शुद्धातम ही ध्रुव परमेष्ठी | Suddhatam hi dhruv parmesthi

(तर्ज : आओ भाई तुम्हें सुनायें… )

शुद्धातम ही ध्रुव परमेष्ठी, झाँको अपने अंतर में।
अंतरंग में शान्ति मिलेगी, व्यर्थ न भटको बाहर में॥ टेक॥

स्वाश्रय से ही कर्म नष्ट हों, आतम ही शाश्वत अरहंत।
दोष रहित सर्वज्ञ स्वभावी, महिमा का दीखे नहीं अन्त ॥1॥

अशरीरी निष्कर्म ज्ञामय, सहज सिद्ध आतम भगवान।
अहो ! प्रगट हो सिद्ध दशा, जिससे सर्वोत्तम महिमावान॥ 2॥

यथाख्यात चारित्र भी प्रगटे, जिसमें से त्रिभुवन हितकार।
है निश्चय आचार्य आत्मा, मंगलमय मंगल दातार॥ 3॥

निज आतम ही उपाध्याय है, सर्व ज्ञान का जो आधार।
ज्ञानमूर्ति ज्ञायक के आश्रय से ही होवें भव से पार॥ 4॥

आत्म साधना साधु दशा है, प्रचुर स्व-संवेदनमय जान।
निर्विकार निज शुद्धातम ही, जानो शाश्वत साधु महान॥ 5॥

ज्ञान मात्र निन अचल भाव का जो अवलम्बन ले सुखदान।
साधक होकर अल्पकाल में होते स्वयं सिद्ध भगवान॥ 6॥

नहीं पहिचाने जो शुद्धातम, भव-भव में दुःख पाते हैं।
भेदज्ञान से करो स्वानुभव, श्री गुरु वो समझाते हैं॥ 7॥

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण