना ही होना चाहिये कि हमें इन पदार्थों के पीछे दौड़ने पर और इनके मिल जाने पर भी ये हमारे बनकर रह सकेंगे या नहीं? पुण्य पाप के उदयानुसार ही इनका संयोग वियोग बनता है। हमारे चाहने मात्र से पदार्थों का संयोग वियोग नहीं बनता है। इसलिये इनके प्राप्त करने की अभिलाषा ही व्यर्थ है, इस फंदे में न पड़ कर अपने स्वरूप के पहिचानने और उसके ग्रहण करने में तत्पर होना चाहिये। अये आत्मन् तुझे ये ध्यान नहीं है कि मैं और मेरा स्वरूप क्या चीज है। मैं अब तेरे स्वरूप को नीचे के छंद से बतलाता हूं सो ध्यान में लेकर उसका अनुभव कर-
(सवैया मत्तगयन्द)
चेतनरूप अनूप अमूरति, सिद्ध-समान सदा पद मेरौ।
मोह-महातम आतम-अंग, कियौ पर-संग महातम घेरौ।।
ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुन नाटक आगमकेरौ।
जासु प्रसाद सधै सिव-मारग, वैगि मिटै भव-वास-बसेरौ।। 11।।
[कविवर बनारसीदास जी विरचित ‘नाटक समयसार’]
अर्थ- मेरा स्वरूप सदैव चैतन्य रूप उपमा रहित और निराकार सिद्धों के समान ही है, परन्तु अनादि काल से मोह के महा अन्धकार का सम्बन्ध होने से अन्धा बन रहा था। अब मुझे ज्ञान की ज्योति प्रकट हुई है इसलिये आत्मा के नाटक की आख्या गुणों के रूप में कहता हूं, जिसके प्रसाद से मोक्ष मार्ग की सिद्धि हो और जल्दी से जल्दी संसार का निवास अर्थात जन्म मरण का संबंध छूट जाय।
भाव ये हैं कि हर एक आत्मा को ऐसा विचार करना चाहिये कि द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो मेरा रूप तो शुद्ध चैतन्यरूप चिच्चमत्कार मात्र है, सिद्धों के समान है, तीन लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसकी उपमा आत्मा के स्वरूप से दी जा सकती हो, इसको अनादि काल से संबंधित मोह ने घेर रक्खा है जिसमें विह्वल होकर अपने रूप को भूल गया है लेकिन अब मेरी ग्यान कला जागृत हो चुकी है इसलिये अब मैंने समझ लिया कि आत्मा और परमात्मा में यदि भेद है तो इतना ही कि सामान्य रूप से आत्मा शब्द तो संसारी जीव के लिये प्रयुक्त होता है जो सब तरह के कर्मों से लिप्त रहता है और परमात्मा उस आत्मा को कहते हैं जो कर्म कालिमा से रहित होकर निज शुद्ध स्वरूप में अवस्थित है। वास्तव में स्वरूप की दृष्टि से दोनों में कोई फरक नहीं है। एक विद्वान ने कहा है कि संसारी और मुक्त में इतना ही भेद है कि-
(सवैया इकतीसा)
जगत के निवासी जग ही मैं रति मानत हैं,
मोख के निवासी मोख ही मैं ठहराये हैं।
जग के निवासी काल पाय मोख पावत हैं,
मोख के निवासी कभी जग मैं न आये हैं।
एतौ जगवासी दुखवासी सुखरासी नाहिं,
वे तो सुखरासी जिनवानी मैं बताये हैं।
तातैं जगवास तैं उदास होइ चिदानंद,
रत्नत्रय पंथ चलैं तेई सुखी गाये हैं॥73॥
[पण्डित प्रवर द्यानतरायजी विरचित ‘धर्म विलास’- ‘उपदेश शतक’]
अर्थ- जो जीव संसार मार्ग में चलते हुए साताकर्म के उदय से थोड़ा सा सुखाभास का अनुभव करते हैं, वे संसार में रहने से ही आनंद मानते हुए संसारी है परन्तु जो जीव समस्त कर्मों की श्रृंखला को काटकर हमेशा को मोक्ष में रहने वाले हैं वे मोक्ष के जीव हैं। संसारी जीव काललब्धि का निमित्त पाकर कर्मों को नाशकर मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु अनन्तानंत काल बीतने पर भी मोक्ष के जीव कभी भी संसार में नहीं आते हैं। संसारी जीव तो दुख में ही निवास करते हैं इनको जरा भी सुख नहीं मिलता है यदि पुण्य कर्म के उदय से थोडा सा ऐन्द्रियक सुख मिल भी जाता है तो वह स्थिर नहीं होता है प्रत्युत उसका उदर्क उत्तापकारी ही होता है, परन्तु मोक्ष के स्वशुद्ध स्वरूपानुभवी जीव सुख ही सुख का अनुभव करते हैं ऐसा जिनवाणी में बतलाया गया है। इसलिये हे आत्मन् संसार से उदास होकर जो जीव रत्नत्रय की प्राप्ति मार्ग में चलते हैं, वे नियम से मोक्ष प्राप्त करते है। तू भी ऐसा ही कर।
रत्नत्रय आत्मा का निज स्वभाव है, अनादिकाल से सत्ता रूप में आत्मा में मौजूद है मोक्षप्राप्त जीवों के विरोधी तत्त्व के विलग हो जाने से व्यक्त हो चुका और संसारी जीव में विरोधी तत्त्व ने आवृत कर रक्खा है इससे शक्ति रूप में ही पाया जाता है। आचार्यों ने रत्नत्रय को दो तरह से बतलाया है- एक व्यवहार रत्नत्रय, दूसरा निश्चय रत्नत्रय। व्यवहार रत्नत्रय का स्वरूप इस तरह वर्णन किया है-
