(तर्ज: जिनवाणी साँची माँ… )
शुद्धातम-शुद्धातम, हूँ कारण परमातम।
हूँ कारण परमातम, हूँ शाश्वत शुद्धातम ॥ टेक॥
जो स्वभाव से विमुख परिणति, वह ही मात्र अशुद्ध हुई ।
मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र रूप हुई॥
पर्यायों से पार देख लो, आप स्वयं ही परमातम ॥1॥
जहाँ दुःख है वहीं दुख का कारण, समझे हे आत्मन्।
पर से सुख-दुःख कभी न होवे, निश्चय जानो हे आत्मन्॥
स्वाश्रय से ही दुःख मिटेगा, अब आराधो निज आतम ॥2॥
ज्ञानानंद तो अंतर में है, व्यर्थ न भटको बाहर में।
भ्रान्ति छोड़ो शान्ति पाओ, सहज स्वयं ही अंतर में ॥
द्रव्यदृष्टि से ज्ञान-ध्यान से, बनो स्वयं ही परमातम॥3॥
जो नहिं समझे निज शुद्धातम, कभी न होता परमातम।
चतुर्गति में रुलता रहता, बना स्वयं ही बहिरातम॥
चेतो! चेतो!! उत्तम अवसर, मार्ग दिखावें परमातम॥4॥
अद्भुत से अद्भुत है प्यार, सकल विभावों से है न्यारा।
पर का कर्ता नहिं स्वभाव से, मात्र है देखन-जाननहारा।।
अहो! सहज स्वाधीन निरामय, परम ध्येय है ध्रुव आतम॥5॥
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण