द्यानतराय जी कृत सुखबत्तीसी
दोहा
सिद्ध सरव वंदौं सदा, सुखसरूप चिद्रूप ।
जाकी उपमा देनकौं, वसत न तिहुँजगभूप ॥ १ ॥
सिद्धों का सुखवर्णन
चौपाई
जो कोई नर औगुनधार, नख सिख बंध बँध्यौ निरधार ।
एक सिथिल कीनैं सुख होय, सब टूटैं ता सम नहिं कोय ॥ २ ।।
वाय पित्त तप कफ सिर-वाह, कोढ़ जलोदर दम अरु दाह ।
एक गए कछु साता गहै, सरव गए परमानँद लहै ॥ ३ ॥
एक सास्त्र जो पढ़ै पुमान, कछु संदेह होय हैरान ।
ताकौं समझैं हरष अपार, क्यौं न सुखी सब जाननहार ॥४।।
दोहा
नरक गरभ जनमन मरन, अधिक अधिक दुख होय ।
जहाँ एक नहिं पाइयै, सुखिया कहियै सोय ॥ ५ ॥
नरकदुःख
तन दुख मन दुख खेत दुख, नारक असुर करंत ।
पांचौं दुख ये नरकमैं, नारक जीव सहंत ॥ ६ ॥
तिर्यंचदुःख
भूमि खोदि जल गरम करि, अगिनि दाह दुख जोय ।
पौन वीजना तरु कटैं, त्रस निरोध दुख होय ॥ ७ ॥
चौपाई
छुधा तृषा करि पीड़ित रहै, गलमैं फाँस सीस तप सहै ।
मार खाय अरु मोल विकाय, विन विवेक पसुगति दुख दाय।।८।।
खग मृग मीन दीन अति जीव, मारैं हिंसक भाव सदीव |
तेहू मरैं महा दुख पाय, भौ भौ वैर चल्यौ सँग जाय ॥९॥
मनुष्यगतिदुःख
हीन होय अरु गर्भ विलाय, जनमत मरै ज्वान मर जाय ।
इष्ट वियोग अनिष्ट सँयोग, महादुखी नर व्यापै सोग ॥ १० ॥
मूतनि हानि महा दुख वीर, द्रव्य उपावन गहर गँभीर ।
चाहदाहदुख कह्यौ न जाय, धन्न सिद्ध अविनासी काय ।।११।।
दोहा
रूखा भोजन करज सिर, और कलहिनी नार ।
चौथे मैले कापड़े, नरक निसानी चार ॥ १२ ॥
उद्दिम विन अरु मांगना, वेटी चलनाचार ।
सब दुख जिनके मिट गए, तेई सुखी निहार ॥ १३ ॥
चौपाई
रस-लोहू-अरु मांस वखान, मेद हाड़ अरु मज्जा जान |
वीरज सात धात नहिं नहां, सुद्ध सरूप विराजैं तहां ॥ १४॥
कान आंख मुख नाक मल, मूत पुरीप पसेव ।
सातौं मल जाकैं नहीं, सोई सुखिया देव ॥ १५ ॥
देवगतिदुःख
चौपाई
हीन होय पर - संपत्ति देख, मरन बार दुख करै विसेख ।
देव मरै एकेंद्री होय, जनम मरन बसि डौलै सोय ॥१६॥
चार्यौं गतिमैं दुःख अपार, पांचपरावर्तन संसार ।
करम काटि जे सिव-पुर गए, तिनके सुख कौनैं वरनए ॥१७।।
सिद्धस्वरूपवर्णन
दोहा
तीन लोकके सीसपै, ईस रहैं निरधार ।
छहौं दरस मानैं सदा, एक अंग लखि सार ॥१८॥
चौपाई
सुर नर असुर - नाथ थुति करैं, साध तपैं सो पद मन धरैं ।
ध्यावैं ब्रह्मा विष्णु महेस, विन जानैं बहु करैं कलेस ॥१९॥
जो जो दीसैं दुख जगमाहिं, ताकौ एक अंस हू नाहिं |
जा दुखकौं सुख जानै जीव, सरव करम तन भिन्न सदीव ॥ २०।।
इह भव भै पर भव भै दोय, रोग भरन भै सबकौं होय |
रच्छक नहीं चोर भै महा, अकस्मात जीतैं सुख लहा ॥२१।।
देसभूप परभूप विगार, बहु वरसै वरसै न लगार ।
भूसे तोते टीड़ी वधैं, सात ईति बिन सब सुख सधैं॥ २२ ॥
फरस दंति रस मीन पतंग, रूप गंध अलि कान कुरंग ।
एक एक वस खोवैं प्रान, पांचौं नहीं सुखी सो मान ॥२३ ।।
व्यापै क्रोध लराई करै, व्यापै काम नारि वस परै ।
व्यापै मोह गहै दुख भूर, जहां नहीं सो सुख भरपूर ॥२४।।
दोष अठारह जिनकैं नाहिं, गुन अनंत प्रगटे निजमाहिं ।
अमर अजर अज आनँदकंद, ग्यायक लोकालोक सुछंद।।२५।।
व्यापै भूख जलै सब अंग, व्यापै लोभ दाह सरवंग ।
तन दुरगंध महादुखवास, जहां नहीं सोई सुखरास ॥ २६।।
दोहा
अमल अनाकुल अचल पद, अमन अवचन अकाय ।
ग्यानस्वरूप अमूरती, समाधान मन ध्याय ॥ २७ ॥
नरक पसू दोन्यौं दुखरूप, बहु नर दुखी सुखी नरभूप ।
तातैं सुखी जुगलिए जान, तातैं सुखी फनेस बखान ॥२८ ।।
तातैं सुखी सुरगकौ ईस, अहमिंदर सुख अति निस दीस।
सब तिहुँ काल अनंत फलाय, सो सुख एक समै सिवराय।।२९।।
दोहा
परम जोति परगट जहां, ज्यौं जलमैं जलबुंद ।
अविनासी परमातमा, निराकार निरदुंद ॥ ३० ॥
सिद्धनिके सुख को कहै, जानै बिरला कोय |
हमसे मूरख पुरुषकौं नाम महा सुख होय ॥ ३१ ॥
द्यानत नाम सदा जपै, सरधासौं मनमाहिं ।
सिववांछा वांछाविना, ताकौं भौदुख नाहिं ॥ ३२ ॥
इति सुखबसीसी
रचयिता: पंडित श्री द्यानतरायजी
सोर्स: धर्म विलास ( द्यानतविलास)