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो॥155॥
[श्री कुंदकुंद आचार्य देव विरचित ‘समयसार’]
अर्थ- जीवादि सात तत्त्वों का ऐसा श्रद्धान करना कि भगवान जिनेन्द्र ने जीवादि सात तत्त्वों का जैसा स्वरूप कहा है वह तो उसी तरह है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार भी नहीं है इसको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन्हीं जीवादि तत्त्वों का संशय विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान करना सम्यग्ज्ञान है और इन सारे पदार्थों से राग द्वेष का परिहार करना अथवा आत्मा में से हिंसादि परिणति का बुद्धि पूर्वक त्याग करना व्यवहार सम्यक्चारित्र है और इन तीनों रूप परिणति व्यवहार मोक्षमार्ग है। यही व्यवहार मोक्ष मार्ग निश्रय मोक्षमार्ग का कारण होता है। जैसा कि दौलतरामजी ने अपने छहढाला में लिखा है-
पर-द्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है।
आप रूप को जानपनो, सो सम्यग्ज्ञान कला है॥
आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित्र सोई।
अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिये, हेतु नियत को होई॥2॥
[पण्डित दौलतराम जी विरचित ‘छहढाला’ (तीसरी ढाल)]
अर्थ- द्रव्य छह प्रकार के होते हैं- (१) जीव (२) पुद्गल (३) धर्म (४) अधर्म (५) आकाश और (६) काल। जीव दो तरह का माना गया है (१) स्वजीव (२) परजीव। निजात्मा ही स्वजीव जानना चाहिये और अरहन्त आदि परजीव जानना चाहिये॥१॥ रूप, रस, गंध, स्पर्श गुणवाला पुद्गलद्रव्य जानना चाहिये। ये द्रव्य परमाणु और स्कन्ध रूप से दो तरह का बतलाया गया है। शुद्ध पुद्गलद्रव्य परमाणु ही होता है। परमाणुओं के मेल से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। सारे संसार के दृश्यमान पदार्थ स्कन्ध के ही परिणमन रूप हैं॥२॥ अदृश्यमान एक ऐसा पदार्थ लोक में है जिसकी सहायता से जीव और पुद्गल एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आ जा सकते हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं॥३॥ एवं एक ऐसा और भी पदार्थ मौजूद है जिसकी सहायता से चलते हुए जीव पुद्गल ठहर सकते हैं उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं॥४॥ संपूर्ण द्रव्यों को स्थान देने वाला द्रव्य आकाश कहलाता है॥५॥ हरएक द्रव्य की एक अवस्था से दूसरे अवस्था रूप परिणति होने को कारणभूत द्रव्य काल द्रव्य कहलाता है॥६॥ ऊपर बतलाया गया है कि ये जीव भ्रम भाव में डूब रहा है इसी से मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं करता है। हमी भाव को लेकर एक विद्वान का कहना है कि-
याही जगमाहिं चिदानंद आप डोलत है,
भरम भाव धरै हरै आतमसकतकौं ।
अष्टकर्मरूप जे जे पुद्गलके परिनाम,
तिनकौं सरूप मानि मानत सुमतकौं ॥
जाहीसमै मिथ्या मोह अंधकार नासि गयौ,
भयौ परगास भान चेतनके ततकौ ।
तहीसमै जानौ आप आप पर पररूप,
भानि भव-भांवरि निवास मोख गतकौ ॥ 74 ॥
[पण्डित प्रवर द्यानतराय जी विरचित ‘धर्म विलास’- ‘उपदेश शतक’]
अर्थ- इस संसार में यह चिदानन्दरूप जीव भ्रम भाव धारणकर चारों गतियों में भ्रमण करता है जिससे अपनी शक्ति का नाश करता है, आठ कर्मरूप जो जो पुद्गल के परिणाम (पर्याय) हैं उनको अपना स्वरूप जानता है उससे अपनी सुमति को नष्ट करता है। जिस समय इस जीव का मिथ्यात्वरूपी मोहान्धकार नष्ट हो जाता है उसी समय चेतन के विस्तार (फैलाव) का प्रकाश करता है जिससे आत्मा आपको आपरूप और पर को पररूप जानकर संसार में भ्रमण को दूरकर मोक्ष में निवास करने लगता है।
अभीतक इस जीव ने अपने स्वभाव की पहिचान नहीं की है यदि ये अपने स्वभाव को पहिचान जाय तो फिर इसका चतुर्गत्यात्मक परिभ्रमण अपने आप शांत हो जावे। जीव का स्वभाव क्या है? और इसने किसको भ्रम से अपना स्वभाव मान लिया तथा इसको अपने स्वभाव की पहिचान होने पर क्या लाभ होता है? आदि भाव निम्नलिखित छन्द में बतलाया है-
रागदोष मोहभाव जीवकौ सुभावनाहिं,
जीवकौ सुभाव सुद्धचेतन वखानियै ।
दर्व कर्मरूप ते तौ भिन्न ही विराजते हैं,
तिनकौ मिलाप कहो कैसैं करि मानियै ॥
ऐसो भेद ज्ञान जाके हिरदैं प्रगट भयौ,
अमल अबाधित अखंड परमानियै ।
सोई सुविचच्छन मुकत भयौ तिहुँकाल,
जानी निज चाल पर चाल भूलि भानियै ॥ 75 ॥
[पण्डित प्रवर द्यानतराय जी विरचित ‘धर्म विलास’- ‘उपदेश शतक’]
