सिद्ध चतुर्दशी | Siddha Chaturdashi

सिद्ध चतुर्दशी

(दोहा)
परमदेव परणाम कर, परम सुगुरु आराध।
परम ब्रह्म महिमा कहूँ, परम धरम गुण साध॥

(कवित्त)
आतम अनोपम है दीषैं राग द्वेष बिना,
देखो भव्य जीव! तुम आप में निहारकैं।
कर्म को न अंश कोऊ भर्म को न वंश कोऊ,
जाकी शुद्धताई में न और आप टार कैं॥१॥

जैसो शिव खेत बसै तेसो ब्रह्म इहाँ लसै ।
इहाँ उहाँ फेर नाहि देखिये विचार कैं।
जेई गुण सिद्ध मांहि तेई गुण ब्रह्म मांहि,
सिद्ध ब्रह्म फेर नाहिं निश्चय निरधार कैं॥२॥

सिद्ध के समान है विराजमान चिदानन्द,
ताही को निहार निजरूप मान लीजिये।
कर्म को कलङ्क अङ्ग पंक ज्यों पखार हरयो,
धार निजरूप परभाव त्याग दीजिए।
थिरता के सुख को अभ्यास कीजे रैन दिना,
अनुभो के रस को सुधार भले पीजिये।
ज्ञान को प्रकाश भास मित्र की समान दीसै,
चित्र ज्यों निहार चित ध्यान ऐसो कीजिये ॥३॥

भावकर्म नाम राग-द्वेष को बखान्यो जिन,
जाको करतार जीव भर्म सङ्ग मानिये।
द्रव्य कर्म नाम अष्ट कर्म को शरीर कह्यो,
ज्ञानावर्णी आदि सब भेद भलै जानिये॥
नो करम संज्ञातैं शरीर तीन पावत हैं,
औदारिक वेक्रीय आहारक प्रमानिये।
अन्तराल समै जो आहार बिना रहै जीव,
नो करम तहाँ नाहिं याही तैं बखानिये ॥४॥

(सवैया तेईसा)
लोपहि कर्म हरै दुःख भर्म सुधर्म सदा निजरूप निहारो।
ज्ञान प्रकाश भयो अघनाश, मिथ्यात्व महातम मोह न हारो॥
चेतनरूप लखो निज मूरत, सूरत सिद्ध समान विचारो।
ज्ञान अनन्त वहै भगवन्त, वसै अरि पंकतिसों नित न्यारो॥५॥

(छप्पय छन्द)

त्रिविध कर्म तें भिन्न, भिन्न पररूप परस्तैं ।
विविध जगत के चिह्न, लखै निज ज्ञान दरसतैं ॥
बसै आप थलमाहि, सिद्ध सम सिद्ध विराजहि।
प्रगटहि परम स्वरूप, ताहि उपमा सब छाजहि॥
इह विधि अनेक गुण ब्रह्ममहिं, चेतनता निर्मल लसै।
तस पद त्रिकाल वन्दत भविक, शुद्ध स्वभावहि नित बसैं॥६ ॥

अष्ट कर्म तैं रहित, सहित निज ज्ञान प्राण धर।
चिदानन्द भगवान, वसत तिहुँ लोक शीश पर ॥
विलसत सुजसु अनन्त, सन्त ताको नित ध्यावहि।
वेदहि ताहि समान, आयु घट माहिं लखावहि॥
इम ध्यान करहि निर्मल निरखि, गुण अनन्त प्रगटहिं सरव।
तस पद त्रिकाल वन्दत भविक, शुद्ध सिद्ध आतम दरव ॥७॥

ज्ञान उदित गुण उदित, मुदित भइ कर्म कषायें।
प्रगटत पर्म स्वरूप, ताहिं निज लेत लखायें।।
देत परिग्रह त्याग, हेत निहचैं निज मानत।
जानत सिद्ध समान, ताहि उर अन्तर ठानत॥
सो अविनाशी अविचल दरब, सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम।
निर्मल विशुद्ध शाश्वत सुथिर, चिदानन्द चेतन धरम ॥८॥

(कवित्त)

अरे मतवारे जीव, जिनमत वारे होहु;
जिनमत आन गहो, जिन मत छोरकैं।
धरम न ध्यान गहो, धरमन ध्यान गहो;
धरम स्वभाव लहो, शकति सुफोरकैं॥
परसों न नेह करो, परम सनेह करो;
प्रगट गुण गेह करो, मोह दल मोरकैं।
अष्टादश दोष हरो, अष्ट कर्म नाश करो;
अष्ट गुण भास करो, कहूँ कर जोर कैं॥९॥

वर्ण में न ज्ञान नहिं ज्ञान रस पंचन में,
फर्स में न ज्ञान नहीं ज्ञान कहूँ गन्ध में।
रूप में न ज्ञान नहीं ज्ञान कहुँ ग्रन्थन में,
शब्द में न ज्ञान नहीं ज्ञान कर्म बन्ध में।
इन तैं अतीत कोऊ आतम स्वभाव लसैं,
तहाँ बसै ज्ञान शुद्ध चेतन के खन्ध में।
ऐसो वीतरागदेव कह्यो है प्रकाशभेव,
ज्ञानवंत पावै ताहि मूढ़ धावै ध्वंध में ॥१० ॥

वीतराग बैन सो तो ऐसे विराजत है,
जाके परकाश निज भास पर लहिये।
सूझै षट दर्व सर्व गुण परजाय भेद,
देव,गुरु,ग्रन्थ पन्थ सत्य उर गहिये॥
करम को नाश जामें आतम अभ्यास कह्यो,
ध्यान की हुतास अरि पंकति को दहिये।
खोल दृग देखि रूप अहो अविनाशी भूप,
सिद्ध की समान सब तोपैं रिद्ध कहिये॥११॥

राग की जु रीत सु तो बड़ी विपरीत कही,
दोष की जु बात सु तो महा दुख:दाह है।
इनही की संगतिसों कर्म बन्ध करै जीव,
इनही की संगतिसों नरक निपात है।
इनही की संगतिसों बसिये निगोद बीच,
जाके दुःखदाह को न थाह कह्यौ जात है।
ये ही जगजाल के फिरावन को बड़े भूप,
इनही के त्यागे भवभ्रम न विलात है॥१२॥

(मात्रिक कवित्त)
असी चार आसन मुनिवर के, तामें मुक्ति होन के दोय।
पद्मासन खड्गासन कहिये, इन बिन मुक्ति होय नहि कोय॥
परम दिगम्बर निजरस लीनो, ज्ञान-दरश थिरतामय होय।
अष्ट कर्म को थान भ्रष्ट कर, शिव-संपति बिलसत है सोय॥१३॥

(दोहा)
जैसो शिव खेतहि बसैं, तैसो या तनमाहिं।
निश्चयदृष्टि निहार तैं, फेर रंच कहूँ नाहिं ॥१४॥

रचयिता - अज्ञात

Singer: Shashwat Ananya Jain

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