सुन रे जिया चिरकाल गया,
तूने छोड़ा न अब तक प्रमाद, जीवन थोड़ा रहा॥
जिनवाणी कहती है तेरी कथा, तूने भूल करी सही भारी व्यथा;
अब करले स्वयं की पहिचान, जीवन थोड़ा रहा ॥१॥
जीव तत्त्व है तू, परम उपादेय, अजीव सभी हैं ज्ञान के ज्ञेय;
निज को निज, पर को पर जान, जीवन थोड़ा रहा ॥२॥
आस्रव बन्ध ये भाव विकारी, चेतन ने पाया दुःख इनसे भारी;
मिथ्यात्व को ले पहिचान, जीवन थोड़ा रहा ॥३॥
संवर-निर्जरा शुद्धभाव है, मोक्ष तत्त्व पूर्ण बन्ध अभाव है;
इनको ही हित रूप मान, जीवन थोड़ा रहा ।।४।।