अर्थ- हे आत्मन्! तू इस बात का निश्चय कर कि रागद्वेष मोहरूप भाव जीव के स्वभाव नहीं हैं क्योंकि ये भाव तो मोहनीय कर्मजन्य विभाव भाव हैं, पर निमित जन्य होने से नश्वर हैं। जीव का स्वभाव तो शुद्ध चैतन्य रूप है। जो ऐसा कहा जाता है कि कर्म जीव के साथ मिला हुआ है सो ऐसा कहना भी मिथ्या है, क्योंकि द्रव्य कर्म तो आत्मा से बिलकुल भिन्न रूप हैं, जड़ हैं, आत्मा का स्वभाव चैतन्यरूप है, फिर उनका मेल आत्मा के साथ कैसे माना जा सकता है। ऐसा भेदविज्ञान जिसकी आत्मा में व्यक्त हो जाता है वह तो निरंजन है, बाधारहित अखण्ड ही प्रमाण में आता है। ऐसा भेदज्ञानी आत्मा तीनों काल मुक्त है क्योंकि उसने अपने स्वरूप की पहिचान की है और पर स्वरुप का त्याग किया है।
पदार्थ का विचार दो दृष्टियों से करना चाहिये एक द्रव्यदृष्टि से और दूसरा पर्याय दृष्टि से। द्रव्यदृष्टि तो पदार्थ खास स्वभाव की परिचायक होती है, उसमें दूसरे पदार्थों के स्वभाव के मेल मिलाप की आवश्यकता ही नहीं रहती, पर्यायदृष्टि पर के निमित्त से होने वाली अवस्था की मुख्यता का वर्णन करती है, सो जैसा वह वर्णन करती है वैसा वस्तु का स्वभाव नहीं होता, स्वभाव तो ध्रुव होता है, पर्यायें नश्वर होती हैं। हमने अनादि- काल से अभीतक अपने रूप की पहिचान नहीं की है क्योंकि मोहकर्म के सम्बन्ध से अपने को पररूप ही समझा है। मैं काला हूँ, गौरवर्ण हूँ, मूर्ख हूँ, पंडित हूँ आदि अवस्थाओं को ही आत्मा माना, ये नहीं जाना कि काला, गौरा आदि तो पुद्गल की दशाएं हैं सो इनका सम्बन्ध तो पुद्गल के साथ है मैं तो चैतन्य ज्योतिरूप हूं फिर पुद्गलरूप कैसे हो सकता हूँ!
आत्मा को आत्मा न मानते हुए पर को आत्मा मानना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के वश में रहने वाला प्राणी दीर्घ संसारी होता है। मिथ्यादृष्टि जीव ही ऐसा निश्चय करता है कि मैं सुखी हूं, दुखी हूं, राजा हूं, रंक हूं, मेरा जन्म होता है, मरण होता है, मेरे पुत्र हैं, स्त्री है, कुटुम्ब है, मां बाप भाई बन्धु आदि मेरे हैं, मैं इनका हूं, वे मेरे रक्षक हैं, मैं इनका रक्षक हूं, मैं इनको जिन्दा रखता हूं, ये मुझे जिन्दा रखते हैं इत्यादि। मिथ्यादृष्टि जीव संसार की परिस्थिति को देखता हुआ भी अन्धा बना रहता है, उसको थोड़ा भी विवेक करने का अवसर नहीं मिलता कि वस्तु के रूप का विचार तो करे, दरअसल में देखा जाय तो संसार में कोई किसी का नहीं है। श्री पूज्यपादस्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है-
वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः।
सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते॥८॥
[श्री पूज्यपादस्वामी विरचित ‘इष्टोपदेश’]
अर्थ- शरीर, घर, धन,स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु सर्वथा मेरे स्वभाव से भिन्न स्वभाव वाले हैं, परन्तु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव इनको अपने ही मानता है। यही तो मिथ्यात्वोदय की विशेषता है। एक विद्वान कवि ने बतलाया है-
(दोहा)
केश पलटि पलट्या वपू, ना पलटी मन बाँक।
बुझे न जरती झूंपरी, ते जर चुके निसांक॥५०१॥
नित्य आयु तेरी झरे, धन पैले मिलि खाँय।
तू तो रीता ही रह्या, हाथ झुलाता जाय॥५०२॥
अरे जीव भव वन विषै, तेरा कौन सहाय।
काल सिंह पकरे तुझे, तब को लेत बचाय॥५०३॥
को है सुत को है तिया, काको धन परिवार।
आके मिले सराय में, बिछुरेंगे निरधार॥५०४॥
बहुत गई थोड़ी रही, उरमें धरो विचार।
अब तो भूले डूबना, निपट नजीक किनार॥५०६॥
झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार।
खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार॥५०७॥
आयु कटत है रात-दिन, ज्यों करोत तें काठ।
हित अपना जलदी करो, पड़ा रहेगा ठाठ॥५१४॥
विसन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय।
गांठ खाय रीते चले, हटवारे में आय॥५१८॥
देहधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात
तन तो तजि गये राम से, रावन की क्या बात॥५२३॥
किते दिवस बीते तुम्हें, करते क्यों न विचार।
काल गहेगा आय कर, सुन है कौन पुकार॥५२७॥
या दीरघ संसार में, मुवो अनंती बार।
एक बार ज्ञानी मरे, मरे न दूजी बार॥५३१॥
आसी सो जासी सही, टूटे जुर गई प्रीति।
देखी सुनी न सासती, अथिर अनादी रीति॥५४१॥
