अध्यापक - सर्व छात्रों को सूचित किया जाता है कि कल रक्षाबंधन महापर्व है। इस दिन अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ था। अत: यह दिन हमारी खुशी का दिन है। इसके उपलक्ष में कल शाला का अवकाश रहेगा।
छात्र - गुरुदेव ! अकंपनाचार्य कौन थे, उन पर कैसा उपसर्ग आया था, वह कैसे दूर हुआ ? कृपया संक्षेप में समझाइये।
अध्यापक - सुनो!
अकंपनाचार्य एक दिगम्बर संत थे, उनके साथ सात सौ मुनियों का संघ था और वे उसके आचार्य थे। एक बार वे संघ सहित विहार करते हुए उज्जैन पहुँचे। उस समय उज्जैनी के राजा श्रीवर्मा थे। उनके यहाँ चार मंत्री थे - जिनके नाम थे - बलि, नमुचि, बृहस्पति और प्रह्लाद ।
जब राजा ने मुनियों के आगमन का समाचार सुना तो वह सदलबल उनके दर्शनों को पहुँचा। चारों मंत्री भी साथ थे। सभी मुनिराज आत्मध्यान में मग्न थे। अतः प्रवचन-चर्चा का कोई प्रसंग न बना।
मंत्रिगण मुनियों के आस्थावान न थे, अत: उन्होंने राजा को भड़काना चाहा और कहा “मौनं मूर्खस्य भूषणम्” - मौन मूर्खता छिपाने का अच्छा उपाय है, यही सोचकर साधु लोग चुप रहे हैं।
श्रुतसागर मुनिराज आहार करके आ रहे थे। उन्हें देख एक मंत्री बोला - एक बैल (मूर्ख) वह आ रहा है और वे मंत्री मुनिराज से वादविवाद के लिए उलझ पड़े। फिर क्या था, मुनिराज ने अपनी प्रबल युक्तियों द्वारा शीघ्र ही उनका मद खंडित कर दिया।
राजा के सामने उन चारों का अभिमान चूर्ण हो गया। उस समय तो वे लोग चुपचाप चले गये पर रात्रि में चारों ने ही वहाँ आकर मुनिराज पर प्रहार करने को एकसाथ तलवार उठाई; किन्तु उनके हाथ कीलित होकर उठे ही रह गये। प्रात: यह समाचार जब राजा और जनता ने सुना तो सब वहाँ आ गये। मुनिराज की सबने स्तुति की और राजा ने चारों मंत्रियों को देशनिकाला दे दिया।
छात्र - वे मुनिराज रात को वहाँ कैसे रहे ? उन्हें तो जहाँ संघ ठहरा था, वहीं ध्यानस्थ रहना चाहिए था।
अध्यापक - जब उन्होंने उक्त विवाद की चर्चा आचार्यश्री से की तो उन्होंने कहा कि तुम्हें उनसे चर्चा ही नहीं करनी चाहिए थी; क्योंकि जिसप्रकार साँप को दूध पिलाने से विष ही बनता है, उसीप्रकार तीव्र कषायी जीवों से की गई तत्त्वचर्चा उनके क्रोध को ही बढाती है। हो सकता है कि वे कषाय की तीव्रता में कोई उपसर्ग करें। अत: तुम उसी स्थान पर जाकर रात को ध्यानस्थ रहो।
छात्र- फिर…?
अध्यापक- वे चारों मंत्री हस्तिनापुर के राजा पद्मराय के यहाँ जाकर कार्य करने लगे। किसी बात पर प्रसन्न होकर पद्मराय ने उन्हें मुँह माँगा वरदान माँगने को कहा। उन्होंने उसे यथासमय लेने की अनुमति ले ली।
एक बार वे अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनिराज विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। उन्हें आया देख बलिनेराजा पद्मराय से सात दिन के लिए राज्य मांग लिया। राज्य पाकर वह मुनिराजों पर घोर उपसर्ग करने लगा।
तब राजा पद्मराय के भाई जो पहिले मुनि हो गये थे, उन मुनिराज विष्णुकुमार ने उनकी रक्षा की।
छात्र- ऐसे दुष्ट शक्तिशाली राजा से निःशस्त्र मुनिराज ने कैसे रक्षा की?
अध्यापक - मुनिराज को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त थी।
छात्र - विक्रिया ऋद्धि क्या होती है ?
अध्यापक - विक्रिया ऋद्धि उसे कहते हैं, जिसके बल से अपने शरीर को चाहे जितना बड़ा या छोटा बना लें। मुनिराज ने अपना पद त्याग कर बावनिया का भेष बनाया और बलि के दरबार में पहुँचे। बलि ने उनसे इच्छानुसार वस्तु माँगने की प्रार्थना की। उन्होंने अपने कदमों से तीन भूमि माँगी। जब बलि ने तीन कदम भूमि देना स्वीकार कर लिया तो उन्होंने अपने शरीर को बढ़ा लिया और समस्त भूमि को दो पगों में ही नाप लिया। इस तरह बलि को परास्त कर मुनिराजों ने रक्षा की। वह दिन श्रावण की पूर्णिमा का था। अत: उसी दिन से रक्षाबंधन पर्व चल पड़ा । मुनिराजों की रक्षा हुई और बलि का बंधन हुआ।
छात्र - क्या मुनि की भूमिका में भी यह सब हो सकता है ?
अध्यापक - नहीं भाई ! तुमने ध्यान से नहीं सुना । हमने कहा था कि उन्होंने मुनिपद छोड़कर बावनिया का भेष बनाया। यह कार्य उनके पद के योग्य न था, तभी तो उनको प्रायश्चित्त लेना पड़ा, दुबारा दीक्षा लेनी पड़ी।
छात्र - धन्य है उन मुनि विष्णुकुमार को।
अध्यापक - वास्तव में धन्य तो वे अकंपनाचार्य आदि मुनिराज हैं, जिन्हें इतनी विपत्तियाँ भी आत्मध्यान से न डिगा सकीं।
छात्र - हाँ ! और वे श्रुतसागर मुनि, जिन्होंने बलि आदि से विवाद कर उनका मंद खंडित किया।
अध्यापक - उनकी विद्वता तो प्रशंसनीय है, पर दुष्टों से उलझना नहीं चाहिए था। आत्मा की साधना करनेवाले को दुष्टों से उलझना ठीक नहीं।
छात्र - क्यों?
अध्यापक - देखो न, उसी के परिणामस्वरूप तो इतना झगड़ा हुआ। अतः प्रत्येक आत्मार्थी को चाहिए कि वह जगत् के प्रपंचों से दूर रहकर तत्त्वाभ्यास में प्रयत्नशील रहे। यही संसार-बंधन से रक्षा का सच्चा उपाय है।
Teacher - Students are informed that the great festival of Rakshabandhan falls tomorrow. On this day the infliction of physical torture on Akampanacharya and his seven hundred disciples was stopped. As such this is a day of rejoicing for us. The school shall remain closed tomorrow on account of this.
Student - Sir, who was Akampanacharya, what sort of physical torture was inflicted upon him and how was it stopped? Please explain in brief.
Teacher - Listen. Akampanacharya was a Digamber (nude) monk; he had seven hundred disciples in his assembly the king of Ujjain, then. He had four ministers–Bali, Namuchi, Brahaspati and Prahlad.
When the king knew of the arrival of the monks, he went there with all his paraphernalia for their Darshan. All the four ministers were with him. All the monks, then, were absorbed in contemplation. Therefore, there was no talk or discourse.
The ministers had no faith in Digamber (nude) monks. They, therefore, wanted to insinuate the king against them and told him that the silence of the monks was a sign of their foolishness and that it was a good instrument for hiding their ignorance. It was on account of this that the monks had kept silent.
Monk Shrutsagar was coming back after taking meals. Seeing him one of the ministers called him an ox and entangled him in the discussion. On his turn, the monk by his strong reasoning shattered their pride to pieces. Their sense of pride was hurt in the presence of the king. They departed from that place in silence, but all the four visited the spot in the night and raised their swords altogether to attack the monk, but their hands, as if nailed, remained in that position only. When the king and the people learned all this in the morning, they arrived there. All offered their prayers to the monk and the king exiled all the four ministers.
Student - How did the particular monk stay on that spot in the night? He should have kept himself busy in meditation, where the whole company of monks was staying.
Teacher - When he told the Acharya of the discussion he had with the ministers, the Acharya told him that he should not have indulged in any dialogue with them. Even when we offer milk to a snake, it transforms the milk into poison. Similarly, discussion with cruel, passionate, worldly-minded beings inflames their wrath only. The Acharya also thought that the ministers might inflict physical torture on the monk, and, therefore, he asked him to go to the spot and keep busy in contemplation throughout the night there.
Student - Then?
Teacher - All the four ministers went to Hastinapur and began to serve King Padamrai. Having been pleased with them for some good achievement, he asked them to demand any gift whatsoever. They requested the king to bestow the gift on them on some other occasion, according to their convenience.
Once Akampanacharya with his seven hundred disciples arrived in Hastinagpur. The four ministers demanded seven days’ ruling powers from the king, for themselves. Having assumed the right of governing the kingdom, they started inflicting severe tortures on the monks.
Monk Vishnu Kumar, brother of King Padamrai, who had accepted the order of monkhood before, saved the monks from that torture.
Student - How did an armless monk (Vishnu Kumar) offer protection to the monks from the tortures of strong and cruel administrators?
Teacher - Vishnu Kumar had the power of assuming different forms and shapes. He left the order of monkhood and assumed the shape of a dwarf and reached the court of Bali. Bali asked him to demand any gift. He demanded three steps of land, the measure being his own feet. Then he assumed the form of a formidable human being and measured the whole land in two steps only. This way he defeated Bali and saved the lives of the monks. That was the last day of the month of Shravan.
The day began to be observed as Raksha-Bandhan since then. The lives of the saints were saved and Bali was put in chains.
Student - Can somebody in the role of a monk do all this?
Teacher - No, you have not listened to the story with attention. I told you that Vishau Kumarji had left the monkhood and assumed the shape of a dwarf. All this was not befitting his position. Therefore, he offered repentance and got initiated into monkhood for the second time.
Student - Glory to monk Vishnu Kumar!
Teacher - In fact, glorious were Akampanucharya and his disciples, who were not detracted from their spiritual state of contemplation in the face of inhuman torture inflicted upon them.
Student - Blessed is monk Shrutsagar, who shattered the pride of Bali and other ministers in the discussion.
Teacher - His erudition of spiritual matters is praiseworthy, but he should not have entangled himself in discussion with those wicked ministers. Those who are engaged in the pursuit of their souls, should not indulge in discussions with wicked people.
Student - Why so?
Teacher - So much trouble arose on account of such indulgence only. Therefore, one striving for self-realization should engage himself in metaphysical thinking. leaving aside all worldly affairs. That is the only way to emancipation from the bondage of worldly life.
Source: Veetrag Vigyan Part 1