ममता समता की करो, निज घटमाहिं पिछान।
बुरी तजो आछी भजो, जो तुम हो बुधिमान॥५५२॥
जाकी संगति दुख लहो, ताकी तजो न गैल।
तो तुमको कहिये कहा, ज्योंके त्यों हो बैल॥५५३॥
यातें अब ऐसी गहो श्रद्धा दृष्टि अपार।
याद करत तुष - माष को, उतर गये भवपार॥५६४॥
आपा-पर-सरधान विन, मधुपिंगल मुनिराय।
तप खोया बोयो जनम, रोयो नरक मंझार॥५६५॥
अति गंभीर संसार है, अगम अपरंपार।
बैठे ज्ञानजिहाज में, ते उतरे भवपार॥५७७॥
संसारी को देख दुख, सतगुरु दीनदयाल।
सीख देत जो मान ले, सो तो होत खुशाल॥५७६॥
[बुधजन जी विरचित ‘बुधजन सतसई’]
आत्म- हितैषी सच्चे गुरु की ये शिक्षा ऐसे जीवों के लिये है जो भद्र परिणामी होते हुए सम्यक्त्व के सन्मुख हो रहे हों। वास्तव में देखा जाय तो तीन लोक के जीवों का सच्चा दुश्मन यदि कोई हो सकता है तो एक मिथ्यात्व ही हो सकता है जब तक कि मिथ्यात्व कर्म का उदय रहता है मोक्ष का प्रधान अंग सम्यग्दर्शन हो नहीं सकता है।
अब यहां प्रकरणवश संक्षेप में मिथ्यात्व का स्वरूप, उसके भेद और उसका फल बतलाया जाता है-
मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं (१) दर्शनमोह (२)चारित्रमोह। दर्शनमोह आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घातक (आच्छादक) होता है। चारित्रमोह- आत्मा के आचरण रूप चारित्र का घातक होता है दर्शनमोह के मिथ्यात्व- सम्यग्मिथ्यात्व- सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व ऐसे तीन भेद होते हैं। इनमें से जीव को जब मिथ्यात्वकर्म का उदय होता है तब सर्वज्ञभाषित तत्त्वों का ठीक-ठीक विश्वास नहीं होने पाता है। ऐसे मिथ्यात्व के पंडित प्रवर आशाधरजी ने तीन भेद बतलाये हैं यथा-
केषाञ्चिदन्धतमसायतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम्।
मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकम परेषाम्॥5॥
[पंडितप्रवर आशाधर जी विरचित ‘सागार धर्मामृत’ (प्रथम अध्याय)]
अर्थात् मिथ्यात्व तीन प्रकार का होता है- अगृहीत गृहीत और सांशयिक। अनादिकाल से पुनःपुनः चला आया तत्त्वविषयक अरुचि रूप आत्मा का परिणाम अगृहीत मिथ्यात्व कहा जाता है। यह मिथ्यात्व दूसरों के उपदेश के बिना होता है इसलिये इनको अगृहीत कहते हैं। दूसरों के उपदेश से प्राप्त होने वाला अतत्त्व श्रद्धान रूप बुद्धि का विकार गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है।
मिथ्यात्व कर्म के उदय के साथ २ ज्ञानावरणी कर्म के उदय से “जिनेन्द्र भगवान के द्वारा भाषित तत्त्व उसी प्रकार हैं या नहीं” इस प्रकार के अज्ञानजन्य परिणामों से आत्मा में चंचलता पैदा हो जाने को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। इस संसार में अगृहीत मिथ्यात्व घोर अज्ञान अवस्था में एकेन्द्रिय संज्ञी पंचेंद्रिय पर्यंत के सभी जीवों के गाढ अंधकार सरीखा महान दुख देने वाला होता है। दूसरा गृहीत मिथ्यात्व संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के भूत से गृहीत व्यक्ति के समान दुख देने वाला होता है। तीसरा संशय मिथ्यात्व श्वेतांबर मतावलंबी इन्द्राचार्य सरीखों को हृदय में चुभी हुई शल्य (शंकु) के समान दुख देने वाला होता है।
मिथ्यात्व के पांच भेद भी बतलाये गये हैं- विपरीत एकांत, विनय, संशय, और अज्ञान।
केवली कवलाहारी हैं, स्त्री की मुक्ति होती है इत्यादि अभिनिवेश (अभिप्राय) को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं। सर्व पदार्थ क्षणिक ही हैं, जीव सदा मुक्त ही है इत्यादि रूप परिणाम को एकांत मिथ्यात्व कहते हैं।
सब देव, सब धर्म, सब मत समान हैं, सबकी विनय करने में समान फल होता है ऐसे अभिप्राय को विनय मिथ्यात्व कहते हैं।
संशय मिथ्यात्व का स्वरूप ऊपर बतलाया जा चुका है। हिताहित का विवेक किये बिना प्रवृत्ति करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
इस तरह से मिथ्यात्व के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद बतलाये गये हैं। एक विद्वान ने कहा है-
असंख्यात-लोक-परमान जे मिथ्यात-भाव,
तेई विवहार-भाव केवली-उकत हैं।
[कविवर बनारसीदासजी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार-छंद 32)]
अर्थात्- भगवान केवली ने कहा है कि लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं व्यवहारनय से उतने ही मिथ्यात्व भाव के अध्यवसाय होते हैं।
तीन लोक जीवों को जो दैहिक, मानसिक और आगन्तुक आदि दुख होते हैं उनका प्रधान हेतु मिथ्यात्व ही है। मिथ्यात्व से अनन्त संसार फलता है।
ऊपर बतलाया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव विवेक रहित होता है उसको अतत्त्व श्रद्धान होता है। उसकी प्रवृत्ति के विषय में भाषा छन्दोबद्ध नाटक समयसार में कहा गया है-
(सवैया इकतीसा)
धरम न जानत, बखानत भरमरूप,
ठौर-ठौर ठानत, लराई पच्छपात की।
भूल्यौ अभिमान में, न पाउ धरै धरनी में,
हिरदै में करनी, बिचारे उतपात की॥
फिरै डांवाडोल-सौ, करम के कलोलनि में,
ह्वै रही अवस्था, सु बघेलू कैसे पात की।
जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी,
ऐसौ ब्रह्मघाती, है मिथ्याती महापातकी॥
[कविवर बनारसीदास जी विरचित ‘नाटक समयसार’ (छंद 9)]
अर्थ- जो मिथ्यादृष्टि जीव वस्तु के स्वभाव के ज्ञान से अनभिज्ञ है, जिसका कथन मिथ्यात्व का ही पुष्ट करने वाला होता है, एकांत का पक्ष लेकर जगह जगह लड़ाई करता है, अपने मिथ्याज्ञान के अहंकार में धरती पर पांव नहीं टिकाता है, चित्त में उपद्रव ही उपद्रव करना सोचता है, कर्म के झकोरों से संसार में डांवाडोल हुवा फिरता है अर्थात् कभी विश्राम नहीं पाता, सो ऐसी दशा हो रही है जैसे वघरूढे में पत्ता उड़ता फिरता है। जो हृदय में कोष से तप्त रहता है, लोभ से मलीन रहता है, माया से कुटिल होता है, मान से खोटे २ बोल बोलता है ऐसा आत्मघाती, महापापी मिथ्यादृष्टि होता है। अभिमान से क्या क्या कहता है सो सुनिये-
(चौपाई)
मैं करता मैं कीन्ही कैसी, अब यौं करौ कहौ जो ऐसी।
ए विपरीतभाव है जामैं, सो बरतै मिथ्यात-दसामैं॥24॥
[कविवर बनारसीदास जी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार)]
अर्थ- मैं करता हूं, मैंने यह कैसा काम किया (जो दूसरों से नहीं बन सकता है) अब भी मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करूंगा, जिसमें ऐसे अहंकाररूप विपरीत भाव होते हैं वह मिथ्यादृष्टि होता है। और भी कहा है-
(दोहा)
अहंबुद्धि मिथ्यातदसा, धरै सो मिथ्यावंत।
विकल भयौ संसार में, करै विलाप अनंत॥25॥
[कविवर बनारसीदास जी विरचित ‘नाटक समयसार’ (बंध द्वार)]
अर्थ- मिथ्यात्व जन्य अहंकार मिथ्यात्व है, ऐसा भाव जिस जीव में होता है वह मिथ्यात्वी कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि संसार में दुखी होता हुआ भटकता है और अनेक प्रकार के विलाप करता है॥ एक ग्रन्थ में ज्ञाता और मिथ्यादृष्टि का स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है-
मिथ्यादृष्टी जीव आपको रागी मानै।
मिथ्यादृष्टी जीव आपको द्वेषी जानै॥
मिथ्यादृष्टी जीव आपको रोगी देखै।
मिथ्यादृष्टी जीव आपको भोगी पेखै॥
जो मिथ्यादृष्टी जीव सो सुद्धातम नांहि लहै।
सोई ज्ञाता जो आपको जैसा का तैसा गहै॥
अर्थ- पदार्थ के स्वरूप का ठीक ठीक ज्ञान नहीं रखने वाला मिथ्यादृष्टि जीव अपने आपको रागी, द्वेषी, रोगी और भोगी मानता है, वह मिथ्यात्व दशा में किसी समय अपने शुद्ध आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है। सम्यग्दृष्टि ही आत्मा यथार्थ स्वरूप को ग्रहण कर सकता है।
मिथ्यात्व का अचिन्त्य प्रभाव है इसके प्रताप से ही जीव को सागरों पर्यंत या असंख्यात काल तक नरक तिर्यंच गतिक दुख उठाने पड़ते हैं। आज हम जितने दीन, दुखी, दरिद्री, रोगी, शोकी, आततायी, रागी, द्वेषी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, मत्सरी, आर्त रौद्र परिणामी जीवों को देख रहे हैं वे सब मिथ्यात्व के प्रभाव से ही ऐसे हैं। ऐसे जीव बारम्बार नवीन - नवीन भयंकर कर्मों का बन्धन कर अपनी संसार परिपाटी का अन्त नहीं कर सकते। संसार में तब तक इस जीव को रहना ही पड़ता है जबतक इस मिथ्यात्व का संसर्ग बना रहता है। इसलिये तत्त्वज्ञान के अभिलाषियों को श्रीगुरु यही उपदेश देते हैं कि अये भव्यात्माओ अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करना चाहते हो या अनन्त सुख शांति चाहते हो तो इस दुष्ट पिशाच रूप महामोह का त्याग करो।
मिथ्यात्व के त्याग करते ही आत्मा के सारभूत सम्यक्त्व गुण का विकास हो जाता है और सम्यक्त्व के प्रादुर्भूत होते ही आत्मा में ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम के अनुसार यथार्थ ज्ञान हो जाता है जिससे सर्वज्ञ भाषित पदार्थों की ठीक ठीक जानकारी पूर्वक ठीक ठीक तत्त्व प्रतीति होने लगती है। यदि सच्ची प्रतीति और सच्ची जानकारी होने लगती है तो संसार शरीर और इन्द्रियों के विषयों से उदासीनता पूर्वक सदाचरण भी होने लगेगा जिससे निकट भविष्य में संसार का अन्त भी हो जावेगा।
सम्यक्त्व आत्मा में पैदा नहीं किया जाता है वह तो आत्मा का निजी गुण है। वह विरोधी कर्म के द्वारा आवृत्त हो रहा है। आत्मा अपने पुरुषार्थ से जब सम्यक्त्व विरोधी मिथ्यात्व का अभाव कर डालता है तब इस गुण का अपने आप विकास हो जाता है। एक वक्त थोड़े समय के लिये भी ये सम्यक्त्व गुण व्यक्त हो जाता है तो विश्वास हो जाता है कि ऐसे जीव का संसार का निकट आ गया। अतएव हरएक आत्मा को सम्यक्त्व व्यक्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वों का श्रद्धानी होता है उसको सर्वज्ञ भाषित तत्त्वों में जरा भी संदेह नहीं रहता है उसका दृढ़ विश्वास ऐसा होता है कि-
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते
आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्यं नान्यथा वादिनो जिनाः।
[‘बृहद्द्रव्यसंग्रह’ गाथा 48 की ‘श्री ब्रह्मदेव सूरी’ की टीका में उद्धृत ; ‘षटप्राभृत’ के ‘दर्शनप्राभृत’ की गाथा 12 की ‘श्री श्रुतसागर सूरी’ की टीका में उद्धृत ; ‘श्री शुभचन्द्र आचार्य’ विरचित ‘ज्ञानार्णव’ के ‘33वे सर्ग - आज्ञाविचय धर्मध्यान’ के 7वे श्लोक के बाद उद्धृत ; ‘आलाप पद्धति’ गाथा 5 की टीका में उद्धृत]
अर्थ- भगवान जिनेन्द्र द्वारा भाषित तत्त्व अत्यंत सूक्ष्म है उनका खंडन किसी भी हेतु से नहीं हो सकता है। उन्होंने आत्मा में विकार पैदा करने वाले राग द्वेष का उन्मूलन किया है, अत एव उनकी प्रतिपादन शैली रागद्वेष रहित होने से निष्पक्षपात होती है। वे पूर्णज्ञानी होते हैं और हमारा ज्ञान क्षयोपशम के अनुसार होता है इसलिये सूक्ष्म तत्वों को यथावत समझने की शक्ति हममें न होने पर भी उनकी आत्मा समझकर ही तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिये और ऐसा दृढ विश्वास रखना चाहिये कि भगवान जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं होते हैं।
कभी-कभी बुद्धि की मन्दता से गुरु की आज्ञा समझकर अतत्त्व का तत्त्व रूप श्रद्धान कर लेने पर भी उसके सम्यक्त्व में बाधा नहीं आती है, इसी बात को पंचसंग्रह में बतलाया है कि-
सम्माइट्ठी जीवो, उवइट्ठं, पवयणं तु सद्दहदि
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥
[गोम्मटसार-जीवकांड गाथा 27 ; पञ्चसंग्रह प्रथम अधिकार जीवसमास गाथा 12 ; षट्खंडागम - धवला पुस्तक 1 - गाथा 110, पृष्ठ 174]
सुत्तादो तं सम्मं, दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥
[गोम्मटसार-जीवकांड - गाथा 28 ; लब्धिसार - गाथा १०६]
अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञदेव द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान करता है परन्तु कभी अज्ञानी गुरु के उपदेश को सर्वज्ञ का ही उपदेश समझकर अतत्त्व का भी तत्त्व रूप से श्रद्धान कर लेता है तो भी उसका सम्यक्त्व भ्रष्ट नहीं होता है। यदि कोई भी विद्वान सूत्र के प्रमाण से उस के श्रद्धेय तत्त्व का उल्टापन सिद्ध करके बतला देता है कि तुमने जैसा श्रद्धान कर रक्खा है तत्त्व वैसा नहीं है, किन्तु देखो शास्त्र में तो ऐसा कहा गया है। ऐसा बतलाने पर भी कदाग्रहवश वह उसको स्वीकार न करे तो उसी समय से वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ऐसा निश्चय करना चाहिये।
आत्मा के उद्धार करने की इच्छा करने वाले भव्यजीव, को सम्यक्त्व की उद्भूति अपनी आत्मा में जरूर करनी चाहिये। तीन तरह का सम्यक्त्व होता है (१) उपशम सम्यक्त्व (२) क्षयोपशम सम्यक्त्व (३) क्षायिक सम्यक्त्व। इनमें से यदि क्षायिक सम्यक्त्व हो जावे तो इस आत्मा को ज्यादा से ज्यादा चार भव ही धारण करने पड़ते हैं जैसा कि कहा गया है
दंसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे ।
णादिक्कदि तुरियभवे ण विणस्सदि सेससम्मेव ।। १६५ ।।
[आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित ‘लब्धिसार’]
अर्थ- दर्शनमोह (मिथ्यात्व) के क्षय होने पर उसी भव में या तीसरे चौथे भव में भव्यजीव सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है, चौथे भव का उल्लंघन तो किसी प्रकार भी नहीं कर सकता है। भाव ये है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन होने पर या तो उसी भव में जीव सिद्धपद को प्राप्त हो जाता है, या देवायु का बंध हो गया हो तो तीसरे भव में सिद्ध होता है यदि सम्यग्दर्शन प्रगट होने के पहिले मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य या तिर्यंच गति का बंध किया होगा तो चौथे भव सिद्ध हो जाता है। लेकिन चौथे भव का अतिक्रमण नहीं करता है। यह सम्यक्त्व साद्यनंत होता है। यह क्षायिक सम्यक्त्व इतना मजबूत होता है कि तर्क तथा आगम से विरुद्ध श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाला वचन या हेतु उसको भ्रष्ट नहीं कर सकता तथा वह भयोत्पादक आकार या घृणोत्पादक पदार्थों को देखकर भी भ्रष्ट नहीं होता है। यदि कभी तीन लोक इकट्ठे होकर उसको अपने श्रद्धान से पतित करना चाहें तो भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि अपने श्रद्धान से पतित नहीं हो सकता।
प्रश्न- क्षायिक सम्यक्त्व किसके कहां पर उत्पन्न होता है?
उत्तर- दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय होने का प्रारंभ तो केवली के मूल में कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाला मनुष्य ही करता है, लेकिन समाप्ति (निष्ठापन) सर्वत्र हो सकती है।
प्रश्न- क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व का स्वरूप समझाइये!
उत्तर- दर्शनमोहनीय के जो तीन भेद होते हैं उनमें से मिथ्यात्व और मिश्रमिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियों के साथ अनंतानुबन्धी चतुष्क का सर्वथा क्षय या उदयाभावी क्षय और उपशम हो चुकने पर तथा सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने पर जो पदार्थों का श्रद्धान होता है उसी को वेदकसम्यक्त्व कहते हैं। यहां पर सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से चल मल और अगाढ दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इन तीनों का लक्षण ग्रंथांतर से जानना चाहिये।
प्रश्न- उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप और उसका वर्णन कीजिये?
उत्तर- ऊपर कहीं हुई सातों प्रकृतियों के उपशम होने से जो पदार्थों का श्रद्धान होता है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व विशुद्धि (निर्मलता) की अपेक्षा समान होते हैं क्योंकि विरोधी कर्मों का उदय दोनों जगह नहीं होता है। विशेषता इतनी ही रहती है कि क्षायिकसम्यक्त्व के विरोधी कर्म का अत्यन्त अभाव हो जाता है और उपशमसम्यक्त्व में विरोधी कर्म दब जाता है नष्ट नहीं होता है। जैसे किसी गंदे जल में निर्मली आदि से ऊपर से निर्मलता होने पर भी नीचे कीचड़ जमी रहती है, किसी जल के नीचे कीचड़ नहीं रहती है। दोनों जल निर्मलता की अपेक्षा समान हैं पर कीचड़ के रहने न रहने की अपेक्षा भेद होता है।
पांच लब्धियों में से करण लब्धि के होने पर सम्यक्त्व या चारित्र नियम से होता है। सम्यक्त्व ग्रहण करने के योग्य सामग्री की प्राप्ति होने को लब्धि कहते हैं। उसके पाँच प्रकार हैं। सम्यक्त्व होने के योग्य कर्मों के क्षयोपशम होने को क्षायोपशमिक लब्धि कहते हैं। निर्मलता की विशेषता को विशुद्धि कहते हैं। योग्य उपदेशक के उपदेश को देशना कहते हैं। पंचेंद्रियादि स्वरूप योग्यता के मिलने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृतिकरण के परिणामों को करणलब्धि कहते हैं इन तीनों करणों का स्वरूप निर्जरा सार से जानना चाहिये। इन पांच लब्धियों में से आदि की चार लब्धियां तो सामान्य हैं, क्योंकि ये लब्धियां भव्य अभव्य दोनों को हो सकती हैं, पर करण लब्धि की ही विशेषता होती है। ये लब्धि भव्य के ही होती हैं और सम्यकत्व या चारित्र की संमुखता होने पर ही होती है अर्थात् करण लब्धि होने पर नियम से सम्यकत्व या चारित्र होता है। जो जीव चारों गतियों में से किसी एक गति का धारक, भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, विशुद्धितायुक्त, जागृत, उपयोगयुक्त और शुभलेश्या का धारक होकर करणलब्धि रूप परिणामों का धारक होता है वह जीव उपशम सम्यकत्व को प्राप्त करता है।
प्रश्न- सम्यग्दर्शन कितनी तरह से हो सकता है?
उत्तर- सामान्यतया सम्यग्दर्शन दो तरह से हो सकता है (१) पूर्व जन्म में गुरु आदि के द्वारा उपदेशादि सुनने पर भी उस समय तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं हुआ हो पर जन्मान्तर में उस संस्कार के बल से बिना दूसरे के उपदेशादि की सहायता के जो सम्यग्दर्शन होता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। (२) देव शास्त्र गुरू तथा उपदेशादि के निमित्त से जो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन का विशेष माहात्म्य जानना हो तो रत्नकरण्ड श्रावकाचार या निर्जरासार का स्वाध्याय करना चाहिये।
अनादिकाल से आत्मा के साथ तमाम कर्म दूध पानी के मेल की तरह एकमेक हो रहे हैं, उनके संबंध से ही आत्मा अपने स्वभाव को नहीं पहचान सका है। जब प्रयत्न करके सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव करता है तब भेद विज्ञान नाम का ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे ही आत्मा आपको और कर्म को भिन्न-भिन्न जानता है।
भेदज्ञान किसे कहते हैं?
भेदो विधीयते येन चेतनाद्देहकर्मणोः।
तज्जातविक्रियादीनां भेदज्ञानं तदुच्यते ॥10॥
[भट्टारक-श्री ज्ञानभूषण विरचित तत्त्वज्ञान तरंगिणी, अष्टम अध्याय]
अर्थ- जिसके द्वारा आत्मा से देह और कर्म का तथा देह और कर्म से उत्पन्न हुई विक्रियाओं का भेद जाना जाता है उसे भेद विज्ञान कहते हैं।
मोहकर्म के निमित्त से पर पदार्थों में निजत्व बुद्धि धारण की, उनको ही
अपना माना, पर अपने स्वरूप की पहिचान कभी नहीं की, मैं कौन हूं, मेरे गुण क्या हैं, मुझे क्या प्राप्त करना है, और वह कैसे प्राप्त हो सकता है" इत्यादि रूप का विचार कभी हुवा ही नहीं हैं, ऐसा विचार तो सम्यक्त्व पूर्वक होने वाले भेदज्ञान से ही हो सकता है। भेदज्ञानी विचार करता है कि मैं न मनुष्य हूं, न देव हूं, न गौर हूं,न काला, रंक, राजा, आदि भी नहीं हूं ये तो पुद्गल के संसर्ग से होने वाली पर्याय हैं, मैं तो शुद्ध चैतन्य का पिंड हूं, अपने स्वरूप में ही सदा अवस्थित हूं, मेरी निधि मेरे पास है, वह किसी रूप में मुझसे अलग नहीं की जा सकती है। वह तो छाया की नाई सदा मेरे साथ रहने वाली है" बड़े- बड़े तपस्वी और श्रुतज्ञानियों ने भी बिना भेदज्ञान के शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति नही कर पाई, जिसने भी शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति की उसने बिना भेदज्ञान के नही की है। जिस प्रकार अग्नि बड़े भारी ईंधन के समूह को देखते- देखते भस्म कर डालती है उसी प्रकार भेद विज्ञानी तमाम कर्म समूह को क्षणभर में नष्ट कर डालता है भेदज्ञानी आत्मा के साथ किसी तरह के कर्म का सम्बन्ध नहीं रह सकता है। जो लोग शुद्ध चिद्रूप को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि ध्यान में अन्य किसी भी पदार्थ की भावना न कर केवल एक भेद विज्ञान की ही भावना को करें आचार्य प्रवर अमृतचन्द्रजी ने अपने समयसार कलश में कहा है-
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन॥१३१॥
[श्री अमृतचन्द्राचार्य विरचित ‘समयसार कलश’ (संवर अधिकार श्लोक 7)]
अर्थ- जितने भी आजतक सिद्ध हुए हैं वे सब भेद विज्ञान से ही हुए हैं। जो अबतक संसार में भ्रमण कर रहे हैं और आगे करेंगे वे भेदविज्ञान के अभाव में ही ऐसा करेंगे। भेदविज्ञानी ही मोक्ष प्राप्त करता है और मोक्ष बिना संवर (आते हुए कर्मों का रोकना) निर्जरा (क्रम-क्रम से शेष कर्मों का क्षय करना) के होता नहीं है। संवर और निर्जरा का लाभ आत्मज्ञान से होता है। इसलिए मोक्षाभिलाषी को चाहिये कि वह भेद विज्ञान को सबमें कार्यकारी जान कर उसी की भावना करे। यह भेदविज्ञान शुद्धचिद्रूप के दिखाने के लिये जाज्वल्यमाना दीपक के समान हैं। जिस प्रकार दीपक के होते ही गाढ अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार भेदविज्ञान के होते ही मोहरूपी गाढ अंधकार नष्ट होकर शुद्धचिदरूप का दर्शन होने लगता है। इसलिए भेद विज्ञान का अभ्यास करो। ऐसा भेदविज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होता है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है। मिथ्याज्ञान आत्मा को संसार की परिपाटी की तरफ ही झुकाता है। राग द्वेष रूप परिणति मिथ्यादृष्टि की ही होती है, सम्यग्दृष्टि तो पदार्थ के स्वरूप का विचार करता हुआ निश्चय करता है कि पर पदार्थों से मेरा कोई सम्बंध नही है। न ये मेरे होते हैं और न मैं इनका हूं, इनके साथ मेरा कोई संबंध नहीं है। जब परपदार्थों से संबंध ही नहीं है तब उनसे राग द्वेष क्यों कर करेगा। उसको तो परमार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है। एक विद्वान कवि ने कहा है-